All posts by Gurubhakti

बुल्लेशाह ने किया कुछ ऐसा कौतुक कि उस दर्जी को इबादत का सच्चा मर्म सीखा दिया…


संसार या सांसारिक प्रक्रिया के मूल में मन है। बंधन और मुक्ति, सुख और दुख का कारण मन है।इस मन को गुरुभक्तियोग के अभ्यास से ही नियंत्रित किया जा सकता है।

दरअसल बात उस समय की है जब दर्जी हज करके लौटा और लोगों के बीच अपनी तारीफों के पुल खड़ा करता रहा। गाँववाले उसका तजुर्बा सुन-2 कर रस ले रहे थे। वही भीड़ के बीचो-बीच साँई बुल्लेशाह जी भी बैठे थे और दर्जी उन्हींकी तरफ मुख करके, उन्हींकी तरफ ज्यादातर देख-2 कर अपने हज के किस्से सुनाये जा रहा था और साँई बुल्लेशाह भी बड़े चाव से सुन रहे थे।

लेकिन फिर एकाएक बुल्लेशाह के मन मे कौतुक करने की सूझी। दरअसल वो दर्जी को इबादत का सच्चा मर्म बतलाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने दर्जी के गोद में बिखरा हुआ कपड़ा जिसे दर्जी सील रहा था, उठा लिया। उस कपड़े में धागा पिरोई हुई एक सुई भी लगी थी। बुल्लेशाह ने उस सुई को लिया और उससे धागा निकाल दिया। फिर बड़ी एकाग्रता से उस बिन धागे की सुई को कपड़े के आरपार-2 घुसाने लगे।

दर्जी ने कहा, “साँई! कैसी बच्चों जैसी बात करते हो? बिना धागे के अकेली सुई कैसे कपड़ा सील सकती है? पहले इसमे धागा तो डालो।”

बुल्लेशाह ने कहा, यही तो मैं भी तुम्हें बतलाना चाहता हूँ कि-

जिचलना इश्क मजाजी लागे,
सुई सीवे न बिन धागे।
अर्थात जैसे एक सुई बिना धागे की नही सिलती वैसे ही इश्क मजाजी अर्थात गुरु की भक्ति बिना इश्क की हकीकी प्रभु की भक्ति कभी नहीं मिल सकती। कितने भी हज करलो, लेकिन गुरु का रहमोकरम, इल्मो ज्ञान जब खुदा की इबादत से जुड़ता है तभी बात बनती है।कपड़े में खाली सुई चलाना बेकार है।

हाजी साहब!

बिन मुर्शिद क़ामिल बुल्ल्या,
तेरी एवं गई इबादत कीती।

बिना कामिल मुर्शिद अर्थात पूर्ण सद्गुरु के बिना तेरी सारी इबादत, तेरे किये हुए सारे हज यूँ ही पानी हो गये।

उल्लू सूर्य के प्रकाश के अस्तित्व को माने या न माने, किन्तु सूर्य तो सदा प्रकाशित रहता है। उसी प्रकार अज्ञानी और चंचल मनवाला शिष्य माने या न माने फिर भी गुरु की कल्याणकारी कृपा ही चमत्कारी परिणाम देती है।

गुरुदेव की कल्याणकारी कृपा प्राप्त करने के लिए अपने अन्तःकरण की गहराई से उनको प्रार्थना करो। ऐसी प्रार्थना ही चमत्कार कर सकती है। गुरुभक्तियोग शुद्ध विज्ञान है। वह निम्न प्रकृति को वश में लाने की एवं परम आनंद प्राप्त करने की रीति सिखाता है।

जिस शिष्य को गुरुभक्तियोग का अभ्यास करना है, उसके लिए कुसंग एक महान शत्रु है। जो नैतिक पूर्णता गुरु की भक्ति आदि के बिना ही गुरुभक्तियोग का अभ्यास करता है, उसे गुरुकृपा नहीं मिलती। गुरु में अविचल श्रद्धा शिष्य को कैसी भी मुसीबत से पार होने की गूढ़ शक्ति देता है

समन व मुसन की कथा (भाग-2)


गुरुभक्तियोग एक स्वतंत्र योग है। कल हमने सुना कि समन-मुसन ने सेठ के घर चोरी करके सत्संग कार्यक्रम के लिए आवश्यक धन इकट्ठा करने का फैसला किया। साथ ही यह भी प्रण लिया कि बाद में मेहनत-मजदूरी करके सेठ की 1-1 पाई लौटा देंगे।

वे दोनों सेठ के घर की छत पर पहुँच गये और योजना के अनुसार पुत्र मुसन नीचे उतर गया। परन्तु यह क्या? मुसन के आश्चर्य की तो सीमा ही न रही। हैरानी से उसकी आँखें तिजोरी की तरफ देखने लगी। क्योंकि पता नहीं किस दैवी संयोग से आज सेठ चाबी तिजोरी पर लगी ही छोड़ गया था।

