एक संत थे जिना नाम था जगन्नाथदास महाराज । वे भगवान को प्रीतिपूर्वक भजते थे । वे जब वृद्ध हुए तो थोड़े बीमार रहने लगे । उनके मकान की ऊपरी मंजिल पर वे स्वयं और नीचे उनके शिष्य रहते थे । रात को एक-दो बार बाबा को दस्त लग जाते इसलिए खट-खट की आवाज करते तो कोई एक शिष्य आ जाता और उनका हाथ पकड़कर उन्हें शौचालय में ले जाता । बाबा की सेवा करने वाले ये जवान लड़के थे । एक रात जब बाबा ने खटखटाया तो कोई आया नहीं । बाबा बोलेः “अरे, कोई आया नहीं ! बुढ़ापा आ गया प्रभु !” इतने में एक युवक आया और बोलाः “बाबा ! मैं आपकी मदद करता हूँ ।” बाबा का हाथ पकड़कर वह उन्हें शौचालय में ले गया । फिर हाथ-पैर धुलाकर बिस्तर पर लेटा दिया । जगन्नाथ जी ने सोचाः ‘यह कैसा सेवाक है कि इतनी जल्दी आ गया ! इसके स्पर्श से आज अच्छा लग रहा है, आनंद-आनंद आ रहा है ।’ जाते-जाते वह युवक लौटकर आया और बोलाः “बाबा ! जब भी आप ऐसे खट-खट करोगे न, तो मैं आ जाया करूँगा । आप केवल विचार भी करोगे कि ‘वह आ जाय’ तो मैं आ जाया करूँगा ।” “बेटा ! तुम्हें कैसे पता चलेगा ?” “मुझे पता चल जाता है ।” “अच्छा ! रात को सोता नहीं क्या ?” “हाँ, कभी सोता हूँ, झपकी ले लेता हूँ । मैं तो सदा सेवा में रहता हूँ ।” जगन्नाथ महाराज रात को खट-खट करते तो वह युवक झट आ जाता और बाबा की सेवा करता । ऐसा करते-करते कई दिन बीत गये । जगन्नाथ जी सोचते कि ‘यह लड़का सेवा करने तुरंत कैसे आ जाता है ?” एक दिन उन्होंने उस युवक का हाथ पकड़कर पूछा कि “बेटा ! तेरा घर कहाँ है ?” “यहीं पास में ही है । वैसे तो सब जगह है ।” “अरे, तू क्या बोलता है, सब जगह तेरा घर है ?” बाबा की सुंदर समझ जगी । उनको शक होने लगा कि ‘हो-न-हो, यह तो अपने वाला ही, जो किसी का बेटा नहीं किंतु सबका बेटा बनने को तैयार है, बाप बनने को तैयार है, गुरु बनने को तैयार है, सखा बनने को तैयार है…।’ बाबा ने कसकर युवक का हाथ पकड़ा और पूछाः “सच बताओ, तुम कौन हो ?” “बाबा ! छोड़ो, अभी मुझे कई जगह जाना है ।” “अरे, कई जगह जाना है तो भले जाना लेकिन तुम कौन हो यह तो बताओ ।” “अच्छा, बताता हूँ ।” देखते-देखते भगवान जगन्नाथ का दिव्य विग्रह प्रकट हो गया । देवाधिदेव ! सर्वलोके एकनाथं…. – सभी लोकों के एकमात्र स्वामी ! आप मेरे लिए इतना कष्ट सहते थे ! रात्रि को आना, शौचालय ले जाना, हाथ-पैर धुलाना… प्रभु ! जब आप मेरा इतना ख्याल रख रहे थे तो मेरा रोग क्यों नहीं मिटा दिया ?” तब मंद-मंद मुस्कराते हुए भगवान ने कहाः “महाराज ! तीन प्रकार का प्रारब्ध होता हैः मंद, तीव्र और तीव्रतम । मंद प्रारब्ध सत्कर्म से, दान पुण्य से, भक्ति से मिट जाता है । तीव्र प्रारब्ध अपने पुरुषार्थ और भगवान के, संत-महापुरुषों के आशीर्वाद से मिट जाता है । परंतु तीव्रतम प्रारब्ध तो मुझे भी भोगना पड़ता है । रामावतार में बालि को छुपकर बाण मारा था तो कृष्णावतार में उसने व्याध बन के मेरे पैर में बाण मारा । तीव्रतम प्रारब्ध सभी को भोगना पड़ता है । आपका रोग मिटाकर प्रारब्ध दबा दूँ फिर क्या पता उसे भोगने के लिए आपको दूसरा जन्म लेना पड़े और तब कैसी स्थिति हो जाय । इससे तो अच्छा है अभी पूरा हो जाय ।