All posts by Gurubhakti

गुरू ने कहा संन्यासी उसे मत पालना, क्या था वह और अवज्ञा पर कैसी हुई हानि… पढि़ये…


गुरु में श्रद्धा गुरुभक्तियोग की सीढ़ी का प्रथम सोपान है। गुरु में श्रद्धा दैवी कृपा प्राप्त करने के लिए शिष्य को आशा एवं प्रेरणा देती है। गुरु में संपूर्ण विश्वास रखो। तमाम भय और जंजाल का त्याग कर दो, बिल्कुल चिंतामुक्त रहो। गुरु के उपदेशों में गहरी श्रद्धा रखो। सद्गुरु के स्वभाव और महिमा को स्पष्ट रीति से समझो। गुरु की सेवा करके दिव्य जीवन बिताओ, तभी ईश्वर की जीवंत मूर्ति के समान सद्गुरु के पवित्र चरणों में संपूर्ण आत्मसमर्पण कर सकोगे।

भगवान बुद्ध अपने भिक्षुकों को कहते थे, चरैवेति- चरैवेति (चलते रहो- चलते रहो)। विश्राम के लिए रुकना पड़े तो रुको, परन्तु घर मत बनाओ। कही भी जहां तुमने पकड़ बनाई वही घर बन जाता है और जहां घर बना वह जल्दी ही कारागृह निर्वित हो जाता है।

एक व्यक्ति गुरु के पास पहुंचा। महाराज! मुझे संन्यास की दीक्षा दो। गुरु ने कृपा करके दीक्षा दे दी। व्यक्ति संन्यासी हो गया। आश्रम में ही रहने लगा। कुछ दिनों के उपरांत गुरु ने कहा कि बेटे एक बात पर ख्याल रखना कि बिल्ली कभी मत पालना।शिष्य थोड़ा हैरान हुआ कि यह व्यक्ति शायद पागल मालूम होता है। हम तो ज्ञान की खोज में निकले थे। मोक्ष, निर्वाण, ईश्वर की खोज में निकले थे और कहा इस व्यक्ति से हमने दीक्षा ले ली और हम फँस गये। इतने दिनों तक हमने सेवा की और उसके उपरांत यह व्यक्ति हमे क्या उपदेश दे रहा है कि बिल्ली कभी मत पालना। शायद बुढ़ापे में यह व्यक्ति सठिया गया है। कुछ दिनों के बाद वृद्ध गुरु निर्वाण को उपलब्ध हो गये और जो गुरु कहकर गये, उसे यह व्यक्ति समझ न सका।

शिष्य का अपने स्वामी में जब तक संपूर्ण श्रद्धा विकसित न हो जाये तब तक हर दिशा में उसे खतरा ही है। शिष्य ने विचारा की गुरु तो व्यर्थ का बकवास कर रहे थे। गुरु तो बूढ़े हो गये, शायद उनको होश न होगा।

दीक्षा उपरांत यह व्यक्ति संन्यासी तो बन गया था, परन्तु अपनी मान्यता और अपने विचारों से संन्यास न ले सका। अब इस संन्यासी के पास एक लंगोटी थी। लोग इस संन्यासी का बड़ा मान करते कि कितने विरक्त साधू है, एक लंगोटी पर ही रहते हैं। जब यह संन्यासी उस लंगोटी को टांगता तो चूहे काटकर चले जाते। गांव के लोगों से पूछा कि मैं क्या करूँ, तो उन्होंने कहा कि एक बिल्ली पाल लो। भूल ही गया बिल्कुल कि गुरु ने कहा था कि बिल्ली मत पालना।

इस संन्यासी ने एक बिल्ली पाल ली। झंझट शुरू हो गई, क्योंकि बिल्ली को भोजन चाहिए, दूध चाहिए। चूहे तो खत्म हो गये, लेकिन बिल्ली आ गई। गांव के लोगों से पूछा, उन्होंने कहा इसमें क्या अड़चन है? एक गाय हम आपको भेंट दिये देते हैं। अब बिल्ली के पीछे गाय आ गई। गाय के लिए चारा कबतक गांव के लोग देंगे? उन्होंने कहा ऐसा करो कि जमीन पड़ी है तुम्हारे आसपास मंदिर के, थोड़ी खेती-बाड़ी शुरू कर दो।