मुसन ने हिम्मत कर जैसे ही अपनी उंगलियों को चाबियों पर फेरा तिजोरी का ताला खुल गया। भीतर की सारी संपदा बाहर झाँकने लगी। मुसन ने इनती दौलत पहली बार देखी थी, जिसे देख कोई भी फिसल जाय। लेकिन मुसन नहीं फिसला। आवश्यक धनराशी ही उसने गठड़ी में बांधी। वह गठड़ी उठाने ही वाला था कि अचानक सेठ की नींद खुल गई।

इससे पहले कि कुछ अनहोनी घटती, मुसन ने फटाफट पोटली उठाई और ऊपर पिता समन की ओर फेंक दी। लेकिन दुर्भाग्य जब वह बाहर निकलने लगा तब पिता समन का हाथ फिसल गया और मुसन नीचे जा गिरा। गिरते ही ‘धम्म’ की आवाज हुई। इस आवाज ने सेठ को और सचेत कर दिया।

पुत्र मुसन सँभला और छत के छेद से निकलने के लिए ऊपर कूदा। पिता ने बस पकड़के बाहर निकाल ही लेना था, मुसन का आधा शरीर छत पर ही आ गया था। इससे पहले की मुसन पूरी तरह बाहर निकल पाता सेठ ने फूर्ति दिखाते हुए मुसन को नीचे टांगो से पकड़ लिया।

मुसन बुरी तरह से घबरा गया। उसने खुद को छुड़ाने की भरसक कोशिश की किन्तु छुड़ा न पाया। सेठ मुसन को खींचकर नीचे गिराने की कोशिश करने लगा। साथ ही जोर-2 से चिल्लाकर चौकीदार व नौकरों को बुलाने लगा।

मुसन ने कहा, “पिताजी! लगता है अब मैं नहीं बच पाऊँगा। मेरी सारी कोशिशें नाकाम हो गई।”

पिता समन ने कहा, “नही पुत्तर! नहीं। यह अनर्थ नहीं हो सकता। तू हिम्मत कर।”

“मैंने सब करके देख लिया पिताजी, लेकिन कोई फायदा नहीं।” बेटे के इन वाक्यों ने बूढ़े समन को और भी बुढ़ा बना दिया। उसकी आँखों के सामने भविष्य के डरावने चित्र घूमने लगे। उनमें लोगों के ताने दिखने लगी कि, “अरे! देखो , गुरु अर्जुनदेव जी के शिष्य चोरी करते पकड़े गये। अरे! शिष्य ऐसे हैं तो फिर गुरु कैसे होंगे?”

कमाल की बात है! समन को चिंता तो है, परन्तु खुद की या बेटे की नहीं। उसे यह डर नहीं लग रहा कि अब हम पकड़े जायेंगे, पूरे खानदान की इज्ज़त ख़ाक हो जायेगी। वह यह सोच तो दूर-2 तक नहीं थी। उसकी साँसों में तो बस एक ही बात अटकी थी कि अब गुरुजी की इज्ज़त का क्या होगा? हमारे नाम से जो गुरुदेव के पवित्र नाम को कलंक लगेगा, आखिर उसको हम कैसे चुका पायेंगे?

समन के भीतर जो ये प्रश्न उठ रहे थे वे पता नहीं कब शब्द बनकर होठों पे आ गये। उन्हें सुन छत में फँसा पुत्र मुसन और भी फँस गया। पिता को देखा मुसन अथाह बेबसी में भीगे आँसू उसकी आँखो से निकल पड़े।

शायद ये आँसू कह रहे थे कि , “हे भगवान! यह मुझसे क्या हो गया। जो भूल कभी सपने में भी नहीं होनी थी वह मैंने हकीकत में कर डाली। हो सके तो मुझे क्षमा कर देना गुरुदेव। मेरे कुकर्मों के कारण आपके दूध से भी ज्यादा उजले और गंगा से भी अधिक पवित्र नाम पर कालिक पुतने जा रही है। हाय! मेरा दुर्भाग्य। दाते! हो सके तो मुझे क्षमा कर देना, लेकिन नहीं क्षमा का तो मैं अब अधिकारी ही नही बचा। अब तो नरकों में भी मेरे लिए स्थान न होगा।”

बड़ी ही विचारणीय बात है कि शिष्य के दुष्कृत्यों से ही गुरुको समाज द्वारा लांछन सहना पड़ता है। व्यक्ति जब गुरूमुख होता है तब समस्त समाज उस व्यक्ति को उसके गुरु से जोड़कर उसे निहारता है,देखता है। समाज यह देखता है कि गुरुमुख व्यक्ति का आचरण कैसा है। इससे उसके गुरु को नापने की समाज कोशिश करता है। अतः शिष्य को इस बात का खूब खयाल रखना चाहिए कि उसके कृत्य ऐसे हो कि समाज उसके गुरु को लांछित करने का अवसर ही न पा सके। वह शिष्य बड़ा ही अभागा है, बल्कि बड़ा ही नीच है जो कोई भी कार्य बिना विचारे करता है। जिससे उसके गुरूपर समाज उँगलियाँ उठा पाता है।

