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वह मदिरापान करता है



स्त्रीपात्रभुंनरः पापः स्त्रीणामुच्छिष्टभुक्तथा ।।
तया सह च यो भुंक्ते स भुंक्ते मद्यमेव हि ।
न तस्य निष्कृतिर्दृष्टा मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ।।
‘जो पापी स्त्री के भोजन किए हुए पात्र में भोजन करता है, स्त्री
का जूठा खाता है तथा स्त्री के साथ एक बर्तन में भोजन करता है, वह
मानो मदिरा-पान करता है । तत्त्वदर्शी मुनियों ने उस पाप से छूटने का
कोई प्रायश्चित्त ही नहीं देखा है ।’ (महाभारत, आश्वमेधिक पर्वः 92)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2023, पृष्ठ संख्या 21, अंक 364
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मन नहीं लगता तो क्या करें – पूज्य बापू जी



लोग कहते हैं- ‘मन नहीं लगता, क्या करें ?’ उसे रस नहीं आता
इसलिए नहीं लगता । तो खोजो उसे कहाँ रस आ रहा है ? तुच्छ
विकारों में, मनोराज में, काहे में रस आ रहा है ? जब मन भगवद्-
अनुकूल और भगवान के प्रति आकर्षित होता है तो वह भगवान में
तल्लीन होता है और उसके द्वारा संसार का हित खूब होता है । जो ऐसे
ही बोलता है कि ‘मैं कुटुम्ब का हित करूँ, समाज का हित करुँ…’ वह
अपना ही हित नहीं जानता तो दूसरे का हित क्या करेगा ?
रमण महर्षि कहते हैं कि ‘अंतर्मुख होओगे तो आत्मदेव का सुख
मिलेगा ।’ मन भले देर से लगे पर लगेगा तो ऐसा कि अपना और
दूसरों का कल्याण करने वाला हो जायेगा । और बहिर्मुख होओगे –
जगत की तरफ देखोगे – सोचोगे तो अपने और दूसरों के कल्याण के
नाम पर भी मोह-माया बढ़ेगी, फँसान ही बढ़ेगी ।
दुनिया के बड़े-बड़े उद्योंगों की अपेक्षा क्षणभर भी परमात्मा में
विश्रांति पाना बड़ा भारी हितकारी है – अपने लिए व औरों के लिए ।
मन लगाने का साधन
‘बेटा मानता नहीं, बेटी करती नहीं… क्या करें ये पढ़ते नहीं हैं,
ऐसा नहीं करते, अब क्या करें…’ मन न लगने के जो कारण हैं उनको
उखाड़ के फेंको । भगवान के विधान पर, भगवान पर और अपने प्रारब्ध
पर विश्वास रखो, बेटा-बेटी के प्रारब्ध पर विश्वास रखो ।
यदि विषय-विकारों में, मांस-मदिरा में मन लग रहा है तो इस
अशुद्ध आहार के कारण भगवान में मन नहीं लगता । तो यह अशुद्ध
आहार छोड़ो और थोड़ा अभ्यास करो । सुबह सूर्योदय से पहले उठने से
सत्त्वगुण बढ़ेगा, मन लगाने में मदद मिलेगी । जरूरत से दो कौर कम

खाने वाले का मन शांत होगा और भगवद्-भजन में लगेगा । जीभ को
मुँह में ऊपर नहीं – नीचे नहीं, बीचे में रखो और भगवद्-मूर्ति, गुरुमूर्ति
के सामने एकटक देखो । आँख की पुतली स्थिर हुई तो मन को स्थिर
होना ही है । नींद में से उठ के थोड़ा शांत हो जाओ फिर ॐकार का
ह्रस्व उच्चारण करो फिर दीर्घ व प्लुत उच्चारण करो – ॐ ॐ ॐ ॐ
ओऽऽऽऽऽम्ऽऽ… । नींद में से उठने पर मन वैसे ही थोड़ा शांत होता है
तो थोड़ी शांति के बाद मन में ॐकार मंत्र जपते-जपते और शांत होते
जाओ, रस आयेगा । कभी ताल मिलाक स्नेहपूर्वक भगवान को, सद्गुरु
को याद करते हुए अपने ढंग से गुनगुनाओ, उनसे मन ही मन बातचीत
करो तो मन को रस आयेगा ।
….तो मन अपने आप खिंच के आयेगा
मेरे गुरुदेव अपने-आपसे बात करते थेः “शरीर लीलाशाह है, मैं
ब्रह्म हूँ । भोजन करेगा ?”
(मन कहताः) “हाँ-हाँ साँईं ! भूख लगी है ।”
“लेकिन देख, भोजन तब मिलेगा जब सत्संग सुनेगा । पहले
सत्संग करना पड़ेगा । सत्संग सुना है बेटा ?”
बोलेः “हाँ” ।
“हाँ तो खा ले, खा ले पियूऽऽ… मोर की आवाज निकाल कर) हा
हा हा ! हँसते थे । सत्संग सुना है तो खा ले ! कितने फुलके (रोटियाँ)
चाहिए ?”
“साँईं ! तीन चाहिए ।”
“अरे भाई ! ज्यादा है, कुछ तो यार कमी कर !”
“अच्छा साँईं ! ढाई दे दो ।”
“ले भला बेटा ! खा ।”

