गुरूभक्तियोग
के मुख्य सिद्धान्त
गुरूभक्तियोग
की फिलॉसफी के मुताबिक गुरु एवं ईश्वर एकरूप हैं। अतः गुरू के प्रति सम्पूर्ण
आत्मसमर्पण करना अत्यंत आवश्यक है।
गुरू के प्रति
सम्पूर्ण आत्म-समर्पण करना यह गुरूभक्ति का सर्वोच्च सोपान है।
गुरूभक्तियोग
के अभ्यास में गुरूसेवा सर्वस्व है।
गुरूकृपा
गुरूभक्तियोग का आखिरी ध्येय है।
मोटी बुद्धि
का शिष्य गुरूभक्तियोग के अभ्यास में कोई निश्चित प्रगति नहीं कर सकता।
महाभारत में
एक कथा आती है। भीष्म पितामह युधिष्ठर से बोले : “किसी निर्जन वन में एक
जितेंद्रिय महर्षि रहते थे। वे सिद्धि से सम्पन्न, सदा सद्गुण में स्थित, सभी प्राणियों
की बोली एवं मनोभावों को जानने वाले थे। महर्षि के पास क्रूर स्वभाव वाले सिंह, भालू, चीते, बाघ तथा हाथी
भी आते थे। वे हिंसक जानवर भी ऋषि के पास शिष्य की भांति बैठते थे ।
एक कुत्ता उन
मुनि में ऐसा अनुरक्त था कि वो उनको छोड़कर कहीं जाता ही नही था ।
एक दिन एक
चीता उस कुत्ते को खाने आया । कुत्ते ने महर्षि से कहा : “भगवन ! यह चीता
मुझे मार डालना चाहता है । आप कुछ ऐसा करिए कि जिससे मुझे इस चीते से भय न हो
।”
मुनि : ”
बेटा ! इस चीते से तुम्हें भयभीत नही होना चाहिए। लो, मैं तुम्हें चीता बना देता हूँ ।”
मुनि ने उसे
चीता बना दिया । उसे देखकर दूसरे चीते का विरोधी भाव दूर हो गया।
एक दिन एक
भूखे बाघ ने उस चीते का पीछा किया । वह पुनः ऋषि की शरण मे आया । इस बार ऋषि ने
उसे बाघ बना दिया।
तो जंगली बाघ
उसे मार न सका।
एक दिन उस बाघ
ने अपनी तरफ एक मदोन्मत्त हाथी को आते देखा । वह भयभीत होकर फिर ऋषि की शरण मे आया
। मुनि ने उसे हाथी बना दिया तो जंगली हाथी भाग गया ।
कुछ दिन बाद
वहां केसरी सिंह आया । उसे देखकर हाथी भय से पीड़ित होकर ऋषि के पास गया तो अब ऋषि
ने उसे सिंह बना दिया। उसे देखकर जंगली सिंह डरकर भाग गया ।
एक दिन वहाँ
सभी प्राणियों का हिंसक शरभ आया ,जिसके आठ पैर और ऊपर की ओर नेत्र थे । शरभ को
आते देख सिंह भय से व्याकुल हो मुनि के पास गया अब मुनि ने उसे शरभ बना दिया ।
जंगली शरभ उससे भयभीत होकर भाग गया ।
मुनि के पास
शरभ सुख से रहने लगा । एक दिन उसने सोचा कि ‘ महर्षि के
केवल कह देने मात्र से मैने दुर्लभ शरभ का शरीर पा लिया। दूसरे भी बहुत -से मृग और
पक्षी हैं जो अन्य भयानक जानवरो से भयभीत रहते हैं।
ये मुनि उनको
भी शरभ का शरीर प्रदान कर दे तो ?
किसी दूसरे
जीव पर भी ये प्रसन्न हो और उसे भी ऐसा ही बल दे तो उसके पहले मैं महर्षि का
वध कर डालूँगा ।’
उस कृतघ्न शरभ
का मनोभाव जानकर महाज्ञानी मुनीश्वर बोले : “यद्यपि तू नीच कुल में पैदा हुआ
था। तो भी मैने स्नेहवश तेरा परित्याग नही किया । और अब हे पापी! तू इस प्रकार
मेरी हत्या करना चाहता है, अतः तू पुनः कुत्ता हो जा !”
महर्षि के
श्राप देते ही वह मुनि जनद्रोही दुष्टात्मा नीच शरभ में से फिर कुत्ता बन गया ।
ऋषि ने हुँकार करके उस पापी को तपोवन से निकाल दिया ।
उस कुत्ते की
तरह कुछ लोग ऐसे होते हैं कि जो महापुरुष उनको ऊपर उठाते हैं, जिनकी कृपा से
उनके जीवन मे सुख शांति समृद्धि आती है और जो उनके वास्तविक हितैषी होते हैं, उन्ही का बुरा
सोचने और करने का जघन्य अपराध करते हैं।
सन्त तो दयालु होते हैं वे ऐसे पापियों के अनेक अपराध क्षमा कर देते हैं पर नीच लोग अपनी दुष्टता नही छोड़ते ।
कृतघ्न, गुण चोर, निंदक अथवा
वैरभाव रखने वाला व्यक्ति अपने विनाश का कारण बन जाता है ।