Monthly Archives: September 2021

साधक किस संग से बचे और कैसा संग करे ? – पूज्य बापू जी


आत्मज्ञान पाया नहीं, आत्मा में स्थिति अभी हुई नहीं, अभ्यास और वैराग्य है नहीं तो ऐसे साधक के लिए शास्त्रकार कहते हैं और अनुभवी महापुरुषों का अनुभव है कि हलकी वृत्ति के लोगों के बीच उठना-बैठना साधक के लिए हानिकारक है । जो मंदमति हैं, जिनका आचार-विचार, खान-पान मलिन है और जिनकी दृष्टि मलिन है, ऐसे लोगों के बीच वैराग्यवाले साधक का वैराग्य भी मंद हो जाता है और अभ्यास वाले का अभ्यास भी मंद हो जाता है । इसलिए हमेशा ऐसे पुरुषों के संग में रहना चाहिए जिनके संग से वैराग्य बढ़े और अभ्यास में रुचि हो, तो अपना कल्याण होगा ।

अभ्यास और वैराग्य में रुचि न हो ऐसे व्यक्तियों के पास रहने से अथवा जिनकी चेष्टा मलिन है, आजीविका मलिन है – पाप से कमाते हैं और खर्चने में पाप करते हैं एवं देखने में भी पाप करते हैं, ऐसे लोगों के सम्पर्क में और स्पर्श या स्पंदनों में साधक रहता है तो उसका भी अभ्यास-वैराग्य मंद हो जाता है । जो महापुरुष हैं, जिनकी उन्नत, ब्राह्मी दृष्टि है, आत्माभ्यास जिनका सदा स्वाभाविक होता रहता है, उन पुरुषों को शरण में रहने से साधक का उत्थान जल्दी होता है । इसलिए श्रीमद राजचन्द्र की बात हमको यथार्थ लगती है । उन्होंने कहा कि ″जब तक आत्मप्रकाश न हो, आत्मस्थिति न हो तब तक व्यक्ति महापुरुषों की शरण में अनाथ बालक की नाईं पड़ा रहे । महापुरुषों की चरणरज सिर पर चढ़ाये ।″ इसका मतलब यह नहीं कि पैरों को जो मिट्टी छूई उसे सिर पर घुमाते रहें । कहने का तात्पर्य है कि जैसे चरणरज उनके शरीर को छूती है ऐसे ही उनके हृदय को छूकर जो अनुभव की वाणी निकलती है, वह शिरोधार्य करें । यह है चरणरज का आधिदैविक स्वरूप । आधिभौतिक स्वरूप तो पैरों को जो मिट्टी लगी वह है ।

श्रीमद् राजचन्द्र जी की सेवा में लल्लू जी नामक एक साधक रहते थे । एक दिन लल्लू जी ने राजचन्द्र जी को पूछाः ″मैं घर-बार छोड़कर अपने पुत्र, पत्नी – सब छोड़ के और मिल्कियत का दान-पुण्य करके यहाँ सेवा में लग गया हूँ । इतने वर्ष हुए, अभी तक मुझे आत्मा का अनुभव नहीं हुआ, पूर्णता का अनुभव नहीं हुआ है, ऐसा क्यों ?″

राजचन्द्र एक मिनट के लिए मौन हो गये फिर कहाः ″लल्लू जी ! लोगों की नज़र में तो तुम बड़े बुद्धिमान हो लेकिन अपने बेटे, पत्नी, एक घर छोड़कर इधर कई घरवालों से कितना परिचय बना लिया है और कितनी व्यर्थ की बातचीत करते हो…. दो चार व्यक्तियों का संबंध छोड़ के कितने व्यक्तियों से आसक्तिवाला संबंध करते हो… एक घर की रोटी छोड़ के कितने घरों का, जिस-किसी के डिब्बे का क्या-क्या लेते-देते, खाते हो… तो अब तुम्हारी वृत्ति अभ्यास-वैराग्य में तो लगती नहीं ! वृत्ति अभ्यास वैराग्य में लगेगी नहीं और मलिन चित्तवाले लोगों के साथ ज्यादा सम्पर्क में रहोगे तो फिर-आत्मानुभव कैसे होगा ? हमारे चरणों में रहने का मतलब है कि हमारे संकेत को मानकर उसमें डट जाओ ।″

बुद्धिमान थे लल्लू जी, तुरन्त उनको अपनी गलती समझ में आयी और लग गये अभ्यास-वैराग्य बढ़ाने में ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 4 अंक 345

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

आदर्श नर-नारी का परस्पर कैसा हो दृष्टिकोण ?


