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सत्संग परम औषध है – पूज्य बापू जी


परमात्मा को अपना परम हितैषी मानें, परम मित्र जानें । इस जगत में परमात्मा जितना हितचिंतक दूसरा कोई नहीं है । जागतिक आसक्ति और कामनाएँ हमें अशांति की ओर ले जाती हैं, बहिर्मुख करके परतंत्रता का बोध कराती हैं । किंतु परमात्मा के प्रति जो प्रेम होता है वह हमें अशांति, चिंता और भय से मुक्त करके शांति के पावन मार्ग की ओर ले जाता है । वह हमें अंतर्मुख करके संतोष, आनंद और स्वातंत्र्य का अनुभव कराता है ।

परमात्म-प्रेम चैतन्योन्मुख बनाता है और विकार जड़ोन्मुख बनाते हैं । विकारी सुख का उपभोग करने के लिए जड़ शरीर की और जड़ इन्द्रियों की मदद लेनी पड़ती है जो हमें देहाध्यास में जकड़ देती है, जबकि ईश्वरीय प्रेम जड़ आसक्तियों को छोड़ने का साहस प्रदान करता है और अपने चैतन्यस्वरूप के आनंद प्रसाद में विश्रांति दिलाकर अंतर्यामी ईश्वर के साथ हमारा मिलन करा देता है ।

एक सत्संगी महिला कार में मथुरा से वृंदावन की ओर जा रही थी । कार में उसके दो छोटे पुत्रों के अलावा पड़ोसी का वह छोटा शिशु भी था जिसकी माँ का निधन हो चुका था । कार पूरी गति से जा रही थी । इतने में सामने से तेज रफ्तार से आता हुआ  टैंकर कार से बुरी तरह टकराया और भयंकर दुर्घटना घट गयी । कार चालक और महिला के दोनों पुत्रों की मृत्यु हो गयी । महिला को भी काफी चोट पहुँची । तीन जगह फ्रैक्चर हो गया । किंतु माँ बिना के उस छोटे शिशु को कुछ न हुआ जिसे महिला ने गोद ले लिया था ।

जिन संत के सत्संग में वह महिला जाती थी, उनको जब इस बात का पता चला तो उन्होंने एक मुख्य साधु तथा आश्रमवासी साधक को उस महिला का समाचार जानने के लिए भेजा । उस महिला के पास जाकर साधु ने कहाः “बहन ! आप तो सत्संगी हैं, फिर आपको इतना दुःख क्यों उठाना पड़ा ? कितनी भीष्ण दुर्घटना घटी ! आपके दोनों पुत्रों का निधन हो गया ।  आपको भी काफी चोट पहुँची हैं । आपके घर का पवित्र भोजन करने वाला ड्राईवर भी बेमौत मारा गया । किंतु आश्चर्य है कि गोद लिए मासूम शिशु को कुछ न हुआ ! उसने तो कोई सत्संग नहीं सुना था । ऐसा क्यों हुआ ?”

उस साधु को जो जवाब मिला वह सबके लिए जानने योग्य है । उस सत्संगी महिला ने मंद मुस्कान के साथ कहाः “स्वामी जी ! ऐसा नहीं है कि सत्संग सुनने से जीवन में किसी प्रकार का सुख-दुःख का कोई प्रसंग ही न आये । फिर भी सत्संग में ऐसी एक अनुपम शक्ति है कि प्रारब्धवेग से जो भी सुख-दुःख के प्रसंग आते हैं उनमें सत्यबुद्धि नहीं रहती । इतनी भीष्ण दुर्घटना और इतनी भयंकर पीड़ा होते हुए भी मुझे तो ऐसा अनुभव होता है कि चोट इस नश्वर शरीर को पहुँची है, कष्ट शरीर भुगत रहा है और नष्ट तो पुत्रों का पंचभौतिक शरीर हुआ है । मेरे शरीर में तीन जगह फ्रैक्चर हुआ किंतु मेरे चैतन्यस्वरूप में कोई फर्क नहीं पड़ा । महाराज ! इस आत्मबल से मैं ऐसे क्षणों में भी शांत आनंदित हूँ ।