खेती-बाड़ी शुरू की तो कभी बीमारी भी होती। पानी डालना है, कोई पानी डालनेवाला चाहिए खेतों में। खेती-बाड़ी में समय ज्यादा लग जाता और खुद ही खाना बनाना है तो गांव के लोगों ने कहा, ऐसा करो कि शादी कर लो। एक लड़की भी थी गांव में योग्य, बिल्कुल तैय्यार! उन्होंने इसकी शादी करवा दी। फिर बच्चे हुए। वह भूल ही गया- दीक्षा,संन्यास, वो सब मामला खत्म हो गया। अब बच्चों को पढ़ाना-लिखाना। खेती-बाड़ी हो गई। व्यवसाय फैल गया।

जब मरने के करीब था, तब उसे एक दिन उसे गुरु की बात याद आई और अपने पतन की शुरुवात भी उसे याद आयी कि बेटे! बिल्ली मत पालना। वह व्यक्ति बड़े ही पश्चाताप से भर गया और अपने आप को व्यर्थ के कर्तव्यों के बोझ के नीचे दबा हुआ पाया। अब चाहकर भी कुछ करने में वह असमर्थ था।

कई बार साधक, गुरु जो आदेश देते हैं, उसके प्रति असावधान रहता है, लापरवाह होता है। जिससे साधक की उन्नति में अवरोध उत्पन्न होता है। उन्नति में अवरोध और कोई नहीं हम स्वयं बनते हैं। यदि सूक्ष्मता से निरीक्षण करें तो हमें पता चलेगा कि हमारा कोई बाहरी दुश्मन नहीं है, जबतक हम स्वयं के दुश्मन नहीं बन जाते। गुरु की आज्ञाओं के प्रति लापरवाही यह स्वयं से दुश्मनी करने के बराबर ही है। जैसे किश्ती में छोटासा छिद्र भी पूरी किश्ती को नष्ट करने के लिए पर्याप्त होता है, वैसे ही गुरु आज्ञा के प्रति थोड़ी भी लापरवाही साधक की अवनति हेतु पर्याप्त हो जाती है।

कभी-कभी गुरु ऐसे आदेश दे देते हैं कि शिष्य के मस्तिष्क के भीतर ही वह बात नही उतरती। मस्तिष्क अपने ही तर्क में जाल बुनने लगता है। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि वहां श्रद्धा का अभाव है, श्रद्धा की कमी है। जहां श्रद्धा का अभाव होगा वहीं गुरु आज्ञा के प्रति लापरवाही होगी। यही नितांत सत्य है। छोटी सी छोटी गुरुआज्ञा भी शिष्य के जीवन में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखती है, परन्तु महत्व की बात तो यह है कि शिष्य अपने जीवन में गुरुआज्ञा को कितना महत्व देता है ?…..

आखिर क्या था उस जापानी संत बोकोजो के पास ऐसा जो उन्हें रात भर सोने नहीं देता था…


गुरुकृपा से ही मनुष्य को जीवन का सही उद्देश्य समझ में आता है और आत्मसाक्षात्कार करने की प्रबल आकांक्षा उत्पन्न होती है। यदि कोई मनुष्य गुरु के साथ अखण्ड और अविछिन्न संबंध बांध लें तो जितनी सरलता से एक घट में से दूसरे घट में पानी बहता है उतनी ही सरलता से गुरुकृपा बहने लगती है।

संत कबीरजी कहते हैं– *झीनी- झीनी बिनी चदरिया।*

जुलाहे को कभी बुनते देखा हो या कभी तुमने अगर चरखा काता हो तो एक बात ख्याल में आयेगी कि जितना बारीक तुम्हें धागा निकालना हो चरखे से या तकली से उतना ही होश रखना पड़ेगा। जितना मोटा धागा निकालना हो उतनी बेहोशी चल जायेगी। अगर बहुत महीन सूत निकालना हो तो उतने ही जतन से, उतने ही होश से निकालना पड़ेगा। क्योंकि जरा सी बेहोशी और धागा टूट जायेगा।

