निदिध्यसन किसे कहते हैं? कृपा करके प्रश्न का उत्तर दे कर शंका का समाधान करने की कृपा करें।
———- उत्तर ———-
हरि ॐ,
वेदान्त के पारिभाषिक शब्दों को समझने में योग वेदांत शब्दकोष पुस्तक बहुत उपयोगी सिद्ध होगी। उस में पृष्ठ क्रमांक १२१ पर निदिध्यासन का अर्थ बताया है। वेदान्त के विषय को समझने में वेदांत बोध पुस्तक उत्तम है। उस में पृष्ठ ४९ पर निदिध्यासन का अर्थ बताया है।
गुरु के चरण कमल में आत्मसमर्पण करना यह शिष्य का आदर्श होना चाहिए। गुरु की कृपा अखूट असीम और अर्वननीय है। श्री गुरु अर्जुन देव जी भी एक बार गुरु से बिछोह के दौर से गुजरे थे। विरह के दौर से गुजरे उनके गुरु श्री रामदास जी ने उन्हें किसी विवाह उत्सव पर स्वयं से दूर लाहौर भेज दिया। साथ ही यह आज्ञा भी दी कि जब तक वापस लौटने का संदेश ना मिले तब तक वहीं ठहर कर संगत की अगुवाई करना ।गुरु आज्ञा शिरोधार्य कर श्री अर्जुन देव जी लाहौर आ गए ।कुछ दिनों के पश्चात उत्सव संपन्न हुआ। दिन बीतने लगे सप्ताह बीता और अब तो एक महीना बीतने को था। परंतु गुरु दरबार से ना कोई बुलावा आया ना कोई संदेश.. अब क्या था उनका मन अकुलाने लगा विरह वेदना तीव्र से तीव्रतर होने लगी। रह रहकर मन में यही भाव तरंगें उठती कि, गुरूवर मैं यहां निपट अकेला हूं। कैसे बताऊं कि तुम बिन मेरे दिन कैसे गुजरते हैं। तुम्हारी जुदाई मुझे कितना सताती है। यहां एक एक पल एक एक कल्प जैसा लग रहा है, मानो मेरा जीवन ही ठहर गया हो ।अब और विलंब ना करो.. सच्चे बादशाह.. मुझे वापस बुला लो.. दोबारा अपने चरणों में स्थान दे दो। जब स्थिति असहनीय हो गई, तो उन्होंने इन भावों को शब्दबध्द करके अपने गुरु को एक पत्र लिखा। मेरा मन लोचे गुरुदर्शन ताई बिलप करे चात्रिक के नाई।अर्थात जैसे एक चातक पक्षी दिन रात पृथ्वी जल स्त्रोतको त्याग कर सिर्फ और सिर्फ स्वाति नक्षत्र की बूंद की आस में प्यासा रहता है। वैसे ही मेरा मन भी गुरुदेव… आपके दर्शन के लिए तड़प रहा है।ओ तो गुरु निराकार रूप में शिष्य के ह्रदय मंदिर में सदा समाए होते हैं। सुक्ष्म स्पंदन बनकर उसकी सांसों में रमण करते रहते हैं ।राइभर की भी दूरी नहीं है। परंतु फिर भी शिष्य गुरू के साकार मुरत को निहारना चाहता है। उनकी आंखें ना जाने.. क्यों.. शिष्यों की आंखें ना जाने क्यों.. सदा गुरु दरश को बावरी रहती हैं।किसीने एक शिष्य से पूछ ही लिया कि एक बार गुरु दरशन कर लेने बाद, बार-बार.. फिर फिर से.. देखना आवश्यक है क्या?शिष्य ने कहा है “हा.. है ।”