परन्तु आज मुसन भी इसी दुविधा में है। सहसा ही उसे अंतःप्रेरणा हुई कि “मुसन! अपना सिर देकर अगर यार की शान सलामत रहे तो उसे बेझिझक कुर्बान कर डालो। यह तो तय ही है कि तू नीचे अब गिरेगा ही। परन्तु सेठ ने अभी तेरी शक्ल नही देखी है और तेरी पहचान तेरे धड़ से नहीं बल्कि शीश से है। इसलिए कह अपने पिता को कि वह तेरी पहचान काटकर साथ ले जाये और धड़ यही छोड़ जाये। बस यही एक रास्ता है। कर सकता है तो सदके कर, नही तो अब सोच क्या रहा है ? फैसला तेरे हाथ में है। एक तरफ गुरु का सिर है और एक तरफ तेरा। बता, किसे कुर्बान करेगा? कौन तुझे प्यारा है?”

अंतरआत्मा की आवाज सुनते ही पुत्र मुसन ने कहा, “पिताजी! जल्दी करे। जो छुरी आप साथ लाये थे, उससे मेरा शीश काट लें।”

पिता समन के सिर पर मानो एक पहाड़ गिरा। उसके मुँह से बस इतना ही निकला,”क्या?”

हाँ! पिताजी हाँ! चौकिये मत। अब बस यही एक रास्ता है। मेरे शीश के कटने से अगर गुरुदेव का मान-सम्मान बच रहा है तो इससे ज्यादा लाभ का सौदा और क्या हो सकता है? अब सोचिये मत। नहीं तो हमारे भाग्य में आजीवन सोचना ही रह जायेगा। मैं हैरान हूँ! आखिर आपकी छुरी किस शुभ मुहूरत का इंतजार कर रही है। लगता है पिताजी आपके हाथ काँप रहे हैं, लेकिन इन्हें समझाओ कि मेरे जैसे तो आपको हजारों मिल जायेंगे इस दुनिया में। लेकिन लाखो जन्म न्योछावर करके भी क्या गुरुदेव का ऋण आप चुका पायेंगे? गुरुदेव के दामन को कलंकित देखकर क्या आप जीवित रह पायेंगे?…नहीं! बिल्कुल नहीं। जल्दी करो पिताजी, जल्दी करो।

आप ही सोचिये कि एक पिता के लिए इससे भयंकर मुश्किल की घड़ी और क्या होगी कि जिस पिता ने पुत्र को अपने कंधों पर बिठाकर घुमाया, उसीका खुद अपने हाथों से शीश काटना पड़े। लेकिन समन ने मिसाल कायम की। इससे पहले कि पलक भी झपके समन ने फैसला कर लिया। फैसला भी इतना वजनदार कि उसे बयाँ करने के लिए इतिहास को वैसे वजनदार शब्द नहीं मिले।

पिता समन ने झट से तेजदार छुरी कसके अपने एक हाथ में ली और दूसरे हाथ में पुत्र मुसन का शीश। मुसन के शीश को समन ने यूँ पकड़ा मानो वह शीश अपने प्रिय पुत्र का न होकर महज दो टके में खरीदा नारियल हो। और इसके बाद पिता समन ने आँखे बंद कर गहरी लम्बी श्वास भरी और… पिता समन का पूरा चेहरा भर गया उन लाल बूंदों से जो मुसन की गर्दन कटनेपर फुहारों के रूप में निकली थी।

समन के काँपते हाथों में रह गई पलटी पुतलियों वाली वह शीश की जागीर! जिसे दुनिया का कोई पिता अपने नाम नहीं लिखवाना चाहेगा। परन्तु वह पलट चुकी पुतलियाँ अब भी कुछ कह रही थी कि “पिताजी!अब तो आपको फक्र होगा ना अपने लाडलेपर!”

