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उसने सोचा न था, गुरु से किए कपट का इतना भयानक दंड भी हो सकता है…


गुरू भक्ति योग के निरन्तर अभ्यास के द्वारा मन की चंचल वृत्ति को निर्मूल करो। सच्चा साधक गुरु भक्ति योग के अभ्यास मे लालायित रहता है। गुरु की सेवा और गुरु के ही विचारो से दुनिया विषयक विचारो को दूर रखो। अपने गुरु से ऐसी शिकायत नही करना कि आपके अधिक काम के कारण साधना के लिए समय नही बचता। नींद तथा गपशप लगाने के समय मे कटौती करो। और कम खाओ तो आपको साधना के लिए काफी समय मिलेगा।

आचार्य की सेवा ही सर्वोच्च साधना है। जीवन थोड़ा है मृत्यु कब आएगी निश्चित नही है अतः गंभीरता से गुरु सेवा मे लग जाओ। अध्यात्मिक मार्ग तेज धार वाली तलवार का मार्ग है। जिनको इस मार्ग का अनुभव है ऐसे गुरु की अनिवार्य आवश्यकता है।

महाराष्ट्र के आपे नामक गांव मे संत ज्ञानेश्वर के पूर्वज ब्राह्मण जाति की पीढ़ीयो से पटवारी थे। उनके पिता विट्ठल पंत बचपन से ही सात्त्विक प्रवति के थे। जैसे जैसे विट्ठल बड़े होने लगे उनकी अध्यात्म मे रूचि बढ़ती गई। उन्होंने अनेक तीर्थ यात्राएं की जिससे उन्हे साधु संतो सनयासियों की संगति की। तीर्थ यात्रा पूरी करके वे पूणे के पास आलन्दी नामक गांव मे आये। उस समय एक सिध्दोपंत नामक एक सदाचारी ज्ञानी ब्राह्मण वहाँ के पटवारी थे।

वह इस अतिथि के ज्ञान सदाचारी भाव को देखकर प्रभावित हो गये। और उन्होंने अपनी पुत्री रुक्मणी का विवाह विट्ठल पंत से कर दिया। विवाह के पश्चात लम्बे समय तक विट्ठल को संतति प्राप्त न हो सकी। कुछ वर्षो के बाद विट्ठल के माता-पिता का देहांत हो गया। और अब परिवार की पूरी जिम्मेदारी विट्ठल के कंधो पर आ गयी। मगर परिवार के रहने के बावजूद भी विट्ठल का मन सांसारिक बातो मे नही लगता था उनका अधिकांश समय ईश्वर स्तुति मे ही गुजरता।

सिध्दोपंत ने यह जान लिया कि उनके दामाद का झुकाव दुनियादारी मे न होकर अध्यात्म मे है। इसलिए वो विट्ठल और रुक्मणी दोनो को अपने साथ आलन्दी ले आये। विट्ठल अब सन्यास गृहण कर वैवाहिक जीवन के बंधन से मुक्त होना चाहते थे। मगर इसके लिए पत्नी की सहमति जरूरी थी। उन्होंने रुक्मणी से सन्यास लेने के लिए अनुमति मांगना शुरू किया। रुक्मणी के कई बार मना करने और समझाने के बावजूद भी विट्ठल पंत बार बार उनसे अनुमति मांगते रहे ।

एक दिन तंग आकर रुक्मणी ने क्रोध मे कह दिया जाओ चले जाओ। विट्ठल तो सन्यास गृहण करने के लिए तो उतावले थे ही। इसलिए उन्होंने अपनी पत्नी के इन क्रोध पूर्ण शब्दो को ही उनकी अनुमति मान लिया। और तुरंत ही काशी की ओर रवाना हो गए। काशी मे उन्होंने महागुरू (यहाँ महागुरू रामानंद स्वामी को कह रहे है।) के पास जाकर उनसे आग्रह किया वे उन्हे सन्यास दीक्षा दें। यहाँ तक कि उन्होंने महागुरू से झूठ बोल दिया कि वे अकेले हैं और उनका कोई घर परिवार नही है क्योंकि उस समय किसी संसारी को सन्यासी बनाने की प्रथा नही थी।