…और मुझे आपकी सेवा करने में किसी कष्ट का अनुभव नहीं होता । भक्त मेरे मुकुटमणि, मैं भक्तन को दास ।” “प्रभु ! प्रभु ! प्रभु ! हे देव ! हे देव !…” कहते हुए जगन्नाथदास महाराज भगवान के चरणों में गिर पड़े और भगवन्माधुर्य में, भगवत्शांति में खो गये । भगवान अंतर्धान हो गये । प्राणिमात्र के परम सुहृद भगवान भक्तजनों के सर्वस्व हैं । भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए वे सर्वसमर्थ न जाने किन-किन रूपों में प्रकट होकर कैसी-कैसी लीलाएँ करते हैं ! भगवान भक्त के परम हितैषी हैं । उन्हीं की शरण में रहने में आनंद है, उन्हीं की स्मृति में आनंद है । स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 25 अंक 360 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
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विकराल स्वास्थ्य समस्याः कृमिरोग हर 2 में से 1 व्यस्क एवं 3 में से 2 बच्चों को ग्रसने वाली
आज पेट के कृमि एक बढ़ती स्वास्थ्य समस्या है । साधारण-सी मालूम पड़ने वाली यह समस्या बच्चों के शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक विकास के लिए अत्यंत हानिकारक है । यह समस्या बड़ी उम्र के व्यक्तियों में भी पायी जाती है । कारणः पहले किये हुए भोजन के पूर्णरूप से पचने के पहले दोबारा खाना, दूध के साथ नमकयुक्त, खट्टे पदार्थों, फल, गुड़ आदि का सेवन, बेकरी के पदार्थ, फास्ट-फूड, चायनीज़ फूड, बिस्कुट, चॉकलेट आदि का सेवन, गुड़, मैदे व चावल के आटे से बने पदार्थों का अधिक सेवन, दही, दूध, मावा, पनीर, मिठाई, गन्ना – इनका लगातार अधिक सेवन, सफाई का ध्यान रखे बिना भोजन करना, दिन में सोना, आसन-व्यायाम का अभाव तथा कब्ज से पेट में कृमि होते हैं । मुँह में उँगली डालने, मुँह से नाखून चबाने तथा मिट्टी खाने की आदत से बच्चों में कृमि होने की सम्भावना अधिक होती है । लक्षण व दुष्प्रभावः शौच में कीड़े दिखना, गुदा में खुजली, अधिक खाने की इच्छा, पेट का फूलना व दर्द, जी मिचलाना, शरीर का कद न बढ़ना, वज़न कम होना, खून की कमी, बुद्धि की मंदता, कभी-कभी बेहोशी आना, बिस्तर में पेशाब होना – ये सभी या इनमें से कुछ लक्षण दिखते हैं । कृमि कभी-कभी पित्तवाहिनी में अवरोध करके पीलिया तथा आँतों के मार्ग को ही बंद कर देते हैं । ये मज्जा का भक्षण कर सिर के रोग तथा नेत्रों को हानि पहुँचा के नेत्ररोग उत्पन्न करते हैं । इन दुष्परिणामों को न जानने से बच्चों के पेट में होने वाले कृमि को नज़रअंदाज करते हैं । कृमिरोग से सुरक्षा के उपाय अथर्ववेद (कांड 2, सूक्त 32, मंत्र 1) में आता हैः ‘उदय होता हुआ प्रकाशमान सूर्य कृमियों को मारे और अस्त होता हुआ भी सूर्य अपनी किरणों से कृमियों को मारे ।’ भगवान सूर्य से उपरोक्तानुसार प्रार्थना करें । रोज सुबह सूर्यस्नान करें । रोज तुलसी के 5-7 पत्ते खायें । आहारः जौ, कुलथी, पपीता, अनानास, अजवायन, हींग, सोंठ, सरसों, मेथी, जीरा, अरंडी का तेल, पुदीना, करेला, बैंगन, सहजन की फली, परवल, लहसुन आदि का उपयोग अपनी प्रकृति, ऋतु आदि का ध्यान रखते हुए विशेषरूप से करें । फलों एवं सब्जियों को अच्छे से धोकर प्रयोग करें व बाजारू अपवित्र खाद्य पदार्थों से बचें । पूज्य बापू जी द्वारा बताये गये कृमिनाशक प्रयोग 1 लगभग 70 प्रतिशत बच्चों के पेट में कृमि की शिकायत होती है । इंजेक्शन और कैप्सूल के कोर्स करने के बाद भी कृमियों के सूक्ष्ण जीवाणुओं के अंडे रह जाते हैं और समय पाकर पनपते हैं । सुबह खाली पेट पपीते के 7 बीज व तुलसी के 5-7 पत्ते लम्बा समय खिलायें (सप्ताह में 4-5 दिन) । पपीते का नाश्ता करायें । इससे कृमि तो जायेंगे, साथ ही उनके अंडे भी चले जायेंगे । तुलसी कृमियों को भगायेगी और बच्चा होनहार होगा, निरोग होगा । 7 वर्ष तक अगर बच्चे को निरोग रख पाओ तो फिर उसे कोई बीमारी चिपकेगी नहीं, आयी तो रुकेगी नहीं । साल-दो साल में फिर से ऐसा प्रयोग कर लीजिये । बड़ी उम्र वालों में 100 में से 50 व्यक्तियों को पेट में कृमि की शिकायत होती है । इसलिए खाते-पीते हुए भी उनका शरीर पुष्ट नहीं होता और कमजोरी-सी महसूस होती है । उनको भी यह प्रयोग करना चाहिए । सुबह उठते ही कुल्ला आदि करके बच्चे 10 ग्रा गुड़ के साथ आधा ग्राम अजवायन-चूर्ण तथा बड़ 25 ग्राम गुड़ के साथ 1 से 2 ग्राम अजवायन चूर्ण बासी पानी के साथ खायें । इससे आँतों में मौजूद सबी प्रकार के कृमि नष्ट हो जाते हैं । यह प्रयोग 3 दिन से एक सप्ताह तक कर सकते हैं । कृमिनाशक औषधि प्रयोगः 1. सुबह खाली पेट 1 से 3 गोली कोष्ठशुद्धि कल्प 10 मि.ली. नीम अर्क के साथ गर्म पानी से लें । 2. 1-1 तुलसी बीज टेबलेट सुबह-शाम भोजन के बाद चबाकर सेवन करें । 3. 1-1 लीवर टॉनिक टेबलेट सुबह-शाम लें । विशेषः कृमि का शरीर पर अधिक दुष्प्रभाव दिखाई तो वैद्यकीय सलाह से उपचार करें । स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 32, 33 अंक 360 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आखिरी बात – पूज्य बापू जी
एक बार एक ब्रह्मवेत्ता महापुरुष को उनके शिष्य-समुदाय ने घेर लिया एवं प्रार्थना कीः “गुरुदेव ! हम सब आपके दर्शन तो कई बार करते हैं लेकिन अब हमें प्रभु-तत्त्व का साक्षात्कार करना चाहिए – यह हम आपके सत्संग-प्रसाद से समझते हैं, मानते हैं । अतः अब एक बार आप हमें आखिरी बात सुनाने की कृपा कर दीजिये ।” गुरु बोलेः “हम तो ढूँढते ही रहते है कि आखिरी बात सुनने वाला कोई मिल जाय । लगता है तुम लोगों को भगवान ने ही भेजा है ।” “गुरुदेव ! अब आप आखिरी बात सुना ही दीजिये ।” “जिस किसी को आखिरी बात सुननी है वह मेरे जन्मदिन पर