पिता समन ने एक हाथ में धन की गठरी तो दूसरे हाथ में बेटे की खोपड़ी थामकर घर की डगर पकड़ ली।

इधर समन घर पहुँचनेवाला था और उधर सेठ की हालत खराब थी । सर कटी लाश को देखकर उसे चक्कर आ रहे थे। उसे लगा कि यह जरूर उसके दुश्मनों की चाल होगी। जो उसे हत्यारा सिद्ध कर जेल भिजवाना चाहते हैं। हवालात की पूरी उम्र चक्की पीसने और फाँसी के फंदे की कल्पना से सेठ काँप गया।

तभी उसे अचानक याद आया कि इस सिर कटी लाश को समन और मुसन ही ठिकानें लगा सकता है, क्योंकि उन्हें धन की आवश्यकता है। यही सोचकर सेठ पलभर की भी देरी किये बिना समन और मुसन कि घर की तरफ चल पड़ा।

पिता समन ने घर पहुँचते ही एक गीले कपड़े में मुसन का शीश लपेटा और चौबारे के एक कोने में रख दिया। वह अभी चौबारे से नीचे आ ही रहा था कि सामने सेठ को खड़ा पाया। समन के तो पैर तले से जमीन खिसक गई इससे पहले की वह कोई क्रिया करता, सेठ उसके आगे मिन्नतें करने लगा।

समन भाई मुझे तुम्हारी मदद की जरूरत है। कैसे भी करके मेरी हवेली में पड़ी एक लाश को ठिकाने लगा दो, वह भी सुबह होने से पहले-2 । किसी को इस बात की भनक तक भी नहीं लगनी चाहिए। इस काम की मैं तुम्हें मुँह मांगी रकम दूँगा। उस रकम से भी कई गुना ज्यादा जो आज सुबह तुम मुझसे उधारपर लेने आये थे। बस मेरा यह काम कर दो।

समन ने यह सुना तो मन ही मन गुरु को धन्यवाद किया कि “हे गुरुदेव! तुम्हें अभी भी मुसन की चिंता है। तुम्हें फिक्र है कि मुसन की लाश जगह-2 ना बिखरे, इसलिए तुमने उसे ठिकाने पहुंचाने का इंतजाम भी कर दिया।”

समन जल्दी ही मुसन की लाश घर उठा लाया और जहाँ उसका सिर रखा था वही धड़ भी बिल्कुल सटाकर रख दिया। आज पूरी प्रकृति भी मानो इस प्रक्रिया के घट जाने का ही इंतजार कर रही थी। क्योंकि इसीके पूरा होनेपर सूर्योदय हुआ।

सब कार्यक्रम की तैयारियों में जुट गये। समन को देखकर कोई रत्तीभर भी यह अनुमान नहीं लगा सकता था कि उसने रातभर इतने बड़े तूफान का सामना किया है। यह गुरुदेव के प्रेम का ही असर था कि समन की होठोंपर अब भी मुस्कुराहट थी। वरना जवान बेटा जहाँ खत्म हो जाये वहाँ महीनों चूल्हा नही जलता। जब कि समन तो एकसाथ भंडारे के लिए, सैकड़ों के लिए चूल्हा जलाने की तैयारी कर रहा था।

देखते ही देखते सब कार्य गुरुदेव की कृपा से समयपर सम्पन्न होने लगे और गुरुदेव का शुभ आगमन भी बिल्कुल निर्धारित समय पर हुआ। जैसे ही गुरु महाराज जी पधारे जयकारों की दुनदुमियो ने पूरा वातावरण जोशो-खरोश से भर दिया। हर जन की रोमावली आनंदित हो उठी। समन की भी कमर तोड़ देनेवाली थकान व सागर जैसा गहरा दुख गुरुदेव के दर्शन मात्र से मानो छूमंतर हो गया। वह भूल ही गया कि रात को कुछ हुआ भी था।

गुरुदेव ने ऐसी कृपा की, कि कार्यक्रम में खूब रँग जमा। खूब भजन भी हुए और काफी देर तक गुरुदेव के अमृतमय प्रवचन भी संगत को सुनने को मिला । इससे पहले की भंडारा शुरू हो श्रीगुरुदेव के लिए भोजन की थाली परोसकर लायी गई। अब गुरुदेव ने बड़ी सहजता से समन से पूँछा, “समन! क्या बात है मुसन दिखाई नहीं दे रहा? कहा है वो?”

समन ने यह सुना तो उसे लगा कि जैसे किसी ने उसे झंझोड़ कर नींद से उठा दिया हो और उसका अच्छा भला सपना टूट गया हो। उसे कुछ समझ नहीं आया कि वह आखिर क्या जबाब दे। गुरुदेव के इस प्रश्न का समन के पास कोई उत्तर नही था। सो उसकी आँखे गुरुदेव से एक ही प्रश्न पूँछने लगी- “क्या सचमें आप नहीं जानते कि मुसन कहाँ है गुरुदेव?”