महागुरू ने विट्ठल को अकेला जान अपना शिष्य बनाकर सन्यास की दीक्षा दी । अब यहाँ पर प्रश्न रहता है कि किसी बात की पात्रता पाने के लिए कपट करना जरूरी है, आवश्यक है! उस समय के समाज मे एक व्यक्ति के सन्यासी बनने की पात्रता थी कि उसका ग्रहस्थ न होना और यदि कोई ग्रहस्थ व्यक्ति सन्यास की दीक्षा लेना भी चाहता हो तो इस निर्णय मे पत्नी की पूरी सहमति होनी आवश्यक थी। और विट्ठल पंत इन दोनो की पात्रता पर खरे नही उतरे थे। उनकी पत्नी ने उन्हे सही मायने मे सन्यासी बनने की अनुमति नही दी थी। वे सिर्फ क्रोध मे निकले बोल थे जो सच्चे नही थे।

दरअसल विट्ठल पंत अपनी इच्छा पूरी करने के लिए इतने उतावले थे कि उन्होंने अपनी पत्नी के मुंह से वही सुना जो वे सुनना चाहते थे। वह नही जो रुक्मणी कहना चाहती थी।

यहाँ हमारा उद्देश्य भक्त हृदय विट्ठल पंत की आलोचना करना नही बल्कि मानव मात्र को समझना है कि वह कैसे अपना मनचाहा पाने के लिए उसकी पात्रता को एक तरफ रखकर अपनी चलाता है। और कपट करने से भी नही चुकता उसके कान वही सुनते है जो उसकी इच्छा पूर्ति मे सहायक हो। उसकी आंखो को वही दिखाई देता है जो वह देखना चाहता है। विट्ठल पंत सन्यास लेने की बाहरी पात्रता पर खरे नहीं उतरे थे। जब कि आंतरिक प्यास के अनुसार वे एक योग्य साधक थे। उन्होंने कपट किया लेकिन उनके भाव शुद्ध थे। वे भक्त थे । सन्यास लेकर सत्य प्राप्त करना चाहते थे । मगर सत्य और कपट दोनो विपरीत बातें हैं।

जिस तरह व्यक्ति के अच्छे कर्मो का फल आता है वैसे ही बुरे कर्मो का फल आता है। विट्ठल पंत की भक्ति का फल उन्हे मिला। उन्हे चार आत्मसाक्षात्कारी संतानो के मिलने का गौरव प्राप्त हुआ। ऐसी विलक्षण संतानो मे ज्ञान और भक्ति के बीज रोपने का अवसर मिला। जिसके बारे मे आगे हम जानेगे। मनुष्य अपने लाभ के लिए जाने अनजाने कपट करता है। सेवा मे अथवा आफिस मे पहुंचने मे देर हो गई तो फटाफट कोई झूठ बहाना गढ़ दिया। किसी दुसरे के कार्य का क्रेडिट खुद ले लिया। यह कपट कहाता है। यदि व्यक्ति अपने पूरे दिन की गतिविधियो पर कपट मुक्त होकर मनन करे तो उसे पता चलेगा कि वह दिनभर मे कितना कपट करता है। दुसरो के साथ भी और खुद के साथ भी । खुद के साथ इस तरह किया वह अपनी गलतीयो को छिपाने के लिए स्वयं से ही झूठ बोलता है मगर क्या आप जानते है कि सबसे बड़ा कपट कौन सा होता है।

वह कपट जो उच्च चेतना के साथ किया जाता है। किसी सच्चे अच्छे व्यक्ति के साथ किया जाता है । फलतः जितनी ऊंची सामने वाले की चेतना कपट भी उतना ही बड़ा आता है सबसे उच्च चेतना तो सद्गुरु की होती है ।
इसलिए सद्गुरु के साथ किया गया कपट सबसे बड़ा कपट माना गया है इसलिए इसे महाकपट कहा गया है। और विट्ठल पंत से यही महाकपट हुआ। उन्होंने अपने महागुरू से अपने सद्गुरु से अपने विवाहित होने की बात छिपाई। इस महाकपट का प्रायश्चित आगे चलकर उन्हे अपने प्राण देकर करना पड़ा। हमारे पूर्वज संतों ने इसी बात को अनेक पौराणिक कथाओ के माध्यम से समझाया है।

महाभारत की कथा का पात्र कर्ण, अर्जुन की तरह एक महान योद्धा था। मगर उसने अपने गुरु परशुराम से शास्त्र विद्या सिखने के लिए कपट किया। और अपना छिलाया उसे इस महाकपट का फल एक श्राप के रूप मे मिला कि जिस दिन इसे इस विद्या की सबसे अधिक जरूरत होगी उसी दिन यह विद्या उसके काम नही आएगी।