सत्संग ऐसा परम औषध है जो बड़े-से-बड़े दुःखद प्रारब्ध को भी हँसते-हँसते सहन करने की शक्ति देता है और अच्छे से अच्छे अनुकूल प्रारब्ध को भी अनासक्त भाव से भोगने का सामर्थ्य देता है ।

स्वामी जी ! आकाश में उड़ना या पानी पर चलना कोई बड़ी सिद्धि नहीं है । यह तो क्रियायोग के थोड़े से अभ्यास से सहज में ही मिलने वाली सिद्धियों का अंशमात्र है । बड़े से बड़े दुःख में भी सम और स्वस्थ (स्व में अर्थात् आत्मस्वरूप में स्थित) रहने के सामर्थ्य को ही संतजन सच्ची सिद्धि मानते हैं । मिथ्या देह से अहंता-ममता मिटाकर आत्मा-परमात्मा में प्रतिष्ठित होना ही वास्तव में परम सिद्धि है ।”

महिला के जवाब को सुनकर साधु और साधक प्रसन्नचित्त से विदा हुए । उन्हें विश्वास हो गया कि महिला ने वास्तव में संतों के ज्ञान-प्रसाद को बड़े आदर के साथ आत्मसात किया है ।

उन्हीं का जीवन धन्य है जो ब्रह्मवेत्ता संतों का सत्संग सुनते हैं, उसे समझ पाते हैं और जीवन में उतार पाते हैं । जिनके जीवन में सत्संग नहीं है वे छोटी-छोटी बात में परेशान हो जाते हैं, घबरा जाते हैं किंतु जिनके जीवन में सत्संग है वे बड़ी-से-बड़ी विपदा में भी रास्ता निकाल लेते हैं और बलवान होते हैं, सम्पदा में फँसते नहीं, विपदा में दबते नहीं । ऐसे परिस्थिति विजयी आत्मारामी हो जाते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2021, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 342

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सीखने के लिए या मिटने के लिए ?


एक बार महर्षि रमण के पास कोई व्यक्ति पहुँचा और बोलाः “महात्मन् ! मैं आपके चरणों में कुछ सीखने के लिए आया हूँ ।”

महर्षि जी ने कहाः “तुम मेरे चरणों में सीखने के लिए आये तो तब तो तुम गलत स्थान पर आ गये । जाओ, किसी अन्य से सीखना । अगर तुम मेरी शरण में मिटने के लिए आये हो, अपने-आपको खोने के लिए आये हो, जो तुम सीखे हो उसे भुला देने के लिए आये हो तो तुम आ सकते हो ।”

ये दोनों दुर्लभ हैं

लभ्यते खलु पापीयान् नरो नु प्रियवागिह ।

अप्रियस्य हि पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः ।।

‘सदा मन को प्रिय लगने वाले वचन बोलने वाला महापापी मनुष्य भी इस संसार में अवश्य मिल सकता है परंतु अप्रिय होते हुए भी हितकर वचन को कहने और सुनने वाले दोनों दुर्लभ हैं ।’ (महाभारतः सभा पर्वः 64.16)

कैसे हो निरंतर भगवच्चिंतन ?

प्रश्नः भगवान का निरंतर चिंतन कैसे हो ?

उड़िया बाबा जीः अपने शरीर का चिंतन करने के लिए क्या किसी प्रयत्न की आवश्यकता है ? (इसी प्रकार भगवान भी तो अपने आत्मा ही हैं ।) पहले भगवान का चिंतन करना पड़ता है परंतु पीछे तो वैसा स्वभाव ही बन जाता है । बालक को पहले कितना परिश्रम करना पड़ता है पर पीछे तो विद्या अभ्यस्त हो ही जाती है ।

प्रश्नः आरम्भ में अभ्यास में कैसे प्रवृत्ति होती है ?