क्यों कि यह हर क्षण नूतन होने वाला सौंदर्य है। जितनी बार देखता हूं उतनी बार मुझे गुरु के रूप में नई छवि ,नई शोभा का दर्शन होता है। बाबा फरीद जी कहते हैं.. *कागा करंग ढंढोलिया सगला खाईया मासु* ए कागा तु चाहे तो मेरे शरीर की बूटी बूटी नोच ले परंतु मेरी आंखों को बख्श देना इनको मत छेड़ना क्योंकि.. *ए दोई नयना मती छुवहु पीर देखन की आस*मैंने इन्हे गुरु के दीदार के लिए बड़ा सहेज कर रखा है। इनमें हर पल गुरु दर्शन की प्यास बनी हुई है।सचमुच गुरू भक्ति के मार्ग पर इन भावुक आंखों की भूमिका भी बड़ी निराली है । जब गुरू सामने होते हैं तो यह उनके दरस का आनंद लेती हैं। और जब गुरु दूर जाते हैं तो यही उनकी बाट जोहती है। उनकी विरह मे छम छम बरसात करती हैं।इस विषय में मस्त मलंग संत रामतीर्थ जी ने भी खूब कहा कि, यदि लूटना हो तुझे वर्षा का मजा तो आ मेरी आंखों में बैठ जा यहां काले भूरे और लाल तरह-तरह के बादल सदा झड़ी लगाए रहते हैं। यू तो प्रेम की सबसे उँची स्थिति यह मानी जाती है कि प्रिय के बिछुड़ते ही प्राण छुट जाए ईसी ओर लक्ष्य करके माता सीता जी कहती है..कि हे प्रभु आप अलग होते ही मुझे मर जाना चाहिए था लेकिन हे नाथ! यह तो मेरे नेत्रों का अपराध है, *नाथ सु नयन ही कोआपराधा* यही मेरे प्राणों को हठपूर्वक बांधे हुए है क्योंकि इन्हें पुनः आपको देखने की लालसा है। आपके लीलाओं के दर्शन की लालसा है ।आगे कहती है माता सीता कि हे प्रभु ! यह रूई जैसा शरीर कबका विरह अग्नि में सांसों की हवा पाकर भस्म हो चुका होता लेकिन इन आँखों ने इसे बचाए रखा है।ये निरतंर आपके याद मे रोती रहती है। इनसे निकलते अश्रु धारा शरीर को विरह अग्नि में जलने नही देती इसलिए मेरे प्राण निकल नहीं पातेनयन स्रवही जन निज हित लागी जरेए न पाव देह बिरहागी।। कैसा ह्रदय स्पर्शी और भावपूर्ण चित्रण है यह भावों कि ऐसी उच्चावस्था है जहां आँखे बोला करती है। अब आँखों के पास शब्द तो है नहीं इसलिए आप आँसू बहाकर ये अपनी व्यथा कहा करती है। यह गति बुल्लेशाह की भी हुई जब उनके गुरू हजरत इनायत उनसे रुठ गए। उन वियोग के क्षणों में उनकी आंखों पर क्या क्या गुजरी वे एक काफी के माध्यम से बड़ा सुदंर बया करते हैं किहुजरु पीर अँखीया वीच रड़के। दुख दिया वागंन फोड़े मै रोवा तैनु याद करके।।तेरी याद में रो रो कर मेरी आँखें फोड़े की तरह दुखने लगी है। साईं मैं रो-रोकर अंधा हो चुका हूं क्योंकि तेरे बिना बस रोना ही रोना है। *जदु मीठ्ठी नींदे सोंदी है खुदाई, सौह रब दी ना अख कदे लाई, मै रोवा तैनु याद करके।* आधी रात के समय जब सारा संसार सो जाता है सभी नींद में मग्न होते है देखो तब भी ये आंखें तेरी याद में रोती रहती है । इन नैनों में नींद कहां और यदी भुल से कभी नींद आने भी लगती है तो तेरी याद इन्हें ताना देती है। बस यहीं था तेरा मुर्शीद से इश्क.. कल तक तो तुम दीदार के लिए रोती थी आज गुरु से दूर होते ही उनमे बैरन नींद को जगह दे दी।