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शोक का कारण व उसके नाश का उपाय


कोई नहीं चाहता है कि वह शोकग्रस्त हो लेकिन प्रायः देखा जाता है कि लोग छोटी-छोटी बातों में शोक से बड़े संतप्त हो उठते हैं । तो शोक से बचने के लिए क्या उपाय किया जाय ? इस संदर्भ में महाभारत के शांति पर्व में भीष्म पितामह और धर्मराज युधिष्ठिर का बड़ा ही ज्ञानप्रद व शोकनाशक संवाद आता है ।

धर्मराज युधिष्ठिर ने पितामह भीष्म जी से पूछाः “दादा जी ! धन के नष्ट हो जाने तथा पत्नी, पुत्र या पिता के मर जाने पर जिस विचार से शोक दूर हो सकता है, वह क्या है ? वर्णन करने की कृपा करें ।”

भीष्म जी बोलेः “जब ऐसी कोई दुःखदायी परिस्थिति आये तो ‘ओह ! संसार कैसा दुःखमय है !’ यह सोचकर शोक को दूर करने का प्रयत्न करे । इस विषय में उदाहरणरूप से यह पुरातन इतिहास प्रसिद्ध है ।

पहले सेनाजित नामक एक राजा था । वह पुत्र-वियोग से शोकातुर हो रहा था । उसको देखकर ब्राह्मण ने कहाः “राजन ! तुम मूढ़ मनुष्य की तरह क्यों मोहित हो रहे हो ? शोक के योग्य तो तुम स्वयं ही हो, फिर दूसरे के लिए क्यों शोक करते हो ? एक दिन मैं, तुम और अन्य सब  लोग भी वहीं जायेंगे जहाँ से आये हैं ।”

किसके लिए शोक करें !

सेनाजित ने पूछाः “तपोधन ! आपके पास ऐसी कौन सी बुद्धि, तप, समाधि, ज्ञान या शास्त्रबल है जिसे पाकर आपको किसी प्रकार का विषाद नहीं होता ?”

ब्राह्मणः “देखो, इस संसार में उत्तम, मध्यम और अधम – सभी प्राणी दुःख से ग्रस्त हैं तथा तरह-तरह के कर्मों में  फँसें हुए हैं । ‘यह शरीर भी मेरा नहीं अथवा सारी पृथ्वी भी मेरी नहीं है । ये सब वस्तुएँ जैसी मेरी हैं, वैसी ही दूसरों की भी हैं ।’ ऐसा सोचकर इनके लिए मेरे मन में कोई व्यथा नहीं होती । इसी बुद्धि को पाकर न मुझे हर्ष होता है, न शोक ।

जिस प्रकार समुद्र में दो लकड़ियाँ मिलती हैं और फिर अलग-अलग भी हो जाती हैं, इसी प्रकार इस लोक में प्राणियों का समागम होता है तथा इसी तरह यह पुत्र, पौत्र, जाति, बंधु और संबंधियों की कल्पना हो जाती है । अतः उनमें विशेष स्नेह नहीं करना चाहिए क्योंकि एक दिन उनसे वियोग होना निश्चित है । तुम्हारा पुत्र किसी अज्ञात स्थान से आया था और अब अज्ञात देश को ही चला गया है । उसके जन्म से पूर्व न तो वह तुम्हें जानता था और न तुम उसे जानते थे । अतः तुम उसके कौन हो जो उसके लिए शोक कर रहे हो !

शोक का कारण

ससांर में विषय-तृष्णा से जो व्याकुलता होती है उसी का नाम दुःख है और उस दुःख का नाश हो जाना ही सुख है । उस सुख से बार-बार दुःख उत्पन्न होता रहता है । इस प्रकार सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख – यह सुख – दुःख का चक्र घूमता ही रहता है । इस समय तुम्हें सुख की स्थिति से दुःख में आना पड़ा है इसलिए अब तुम सुख प्राप्त करोगे । किसी प्राणी को सर्वदा सुख या सर्वदा दुःख की ही प्राप्ति नहीं होती । मनुष्य स्नेह की अनेक प्रकार की फाँसियों में बँधे हुए हैं और जल में बालू का  पुल बनाने वालों के समान अपने कार्यों में असफल होने से दुःख पाते रहते हैं । तेली लोग तेल के लिए जैसे तिलों को कोल्हू में पेरते हैं, उसी प्रकार सब लोग अज्ञानजनित कष्टों से पिस रहे हैं । मनुष्य पत्नी-पुत्र आदि कुटुम्ब के लिए संसार में तरह-तरह के पाप बटोरता है किंतु इस लोक में और परलोक में उसे अकेले ही उनका क्लेशमय फल भोगना पड़ता है । जिस प्रकार बूढ़ा हाथी दलदल में फँसकर प्राण खो बैठता है, उसी प्रकार सब लोग पुत्र, पत्नी और कुटुम्ब की आसक्ति में फँस के शोक-समुद्र में डूबे रहते हैं ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2020, पृष्ठ संख्या 11, 17 अंक 325

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पुण्य कब परम कल्याणकारी होता है ?