श्री कृष्ण उच्चतम चेतना के स्वामी थे उनके गुरुकुल के सहपाठी मित्र सुदामा धर्म परायण और संतोषी स्वभाव के थे। मगर एक बार सुदामा ने भूख के वश होकर श्री कृष्ण से कपट किया था। उन्होंने अपने बाल सखा के हिस्से के चने उनसे झुठ बोलकर खा लिये थे। कथा के अनुसार श्री कृष्ण जैसे उच्च चेतना के संग कपट करने का परिणाम यह हुआ कि आगे चलकर सुदामा को अपने दिन बड़ी गरीबी और अभाव मे गुजारने पड़े। उनकी गरीबी तब दुर हुई जब उन्होंने अपनी समस्त सम्पति जो कि कुछ मुठ्ठी चावल थे। उन्होंने श्री कृष्ण को अर्पण कर दिये थे।

जिस तरह डाक्टर से रोग छिपाकर या बढ़ा चढ़ाकर बताने से रोगी का ही नुकसान होता है।
ठीक ऐसे ही सद्गुरु से कपट करना साधक की अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने के बराबर है इसलिए स्वयं को ही नुकसान से बचाने के लिए साधक को यह प्रण अवश्य करना चाहिए। कम से कम खुद से और गुरु से कपट न हो। कपट करके कुछ मिल भी गया तो क्या लाभ? क्योंकि वह जीवन को पतित कर देगा।

यदि साधक कपट कर रहा है तो इसका अर्थ यह है कि वह ज्ञान लेने का पात्र ही नही बना। अपनी कमियाँ छिपाने के लिए गुरु को चार बाते छिपाकर बताना यह अपनी श्रेष्ठता दिखाने के लिए चार बाते बढ़ाकर बताने की जरूरत ही नही है। क्योंकि गुरु सर्वज्ञ है।

एक बात और गुरु यह आपसे आशा कभी नही रखते कि आप परफेक्ट बनकर उनके सामने आएं। यदि आप परफेक्ट होते तो आवश्यकता ही क्या रहती। गुरु मानव की कमजोरियां, चालाकियाँअच्छी तरह समझते हैं आपके मन के नाटक को वे अपना नाटक नही समझते बल्कि मन का नाटक समझते हैं और गुरु इसी मन को साधना सिखाते हैं इसी मन को कपट मुक्त करना चाहते हैं इसलिए गुरु के आगे गलतियाँ छिपाना व्यर्थ है वे आपको वही जानकर दिखते है जो आप वास्तव मे घटनाओ से घिरकर सम्भलकर गल्तीया करके और उन्हे सुधारकर ही परफेक्ट अवस्था की ओर साधक बढ़ता जाता है। इसलिए कपट की कोई आवश्यकता ही नही। जो है जैसा है उसे स्वीकार करे। और सब सीखकर आगे बढ़े। शायद हम सभी से हमारे गुरुदेव भी यही आशा रखते हैं!

भाई भिखारी की यह कथा सभी भक्तों व साधकों को जरूर पढ़नी चाहिए….


गुरुदेव की कल्याणकारी कृपा प्राप्त करने के लिए अपने अंतः कर्ण की गहराई से उनको प्रार्थना करो, ऐसी प्रार्थना चमत्कार कर सकती है । जिस शिष्य को गुरुभक्तियोग का अभ्यास करना है, उसके लिए कुसंग एक महान शत्रु है । गुरुभक्तियोग शुद्ध विज्ञान है, वह निम्न प्रकृति को वश में लाने की एवम् परम आनंद प्राप्त करने की रीति सिखाता है ।

गुरू में दृढ़ श्रद्धा साधक को अनंत ईश्वर के साथ एकरूप बनाती है । श्री अर्जुनदेव जी आज अपने आसन पर कुछ ऐसे दैदीप्यमान हो रहे थे, जैसे आसमान के सिंहासन पर पूर्णमासी का चंद्रमा और जैसे तारे दूर-2 से सिमट कर आसमान की गोद में झुरमुट बना लेते हैं, वैसे ही दूर-दराज से पधारे भक्त गुरुदेव के श्रीचरणों में सिमटे बैठे थे । एकाएक एक साधक ने प्रश्न किया कि गुरुदेव आज आपके दरबार में हजारों की तादाद में संगत बैठी है, परन्तु मैं जानना चाहता हूं कि इनमें से ऐसे कितने शिष्य हैं जो आपकी रजा में अपनी रजा मानते हैं ।