कबीरजी कह रहे हैं, *झीनी- झीनी बिनी चदरिया।* झीनी अर्थात महीन, बारीक। इतनी झीनी चादर बिनी। उसका अर्थ ही है कि बड़े जतन से बिनी, होश से बिनी। साधक को बड़ी झीनी चादर बिननी पड़ती है। उसे एक-एक पैर संभाल के रखना पड़ता है। एक-एक श्वास संभाल के लेनी पड़ती है। जीवन बड़ा नाजुक है और बड़ा बहुमूल्य है। साधक शराबी की तरह नहीं चल सकता।

कबीरजी कहते हैं, वह ऐसा चलता है जैसे गर्भवती स्त्री चलती है संभालकर, जतन से। भीतर एक नया जीवन है और गर्भवती के भीतर जो जीवन है वह तो शारीरिक ही है, परन्तु साधक के भीतर… साधक के भीतर साधु के भीतर जो जीवन का अंकुर फल रहा है वह तो परमात्मा का अंकुर है। पैर का मुड़ जाना और गिर जाना और सदियों का श्रम व्यर्थ हो सकता है।

जैसे-जैसे मंजिल करीब आती है, वैसे-वैसे ज्यादा होश की जरूरत है। क्योंकि मंजिल से दूर थे तब भटकने का कोई डर ही न था। क्योंकि भटकते तो और क्या, भटके हुए ही तो थे परन्तु मंजिल करीब आती है तो और होश की आवश्यकता पड़ती है। क्योंकि अब भटक सकते हो।

सूफ़ी संत कहते हैं कि सांसारिक को क्या डर? डर तो साधक को है। सांसारिक के पास खोने को क्या है? खोने को तो साधक के पास है और सांसारिक चाहे तो कैसा भी चले, मिटने को कुछ है ही नहीं। लेकिन साधक कैसे भी नहीं चल सकते, क्योंकि उनके पास बड़ी संपदा है। जो मिलते-मिलते खो सकती है, जो हाथ में आते-आते वंचित हो सकती है। जिसपर पहुंचने को थे और मंजिल खो सकती है। जितनी ऊंचाई पर तुम हो गिरोगे तो उतनी ही निचाई में उतर जाओगे। इसलिए बहुत ख्याल से चलना है, जतन से चलना है। जो व्यक्ति खाई में सरक रहा है, उसको क्या डर? लेकिन जो गौरीशंकर के शिखर पर खड़ा है डर उसको है। लेकिन यह डर भय नहीं है, यह डर एक सचेतता है।

300 वर्ष पहले की बात है, जापान में एक फकीर हुए जिनका नाम था बोकोजो। बोकोजो टोकियो में रहते थे। टोकियो का सम्राट रात को जैसे पुराने सम्राट निकला करते थे घोड़े पर निकलता था। छिपे हुए वेश में नगर को देखने के लिए। कहा क्या हो रहा है? सारा नगर सोया रहता, परन्तु यह फकीर वृक्ष के नीचे जागा रहता। अक्सर तो खड़ा रहता, बैठता भी तो आंखे खुली रखता।

आखिर सम्राट की उत्सुकता बढ़ी। पूरी रात किसी भी समय कभी भी जाता मगर बोकोजो नाम का फकीर उसको जागा हुआ ही पाता। कभी टहलता, कभी बैठता, कभी खड़ा होता, लेकिन जगा ही रहता। सम्राट उसे सोया हुआ कभी न पा सका। महीनें बीत गए। सम्राट की उत्सुकता घनी होने लगी।

आखिर एक दिन सम्राट से न रहा गया। उसने फकीर से पूछ लिया कि किसलिए जागते रहते हो रातभर?

फकीर ने कहा, मेरे पास संपदा है। उसकी सुरक्षा के लिए जागता हूँ।

सम्राट और हैरान हो गया। उसने कहा, संपदा दिखाई नहीं पड़ती। ये टूटे-फूटे ठीकरे पड़े हैं, तुम्हारा भिक्षापात्र, ये तुम्हारे चिथड़े, इनको तुम संपदा कहते हो? दिमाग ठीक है या नहीं…और इनको कौन चुरा ले जायेगा?