एक बार किसी भावुक गोपी ने स्वप्न में प्रभु के दर्शन किए। सुबह ऊस गोपी ने स्वप्न मिलन की घटना दुसरी गोपी को सुनाई उस प्रेम में गोपी ने कहा धन्य हो गोपी जो तुम स्वप्न में तुम प्रभु से मिल लेती हो। परंतु यहां तो यहां तो प्राण प्यारे कन्हैया के जाने के बाद बैरन नींद भी छोड़ कर चली गयी है। *कही चुरा ले चोर न कोई दर्द तुम्हारा याद तुम्हारी इसलिए जाग कर जीवन भर आँसुओं ने की पहरेदारी।*विरह की यह भाव अवस्था बुद्धि का विषय नहीं है। इसे समझने के लिए तर्कयुक्त बुद्धि नहीं प्रेम भरा ह्रदय चाहिए यही कारण था कि उद्धव जी की शास्त्र विद बुद्धि ब्रज की सीधी साधी गोपियों के निश्चल प्रेम के आगे हार गई।वे रोती हुई गोपीयो के लिए प्रभु कृष्ण का संदेश लेकर आए थे उनके सिर पर ज्ञान की गठरी थी तो गोपीयो के आँखों मे विरह वेदना का नीर। वे अपने ज्ञान वैराग्य और तर्को से गोपीयो की गीली पलके सुखा देना चाहते थे। परंतु हुआ कुछ उलटा ही गोपियों ने ही उनके ह्रदय की खाली गागर में प्रेम का जल भर दिया। उनके जीवन में भक्ति व प्रेम का नया अध्याय खोल दिया। उन्होंने वापस मथुरा पहुंच कर प्रभु कृष्ण को उलाहवना देते हुए कहा कि आपने गोपियों को क्या दिया ? सिर्फ आँसू प्रभु यह ठीक नहीं किया आपने। वे आपसे कितना प्रेम करती हैं और आप उन्हें दर्द देते है।तब प्रभु श्रीकृष्ण ने भक्तिपद का एक मार्मिक सत्य उजागर किया। हे उधव! तुम क्या जानो मैंने गोपियों को क्या दे दिया है, मेरे खजाने का सबसे अनमोल रत्न है वीरह इसे ही मैंने उन पर वार दिया। वस्तुतः सत्य यही है कि, जिसपर तुम हो रीझते उसे क्या देते यदुवीर,* *रोना-धोना ,सिसकना ,आंहो की जागीर। भला यह कैसी तुकबंदी रोना-धोना, और जागीर । बात समझने वाली है दरअसल विरह अग्नि के समान होता है यू तो अग्नि का स्वभाव होता है जलाना परंतु विरह एक ऐसी अग्नि है जिसमे तपीश नही शीतलता है आँच नही ठंठक है। तभी तो विरह की अवस्था में भी परम आनंद का अनुभव होता है। आंखों से बरसते आंसुओं में भी अलौकिक रस भरा होता है।इसलिए विरह निःसंदेह एक शिष्य..एक भक्त के लिए सबसे अमुल्य नीधि है। बाबा फरीद कहते हैं विरहा तु सुलतानु विरह तो शाहों का शाह है।निर्मल और पवित्र कर देने वाली सबसे उँची भावना है।फरीदा जिस तनु बिरह जाहु न उपजे सो तन जानू मसानजिस ह्रदय मे विरह नहीं वह मानव स्मशान के तरह है।बेजान और निष्प्राण है ।इसलिए धन्य है वे भक्तजन जिनके भीतर प्रभु… गुरू विरह उमड़ती है।धन्य है वे आंखें जो गुरूप्रेम मे रोया करती हैं। वह ह्रदय जिससे प्रेम रस की धाराएं फुटा करती है वे आहे जो पल प्रतिपल गुरू को पुकारा करती है।