यह सुन गुरुदेव के मुख पर आयी प्रसन्नता एकदम गंभीरता में बदल गई और उनकी नज़रें संगत पर दौड़ने लगीं, लेकिन कहीं ठहरी नहीं और अंततः वापिस पुतलियों में आकर सिमट गई । यह देख सभी भक्तों के दिल थम गए क्योंकि इसका मतलब था इन सबमें से कोई भी नहीं । गुरुदेव ने कहा, हालांकि सम्पूर्ण आसमान में लाखों सूर्य हैं, लेकिन जैसे तुम्हें एक ही सूर्य दिखाई पड़ता है, वैसे ही मुझे भी इस घड़ी दूर गुजरात की धरती पर #भाई भिखारी के रूप में एक ही ऐसा शिष्य दिखाई पड़ रहा है ।

गुरुदेव का यह कथन सुनकर तो उस साधक की जिज्ञासा और भी प्रबल हो गई । अगले ही दिन भाई भिखारी से मिलने की चाह लिये वह गुजरात की तरफ कूच कर गया । उसके घर पहुंचा तो पता चला कि दो दिन बाद ही उसके सुपुत्र की शादी है, इसलिए सारा घर दुल्हन की तरह सजा था, सब लोग अपनी ही मस्ती में झूम रहे थे । उन्हें लगा कि वह जिज्ञासु साधक भी बाराती है, खैर किसी तरह पूछता-पाछता वह जिज्ञासु भाई भिखारी के पास पहुंचा और बोला मैं गुरुदरबार से आया हूं, गुरू अर्जुनदेव जी का शिष्य हूं ।

भाई भिखारी ने ज्यों-ही यह सुना तो उसके चेहरे पर प्रसन्नता के भाव भर आये, अरे आप खड़े क्यूं हैं आइये बैठिये । उस सज्जन पुरुष ने अपनी पत्नी से कहा कि जल्दी से भोजन और पानी का प्रबंध करो, हमारे गुरुभाई आये हैं इतनी दूर से चलकर । जिज्ञासु को ऐसा स्नेह प्राप्त कर अच्छा-सा लगा, लेकिन वह थोड़ा उलझन में भी था, कारण कि भाई भिखारी ने उसका सत्कार तो किया लेकिन अपना काम छोड़ कर खड़ा नहीं हुआ, और काम भी क्या कोई खास नहीं, मामूली-सा टाट बुनने का ।

वह टाट बुन रहा था और उसे बुनता ही रहा, वह भी इतना जल्दी -2 जैसे कि वह टाट शीघ्र ही चाहिए हो । फिर जिज्ञासु ने यह सोचा कि हो सकता है इनके रीति-रिवाज के अनुसार ऐसी टाट की आवश्यकता होती होगी, लेकिन यह छोटा काम तो मजदूर से करवाना चाहिए । बेटे की शादी हो और पिता इतने मामूली से कार्य में लगा रहे, यह तो कोई बात ना हुई । जिज्ञासु के मस्तिष्क में कहीं-ना-कहीं यह बात चुभ सी गई, लेकिन भूख और लंबे सफर की थकान ने कहा कि अभी खा-पीकर कुछ आराम कर लिया जाए ।

कई घंटों की नींद के बाद जब जिज्ञासु तरो-ताजा होकर उठा तो कुछ बातचीत करने के इरादे से फिर भाई भिखारी के पास पहुंचा, परंतु वहां पहुंचकर हैरान रह गया, क्योंकि भाई भिखारी तो अब भी टाट ही बुन रहा था । उसके पास ही खाने की थाली पड़ी थी, उसमें ठंडी सब्जी और सुखी रोटियां साफ कह रही थी कि थाली कब से उसके पास रखी थी । भोजन करना तो दूर उसने उसको सूंघ कर भी नहीं देखा था । जिज्ञासु का दिमाग अब प्रश्नों की उलझन में उलझे बिना ना रह सका, वह समझ नहीं पा रहा था कि आखिर शादी के अवसर पर इस टाट का क्या काम, क्योंकि टाट को तो जमीन पर बिछाकर उस पर बैठा जाता है और शादी में नीचे बैठना तो वैसे भी महा-अशुभ है ।