आ जाय ।” “किस जन्मदिन पर ?” “जिस दिन मेरे गुरुदेव ने मुझे आत्मसाक्षात्कार कराया था, जिस दिन गुरुरूप में मेरा जन्म हुआ था उस दिन तुम लोग आ जाना ।” चारों तरफ खबर फैल गयी कि अपने आत्मसाक्षात्कार के दिन गुरुदेव आखिरी बात बताने वाले हैं । अतः दूर दराज से लोग गुरु-आश्रम में एकत्र होने लगे । कई विद्वान, पंडित एवं शास्त्रज्ञ भी आये । इस प्रकार वहाँ बड़ी भीड जमा हो गयी । बड़े-बड़े मंडप बन गये । किंतु उन महापुरुष को मानो इन सबसे कोई लेना-देना ही नहीं था । वे तो अपनी कुटिया से सहज-स्वाभाविक मस्ती में बाहर निकले । ‘सद्गुरु महाराज की जय !…’ इस जयघोष से गगनमंडल गूँज उठा । जयघोष के बाद दो-चार प्रतिनिधि साधकों ने आगे बढ़कर कहाः “गुरुदेव ! आज वही दिन है जिस दिन आप आखिरी बात सुनाने वाले हैं ।” गुरुः “ठीक है, अच्छा हुआ मुझे याद दिला दिया । आज आखिरी बात सुनानी है । सब लोग तैयार होकर बैठ जाओ ।” सब शांत होकर बैठ गये ताकि गुरुदेव की आखिरी बात का एक शब्द भी कहीँ छूट न जाय । आज तो मानो कानों को भी आँखें फूट निकलीं कि ‘हम सुनेंगे भी और देखेंगे भी ।’ और मानो आँखों को कान फूट निकले कि ‘हम निहारेंगी भी और सुनेंगी भी ।’ इतने में वे महापुरुष मंच पर आये और लेट गये । 10… 20… 30… 40… 50 मिनट हो गये, घंटा… दो घंटा हो गये… शिष्यों ने सोचा कि ‘पता नहीं गुरुदेव को क्या हो गया है !’ लल्लू पंजू शिष्य तो रवाना हो गये लेकिन जो जिज्ञासु थे उन्होंने सोचा कि ‘बैठे-बैठे तो गुरुदेव को कई बार सुना है, आज वे लेट गये हैं तो लेटे-लेटे ही कुछ-न-कुछ कहेंगे ।’ इस प्रकार सब अपनी-अपनी मति एवं भावना के अनुसार विचरने लगे । फिर उनमें से भी कुछ लोग ऊबकर चले गये । इस प्रकार लगभग 4 घंटे व्यतीत हो गये । अब कुछ गिने-गिनाये लोग ही बचे । तब संत उठे । उन्हें उठा देखकर प्रतिनिधि शिष्यों ने कहाः “गुरुदेव ! आज तो आपने बहुत देर तक आराम किया । अब तो चारों ओर लोग आपका और हमारा मखौल उड़ायेंगे कि ‘अच्छी आखिरी बात सुनायी…।’ गुरुदेव ! आपने तो कुछ सुनाया ही नहीं वरन् आराम करने लगे । आप कुटिया में आराम कर लेते । इधर लोगों के सामने मंच पर… ? आपने यह क्या किया !…” गुरुः “मैं सोया नहीं था ।” “आप सोये नहीं थे ?” “नहीं । तुम लोगों ने आखिरी बात सुनाने के लिए कहा था न, मैंने वही आखिरी उपदेश दिया था । आत्मसाक्षात्कार कैसा होता है यही मैंने बताया । गहरी नींद में क्या होता है ? क्या उस समय पता चलता है कि ‘मैं हिन्दू, मुसलिम, ईसाई, पारसी, गुजराती, पंजाबी या सिंधी हूँ…’ अथवा ‘कुछ लेना है… कुछ देना है…’ आदि ? नहीं । गहरी नींद में कुछ पता नहीं चलता । उस समय कोई स्फुरणा नहीं होता । ऐसे ही आत्मसाक्षात्कार का भी मतलब है कि चित्त में कोई स्फुरणा न हो… जाग्रत में सुषुप्तिवत् । ज्ञान से सब काम निःस्फुरण, निःसंकल्प एवं कर्तृत्वभाव से रहित होते हैं । अभी तक मैं यह बात सैद्धांतिक तौर पर तो बोल ही रहा