संत रविदास जी तत्त्वज्ञान की ऊँचाइयों को पाये हुए महापुरुष थे ।
काशी में एक दिन उनके सत्संग में संकीर्ण विचारधारा वाला एक सेठ
आया । कुछ लोग अपनी पुण्याई से सत्संग में आ तो जाते हैं पर इधर-
उधर ताकने, बातें करने में अपनी वृत्तियों को बिखेर देते हैं । ऐसे लोग
संत-महापुरुषों से मिलने वाले वास्तविक लाभ से वंचित रह जाते हैं ।
यह सेठ भी उन्हीं में से एक था ।
सत्संग पूरा हुआ । रविदास जी ने प्रसाद बँटवाया । सेठ ने प्रसाद
तो ले लिया लेकिन बाहर आकर अपनी संकुचित मानसिकता के कारण
उसे साधारण मिष्ठान्न समझ के सबसे छुपा के एक कोने में फेंक दिया
।
उस मंदबुद्धि को पता ही नहीं था कि ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों के
स्पर्शमात्र से जड़ वस्तुएँ भी पूजने योग्य हो जाती है । जलते हुए मुर्दे
के धुएँ पर भी यदि उनकी दृष्टि पड़ जाय तो उस जीव की दुर्गति नहीं
होती । ब्रह्मज्ञानियों की दृष्टि, उनके स्पर्श और प्रसाद में कितना
सामर्थ्य होता है !
ब्रह्मज्ञानी संत के प्रसाद का अनादर करने से प्रकृति का प्रकोप
हुआ और सेठ को कोढ़ हो गया । इस रोग को ठीक करने के लिए उसने
की इलाज करवाये, कई टोने-टोटकेवालों के पास जाकर भी देख लिया
परंतु कोई लाभ नहीं हुआ ।
भगवान शिव कहते हैं-
साधु अवग्या तुरत भवानी ।
कर कल्यान अखिल कै हानि ।।
‘हे भवानी ! साधु का अपमान तुरंत ही सम्पूर्ण कल्याण की हानि
(नाश) कर देता है । (श्रीरामचरित. सुं.कां. 41.1)
कर्म, सद्गुरु और भगवान कभी साथ नहीं छोड़ते । जब कोई
हकीम, वैद्य रोग को ठीक नहीं कर पाया तो सेठ को प्रसाद के अपमान
की स्मृति हो आयी । वह दौड़ा-दौड़ा आँसू बहाता हुआ संत रविदास जी
के चरणों में पहुँचा और अपना जघन्य अपराध बताकर क्षमा-याचना
करने लगा ।
संत तो करुणा के सागर होते हैं । जो भी ईमानदारी से उनकी
शऱण में जाता है वह चाहे अपराधी हो, पापी हो या पुण्यात्मा हो, वे
सबको अपनाते हैं । संत रविदास जी के अनुग्रह से सेठ का कोढ़ पूरी
तरह से मिट गया और उसका घृणा का भाव भी प्रेम में बदल गया ।
ऋषि प्रसाद, जनवरी 2023, पृष्ठ संख्या 25 अंक 361
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