कारण कि नीचे तो तब बैठा जाता है जब घर में कोई मृत्यु हो जाए और ऐसे अशुभ की तो कोई सोच भी नहीं सकता, परंतु जिज्ञासु की भाई भिखारी से कुछ पूछने की हिम्मत ना हुई । यूं ही पूरा दिन बीत गया, फिर रात भी बीत गई लेकिन नहीं बीती तो वह कल वाली कहानी, टाट की कहानी । सुबह भी भाई भिखारी उस टाट को ही बुनने में लगा था, कितनी अजीब सी बात थी । ऐसी तन्मयता थी भाई भिखारी की टाट बुनने में, जैसे कोई लड़की अपने दहेज का सामान तैयार कर रही हो, वह दिन और रात भी उसी टाट की भेंट चढ़ गये ।

अगली सुबह हुई, आज भाई भिखारी के बेटे ने तैयारी कर ली घोड़ी चढ़ने की, जिज्ञासु को पूरा यकीन था कि आज तो भाई भिखारी को वह टाट के बिना देख पायेगा, लेकिन जिज्ञासु आवाक रह गया, उसका यकीन गलत निकला । वह समझ नहीं पा रहा था कि आखिर उस टाट का इस शगुन के अवसर पर क्या अर्थ है, अब जिज्ञासु खुद को रोक नहीं पाया और उसने पूछा ही लिया कि भाई भिखारी आखिर इस टाट में ऐसा क्या है ? तुम इस अवसर पर इसे क्यूं बुन रहे हो ? आने वाले कल की तैयारी हो रही है गुरूभाई ! बस इतना ही भाई भिखारी ने कहा और दोबारा टाट बुनने में लग गया ।

अब तो जिज्ञासु को लगने लगा कि अवश्य ही में किसी गलत व्यक्ति के घर चला आया हूं । यह तो निरा पागल दिखता है, परंतु फिर गुरुदेव ने लाखों को छोड़ इस अकेले का नाम क्यूं लिया । जिज्ञासु गुरुदेव के वचनों और अपनी बुद्धि के निर्णयों के बीच पिसता जा रहा था, इसी कशमकश में शादी का दिन भी गुजर गया । भाई भिखारी ने पूरा दिन शादी के रीति-रिवाजों में कोई रुचि नहीं दिखाई, उसका तो पूरा ध्यान अपनी टाट में ही था । जिज्ञासु ने अब यह सोचा कि मेरा यहां आना व्यर्थ हो गया, मुझे कल सुबह ही निकल जाना चाहिये, चलो भाई भिखारी को अपने जाने के बारे में बता दूं ।

रात्रि का पहला प्रहर बीतने को ही था, जिज्ञासु भाई भिखारी के पास पहुंचा तो पाया की वह लंबी चैन की सांस ले रहा है, उसकी टाट बनकर तैयार हो चुकी थी । जिज्ञासु ने जब सुबह उससे अपने लौटने की बात कही तो वह तुरंत बोला , नहीं भैया ! कल आप नहीं जा पायेंगे, इतना कहकर भाई भिखारी टाट समेटने लगा । अब जिज्ञासु ने कहा कि भाई माना कि तुम अपनी मर्ज़ी के मालिक हो लेकिन फिर भी क्या बताने का कष्ट करोगे की आखिर इस टाट का क्या रहस्य है ? भाई भिखारी बोला कुछ नहीं बस कर्ज चुकता करने का समय बिल्कुल मेरे सिर पर आ चुका था।

शुक्र है प्रभु का, कि मैंने तैयारियां मुक्कमल कर लीं । यह उत्तर सुनना था कि जिज्ञासु की खीज की हद ना रही और वह पैर पटकता हुआ अपने कक्ष में चला गया । सुबह होने को ही थी कि जिज्ञासु की नींद अचानक विलाप के शोर से खुल गई, वह दौड़ कर बरामदे में गया, वहां नवविवाहिता जोर -2 से रो रही थी । घर की अन्य स्त्रियां भी चीख चिल्ला रही थी, जिज्ञासु को कुछ समझ ना आया, वह दौड़ कर कमरे तक पहुंचा तो पता चला कि भाई भिखारी के बेटे के अचानक पेट में पीड़ा हुई और वह मृत्यु को प्राप्त हो गया । खबर फैलते ही पूरा मौहल्ला इकट्ठा हो गया, सब जल्द से जल्द पहुंच गए ।