था किंतु तुमने सुना नहीं अतः आज मैंने प्रयोग करके बताया । आखिरी बात है कि जैसे भगवान विष्णु क्षीरसागर में आराम पाते हैं ऐसे ही आप अपने अंतरात्मा राम में आराम पाओ । ‘मैं चैतन्यघन शांत आत्मा हूँ’ आखिरी बात यही है । शरीर की ममता में, मन के फुरने में, लोगों की ‘हा हा- हें हें, मैं-मैं-तू-तू’ में अपने को उलझाओ मत, यह आखिरी बात है । अपने चित्त को चैतन्य में सुला दो, विश्रांति दिला दो यह आखिरी बात है । 2 हाथ पैर वाले भगवान नहीं हैं, 4 हाथ वाले भगवान नहीं हैं, यह तो भगवान का बाह्य रूप है । जो 2 हाथ-पैरवाले, 4 हाथ-पैरवाले और 10 हाथ-पैरवाले – सबके अंदर सत्ता, स्फूर्ति, चेतना देता है वह चैतन्य आत्मा ही वास्तव में देव है । उस आत्मदेव में विश्रांति पानी चाहिए । आखिरी बात है ‘जीवन्मुक्त आत्मपद’ । उसमें जो टिक गये उनका जीवन होता है कुम्हार के चाक की नाईँ । जैसे चाक को घुमाकर छोड़ दो तो दिया हुआ वेग पूरा होने तक बिना कुछ बल लगाये सहज ही घूमता है, ऐसे ही जीवन्मुक्त महापुरुष के कर्म उनके प्रारब्ध वेग से (प्रारब्धानुसार) सहजभाव से हो जाते हैं, वे अपने अंदर कर्ता-भोक्तापने का बोझा नहीं उठाते ।” फिर बुद्धि ऋतम्भरा प्रज्ञा हो जाती है जब आत्मसाक्षात्कार करना ही है तो उठो… जागो… अपने-आपसे पूछो कि ‘मैं कौन हूँ ?’ अपने-आपको खोजो । खोजते समय जो कुछ तुम्हारे देखने में आता जाय उसको हटाते जाओ । जैसे – ‘यह भी नहीं… यह भी नहीं… मैं हाथ भी नहीं… पैर भी नहीं…. हाथ और पैरों को क्रिया करने की प्रेरणा देने वाला मन भी नहीं… मन को चलाने वाला प्राण भी नहीं… प्राण को चलाने वाली चिदावली (वासनासंयुक्त चेतना) भी नहीं…’ इस प्रकार सूक्ष्म दृष्टि से मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि को हटाते-हटाते जब तुम्हारी वृत्ति सूक्ष्म हो जायेगी तब आंतरिक मौन को उपलब्ध हो जाओगे । जैसे अँधेरे कमरे में पड़ी हुई किसी वस्तु को देखना है तो दीया, टॉर्च आदि काम आता है किंतु वही दीया जब सूर्य के सामने रखा जाता है तो उसका प्रकाश सूर्य के प्रकाश में समा जाता है, ऐसे ही व्यवहारकाल में, लेन-देन में, इधर-उधर के प्रसंगों में अथवा परमात्मा की खोज में मन, बुद्धि काम तो आते हैं किंतु जब वे परमात्मप्रकाश में आ जाते हैं तो उनका टिमटिमाते दीये जैसा प्रकाश परमात्मा के प्रकाश में लीन हो जाता है । वे अंतर्मुख हो जाते है, शुद्ध हो जाते हैं । मन-बुद्धि से तुम जगत को जान सकते हो, परमात्मा को नहीं । फिर भी मन-बुद्धि ज्यों-ज्यों परमात्मा के अभिमुख होते जाते हैं त्यों-त्यों परमात्मा में तदाकार होते जाते हैं । जैसे नमक की पुतली सागर की थाह पाने जाय तो स्वयं सागर में ही समा जायेगी फिर उसका अपना अलग से अस्तित्व नहीं रह जायेगा, ऐसे ही जब बुद्धि परमात्मा में स्थिर हो जाती है तो फिर वह बुद्धि, बुद्धि नहीं रहती, ऋतम्भरा प्रज्ञा हो जाती है । वर्णन से परे है वह ! महापुरुष जब परमात्मा में डुबकी लगाकर कोई कार्य करते हैं तब लोगों को लगता है कि उनके मन-बुद्धि एवं इन्द्रियों से कार्य हो रहा है । स्वयं महापुरुषों को कभी नहीं लगता कि ‘ये मन, बुद्धि एवं इन्द्रियाँ हैं ।’ वे तो सदैव एक चैतन्य में होते हैं, अवाच्य पद है वह… फिर भी यह बात वाणी से कही जा रही है, अन्यथा उस अनुभव के आगे तो वाणी भी अधूरी है । मत करो वर्णन हर बेअंत है, क्या जाने वो कैसो रे । फिर भी उनके इर्द-गिर्द की बातें सुनने से जो पुण्य होता है वह पुण्य न तो तप करने से होता है, न यज्ञ करने से और न ही चान्द्रायण व्रत करने से होता है । इसीलिए बड़े-बड़े तपस्वी, यति योगी, संन्यासी आदि भी सत्संग के अभाव में कई बार आत्मसाक्षात्कार की बात से चूक जाते हैं । फिर मन बुद्धि में जगत की सत्यतना नहीं टिकती संत निश्चलदास जी ने विचारसागर नाम का एक ग्रंथ लिखा है । उसमें आत्मसाक्षात्कार से संबंधित बातें भरी हुई हैं । एक दिन संत निश्चलदास जी ने कुछ साधुओं से कहाः “प्रातः ब्राह्ममुहूर्त के समय बुद्धइ सात्त्विक रहती है । वह समय ध्यान-भजन के लिए उपयुक्त रहता है । यदि तुम लोग चाहो तो उस समय तुम्हें विचारसागर पढ़ाऊँगा । उनके पास अनेक साधु आते थे । विचारसागर का सत्संग एक दिन… दो दिन… तीन दि…. चार दिन… चला । फिर एक-एक करके साधु कम होने लगे । ज्यों-ज्यों संत गहरी बात सुनाते गये त्यों-त्यों लोग ऊबते गये । आखिरकार धीरे-धीरे सब साधु भाग गये क्योंकि मन को रूखा लगता था न ! मन को थोड़ा मनोरंरजन चाहिए । इन्द्रियों को भी रुचिकर भोग चाहिए । इन्द्रिय विषयक भोगों का त्याग करते-करते, मन का त्याग करते-करते जब पूर्ण त्याग की घड़ियाँ आती हैं तब आत्मसाक्षात्कार हो जाता है । जैसे लोहे के टुकड़े को एक बार पारस का स्पर्श करा दो तो फिर उसे कीचड़ में रखने पर भी जंग नहीं लगता, ऐसे ही मन-बुद्धि को परमात्मदेव का एक बार अनुभव हो जाय तो फिर उनमें जगत की सत्यता नहीं टिकती । फिर वे पुरुष व्यवहार करते हुए तो दिखेंगे लेकिन उनका व्यवहार दिखने मात्र का होगा । जैसे भुना हुआ बीज और कच्चा बीज – दोनों दिखते तो एक जैसे हैं किंतु कच्चा बीज दूसरे बीज उत्पन्न करने की सम्भावना रखता है जबकि भुना हुआ बीज दिखने मात्र का होता है, वह अपनी वंश-परम्परा नहीं चला सकता ऐसे ही सवासनिक मन (कच्चा बीज) और निर्वासनिक मन (भुना हुआ बीज) के कार्य-व्यवहार हैं । जब सवासनिक मन ब्रह्मविद्या में भुना जाता है तो उससे प्रारब्धवेग से सांसारिक कार्य-व्यवहार होता है पर वह दूसरे कर्मों का जाल उत्पन्न नहीं करता, उसका जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो जाता है । इसीलिए संत कबीर जी ने कहा हैः मन की मनसा मिट गयी, भरम गया सब टूट । गगनमंडल में घर किया, काल रहा सिर कूट ।। स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 6-8, 10 अंक 360 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