बालि एक ऐसा योद्धा है जो अपने जीवन में कभी पराजित नहीं होता । वह किसी भी शत्रु की चुनौति से घबराता नहीं । यह बालि के चरित्र में पग-पग पर दिखाई देता है । जब बालि के ऊपर भगवान राम बाण-प्रहार करते हैं तो पहले तो बालि भगवान को चुनौति के स्वर में फटकारता है और उनसे पूछता हैः

धर्म हेतु अवतेरहु गोसाईं । मारेहु मोहि ब्याध की नाईं ।।

जब आपने धर्म की रक्षा के लिए अवतार लिया है, तब मुझे व्याध की तरह छिपकर क्यों मारा ? (श्रीरामचरित. कि. कां. 8.3)

आपका अवतार तो पाप को नष्ट करने के लिए हुआ है, पुण्य को नष्ट करने के लिए नहीं । यदि आप रावण पर बाण चलाते तो बात कुछ समझ में आती पर आपने मुझ पर अपने बाण का प्रयोग किया, यह दुःख की बात है । इससे आपके अवतार का उद्देश्य तो पूरा होने वाला नहीं । फिर आपने मुझमें और सुग्रीव में भेद क्यों किया ?

मैं बैरी सुग्रीव पिआरा । अवगुन कवन नाथ मोहि मारा ।।

मैं वैरी और सुग्रीव प्यारा ? हे नाथ ! किस दोष से आपने मुझे मारा ?

(श्रीरामचरित. कि. कां. 8.3)

बालि का सांकेतिक तात्पर्य यह है कि ‘सुग्रीव यदि सूर्य का पुत्र है, सूर्य के अंश से यदि उसका जन्म हुआ है तो मेरा जन्म भी तो इन्द्र के अंश से हुआ है । ऐसी स्थिति में आपको ज्ञान और पुण्य की रक्षा करनी चाहिए थी । आपने ज्ञान अर्थात् सुग्रीव की तो रक्षा की लेकिन पुण्य पर अर्थात् मुझ पर प्रहार किया, इसमें आपका उद्देश्य क्या है ?’

भगवान श्री राम ने कहाः “वस्तुतः मैंने जो तुम पर प्रहार किया है उसका उद्देश्य तुम्हें मारना नहीं है ।

मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना ।

हे मूढ़ ! तुझे अत्यंत अभिमान है ।’

(श्रीरामचरित किं.कां. 8.5)

मैंने तेरे अभिमान पर प्रहार किया है ।”

संसार में पुण्य की तो आवश्यकता है मगर अभिमान की नहीं । इसलिए जब पुण्य के साथ अभिमान की वृत्ति सम्मिलित हो जाती है तब अभिमान को नष्ट करना पड़ता है । इसलिए जब बालि का अभिमान नष्ट हो जाता है, तब भगवान उसके सिर पर हाथ रख देते हैं । जिस बालि के ऊपर प्रभु ने अपने हाथों से धनुष पर बाण चढ़ाकर प्रहार किया था, उसी के मस्तक पर उनका हाथ है । इसका अभिप्राय यह है कि जब तब पुण्य अभिमान से युक्त है तब तक भगवान उसको विनष्ट करने पर तुले रहते हैं पर यदि पुण्य से अभिमान की निवृत्ति हो जाय तो ऐसा पुण्य परम कल्याणकारी होता है । तभी तो भगवान राम बालि के मस्तक पर हाथ रखकर कहते हैं-

अचल करौं तुन राखहु प्राना ।

बालि ! मैं चाहता हूँ कि तुम जीवित रहो, तुम्हारे शरीर और प्राणों की मैं रक्षा करना चाहता हूँ ।”

किंतु बालि ने भगवान राम के इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया । आगे चलकर वर्णन आता है कि बालि की मुक्ति हो गयी ।

बहुत बार ऐसा होता है कि व्यक्ति पुण्य तो करता है पर अपने-आपको न तो अहंता से मुक्त कर पाता है और न ममता से । इसलिए पुण्यकर्म करने पर यदि अहंता और ममता बनी हई है तो व्यक्ति की मुक्ति सम्भव नहीं । बालि का यह प्रसंग इसी ओर संकेत करता है । अतः मुक्ति के लिए पुण्यकर्म करने के साथ-साथ ब्रह्मवेत्ता महापुरुष के सत्संग-मार्गदर्शन अनुसार चलकर अहंता-ममता निवृत्त करनी चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2019, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 324

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सेवा कैसी हो ?