सब थे वहां बस एक को छोड़ कर भाई भिखारी को, आखिर कहां था भाई भिखारी ! यह कैसे हो सकता है, अरे वह पिता था उस जवान लड़के का जो अभी -2 मृत्यु को प्राप्त हुआ, कहीं ऐसा तो नहीं कि वह किसी कमरे में छिप कर रो रहा हो । इस विचार के आते ही जिज्ञासु को भाई भिखारी से सुहानुभूति हुई, वह बोल पड़ा अरे कोई जाकर भाई भिखारी को भी तो संभालो । कहीं वह कुछ…. हां हां बहुत से पिता ऐसे सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाते, फिर उनकी कहीं से रोने धोने की आवाज़ भी तो नहीं आ रही है ।

मैं देखता हूं उन्हें, हे गुरुदेव उन्हें शक्ति दो । हड़बड़ाहट में जिज्ञासु ने एक-2 करके सारे कमरों में देखा, परन्तु उसे भाई भिखारी कहीं नहीं मिला, फिर दोबारा आंगन में आया तो भाई भिखारी को वहां पाया । इसे देख कर जिज्ञासु हैरान रह गया, वह ना रो रहा था ना दुखी परेशान लग रहा था बिल्कुल शांत था जैसे कुछ हुआ ही ना हो । और तो और उसके हाथों में अब भी वही टाट थी परन्तु अब उस टाट का औचित्य सबको समझ आ रहा था । भाई भिखारी ने आंगन से अन्य वस्तुएं हटाकर उसी टाट को बिछा दिया, फिर बेटे का मृतक शरीर उस टाट पर रख दिया गया।

परंतु जिज्ञासु के मन में अब भी एक दुविधा थी कि यह कैसा पिता है जवान बेटा मर गया और इसकी आंखों में अश्रु तक नहीं । क्या कोई दुख नहीं है इसको ? वरना चेहरे पर इतनी सहजता और बेफिक्री कैसी और यही भाव प्रश्न बन कर जिज्ञासु के होंठो पर आ गया । उत्तर में भाई भिखारी बस इतना ही बोला चलो अच्छा हुआ कर्ज चुक गया । जिज्ञासु ने हैरानी से कहा मतलब ! यही शब्द तो तुमने कल कहे थे, तुमने यह भी कहा था कि टाट आने वाले कल की तैयारी है, तो क्या इसी क्षण के लिए तुमने टाट बुनी थी ? क्या तुमको पहले ही सब पता था ? पता था गुरू भाई पता था तो तुमने अपने बेटे को बचाना क्यूं नहीं चाहा, बचाया क्यूं नहीं उसे ?

भाई भिखारी ने कहा कि वह मेरा बेटा नहीं था बल्कि प्रभु का था, मेरी तो प्रभु ने पिता का दायित्व निभाने की सेवा लगाई थी, जो आज पूर्ण हुई । जिज्ञासु यह सुनकर लगभग रो-सा दिया और कहा परन्तु तुम उसे बचा भी तो सकते थे अपने गुरुदेव से प्रार्थना करते । गुरुदेव सर्वसमर्थ हैं वे अपने प्यारों की पुकार अवश्य सुनते हैं, वे अवश्य ही तुम्हारे बेटे की मृत्यु टाल देते, अभी-2 तो शादी हुई कल और आज बेटे की मृत्यु हो गई । जब तुम्हें पता था तब गुरूदरबार में आ जाते या प्रार्थना करते गुरुदेव से, तुमने उनसे बेटे का जीवन क्यूं नहीं मांगा ?

भाई भिखारी ने कहा नहीं गुरूभाई नहीं ! भला मैं गुरुदेव के इंसाफ में बाधा कैसे डाल सकता हूं । सोचो क्या वे कभी गलत कर सकते हैं क्या ! क्या अब मैं उन्हें बताऊं की वे ऐसा नहीं ऐसा करें, यह तो मूर्खता होगी गुरुभाई । क्या गुरुदेव नहीं जानते कि मेरा हित-अहित किसमे है । मुझे पता है कि जो मुझे मिल रहा है वह गुरुदेव का ही तो प्रसाद है और नश्वर वस्तुओं के लिए प्रार्थना थोड़े ना हुआ करती है, प्रार्थना तो होती है आत्मिक स्तर को ऊंचा उठाने के लिए, इसलिए तुम शोक मत करो, सुमिरन करो गुरू की रजा में राजी रहो । इतना कह भाई भिखारी तो अंतिम संस्कार के कार्यों में लग गया लेकिन जिज्ञासु का शरीर पत्थर-सा हो गया, क्योंकि उसने प्रत्यक्ष देख लिया, कि गुरू की रजा में यूं राजी रहना आसान नहीं है ऐसा कार्य तो सच में विरले गुरुभक्त सतशिष्य ही सकते हैं ।