फिर गुरुदेव ने कहा, “समन! तुम कुछ बोल क्यूँ नही रहे? मुसन कहाँ है? जाओ उसे बुला लाओ। कहो कि हम बुला रहे हैं।”

समन की दुविधा का अनुमान समन बनकर ही लगाया जा सकता है। “गुरुदेव! आप किसीको बुलाये और वह न आये, ऐसा तो प्रकृति का स्वभाव ही नहीं। आप की वाणी में तो वो असर है कि जन्मजात बहरे तो क्या, कब्रों में गड़े मुर्दे भी उसे सुन उसका पालन करते हैं। रही बात मुसन की तो उसको कहाँ जाना है,यही कही होगा आप ही की निगाह में। लेकिन कृपया पहले आप प्रसाद ग्रहण करें।”

समन! तुम आखिर बता क्यों नही रहे कि मुसन कहाँ है? हमारा भी आज हठ है कि हम तब तक प्रसाद ग्रहण नही करेंगे कि जब तक मुसन स्वयं आकर हमें थाली नहीं परोसेगा।

समन के दिल के बांध अब टूट गये, क्योंकि इस शर्त का भार उठाने के काबिल वे नहीं थे। बेबसी में बंधे उसके दोनों हाथ जुड़ गये और अबतक आँखों मे रोकी हुई अश्रु नदी बह निकली। “हे गुरुवर! मैं कैसे बताऊँ कि मुसन कहाँ है? बस इतना जानता हूँ कि अब वो यहाँ नहीं है। मैने उसे बहोत दूर भेज दिया है। इतनी दूर…इतनी दूर कि वहाँ से मैं उसे वापिस लौटाकर नहीं ला सकता। इसलिए हे समस्त दुनिया के मालिक! कृपया मुझे न कहे कि मैं उसे आवाज दूँ। लेकिन हाँ! अगर आवाज देनी ही है तो आप उसे आवाज दे, क्योंकि आपकी आवाज ही है जो वहाँ तक पहुँच सकती है। और देखियेगा महाराज! मुसन आपकी आवाज अनसुनी नहीं कर सकेगा। आपके बस एकबार आवाज देने की देर है फिर तो वह कब्र फाड़कर भी बाहर आ जायेगा।”

“गुरुदेव! सच कहता हूँ वह हर किसीका कहना काट सकता है, काटने को तो वह अपना शीश भी काट सकता है, लेकिन भूल से भी आपके वचनों को नहीं काट सकता। इसलिए गुरुदेव! उसे पुकारिये-2 । पुछिये उससे की वह कहाँ है? उसीसे पुछिये।” बस! समन के पास शब्दो का कोष खत्म हो गया और आँसुओ की नदी अपनी हदे तोड़कर गुरुदेव के चरणों के तरफ बहने लगी।

गुरुदेव मौन थे, क्योंकि जिस पवित्र प्रेमभरे आँसुओ की नदी में वे भीग रहे थे, वह सदियों में कभी-कभार ही नसीब होती है। समन व मुसन की मीठी प्रीत की यह मीठी सरिता केवल और केवल उन्हीं के चरणों की तरफ दौड़ना जानती थी और समाना भी।

गुरुदेव भी इस रसधारा में अपना रोम-2 तर कर रहे थे और फिर अचानक गुरुदेव मौज में आ गये। हाथ ऊपर उठाकर बुलंद आवाज में वे कुछ बोले। “मुसन तुम कहाँ हो? हम तुम्हें बुला रहे हैं, शीघ्र हमारे पास आओ।” इस एक आवाज ने किसी एक शहर या देश का कानून नहीं, बल्कि पूरी सृष्टि का कानून तोड़ दिया और शायद यह गुनाह तो ऐसा है जिसे गुरुदेव हर सतशिष्य के लिए कर देते हैं और बार-2 करते हैं।

जैसे ही गुरुदेव ने बाँहे उठाकर कहा, तो मुसन जो मर गया था चौबारे से जयकारा लगाते हुए नीच उतरा दिखाई दिया। मुसन सीढ़ियों को कूदता हुआ नीचे पहुँचा और फिर सीधा गुरु महाराज श्री के चरणों में लिपट गया।

गुरु महाराज, समन और मुसन के सिवा कौन जानता था कि कल रात क्या घटा और अभी क्या घट गया। कहाँ एक पल पहले तक कब्र की घुटन थी और अब इस पल जीवन का सुंदर राग। गुरुदेव मुसन के सिर को अपने दिव्य हाथों से सहलाने लगे। मानो कह रहे हो कि मुसन यही सिर था न तेरा,जो तूने मेरे लिए कटवा दिया था। दर्द भी हुआ होगा ना खूब! खूब खून भी बहा होगा। ला मैं तेरी सारी पीड़ा हर लूँ। मुसन तू कितना बड़ा चोर है कि तूने मुझे भी आज चोर बना दिया। देख! मैं यम से तेरे प्राणों की चोरी करके तुझे वापस लाया हूँ।

इसलिए स्वामी शिवानंदजी कहते हैं कि सदगुरु पैगम्बर और देवदूत हैं । विश्व के मित्र और जगत के लिए कल्याणमय है। पीड़ित मानवजाति के ध्रुवतारक है। सच्चे गुरु शिष्य का प्रारब्ध बदल सकते हैं।

