Monthly Archives: June 2022

नारी-सुरक्षा का सचोट उपाय


प्रश्नः नारी अबला है, वह अपनी रक्षा कैसे करे ?

स्वामी अखंडानंद जीः सती-साध्वी नारी में अपरिमित शक्ति होती है । सावित्री ने अपने पातिव्रत्य के बल से सत्यवान को यमराज के पंजे से छुड़ा लिया । सती का संकल्प अमोघ है । महाभारत के उद्योग पर्व में शांडिली ब्राह्मणी की कथा है । उसकी महिमा देखकर गरुड़ की इच्छा हुई कि इसको भगवान के लोक में ले चलें । तपस्विनी शांडिली के प्रति गरुड़ के मन में इस प्रकार का भाव आने पर गरुड़ के अंग गल गये, वे दोनों पंखों से रहित हो गये । क्षमा माँगने पर शांडिली ने फिर गरुड़ को ठीक कर दिया । सती अनसूया के सामने ब्रह्मा, विष्णु, महेश को बालक बनना पड़ा । पतिव्रता के भय से सूर्य को रुक जाना पड़ा – पुराणों में ऐसी अनेक कथाएँ हैं । जो अपने धर्म की रक्षा करता है, ईश्वर, धर्म, देवता, सम्पूर्ण विश्व उसकी रक्षा करते हैं । रक्षा तो अपने मन की ही करनी चाहिए । यदि मन सुरक्षित है तो कोई भी, स्वयं मृत्यु भी किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकती ।

प्रश्नः यह तो आध्यात्मिक बल की बात हुई, आज की नारी-जाति में ऐसा बल कहाँ ?

स्वामी अखंडानंद जीः आजकल की बात और है । नारी स्वयं ही अपना स्वरूप और गौरव भूलती जा रही है । वह वासनापूर्ति की सड़क पर सरसरायमाण गति से भागती दिखती है । वह बन-ठनकर मनचले लोगों की आँखें अपनी ओर खींचने में संलग्न है । सादगी, सरलता एवं पवित्रता के आस्वादन से विमुख होकर अपने को इस रूप में उपस्थित करना चाहती है मानो स्व और पर की वासनाएँ पूरी करने की कोई मशीन हो । इस स्खलन की पराकाष्ठा पतन है परंतु यह सब तो पाश्चात्य कल्चर की संसर्गजनित देन है, आगंतुक है । भारतीय आर्य नारी का सहज स्वरूप शुद्ध स्वर्ण के समान ज्योतिष्मान एवं पवित्र है । वह मूर्तिमती श्रद्धा और सरलता है । धर्म की अधर्षणीय ( निर्भय ) दीप्ति का दर्शन तो इस गये-बीते युग में भी उसी के कोमल हृदय में होता है । केवल उनकी प्रवृत्ति को बहिर्मुखता से अंतर्मुखता की ओर मोड़ने भर की आवश्यकता है । सत्संग से आर्य-नारी का हृदय अपनी विस्मृत महत्ता को सँभाल लेगा ।

( पूज्य बापू जी का सत्संग-मार्गदर्शन पाकर इस पतनकारी युग में भी लाखों-लाखों महिलाएँ संयम, सदाचार, सच्चरित्रता, पवित्रता, आत्मनिर्भरता, आत्मविकास जैसे दैवी गुणों से सम्पन्न हो के निज-गरिमा को प्राप्त कर रही हैं, आत्ममहिमा में जागने की ओर प्रवृत्त हो रही हैं । पूज्य बापू जी की पावन प्रेरणा से चलाये जा रहे ‘महिला उत्थान मंडलों की सत्प्रवृत्तियाँ आज के समय में नारियों के लिए वरदानस्वरूप हैं । )

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2022, पृष्ठ संख्या 21, 23 अंक 354

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ग्रंथों से नहीं सद्गुरु से होती है आध्यात्मिक जागृति – स्वामी विवेकानंद जी


गन्थों के अध्ययन से कभी-कभी हम भ्रम में पड़ जाते हैं कि उनसे हमें आध्यात्मिक सहायता मिलती है पर यदि हम अपने ऊपर उन ग्रंथों के अध्ययन से पड़ने वाले प्रभाव का विश्लेषण करें तो ज्ञात होगा कि अधिक-से-अधिक हमारी बुद्धि पर ही उसका प्रभाव पड़ा है, न कि हमारे अंतरात्मा पर । आध्यात्मिक विकास के लिए प्रेरक शक्ति के रूप में ग्रंथों का अध्ययन अपर्याप्त है क्योंकि यद्यपि हममें से प्रायः सभी आध्यात्मिक विषयों पर अत्यंत आश्चर्यजनक भाषण दे सकते हैं पर जब प्रत्यक्ष कार्य तथा वास्तविक आध्यात्मिक जीवन बिताने की बात आती है तब अपने को बुरी तरह अयोग्य पाते हैं । आध्यात्मिक जागृति के लिए ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु से प्रेरक शक्ति प्राप्त होनी चाहिए ।

जो देने में तो उत्साही है लेकिन माँगता नहीं वह मोक्ष के रास्ते का सात्त्विक पथिक है । – पूज्य बापू जी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2022, पृष्ठ संख्या 19 अंक 354

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गुरु शिष्य का संबंध प्रेम का सर्वोच्च रूप है !