तांत्रिक सिद्धियों के स्वामी कुरेशभट्ट के अहम को गुरु ने कैसे विलीन किया…


गुरुभक्तियोग के निरंतर अभ्यास द्वारा मन की चंचलवृत्ति की निर्मूल करो। इस लोक के आपके जीवन का परम ध्येय और लक्ष्य अमरत्व प्रदान करनेवाली गुरुकृपा प्राप्त करना है। गुरु की सेवा करते समय श्रद्धा, आज्ञापालन और आत्मसमर्पण इन तीनो को याद रखो।

सद्गुरु की कृपादृष्टि शिष्य के लिए एक अमूल्य भेट होती है। सद्गुरु की दृष्टि समस्त कल्याण की जननी है, समस्त साधनाओ और तपस्याओं की परम सिद्धि है। सद्गुरु की दृष्टी साधक की साधना की विश्रामस्थली है।

भगवान शिवजी कहते हैं कि,

सकल भुवन सृष्टि कल्पिता शीश पुष्टिर।
निखिल निगम दृष्टि संपदा व्यर्थ दृष्टि।।

धनभागी हैं वे शिष्य जो निरंतर इस बात के लिए प्रयत्नशील हैं कि श्रीगुरु की कृपादृष्टि उनमें नित्य निवास करे। उनका हृदय अपने सद्गुरु की दिव्य दृष्टि की आलोक से आलोकित रहे। श्रीगुरु की कृपादृष्टि से ही समस्त जगत की सृष्टि हुई है। इसी से जगत के समस्त पदार्थों की पुष्टि होती है। समस्त सत्शास्त्रों का मर्म सद्गुरु की कृपादृष्टि में समाया है।

सद्गुरु की दृष्टि शिष्यों के समस्त अवगुणों को धुलकर परिमार्जित करती है। संसार में गुणों को विकसित करनेवाली, मोक्षमार्ग को प्रकाशित करनेवाली, सकल भुवनों के रंगमंच की स्थापना का परम कारण सद्गुरु की कृपादृष्टि है। सद्गुरु की कृपादृष्टि मोक्ष साधना का आधारस्तंभ है। करुणा रस का वर्णन करनेवाली इस सद्गुरु की कृपादृष्टि में पुरूष एवं प्रकृति, तथा अन्य 24 तत्व समाये है।

समष्टि की रूपमाला सकल समयसृष्टि सच्चिदानंद दृष्टि।
निमष तू मई नित्यं श्रीगुरुर दिव्यदृष्टि।।

समष्टि की रूपमाला जीवन के सभी नियम, काल आदि सभी कारण जिसमें समाये हैं, वह सच्चिदानंद स्वरूप श्रीगुरु की दृष्टि है। इस बारे में अनेक मार्मिक प्रसंग विख्यात है। इनमें से एक सत्य घटना ऐसी है जिसमें इन श्लोकों का मर्म उद्घाटित होता है। यह घटना विशिष्टाद्वैत संप्रदाय के संस्थापक श्रीरामानुजाचार्य के जीवन की है।

आचार्य की कृपा से अनेकों शिष्य धन्य हुए। इन धनभागी लोगों में कुरेशभट्ट की चर्चा होती है। इन कुरेशभट्ट ने अपने सच्चे शिष्यत्व से, सार्थक समर्पण से, स्वयं की अहंता के विसर्जन से गुरु की कृपादृष्टि को अनुभव किया, जीवन की सारी सार्थकता पाई, सच्चा अध्यात्म लाभ अर्जित किया।