बहुत सूक्ष्म बात है, आम-आदमी न भी समझ सके फिर भी इस बात को सुनना तो बडा पुण्यदायी है। ‘‘मेरेमेंएकीभावसेस्थितहुआजोयोगीसंपूर्णप्राणियोंमेंस्थितमेराभजनकरताहैवहसब-कुछबर्तावकरताहुआभीमेरेमेंहीबर्तावकरताहैअर्थातवहसर्वथामेरेमेंहीरहता है, स्थितहै।’’
मरने
के बाद भगवान मिलेंगे, ये बात दूसरी है लेकिन यहाँ जीते-जी ‘भगवानमेंआपऔरआपमेंभगवान’- ऐसा अनुभव करने की बात गीता कहती है। ये भगवान का अनुग्रह है।
अनुग्रह
किसको बोलते है? ‘अनु’ माना ‘पीछे’, ‘ग्रह’ माना ‘जो पकड़ ले’। आप
जा रहे हैं और आपका ऐसा कुछ रास्ता है कि आपके परम हितैषी मित्र चाहते हैं कि ये चले जाएंगे, उधर
ये हो रहा है, वो हो रहा है, कहीं फँस न जाए।
आपको कल
समझाया। किसी
के द्वारा आपको समझाया गया, फिर भी आप जा रहे हैं और वो चुपके से पीछे आकर आपको दो भुजाओं में जकड़ ले, पकड़ ले, पता ही न चले, उसको बोलते हैं ‘अनुग्रह’। ‘अनु’ माना ‘पीछे’, ‘ग्रह’ माना ‘ग्रहण कर ले, पकड़ ले’।
तो
ये भगवान का… ‘गीता’
भगवान का ‘अनुग्रह’ है, ‘धरती’ भगवान का ‘अनुग्रह’
है, ‘जल’ भगवान का ‘अनुग्रह’ है। भगवान
‘अनुग्रह’ करते हैं तो भगवान के उपजाये हुए पाँच भूत भी भगवान के अनुग्रह के भाव से संपन्न है। पृथ्वी
कितनी कृपा करती है कि हमको ठौर देती है और हम धान बोते हैं और अनंत गुना करके देती हैं। चाहे
उस पर गंदगी फेंको, चाहे खोदो, चाहे कुछ करो लेकिन पृथ्वी मनुष्यों को, जीवों को अनुग्रह करके ठौर देती है, रहने की जगह
देती है, धन-धान्य, अन्न-फल आदि देती हैं। ऐसे ही ‘पृथ्वी’ पर अनुग्रह कर रहा है ‘जल’। ‘जल’ भी हम पर अनुग्रह कर रहा है और ‘पृथ्वी’ को भी स्थित रखता है। ‘जल’ पर अनुग्रह है ‘तेज’ का, ‘तेज’
पर अनुग्रह है ‘वायु’ का और ‘वायु’ पर अनुग्रह है ‘आकाश’ का… ‘आकाश’
उसको ठौर देता है और ‘वायु’ उसमें ही विचरण करता है और ‘आकाश’ पर अनुग्रह है ‘प्रकृति’ का और ‘प्रकृति’ भगवान की ‘शक्ति’ है। भगवान की शक्ति और
भगवान दिखते दो हों फिर भी एक हैं। जैसे ‘पुरूष’ और ‘पुरूष’ की ‘शक्ति’ भिन्न नहीं हो सकती। भई आप तो रोज का दिहाड़ी का साठ रूपया दीजिये और आपकी शक्ति का सौ रूपया अलग, ऐसा नहीं होता। कोई भी पुरूष अपनी ‘शक्ति’ अपने से ‘अलग’ दिखा नहीं सकता। जय रामजी की… । ‘आप’ में जो ‘शक्ति’ है, ‘आप’ अलग हो जायें और ‘शक्ति’ अलग हो जाये, ये नहीं होता।
तो
शक्ति और शक्तिवान एक, ऐसे भगवान और भगवान की शक्ति, आद्यशक्ति जिसको ‘जगदम्बा’ भी कहते हैं, ‘काली’
भी कहते हैं, ‘भगवती’ भी कहते हैं, वैष्णव लोग जिसे ‘रा…धा’ कहते हैं, वैष्णव लोग जिसे ‘श्री’ कहते हैं। ‘श्री’ भगवान की अभिन्न
शक्ति है और भगवान की अभिन्न शक्ति जो ‘श्री’ देवी हैं वो ‘राधा’ हैं। ‘रा…धा’