परमहंस योगानंद जी अपने सद्गुरुदेव श्री युक्तेश्वर गिरिजी के साथ के मधुर संबंध का वर्णन अपने जीवन के कुछ संस्मरणों के माध्यम से करते हुए कहते हैं-

अपने गुरुदेव के साथ मेरा जो संबंध था उससे बड़े किसी संबंध की मैं इस संसार में कल्पना ही नहीं कर सकता । गुरु शिष्य संबंध प्रेम का सर्वोच्च रूप है । एक बार मैंने यह सोचकर अपने गुरु का आश्रम छोड़ दिया कि ‘मैं हिमालय में ज्यादा अच्छी तरह ईश्वरप्राप्ति के लिए साधना कर सकूँगा ।’

यह मेरी भूल थी और शीघ्र ही यह बात मेरी समझ में आ गयी । इतना होने पर भी जब मैं वापस आश्रम में आया तो गुरुदेव ने मेरे साथ ऐसा बर्ताव किया जैसे मैं कभी कहीं गया ही नहीं था । वे इतने सहज भाव से बात कर रहे थे… मुझे फटकारने के बजाय उन्होंने शांत भाव से कहाः ″चलो देखें, आज खाने के लिए हमारे पास क्या है ?″

मैंने कहाः ″परन्तु गुरुदेव ! आश्रम छोड़कर चले जाने के कारण आप मुझसे नाराज नहीं हैं ?″

″क्यों नाराज होऊँ ? मैं कभी किसी से की आशा नहीं करता इसलिए किसी के कोई कार्य मेरी इच्छा के विपरीत हो ही नहीं सकते । मैं अपने किसी स्वार्थ के लिए तुम्हारा उपयोग कभी नहीं करूँगा, तुम्हारे सच्चे सुख में मुझे खुशी है ।″

जब उन्होंने यह कहा तो मैं उनके चरणों में गिर पड़ा और मेरे मुँह से ये उदगार निकल पड़ेः ″पहली बार मुझे कोई ऐसे मिल गये हैं जो मुझसे सच्चा प्रेम करते हैं !″

यदि मैं अपने पिता जी का कारोबार देख रहा होता और इस तरह बीच में ही भाग जाता तो पिताजी मुझसे सख्त नाराज होते । जब मुझे मोटी तनखाह की अच्छी नौकरी मिल रही थी और मैंने उसे स्वीकार करने से इन्कार कर दिया था तो 7 दिन तक उन्होंने मेरे साथ बात करना बंद कर दिया था । उन्होंने मुझे अत्यंत निष्कपट पितृ-प्रेम दिया परंतु वह प्रेम अंधा था । वे सोचते थे कि धन मुझे सुख देगा । धन तो मेरे सुख में आग लगा देता । वह तो बाद में जब मैंने राँची में विद्यालय खोला तब जाकर पिता जी नरम पड़े और उन्होंने कहाः ″मुझे खुशी है कि तुमने वह नौकरी स्वीकार नहीं की ।″ परन्तु मेरे गुरुदेव की मनोवृत्ति देखो । मैं ईश्वर की खोज में उनका आश्रम छोड़कर चला गया था परंतु उससे उनके मेरे प्रति प्रेम में कोई अंतर नहीं आया । उन्होंने मुझे कुछ भला बुरा भी नहीं कहा जबकि अन्य अवसरों पर मैं कुछ गलत करता तो वे स्पष्ट शब्दों में मुझे सुना देते थे । वे कहते थेः ″यदि मेरा प्रेम समझौता करने के लिए तैयार हो जाता है तो वह प्रेम ही नहीं है । तुम्हारी प्रतिक्रिया के डर ये यदि मुझे तुम्हारे साथ अपने व्यवहार में कोई बदलाव लाना  पड़ता है तो तुम्हारे प्रति मेरी भावना को सच्चा प्रेम नहीं कहा जा सकता । मुझमें तुमसे स्पष्ट बात करने की क्षमता होनी ही चाहिए । तुम जब चाहो आश्रम छोड़कर जा सकते हो परंतु जब तक यहाँ मेरे पास हो तब तक तुम्हारी भलाई के लिए, तुम जब-जब कुछ गलत करोगे, तब-तब मैं तुम्हारे ध्यान में यह बात लाऊँगा ही ।″

मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि किसी को मुझमें इतनी रुचि होगी । वे मेरे खातिर ही मुझसे प्रेम करते थे । वे मेरी पूर्णता चाहते थे । वे मुझे सर्वोच्च रूप से सुखी देखना चाहते थे । उनकी खुशी इसी में थी । वे चाहते थे कि मैं ईश्वर को प्राप्त करूँ ।

जब गुरु और शिष्य के बीच इस प्रकार का प्रेम पनपता है तब शिष्य में गुरु के साथ कोई चालाकी करने की इच्छा ही नहीं रह जाती, न ही गुरु में शिष्य पर किसी प्रकार का कोई अधिकार या नियंत्रण स्थापित करने की कोई इच्छा रहती है । उनका संबंध केवल ज्ञान और विवेक पर आधारित होता है । इसके जैसा कोई प्रेम नहीं है । और इस प्रेम का स्वाद मैंने अपने गुरु से चखा है ।

अमृतबिंदु – पूज्य बापू जी

प्रेमी शिष्यों के हृदय में गुरु के अमृतरूपी वचन शोभा देते हैं । उन शिष्यों के हृदय में ये वचन उगते हैं और जब उनको विचाररूपी जल द्वारा सींचा जाता है तो उसमें मोक्षरूपी फल लगता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2022, पृष्ठ संख्या 5,6 अंक 354

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