फकीर ने कहा, जिस संपदा की बात मैं कर रहा हूँ वह तुम्हारी समझ में न आ सकेगी राजन! तुम्हें ठीकरे ही दिखाई पड़ सकते हैं और ये गंदे वस्त्र! वस्त्र गंदे हो या सुंदर, क्या फर्क पड़ता है? वस्त्र ही है। ठीकरे टूटे-फूटे हो या मिट्टी के हो या स्वर्ण के ठीकरे ही है। इनकी बात कौन कर रहा है। मेरे पास एक और संपदा है। जिसकी मुझे रक्षा करनी है।

सम्राट ने कहा, संपदा तो मेरे पास भी कुछ कम नहीं, परन्तु मैं तो मजे से सोता हूँ।

फकीर ने कहा, तुम्हारे पास जो संपदा है, तुम मजे से सो सकते हो, क्योंकि वह खो भी जाय तो भी कुछ न खोआ। मेरे पास जो हैं वह अगर खो गया तो सबकुछ खो जायेगा।

राजा ने कहा, ऐसा कौनसा धन है तुम्हारे पास?

राजन! मेरे पास मेरे गुरु का दिया हुआ धन है।

यह कौनसा धन है?

राजन! यह ऐसा धन है कि जो जल्दी किसीको प्राप्त नहीं हो पाता और जिनको प्राप्त हो जाता है, वे उसे संजो नहीं पाते, संभाल नहीं पाते। ये सद्गुरु का धन ऐसा है कि रंक को भी राजा बना देगा। मैं इसीकी निगरानी करता हूँ। अर्थात जो मेरे गुरु ने मुझे बताया है, जो मुझे ज्ञानधन दिया है मैं उसका अभ्यास करता हूँ। हाथ में आयी-2 बात है, चूक गया तो पता नहीं कितने जन्म लगेंगे? मैं अपने गुरु की बात को अपनी बात बनाना चाहता हूँ। इसलिए मैं एक क्षण भी व्यर्थ न गंवाकर, एक श्वास भी व्यर्थ न गंवाकर राते जागकर बिताता हूँ, दिन को होश में बिताता हूँ और एक-एक कदम जतन से रखता हूँ, ताकि मेरा खजाना सुरक्षित रहें।

सच्ची गुरू पूजा


गुरुदेव आपने एकबार कहा था कि एकलव्य ने अपने गुरु की मूर्ति का उचित रीति से पूजन किया था तो पूजा की उचित विधियाँ क्या है? गुरु ने कहा कि- एकलव्य को गुरुमूर्ति का ध्यान करना था इसलिए गुरु की मूर्ति बनाकर ये मेरे प्यारे गुरु है ऐसा मानकर उसने सच्चे गुरु को इस मूर्ति में देखा था।

श्रद्धा युक्त प्रेम ही पूजा की सर्वोपरि विधि है और सर्वोत्तम विधि भी वही है अन्य विधियाँ कुछ इतना काम देने वाली नही है और वे जल्दी फलती भी नही है श्रद्धा युक्त प्रेम ही जल्दी फलता है ।

एक मन्त्र है कि *श्रद्धया अग्नि स्मिद्यते* श्रद्धा से ही अग्नि प्रज्ज्वलित होती है, ऋषि लोग केवल मन्त्र के द्वारा काष्ट में अग्नि प्रज्ज्वलित कर देते थे,  दियासलाई से नहीं ।

दो लकड़ियों के घर्षण से अग्नि को तैयार कर लेते थे तो गुरु की श्रद्धा और भक्ति से अंदर से प्रार्थना करने पर गुरु के श्री चित्र में भी गुरु जग जाते है मूर्ति में ही जग जाते है कही भी जग जाने में वे समर्थ है उनके लिए कुछ भी कठिन नही कामयुक्त,रागयुक्त, ईर्ष्यायुक्त,आडम्बरयुक्त मत्सरयुक्त,दृष्टतायुक्त भक्ति से यह काम नही हो सकता जो काम एकलव्य ने अपने निर्दोष भक्ति से कर दिखाया।