उलटा दो तो ‘धा…रा’। आपके अंतरात्मा की
जो सुरता है, जो धारा है वो अंतरात्मा से अलग नहीं हो सकती। अब उस धारा को केवल ठीक से समझ कर ठीक से बहने दो तो आपको ‘धारा’ कृष्ण से मिला देगी। अगर धारा को ठीक से समझा नहीं, ठीक से बहाया नहीं तो वो धारा आपको चौरासी लाख जन्मों में घुमाएगी। वो लोग सचमुच में महा अभागे हैं जिनको सत्संग नहीं मिलता।
जिन्हहरिकथासुनीनहिंकाना… जिन्होंने मनुष्य जीवन पाकर अपने कानों से भगवतकथा नहीं सुनी उनके कान साँप के बिल जैसे हैं।
जो भगवदगुणगान नहीं
करते उनकी जिव्हा मेंढक की जिव्हा जैसी है । मनुष्य
में दो शक्ति है- एक देखने
की शक्ति और दूसरी चिंतन करने की शक्ति। आप भगवान के श्रीविग्रह को देखो। भगवान की करुणा कृपा से ये पाँचभूत कितने-कितने उदार हैं उनको देखो। कल-कल,
छल-छल बह रहा है जल, उसमें देखो कि भगवतीय अनुग्रह ही तो बह रहा हैं। इसी
जल से औषधियाँ बनती है, इसी जल से अन्न बनता है, इसी जल से गन्ना बनता है और इसी जल से मिर्च बनती है। यह भगवान का जल पर अनुग्रह है और जल का हम पर अनुग्रह है। वाह प्रभु! तेरी लीला अपरंपार है… आप हो गये – यो मां पश्यति सर्वत्र…
आँख बंद करके भगवान का ध्यान
करनेवाले योगियों की तरह आप सब समाधि लगाओं, ये संभव नहीं लेकिन योगियों को जो फल मिलता है वह फल आपको खुली आँख, खेत-खली, मकान-दुकान और घर में, जहाँ-तहॉं आपको फलित हो जायेगी, ऐसा ज्ञान बता रहे हैं.. कृष्ण।
हवा लगी,
आहा.. ठंडी हवा लगी, उसके बदले में क्या दिया? ये वायुदेव का अनुग्रह है और वायु में चलने की सत्ता का अनुग्रह मेरे प्रभु का है। मेरे रब तेरी जय हो… । गरमी लगी
तो हाय! गरमी। लू आ रही है,
सर्दी के बाद गर्मी आती है, शरीर में जो कफ जमा हो गया है नाडियों में, उसको पिघलाने के लिये । तो वायु को गरम करके बाहर आयें तो तेरी लीला अपरंपार है । जय रामजी बोलना पडेगा ।
नन्हा-मुन्ना: पापा… माँ… अरे मेरे
बेटे…, बेटे को स्नेह तो करो लेकिन बेटे के दिल में तो धडकनें तुम्हारे परमेश्वर की ही है, वो परमेश्वर तुम्हारा माँ बोल रहा
है,
मैं तो प्रभु तेरी माँ हूँ,
ऐसा विचार करो । तो मुन्ने की माँ होकर, ममता करके, मुन्ना बड़ा होगा.. डॉक्टर बनेगा… लोगों का शोषण करेगा.. मर्सीडिस लायेगा… ऐसी दुआ करने की जरूरत ही नहीं । बच्चा बड़ा बनेगा… और सब में अपने पिया को देखेगा। अभी तो वो बच्चा मेरा नारायण रूप है… मेरा रामजी रूप है… मेरा तो बच्चा । वहां ममता नहीं भगवान की प्रीति करो, वो आपका भजन हो गया, बच्चे को प्यार करना भी आपका भजन बन गया,
जय रामजी बोलना पड़ेगा।
चलोतोचलेंजराआसमानदेखें, नजदीकजाकरनिहारे…
आसमानमेंसबतारा..
तारोंकाचाँदभीतू…
तेरामकानआला… जहाँ-तहॉं बसाहैतू...