पिता समन व पुत्र मुसन आज वह करने निकल पड़े जो इससे पहले शायद ही किसी भक्त ने किया हो.. ( भाग – 1 )


गुरु सदैव अपने शिष्य के ह्रदय में बसते हैं। केवल गुरु ही अपने योग्य शिष्य को दिव्य प्रकाश दिखा सकते हैं। गुरु अपने शिष्य को असत्य में से सत्य में, मृत्यु में से अमरत्व में, अंधकार में से प्रकाश में और भौतिकता में से आध्यत्मिकता में ले जा सकते हैं।

संसार में गोताखोर एक से एक होंगे। जिन्होंने समुद्र की तली को हजारों बार चूमा होगा। लेकिन क्या प्रेम के सागर की गहराई को कोई माप पाया है…? आसमान अपनी विशालता का कितना भी ढिंढोरा क्यों न पिटे, लेकिन गुरुभक्तों के ह्रदय के विशालता के आगे तो वह आसमान भी मौन हो जाता है।

नख से शिख तक लबालब पानी से भरे बदरा कितना भी गर्व क्यूँ न कर लें, लेकिन विरह में बहे, एक आँसू में जो ठंडक होगी वह पूरे सावन के मेघों में भी मिलकर कहाँ? प्रेम ,समर्पण और विरह ऐसे आभूषण हैं जो चाँदी के श्रृंगार पेटिका में कैद किसी राणी-पटरानी की निजी सम्पदायें नहीं।

आज लाहौर की इस गरीब सी बस्ती में बसते समन और उसका पुत्र मुसन भी ऐसे ही भक्तों के पुष्पमाला की एक सुंदर कड़ी है।समन ने कहा पुत्र… उन दिनों लाहौर की गलियों में गुरु अर्जुनदेवजी घर-घर जाकर भजन औऱ सत्संग की गंगा प्रवाहित कर रहे थे। यह देख समन ने कहा कि, “पुत्र! तुझे पता है, कल श्रीगुरुदेव मेरे सपने में आये। मैंने देखा कि वे हमारे घर में है। उनके सामने संगत सजी है , खूब भजन-कीर्तन, सत्संग हो रहा है और भंडारा भी चल रहा है। जिसमें पूरा नगर इकठ्ठा हुआ है।”

पुत्र मुसन ने कहा कि, “पिताजी! निःसंदेह आपका सपना अगर सच हो जाये तो सातों जन्मों की प्यास बूझ जाय। लेकिन अफसोस की गरीब के सपने कब पूरे हुआ करते हैं? ये तो एक न एक दिन टूट ही जाते हैं। इसलिए पिताजी इन सपनों को जरा समझा दो की गरीबों की आँखों में कम ही आया-जाया करे।”

समन ने कहा,” पुत्तर! मुझे तो नसीहत दे रहा है, लेकिन सच-2 बता कि तेरी आँखे क्या यह सपना नहीं देख रही कि गुरुदेव हमारे घर आये। मेरी आँखों ने तो फिर भी बंद होने के बाद यह सपना देखा है, परन्तु तेरी आँखे तो खुली रहकर ही 24 घण्टे यह सपना देखती है। क्या यह नसीहत तूने कभी अपनी आँखों को नहीं दी?”

बाप और बेटे यह विचार में थे कि क्या वे कभी गुरुदेव का सत्संग अपने घर में आयोजित करवा पायेंगे? इतने में पुत्र मुसन को बाहर सड़कपर से गाँव का एक नगरसेठ गुजरता दिखाई दिया। मुसन कहा, “पिताजी! ब्याज पर वह सेठ कर्ज तो देता ही है। तो क्यों न हम भी उससे कर्ज लेकर सारे प्रबंध करले। फिर बाद में हम लौटा देंगे। भले ही इसके लिए हमे दिन-रात मजदूरी क्यूँ न करनी पड़े।”

इधर गुरुदेव की कृपा भी देखिए कि जैसे ही सेठ ने उनकी बिनती सुनी तो बिना कुछ गिरवी रखवाये वह कर्ज देने को राजी हो गया। उसने कहा आप कार्यक्रम से एक दिन पहले आकर निर्धारित रक्म मुझसे प्राप्त कर लेना।

बस अब रकम मिलना तो निश्चित था। लेकिन गुरुदेव कौनसे दिन उनके यहा आकर उन्हें धन्य करेंगे, यह निश्चित नहीं था। यही सुनिश्चित करने वे सीधे धर्मशाला पहुँच गए, जहाँ गुरुदेव ठहरे थे। दोनों गुरुदेव के कक्ष के सामने खड़े हो गए, ताकि गुरुदेव जैसे ही बाहर निकलें वे अपनी प्रार्थना उनके चरणों में रख दें।

थोडी देर बाद जब गुरुदेव बाहर आकर खड़े हुए, तब समन पुत्र मुसन की तरफ और पुत्र मुसन समन की तरफ देखने लगा।ऐसा होना स्वभाविक ही था। क्योंकि विशाल सागर को कैसे कहे कि मेरी अंजुली में भरे पानी में आकर जरा तैर जाओ!