बाबा जीः सत्संग से ही अभ्यास में प्रवृत्ति होती है । गुरु जी की जैसी आज्ञा हो, आँख मूँदकर वैसा ही करे । आरम्भ में स्वरूपज्ञानादि का विचार न करे (अपितु सत्संग सुनकर आज्ञापालन पर जोर दे) ।

अमृतबिंदु – पूज्य बापू जी

भगवन्नाम के जप व भगवद्-ध्यान का नियम रखना चाहिए । विद्यार्थी अगर त्रिकाल संध्या का नियम रख ले तो कुछ ही समय में  उसकी अच्छी आदतों का विकास होगा और बुरी आदतें क्षीण होने लगेंगी । उसे ऐसी पढ़ाई पढ़नी चाहिए कि जीवन में धैर्य, शांति, मिलनसार स्वभाव, कार्य में तत्परता, ईमानदारी, निर्भयता और आध्यात्मिक तेज बढ़े । सब छोड़कर मरना पड़े उसके पहले जिसका सब कुछ है उस सर्वेश्वर का अपने आत्म-परमात्मरूप में अनुभव हो जाय ।

भगवत्प्राप्ति के लिए बाह्य योग्यताओं, प्रमाणपत्रों की कोई जरूरत नहीं है और उनकी कोई कीमत भी नहीं है । भगवत्प्राप्ति के लिए एक ही जरूरत है कि भगवान को पाने का ईमानदारी का यत्न हो ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2021, पृष्ठ संख्या 19 अंक 342

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परमात्मप्राप्ति में बाधक असुर और उन्हें मारने के उपाय – पूज्य बापू जी


पद्म पुराण के उत्तर खंड में आया है कि जय विजय भगवान के पार्षद थे । ‘जय’ माने अहंता और ‘विजय’ माने ममता । भगवान सच्चिदानंद होने पर भी अहंता और ममता के कारण अनुभव में नहीं आते । जय विजय भगवान के पार्षद बने हुए हैं लेकिन उन्हें अपनी अहंता है, अपने पद की ममता है ।

सनकादि ऋषि ब्रह्मवेत्ता थे, उनको अपना सच्चिदानंद स्वभाव हस्तामलकवत् (हाथ पर रखे हुए आँवले की तरह  सुस्पष्ट एवं प्रत्यक्ष) था । सनकादि ऋषि योगबल से पहुँचे भगवान नारायण से मिलने । जय विजय ने उनका अपमान करके 3-3 बार रोक दिया ।

सनकादि ऋषियों ने कहाः “तुम भगवान के धाम में हो फिर भी तुम्हारी अहंता-ममता नहीं गयी ! तुम दैत्य जैसा व्यवहार कर रहे हो और भगवान के पार्षद कहलाते हो ! 3 बार रोका तो जाओ, तुमको 3 बार दैत्य योनि में भटकना पड़ेगा !”

सनकादि ऋषियों की नाराजगी भरी आवाज सुनकर भगवान नारायण आये । जय विजय को बोलेः “तुम बहुत उद्दण्ड हो गये थे, मुझे सजा देनी थी तो संत मेरा ही रूप हैं । ऋषियों ने जो उपदेश या शाप दिया है, वह उचित ही दिया है, ऐसा ही हो ।”

जय विजय गिड़गिड़ाने लगे ।

भगवान ने कहाः “आखिर तुम मेरे सेवक हो, तुमको 3-3 बार जन्म लेना पड़ेगा तो हम भी आ जायेंगे तुम्हारे को उस-उस जन्म से पार करने के लिए ।

ये ही जय विजय हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु बने । हिरण्याक्ष को भगवान ने वाराह अवतार धारण करके मारा और हिरण्यकशिपु को मारने के लिए भगवान ने नृसिंह रूप धारण किया ।

सनक ऋषि ने कहाः “अच्छा, भगवान ! आप जाओगे अपने सेवकों को शुद्ध करने तो यह लीला देखने, आपके अवतरण में सहयोगी हम भी आयेंगे ।