चलोतोचलेंजराबाजारदेखें, बाजार जाकरनिहारे…
बाजारमेंसबआदम...आदमकादमभीतू,
तेरामकानआला… जहाँ-तहॉं बसाहैतू...
मेरे रब तेरी जय हो… कहीं जाटरूप तो कहीं बनियारूप, कहीं वकीलरूप तो कहीं नेतारूप तो कहीं जनता रूप, कहीं चोररूप तो कहीं सिपाहीरूप । तेरे क्या-क्या रूप और क्या क्या लीला है। हे मेरे प्रभु तेरी जय हो । आपके बाप का जावे क्या और भजन होवे पूरा, तेल लगे न फिटकरी.. रंग चोखो आवे,
चोखो रंग आवे चोखो… । आप एक बात पक्की मान लो कि आप संसार में भैंसे की नाईं बोझा ढोने के लिये पैदा नहीं हुए, आप संसार में पच मरने के लिये, चिंता की चक्की में पिस मरने के लिए नहीं आए, आप टेंशन के शिकार होने के लिये संसार में नहीं आए। हाय!
हाय!
हाय! हाय! कमाय! खाय!
कमाया खाया… धरा और मृत्यु का झटका लगा और मर गये और प्रेत होकर भटके, मर गये और भैंसे बन गये, मर गये और किसी योनि में चले गये, इसलिए आप संसार में नहीं आए हैं। आप तो संसार में आए कि संसार का कामकाज करते हुए, संसार के स्वामी की सत्ता से सब करते है,
और उसी की सत्ता से उसी को देखकर खुशहाल होते हुए उससे निहाल हो जाने के लिये आए हैं। ये पक्का कर लो।
A
WILL WILL FIND A WAY...
जहाँचाह,वहॉंराह...
आप
अपना हौंसला बुलंद और ईरादा शुद्ध कर लो बस। घर
से निकले, इरादा किया मंच पर पहुंचेंगे, सत्संग में पहुंचेगें तो
आ गये न, ऐसे ही जीवन
में ईरादा बना लो, परमात्मा तक पहुंचेंगे, परमात्मा का सुख उभारेंगे, परमात्मा का ज्ञान पाएंगे, परमात्मा का आनंद पाएंगे और अंत में परमात्मा से एक हो जाएंगे। ऐसा निर्णय करने से आपका तो भला हो जाएगा, आपके जो दीदार करेगा उसका भी पुण्य उभरने लग जायेगा। भाई साहब ऐसी बढि़या बात है… जय रामजी की।
सासु
कहती है- ये क्या जाने, कल की छोरी, मेरे बेटे को क्या रूचता है और क्या खाने से बेटा बीमार होता है, और क्या
खाने से तंदरुस्त होता है ! हॅूं.. चल दूर बैठ! मैं खाना बनाती हूँ,
बेटे इसके हाथ का मत खाना…
छिनाल का। मैं देती हॅूं बनाकर…। बहू
कहती है- चल री बुढिया, तुझे क्या पता, ये तो
मेरा प्राणनाथ है, मेरा पति है,
मैं इससे शादी करके आयी हूँ, तेरे साथ थोड़ी शादी की है
मैनें। हम और हमारे पति.. हम खाएंगे-पीएंगे, मौज करेंगे, तू जल्दी मर…। ननंद कहती है कि भाभी! ऐसा बक मत नहीं तो तेरी चोटी खींच लूंगी, मेरे भैया को तो मैं जानती
हूँ।
अब
भैया को तो प्यार तो बहन
भी करती है, भैया को प्यार
तो माँ भी करती है, उसी व्यक्ति को प्यार
पत्नी भी करती है, लेकिन अपना भेद बनाकर…। सासू-बहू, ननंद-भाभी
लड़ाई-झगड़ा करती है… अपनी संकीर्णता है। जय राम जी की। जो
व्यक्ति तेरा, ननंद का भैया है वही भाभी का पति है और वही माँ का बेटा है। ऐसे ही वही सभी का है बाप, सभी का बेटा,
सभी का मित्र और सभी का साथी है, ऐसा ज्ञान जब पक्का हो जाए तो मौज ही मौज हो जाए।
चलोतोचलेंजराबाजारदेखें
बाजारमेंसबआदम, आदमकादमभीतू
तेरामकानप्यारा,
आला! सबमेंबसाहैतू
चलोतोचलेंजराकिश्ती देखेंदरियामें
दरियामेंमिलेराहिब,राहिब कारबभीतू
तेरामकानआला,
जहातंहाबसाहैतू
कीड़ी मेंतूनानोलागे, हाथीमेंतूमोटोक्यूं
बण महावत नेमाथैबैठो,
हाँकणवालो तूकोतू
ऐसोखेलरच्योमेरेदाता,
जहाँदेखूँवहाँतूकोतू
बणबालकनेरोवा लाग्यो… उंवाँ… उंवाँ… उंवाँ…. अरे रे रे रे… ये देखो
चुहिया! क्या नाम है गुगलु…
ये
देख ले! वो रोनेवाले में भी तू बैठा है और चुप कराने वाले में कौन बैठा है..