मैं पहले-पहले गया तो चकित हो जाता था कि ‘गुरु जी कुटिया में
अकेले हैं फिर ‘बेटा’ और ‘यह खा…’ यह सब क्या बोलते हैं ? फिर पता
चला कि यह विनोद है । भोजन करते समय प्रसन्नता चाहिए और यह
प्रसन्नता महापुरुष तात्त्विक ढंग से उत्पन्न करते थे । मन को बेटा बना
दिया, स्वयं मन से पृथक हो गये ।
तो इस प्रकार मन से पृथक हो गये तो उसके संकल्प-विकल्प की
सच्चाई और जोर कम हो जायेंगे । आप अपने शांत-स्वभाव में आयें तो
मन अपने-आप खिंच के आयेगा ।
संकर सहज सरूपु सम्हारा । लागि समाधि अखंड अपारा ।।
मन को रस कैसे आता है ?
मन क्यों नहीं लगता ? क्योंकि उसे रस नहीं आता ।
न रसः यस्य सः आलसः ।
रस नहीं आता तो आलस्य होता है, मन नहीं लगता । अभक्तों का
संग, विषय-विकारों में फँसे लोगों का संग भगवद् भावों को क्षीण कर
देता है । सत्संगियों का संग, सत्पुरुषों का संग, नियम, व्रत, अनुष्ठान –
इनसे मन को रस आता है, फिर लगने लगता है । लोग आश्रम के मौन
मंदिर में आते हैं तो ‘हइशो-हइशो’ करके आये होते हैं । शुरुआत के 1-2
दिन घर की याद आती है, इसकी-उसकी याद आती है । फिर जब मन
लगने लगता है तो 7 दिन कैसे बीत गये पता नहीं चलता । मन को
रस आने लगता है, बड़े फायदे होते हैं ।
तो भगवद् रस के माहौल में, भगवद् रस आये ऐसे साधन में और
भगवद् रस उभारें ऐसे विचारों में रहें, बस हो गया ! और लम्बे-चौड़े
उपाय क्या हैं, इतना ही काफी है । तो भगवद् रस आये कैसे ? जो
अपना होता है उसके प्रति प्यार होता है । झोंपड़पट्टि वाली माई को

नाक से गंदगी बहाता लड़का उसका अपना है तो प्यारा लगता है ।
अपनी पुरानी जूती भी चाचा को प्यारी लगती है । कोई उस पर पैर
रखे, उसे फेंक दे तो उसको बोलेगा कि ‘मेरी जूती पर पैर क्यों रखा रे ?
मेरी जूती क्यों फेंकी ? जूती मेरी है ।’ जूती फेंकने वाले ने किसी
मेमसाहब का सैंडिल फेंक दिया तो जूतीवाला बोलता हैः ‘कोई बात नहीं’
या ‘अच्छा किया’ लेकिन उसकी जूती फेंक दी तो बोलता हैः ‘मेरी जूती
क्यों फेंकी ?’ जैसे जूती-जूता अपने लगते हैं तो प्यारे हो जाते हैं ऐसे ही
भगवान अपने लगें जो वास्तव में अपने हैं, इससे भगवान में प्रेम हो
जायेगा । शरीर अपना नहीं है – पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा ।
चीज-वस्तु, पद अपने नहीं हैं । तो यह जगत मिथ्या है, माना हुआ है,
यह अपना नहीं है किंतु ईश्वर अपने हैं, थे और रहेंगे । तो ईश्वर इतने
शाश्वत हैं ! 4 दिन के लिए मकान अपना है तो प्यारा लगता है, जूता
अपना है तो प्यारा लगता है, जो पहले अपने थे, अभी हैं और बाद में
भी रहेंगे उन ईश्वर में अपनत्व का भाव बढ़ाओ तो वे भी प्यारे लगेंगे
और उनमें भी मन लगेगा । इस प्रकार मन को रस आता जायेगा ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद अप्रैल 2023 पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 364
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पृथ्वी के देव हैं सेवाभावी ईमानदार शिष्यः – पूज्य बापू जी