टूटे-फूटे शब्दों में जैसे-तैसे उन्होंने अपना निवेदन रखा। परन्तु यह क्या? स्वीकृति तो जैसे गुरु महाराज जी के होठों पर रखी थी। गुरुदेव ने एक सप्ताह बाद ही उनके घर पधारने का आश्वासन दे दिया।

समन और मुसन नाचते-कूदते घर पहुँचे। उसी दिन से वे पूरे नगर में घर-2 जाकर निमंत्रण देने लगे कि फलाने दिन हमारे घर में श्रीगुरुदेव का आगमन होना है। संगत जुटेगी कृपया आप भी अवश्य पधारे।

दिन बीतते-2 छठा दिन आ पहुँचा। अगले दिन गुरु महाराज जी का आगमन होना था। आज इन्हें इन्तजाम करने के लिए नगरसेठ से रकम लानी थी। सो सुबह-2 ही समन और उसका पुत्र मुसन सेठ की हवेली पर पहुँच गये। लेकिन आज सेठ के चेहरे पर सुंदर भावों की जगह चिड़चिड़ेपन की उलझी लकीरें थी।

सेठ ने कहा, “सुनो! मैं यहाँ सम्पत्ति बनाने बैठा हूँ, लुटाने नहीं बैठा। मुझे अच्छी तरह से पता है कि कौनसे पात्र में खीर डालनी है और कौनसे में खमीर अर्थात खटाई डालनी है। रही बात तुम्हारी तो तुम्हें तो मैं किसी भी तरह का पात्र तक नहीं मान सकता।”

पुत्र मुसन बोला कि, “आपके कहने का क्या मतलब है सेठजी?”

सेठ ने कहा, “अपना यह कटोरा किसी और कि तिजोरी के आगे फैलाओ शायद कुछ सिक्के खैंरात में मिल जाये। अब यूँ खड़े-2 मेरा मुँह क्या ताक रहे हो? जाओ भागो यहाँ से भिखारी कहीं के! पता नहीं कहा-2 से चले आते हैं सुबह-2।”

सेठ के यह शब्द मानो शब्द न होकर 1-1 टन के घन थे , जिन्होंने समन और मुसन की खोपड़ी पर पूरी ताकत से प्रहार किया। कदम अपना फर्ज निभाते हुए समन-मुसन के मुर्दे से हो चुके शरीरों को वापिस घर तक ढ़ो लाये।

अब घर घर नहीं लग रहा था। उसमें स्मशान का सा सन्नाटा था। पिता-पुत्र के बीच कोई बातचीत जन्म नहीं ले पा रही थी। दोनों ही चुपचाप बैठे हुए थे। गुजरती रात के हर पल के साथ समन और उसका पुत्र मुसन के धैर्य की हद भी गुजरती जा रही थी।

उन्हें कल के सूर्य के किरण से पहले आशा की कोई किरण चाहिए थी। जिसका दूर-2 तक अता-पता नहीं था। लेकिन तभी मुहल्ले का चौकीदार “जागते रहो -2। चोरों से सावधान रहो।” यह बोलता हुआ गुजरा।

पुत्र मुसन ने कहा,” पिताजी! समाधान मिल गया। “

“कैसा समाधान?”

मुसन ने अपनी योजना पिता को सुना दी। समन ने कहा, “तू पागल हो तो नहीं गया जो ऐसी बकवास कर रहा है। ऐसा काम तो हमारे खानदान के इतिहास में किसीने नहीं किया और तू है कि हमारी इज्जत ख़ाक करने की तैयारी कर रहा है।”

पिताश्री! आज सवाल हमारी इज्जत का नहीं गुरुदेव की इज्जत का है। लोग कल क्या कहेंगे कि कैसे गुरु है जो अपने शिष्यों के शब्दों का मान नहीं रख पाएँ, उनको इतना समृद्ध भी नहीं कर पाएँ कि वे अपने गुरु को भोजन करा सके? क्या लोग कल हमारे कारण गुरुश्री पर उँगली नहीं उठायेंगे? और क्या आप यह सब सुन पाएँगे?