भक्ति दो प्रकार की होती है- एक खास गुरु को प्रसन्न करने के लिए और दूसरी लोक आडम्बर के लिए लोकाडम्बर से लोक की ही प्राप्ति होगी गुरु की प्राप्ति नही,गुरु प्रसन्नता नही,खास अंतर से पछजन करने वाले को ही अन्तरशक्ति की प्राप्ति होती है।


शिष्य की सच्ची पूजा से ही गुरु जग जाते है।ईश्वर प्राप्ति गुरु के प्रति उच्च श्रद्धा से ही सम्भव है गुरु की भक्ति में पूरा समर्पण होना चाहिए।एकलव्य की गुरुभक्ति कैसी है यह उसकी कथा पढ़ने से मालूम होगा।

जब कुत्ते के मुख से कोई भी बाण निकाल नही सका तब एकलव्य ने एक और बाण मारा और बाण निकाल दिया सब बुद्धिमान धनुर्विद्या प्राप्त बड़ी डिग्री वाले देखते रह गए गुरु को भी अच्छा लगा कि ये राज पुत्र मिज़ाजी अपने को बहुत बड़ा समझते थे इनका मान खण्डन हुआ। एक अंत्येज्य भील पुत्र ने दूर रहकर ऐसा पुरुषार्थ किया वस्तुतः श्रेष्ठ में श्रेष्ठपने का गर्व होता है निम्न में भक्त की भक्ति भावना और समर्पण शीलता होती है इसलिए गुरु के प्रति एक निम्न दास होकर रहना चाहिए वे बड़ों की तरह गर्वी नही होते इसलिए निःशांत होकर गुरु को पूर्ण अर्पित हो जाना चाहिए।

एकलव्य गुरु में ऐसा सन्देह नहीं करते कि- हमको अंदर क्यों नही लिया उनको ही क्यों लिया,हमसे क्यों नही बोले उनसे क्यों बोले।छोटे में सिर्फ भक्ति होती है ऐसा भक्त अपने माँस को अपने शरीर को ज्यादा कीमत नही देता वह गुरुभक्ति को ही महत्व देता है राजपुत्रों को प्रत्यक्ष सिखाते हुए भी जो विद्या प्राप्त नही हुई वह एकलव्य को बाहर निकाल देने पर भी प्राप्त हो गई यह गुरु के प्रति अपनी निम्नता रखकर उनको समर्पण का भाव है।दक्षिणा देने का प्राचीन भारतीय नियम है विद्या पूरी होने के बाद शिष्य गुरु को दक्षिणा स्वरूप कुछ देता है ।

द्रोणाचार्य ने एकलव्य से कुछ दक्षिणा मांगी झोपड़ी में रहने वाले एकलव्य ने ऐसा नही कहा कि- इतने बड़े गुरु होकर ये कुछ मांगते है। एकलव्य के पास कुछ नही था फिर भी बोला- गुरुदेव! मांगिये, क्या देगा? जो भी आप मांगोगे वह सबकुछ…

अपने दाएं हाथ का अंगूठा काटकर दो… उसने बात पूरी होने से पहले तुरन्त अंगूठा काटकर दे दिया तब सबको समझ आई कि एकलव्य ही इस विद्या को लेने लायक है ।  उसको अपने शरीर की कीमत नही है। बाकी सब गुरु को लूटने आते है गुरु को लुटाने कोई नही आता ।

दाएँ हाथ का अंगूठा तुमने काटकर दे दिया तुमको कुछ समझ है अंगूठे के बिना तुम धनुर्विद्या का उपयोग नही कर सकते हो -ऐसे द्रोणाचार्य ने कहा।

एकलव्य ने हाथ जोड़कर गुरु से कहा कि- गुरुदेव मैंने तो आपको पूरा शरीर दे दिया है, आपने तो केवल एक टुकड़ा ही मांगा- दो इंच अंगूठा। गुरु के प्रति श्रद्धा और भक्ति अपने आप में पूरी पूजा विधि है।