बणबालकनेरोवा लाग्यो, छानो राखण वालो तू
लेझोलीनेमागणलाग्यों… ऐ बेन… रोटी
टुकडा दे दे… भूखी-प्यासी हॅूं… ऐ भईया आजा… इधर ले ये मोहनथाल…. ले जा… मेरी बहू
को मत बताना नहीं तो मरे को डांट देगी… आजकल की पढ़ाई की
लडकियाँ… ये सासू की इज्जत नहीं करती…
फिर बोलेगी इतना सारा दे दिया… बेटी तू भूखी है न.. लेजा.. लेजा… अपने बच्चों को खिलाना, लेजा मोहनथाल लेजा… पर बहू को मत बताना, चुपके से ले जा, ये पांच रुपये ले जा..
।
वो भिखारन मैं भी तू बैठा है और वो सासू में भी तू बैठा है और वो जिससे लड़ रही है उस बहू में भी तू बैठा है…। लड़नेवाला-डरनेवाला मन अलग-अलग है लेकिन मन की गहराई में सत्ता देनेवाला वो एक ही है। पंखे अलग-अलग कंपनी के,
फ्रीज अलग-अलग घर के और लाईट और बल्ब अलग-अलग है लेकिन पावरहाउस का करंट एक का एक । ऐसे सब के पावरहाउसों का पावरहाउस परब्रह्म परमात्मा रोम-रोम में रम रहा है, वो सच्चिदानंद परमात्मा एक का एक।
घने
जंगल से जा रहे हो, डर लगता
है कहीं आ न जाए कोई लूटनेवाला, मारनेवाला, कोई शेर और वरगड़ा लेकिन पास में, साथ में अगर एक बंदूकधारी साथ में चलता है न, तो हौंसला
बढ़ जाता है कि क्या कर लेगा कोई
भी जानवर, आदमी क्या कर लेगा, संतरी मेरे साथ है। एक
संतरी चार पैसे का साधन लेकर चलता है तो हिम्मत आ जाती है, ऐसे विश्वनीयंता परमात्मा मेरा आत्मा है… भगवान मेरे साथ हैं… हरि ॐ… हरि
ॐ… करके
तू आगे बढ़ता चला जा तो कितना भला हो जाएगा। जो संतरी का, मंत्री
का, कोई इसका-उसका सहारा ढूंढते है और
अंदर वाले का खयाल नहीं रखते उनका फिर कभी भी बुरा हाल हो जाता है। जय रामजी की। और जो अंदर वाले परमात्मा से मेल जोड़ करके फिर मंत्री-संतरी से मिलते है फिर वो तो काम ठीक रहता है ।
कबीरायहजगआयके…
बहुतसेकीनेमीत…
इस दुनिया में आकर बहुत ही यार-दोस्त बनाए, बहुतों को रीझाया, बहुतों को मस्का मारा..
कबीरायहजगआयके…
बहुतसेकीनेमीत…
जिन्ह दिल बाँधा एक से वो सोए निश्चिंत… तो आप एक दिल से बांधो ।