श्री जयदयाल गोयंदकाजी अपने प्रवचन में एक कथा बताते थेः

एक स्त्री अपनी पड़ोसन के यहाँ गयी तो उस समय वह धान कूट रही थी । इसी बीच उसके पति ने बाहर से आवाज दीः “दरवाजा खोलो ।”

वह तुरंत मूसल को हाथ से ऊपर ही छोड़कर दरवाजा खोलने दौड़ी । मूसल ऊपर निराधार ही स्थिर हो गया । इस स्त्री ने देखा कि “यह तो बड़ा चमत्कार है, जादू है !”

उसने पूछाः “बहन ! बता तो सही, मूसल ऊपर कैसे टिका ।”

“यह पति सेवा (पातिव्रत्य) का फल है ।”

“अच्छा, मुझे भी बताओ कि तुम सेवा किस प्रकार करती हो ?”

“सुबह पतिदेव के उठने के पूर्व उठती हूँ । फिर उन्हें जगाती हूँ । वे शौच जाते हैं तो मैं उनके स्नान का प्रबंध करती हूँ । पूजा के कक्ष में उनके आने से पहले साफ-सफाई करके धूप-दीप जलाती हूँ, सुगंधित फूल रखती हूँ । उनके लिए भोजन तैयार करती हूँ । जब वे कुछ खाकर बाहर जाते हैं तब मैं मन-ही-मन भगवन्नाम जप करते हुए धान कूटती हूँ । इसी प्रकार अन्य-अन्य सेवाओं में भी लगी रहती हूँ ।”

पड़ोसन की दिनचर्या समझकर वह स्त्री अपने पति की सेवा करने का निश्चय करके घर आ गयी । उसके पति को दमे की बीमारी थी । पति के मना करने पर भी उसने पति को सुबह जल्दी उठाकर शौच के लिए भेजा व ठंडे पानी से स्नान कराया । बिना भूख के ही उन्हें भोजन कराया । पति के खूब मना करने पर भी उसने उनकी एक न सुनी ।

फिर जबरन पति को बाहर भेजा और खुद धान कूटने बैठ गयी । कुछ देर बाद पति ने वापस आकर आवाज दी । वह हाथ का मूसल उसी स्थिति में छोड़कर जाने लगी तो मूसल उसके हाथ पर गिरा और हाथ टूट गया ।

अब वह चीखती, चिल्लाती हुई पड़ोसन के घर पहुँची और बोलीः “जैसा तूने कहा वैसा सब मैंने किया पर मेरे हाथ का मूसल छोड़ने पर वह स्थिर नहीं रहा, उलटा मेरे दूसरे हाथ पर गिरा और हाथ टूट गया !”

पड़ोसन ने समझायाः “बहन ! क्या यह सेवा हुई ? तुम्हारे पति जिस बात से प्रसन्न हों, जो कार्य धर्म-सम्मत हो, जिसमें उनका शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक हित हो वह कार्य सेवा है ।”

पूज्य बापू जी के सत्संग में आत हैः “रूचिपूर्ति सेवा नहीं है, तुम्हारी वासना है । जो तुमको अच्छा लगता है वह तुम करते हो तो इसका नाम  सेवा नहीं है, इसका नाम कपट है । ईश्वर की प्राप्ति में जो सहायक है, वह करते हो तो सेवा है । अपनी वासना मिटाने के लिए जो करते हो, वह सेवा है ।

पतिव्रता स्त्री का सामर्थ्य क्यों बढ़ता है ? क्योंकि उसकी अपनी कोई इच्छ नहीं होती । पति की इच्छा में उसने अपनी इच्छा मिला दी । सत्शिष्य का सामर्थ्य क्यों बढ़ता है ? सत्शिष्य को ज्ञान क्यों अपने-आप स्फुरित हो जाता है ? क्योंकि सद्गुरु की इच्छा में वह अपनी इच्छा मिला देता है । अगर पति अहोभाव में है तो पति की इच्छा में अपनी इच्छा मिलायी जाती है और भगवान तथा गुरु अहोभाव में है तो अपनी इच्छा और वासना भगवान और गुरु के चरणों में अर्पित कर दी जाती है ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2019, पृष्ठ संख्या 20, अंक 324

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