कुरेशभट्ट असाधारण मनुष्य, परम तपस्वी एवं ख्यातिप्राप्त प्रकांड विद्वान थे। उनके तर्को की धार, प्रवाहपूर्ण प्रांजल भाषा पांडित्य मंडली को कुंठित कर देती थी। पंडित समाज में उनका भारी मान था। अनेकों योग एवं तंत्र की सिद्धियाँ उन्हें सहज सुलभ थी,परन्तु अध्यात्म के यथार्थ तत्व से वे वंचित थे। इस बात की कसक उनमें थी। लेकिन साथ ही उनमें कहीं इस बात का सूक्ष्म अहम भी था कि वे परम विद्वान एवं सिद्धिसम्पन्न हैं।

अध्यात्म की जिज्ञासा एवं विद्वता के अहम ने उन्हें द्वंद्व में डाल रखा था। समझ में नहीं आ रहा था कि वे किसे अपना मार्गदर्शक गुरु बनाये। अंत में बड़े सोच- विचार के बाद उन्होंने आचार्य रामानुज की शरण में जाने का निश्चय किया। आचार्य उन दिनों भारत की धरती पर सर्वमान्य विद्वान थे। उनके तप के प्रवाह से समस्त दिशायें प्रकाशित थी।

अपनी जिज्ञासा को लेकर कुरेशभट्ट श्रीरामानुज के पास पहुँच गये। परन्तु उनकी अहमवृत्ति के कारण आचार्य ने उन्हें अस्वीकृत कर दिया। कई बार उन्होंने इसके लिए प्रयास किया, परन्तु हर बार असफल रहे। यहाँ मर्म की बात यह है कि गुरु ही सदैव शिष्य को चुनते हैं। शिष्य में वह योग्यता कहाँ कि गुरु को चुन सके।

एक दिन जब वे आचार्य के पास बैठे थे आचार्य की मुँह बोली बहन अतुला उनके पास आई और बोली,” भैय्या! ससुराल में मुझे रोटी बनाने में बड़ा कष्ट होता है। आपके पास यदि कोई उपयुक्त व्यक्ति हो तो उसे मुझे दे दीजिए। ताकि वह मेरी ससुराल में खाना पका सके। “

कुछ देर सोचने के बाद आचार्य की दृष्टि पास बैठे कुरेशभट्ट की ओर गई और उन्होंने कहा, “कुरेश! मैं तुम्हें अपना शिष्य तो नहीं बना सकता परन्तु यदि तुम चाहो तो मेरी इस बहन के यहाँ रसोई बना सकते हो।”

परम धनवान, महाविद्वान, प्रचंड तपस्वी, सिद्धिसम्पन्न कुरेशभट्ट के लिए ऐसा प्रस्ताव सुनकर पास बैठे हुए लोग चौक पड़े। लेकिन कुरेशभट्ट अहंभाव से भले ग्रस्त हो, परन्तु शास्त्रों के मर्म से वे भलीभाँति परिचित थे। उन्हें सद्गुरु की कृपादृष्टि का मर्म पता था। बिना क्षण के देर लगाये प्रस्ताव स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा, “प्रभु! आप शिष्य ना सही मुझे अपना सेवक होने का गौरव दे रहे हैं। यही मेरे लिए सबकुछ है।”

उस क्षण से लेकर दिन, सप्ताह, महीने और वर्षों की कतार बीत गई। वर्षों तक गुरुआज्ञा को शिरोधार्य करे वह अतुला के ससुराल में रोटी बनाते रहे। सबको प्रेमपूर्वक भोजन कराते रहे। साथ ही सेवा के प्रभाव से उनका मन सद्गुरु के ध्यान में सदैव रमा रहता। भाव से, प्रार्थना से और विरह की निरंतरता से उनका सारा अहम धूल गया। उनकी चेतना उनके सद्गुरु से एक हो गई। आत्मज्ञान एवं ब्रम्हज्ञान की विभूतियाँ उनमें आ विराजी।

एक दिन आचार्य उन्हें लेने स्वयं उनके पास आये और बोले, “वत्स! अब तुम स्वतः ही मेरे शिष्य बन गए हो।”

ऐसा कहते हुए आचार्य ने अपनी अमृतवर्षिणी कृपादृष्टि कुरेशभट्ट के ऊपर डालते हुए उसे कृतकृत्य कर दिया। कुरेशभट्ट के सम्पूर्ण सेवा का फल सद्गुरु ने एक दृष्टी में दे दिया। सचमुच ही सद्गुरु की दृष्टी ऐसी है जो शिष्य के जीवन को शुद्धतम कनक बना देती है।