आदर्श नर-नारी का परस्पर कैसा हो दृष्टिकोण ?

प्रश्नः यदि नारी को नर भोग्या समझता है तो इसमें क्या दोष है ?

स्वामी अखंडानंद जीः अनेक दोष हैं-

  1. एकमात्र परमात्मा ही सत्य है – इस तात्त्विक सिद्धांत से च्युत हो जाना ।
  2. अपने को देहाभिमानी भोक्ता मान बैठना ।
  3. नारी को पंचभौतिक पुतला मानकर उसके प्रति स्थूल खाद्य पदार्थ – अन्न-जल आदि के समान व्यवहार करके अपमानित करना । इसी प्रवृत्ति से लोग स्त्री जाति को सामान्य धन समझकर व्यापार करते हैं ।
  4. अपवित्र में रमकर स्वयं नष्ट होना और दूसरे को नष्ट करना इत्यादि ।

प्रश्नः नारी को ‘माया’ कहने का क्या अभिप्राय है ?

उत्तरः ‘माया’ शब्द का प्रयोग उत्तम और अधम दोनों अर्थों में होता है । तथापि यहाँ दूसरे अर्थ पर विचार किया जाता है । माया का अर्थ है – हो कुछ और दिखावे कुछ और ! नर भ्रांति-परम्परा में विचरता हुआ इस स्थिति में पहुँच गया कि वह भोग वासना के आवेश में अन्य की अपेक्षा नारीरूपधारी असंग चेतन को ही भोग्य समझने लगा । नारी ने सहयोग दिया – ‘मैं सचमुच तुम्हारी भोग्या हूँ ।’ यह छलना है – माया है । वस्तुतः भोक्ता और भोग्य का भेद झूठा है । यदि देहावेश (देहाभिमान) को स्वीकार कर लें तो भी दोनों भोक्ता हैं । इस छलनामय भोग्यता के प्रदर्शन में जो नारियाँ आगे रहीं उन्हें ही ‘माया’ कहा गया है ।

प्रश्नः अन्य पुरुषों के प्रति नारी की कैसी दृष्टि हो ?

उत्तरः जब अपने पति के सहवास का उद्देश्य ही काम पर विजय पाना है तब ऐसी कोई भी दृष्टि जिससे काम-वासना को उद्दीपन प्राप्त हो, किसी के प्रति भी कैसे की जा सकती है ? इसी से चाहे पतिदेव इस लोक में हों चाहे न हों, नारी का धर्म यही है कि स्वप्न में भी अपने मन में बुरे भाव न आने दे । जो लोग वासनाओं का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन करते हैं और कहते हैं कि ‘नारी उन्हें  (वासनाओं को) वश में नहीं कर सकती’, वे नारी का अपमान करते हैं । उनकी बातों में आकर नारियों को अपने व्रत से च्युत नहीं होना चाहिए और किसी भी दृष्टि से पिता, भाई, पुत्र मानकर भी पर-पुरुष, से हेल-मेल (उठ-बैठ) नहीं बढ़ाना चाहिए । किसी-किसी का कहना है कि ‘भगवान श्री रामचन्द्र जी जब अत्रि मुनि के आश्रम में गये तब अनसूया जी उन्हें प्रणाम करने तक नहीं आयीं, मिलने की तो बात दूर है ।’ वाल्मीकि रामायण में लिखा है कि लंका में हनुमान जी ने सीताजी से कहा कि ″माता ! आप मेरी पीठ पर बैठकर भगवान के पास चलें ।″ तो उन्होंने  स्पष्ट रूप से मना कर दिया । बोलीं- ″हरण के समय विवशता के कारण मुझे रावण का स्पर्श प्राप्त हुआ । अब मैं जानबूझकर तुम्हारा स्पर्श नहीं कर सकती ।″ सती-साध्वी नारियों के अंतःकरण स्वतः ही ऐसे पवित्र होते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 21 अंक 345

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