पिता समन ने कहा कि, “पुत्तर! पकड़े जाने पर पूरा नगर हमारे मुँह पर थूकेगा। क्योंकि दुनिया भावना नहीं कर्म की भाषा समझती हैं। दुनिया तो मजे ले-लेकर यहीं गीत गायेगी कि ये हैं श्रीगुरु अर्जुनदेव जी के परम शिष्य जो पकड़े गये कुकर्म करते हुए। सोच मुसन! दुनिया ज्ञान पर उँगली उठायेगी। गुरु पर दोष लगेंगें। निश्चित है कि इसे सुन जो लोग अभी गुरुज्ञान से जुड़े भी नहीं ,वे जुड़ने से पहले ही टूट जायेंगे। बता, क्या तू इस महापाप का प्रायश्चित कर पायेगा? क्या है हिम्मत तुझमें इस पाप की गठरी को ढोने की बता?”

पिताश्री! आपकी बात किसीभी प्रकार से गलत नहीं। लेकिन हमारे पास इसके सिवाय कोई और चारा भी तो नहीं। हाँ, हम इतना कर सकते हैं कि सत्संग व लंगर खत्म होनेपर स्वयं श्रीगुरु के श्रीचरणों में अपना गुनाह कबूल कर लेंगे। फिर वे हमें मारे अथवा जिंदा रखें, हम हर दंड स्वीकार करेंगे।

पिता समन की आँखो में रजामंदी के कुछ रँग उभर आये और पुत्र मुसन को भी शब्दों में लिपटी हाँ की आवश्यकता नहीं थी। पिता की मौन स्वीकृति वह समझ चुका था। दूसरे ही पल पुत्र मुसन एक सब्बल ,चाकू और गठरी बाँधने के लिए कमरकस्सा ले आया। फिर दोनो घर की दहलीज लाँघकर निकल पड़े, लेकिन कहाँ के लिए और किस कार्य के लिए यह लाहौर का कोई व्यक्ति नहीं जानता था।

दरअसल वे वह कार्य करने जा रहे थे जिसे गुरु का प्रेम और मार्गदर्शन मिलने के बाद त्याग दिया जाता है। वे वह कार्य करने जा रहे थे जिसे शास्त्रों में अति निंदनीय श्रेणी में रखा गया है।जिसे करने के बाद चेहरे पर एक ही लेप लगता है और वह भी चन्दन,केसर या हल्दी का नहीं, बल्कि कालिक का लेप। वे चोरी करने जा रहे थे। वे उसी सेठ के घर सेंघ लगाने जा रहे थे, जिसके कारण वे आज इस आफत की घड़ी में थे।

वाह! कैसे अजीब गुरुभक्त थे वो। आजतक ऐसी कथाएँ तो अनेक बार सुनी कि गुरुदेव को खून-पसीने से बनाई हुई रोटी ही रास आती है। फिर भले ही वह बाँसी और नमक लगी ही क्यों न हो। वे चोरी-डाके की कमाई कभी नहीं खाते। लेकिन यहाँ तो गंगा ही उल्टी बहने जा रही थी। गुरुदेव को चोरी की रोटी खिलाने के लिए समन व उसका पुत्र मुसन अपनी जान हथेली पर रख रहे थे। शायद कही ऐसा तो नहीं कि प्रेमसगाई में चोरी की भी एक रस्म हो जिसे आजतक निभाने का किसी भक्त को अवसर ही न मिला हो और यह रस्म निभानी इन्हीं के भाग्य में लिखा हो।

आखिरकार समन व उसका पुत्र मुसन उस सेठ की हवेली पहुँच ही गये। अब कुदरत ने फिर सहयोग दिया। चाँद के आगे अचानक काले बादल घिर आये और हर ओर अँधेरा हो गया। इस अँधेरे का लाभ उठा समन और उसका पुत्र मुसन दीवार लाँघकर हवेली की उसी छत पर चढ़ गये जो तिजोरीवाले कमरे के ऊपर थी। अब मुसन ने बड़ी ऐतियाद से छत की जमीन पर सब्बल से प्रहार किया। जमीन भी शायद इस महायज्ञ में अपनी आहुति देना चाहती थी। इसलिए वह कठोर जमीन भी मिट्टी सी नरम हो गई और 2-3 प्रहार पड़ते ही उसमें एक बड़ा छेद हो गया।

योजना के अनुसार पुत्र मुसन को नीचे उतरकर आवश्यक मुद्रायें गठरी में बाँधनी थी और पिता समन को ऊपर रहकर ही चारों तरफ नजर रखनी थी। समन ने पुत्र मुसन की बाजू पकड़कर उसे नीचे कमरे में उतारा और बस इतना ही कहा, “जा पुत्तर! तेरा गुरु राखा। थोड़ा ध्यान रखना गुरु भली करेगा। ” साथमें अपनी पानी भरी आंखों से यह भी कह दिया कि, “पुत्तर!आज मैं तुझे इस कमरे में नहीं बल्कि एक युद्धक्षेत्र में उतार रहा हूँ। अब देखना यह है कि तू जीतके आता है या हार के।”

हम कल जानेंगे की समन और उसका पुत्र मुसन के साथ गुरुसेवा के व्रत में क्या घटित हुआ…