भगवान ! आप भक्त की पुकार से आओगे तो हम आपके भक्त बन जायेंगे । हम हिरण्यकशिपु के घर प्रह्लाद हो के आयेंगे । वह हमको भगवद्भक्ति करने से रोकेगा – टोकेगा, डाँटेगा… यही हमारा विरोधी वहाँ ज्यादा उधम करेगा तो आप वहाँ प्रकट होना ।”

तो सनक ऋषि प्रह्लाद बन के आये । भगवान प्रह्लाद की तपस्या, समता के प्रभाव से, हिरण्यकशिपु की उद्दण्डता को नियंत्रित करने के लिए एवं समाज को ज्ञान, भक्ति व लीला-अमृत चखाने के लिए नृसिंह रूप में आये ।

हिरण्यकशिपु ने वरदान माँगा था कि ‘मैं न दिन को मरूँ न रात को मरूँ…’

अहंकार दिन में भी नहीं मरता, रात में भी नहीं मरता ।

‘न अंदर मरूँ न बाहर मरूँ….’

अहंकार के घऱ के अंदर भी नहीं मरता और बाहर भी नहीं मरता ।

‘न अस्त्र से मरूँ न शस्त्र से मरूँ….’

अहंकार अस्त्र-शस्त्र से भी नहीं मरता है ।

‘देवता से न मरूँ, दानव से न मरूँ, मानव से न मरूँ…’

अहंकार इन सभी साधनों से नहीं मरता है । यह कथा का अमृतपान कराने के लिए भगवान की साकार लीला है । तो अहंकार कैसे मरता है ?

भगवान ने देखा कि तेरे को जो भी वरदान मिले, उनसे विलक्षण अवतार भी हम अपने भक्त के लिए धारण कर सकते हैं ! तो नृसिंह अवतार ……! धड़ तो नर का और चेहरा व नाखून सिंह के । ‘अंदर न मरूँ, बाहर न मरूँ…..’ तो चौखट पर मरो । ‘सुबह न मरूँ, शाम को न मरूँ….’ तो संधिकाल में मरो ।

हमारे और ईश्वर के बीच जो अहंकार है वह संधिकाल में मरता है ।

हिरण्याक्ष ममता है और हिरण्यकशिपु अहंता है । इन अहंता और ममता के कारण जो दुर्लभ नहीं है, निकट है ऐसा परमात्मा नहीं दिखता है । ये दो असुर हैं उसके द्वार पर जो ठाकुर जी से मिलने में अड़चन करते हैं । तो अहंता और ममता को मारने का उपाय है ‘अजपा गायत्री’ À अथवा उच्चारण करो हरि ओऽऽऽ…. म्’ तो हरि का ‘ह’ और ॐ का म् – इनके बीच में संकल्प-विकल्प नहीं होगा, अहंकार की दाल नहीं गलेगी, चंचलता नहीं आयेगी, ममता नहीं घुसेगी और दूसरा कुछ नहीं आयेगा । थोड़े दिन यह अभ्यास करो तो जैसे पतझड़ में पेड़ की बहुत सारी सफाई हो जाती है, ऐसे ही बहुत सारे संकल्प-विकल्प, अहंता-ममता के परिवार और वासनाओं की सफाई हो जायेगी । चित्त में शांति आने लगेगी ।

À श्वासोच्छवास में स्वतः होने वाले ‘सोऽहम्’ (श्वास के अंदर जाते समय ‘सोऽ….’ और बाहर आते समय ‘हम्…..’) के जप के साक्षीरूप से देखते हुए उसके अर्थ (वह परमात्मा मैं हूँ’) का चिंतन करते हुए शांत होते जाना । यह कठिन लगे तो श्वासोच्छ्वास की मानसिक रूप से भगवन्नाम-जपसहित गिनती ( श्वास अंदर जाये तो ‘ॐ’, बाहर आये तो ‘1’, श्वास अंदर जाय तो ‘शांति’ या ‘आनंद’ अथवा ‘माधुर्य’, बाहर आये तो ‘2’…. इस प्रकार की गिनती करते हुए शांत होते जायें ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2021, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 342

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