सत्संग से हमें वह रास्ता मिलता है जिससे हमारा तो उद्धार हो
जाता है, हमारी 21 पीढ़ियाँ भी तर जाती हैं ।
बिनु सत्संग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग ।
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग ।।
(श्री रामचरित. उ.कां. 61)
जहाँ ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों का सत्संग मिलता है ऐसी जगह पर
जाते हैं तो एक पग चलने से एक-एक यज्ञ करने का फल मिलता है ।
महान बनने के तीन सोपान हैं- वेदांत का सत्संग, उत्साह और
श्रद्धा । ये अगर छोटे-से-छोटे व्यक्ति में भी हों तो वह बड़े-से-बड़ा कार्य
भी कर सकता है । वे लोग धनभागी हैं जिनको ब्रह्मज्ञान का सत्संग
मिलता है । वे लोग विशेष धनभागी है जो दूसरों को सत्संग दिलाने की
सेवा करके संत और समाज के बीच की कड़ी बनने का अवसर खोज
लेते हैं, पा लेते हैं और अपना जीवन धन्य कर लेते हैं ।
एक पृथ्वी के देव होते हैं दूसरे स्वर्ग के देव होते हैं । स्वर्ग के देव
तो अपना पुण्य खर्च करके मजा लेते हैं । पृथ्वी के देव हैं ‘ईमानदार
शिष्य’ । सद्गुरु और भगवान के दैवी कार्यों में अपने तन, मन और
जीवन को लगाने वाला शिष्य पृथ्वी का देव माना गया है । स्वर्ग का
देव तो अपना पुण्य-नाश करके मजा लेता है मगर यह पृथ्वी के देव
अपना पाप-नाश करके भगवान का रस पाता है । जो भगवद्भक्ति करते
हैं, कराते हैं तथा उसमें जो सहायक होते हैं, हरिरस बाँटने में जो
सहायक होते हैं वे बड़े पुण्यशील हैं ।
जीवात्मा की भूख मिटाने के सदावर्त

मानो किसी व्यक्ति ने सदावर्त (अऩ्नक्षेत्र) खोला है । जिसमें कोई
भी आये – साधु-संत, गरीब, भूखा, अतिथि – वह टुकड़ा खाये, उसे
सदावर्त कहते हैं । अगर कोई व्यक्ति उस सदावर्त में 2 मन गेहूँ भेजेगा
तो उसे पाप होगा या पुण्य ? 2 मन चावल भेजेगा तो क्या होगा ?
दाल भेजेगा तो क्या होगा ? पुण्य ही होगा । अरे ! दाल-चावल को
छोड़ो, एक सेर इमली, नमक भेजेगा तो भी पुण्य ही होगा क्योंकि
सदावर्त में भेजा है, जो भी आयेगा वह खायेगा । शरीर की भूख और
प्यास रोटी पानी की है मगर जीवात्मा की भूख रोटी की नहीं है,
परमात्मप्राप्ति की है । जब तक परमात्मप्राप्ति की भूख नहीं मिटी तब
तक जीवात्मा चौरासी लाख योनियों में भटकता रहेगा । सदावर्त मे
भोजन करने वाले की चार घंटे की भूख मिटती है तब भी नमक, इमली,
चावल या घी भेजने वाले को पुण्य होता है तो जो लोग जीवात्मा की
अनंत जन्मों की भूख मिटाने के सदावर्त की सेवा में सहभागी हो जाते
हैं उनके पुण्यों की गणना करने में कौन समर्थ है ? वे पृथ्वी पर के देव
माने जाते हैं । उनका तो उद्धार होता है, उनके कुल का भी उद्धार
होता है ।
कुलं पवित्रं जननी कृतार्था वसुन्धर भाग्यवती च तेन ।
उनकी माता कृतार्थ हो जाती है तथा उन्हें पाकर यह सारी पृथ्वी
सौभाग्यवती हो जाती है ।
जो लोग सत्संग सुनते हैं अथवा दूसरों को सुनाने में सहभागी होते
हैं, भगवान और संतों के दैवी कार्य में, समाज के वास्तविक उत्थान के
कार्य में सहभागी होते हैं उनको ‘पृथ्वी पर के देव’ कहा गया है ।
सतं कबीर जी कहते हैं-
कथा कीर्तन रात दिन जिनका उद्यम येह ।

कह कबीर व संत की हम चरनन की खेह ।।
जिनको भगवत्कथा, कीर्तन और ब्रह्मज्ञान के सत्संग में रुचि है
ऐसे संत हृदयी लोगों के चरणों की हम खेह (धूल) हो जायें ।
शास्त्र कहता हैः स तृप्तो भवति । वह तृप्त होता है भीतर के रस
से, सुख से ।
स अमृतो भवति । स तरति लोकांस्तारयति ।
वह अमृतस्वरूप हो जाता है । वह तो तरता है, दूसरों को भी
तारता है ।
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सत्संग ।।
‘स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा
जाय तो भी वे सब मिलकर (दूसरे पलड़े पर रखे हुए) उस सुख के
बराबर नहीं हो सकते जो क्षणमात्र के सत्संग से होता है ।’ (श्री
रामचरित. सु.का. 4)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2023 पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 364
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