नरेन्द्र श्री रामकृष्ण परमहंस के पास दक्षिणेश्वर में जाया करते थे
। नरेन्द्र को वे बहुत स्नेह करते थे । एक बार रामकृष्ण के आचरण ने
करवट ली, नरेन्द्र आये तो उन्होंने मुँह घुमा लिया । नरेन्द्र ने सोचा कि
ठाकुर भाव समाधि में होंगे । वे काफी देर तक बैठे रहे लेकिन रामकृष्ण
ने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया । वे थोड़ी देर में लेट गये । नरेन्द्र
आश्रम के सेवाकार्य में लग गये । थोड़ी देर बाद नरेन्द्र आये तो देखा
कि श्री रामकृष्ण किसी से बात कर रहे हैं किन्तु उऩको देखते ही वे चुप
हो गये । नरेन्द्र दिनभर वहाँ रहे परन्तु रामकृष्ण ने उनकी ओर आँख
उठाकर देखा तक नहीं । संध्या हो गयी । नरेन्द्र अपने घर लौट गये ।
सप्ताह भर बाद वे पुनः दक्षिणेश्वर गये किंतु फिर वही हाल । रामकृष्ण
ने उऩकी ओर देखा तक नहीं, अपना मुँह घुमा लिया । तीसरे-चौथे
सप्ताह भी ऐसा ही हुआ ।
जब पाँचवीं बार नरेन्द्र आये तो रामकृष्ण ने पूछाः “चार-चार
सप्ताह से तू आता रहा है और मैं तेरी ओर देखता तक नहीं हूँ, तुझे
देखकर मुँह घुमा लेता हूँ, तू दिनभर छटपटाता है किंतु मैं तुझे देख के
मुँह मोड़ लेता हूँ फिर भी तू क्यों आता है ?”
नरेन्द्रः “ठाकुर ! आप मुझसे बात करें इसलिए मैं आपके पास नहीं
आता हूँ । वस्तुतः आपके दर्शन करने से ही मुझे कुछ मिलता है । प्रेम
में कोई शर्त नहीं होती कि मेरे प्रेमास्पद मुझसे बात करें ही । आप जैसे
भी प्रसन्न रहें, ठीक है । मैं तो आपके दीदार (दर्शन) करके अपना हृदय
तृप्त कर लेता हूँ ।”
ठीक ही कहा हैः
हमारी न आरजू है न जुस्तजू है ।
हम राज़ी हैं उसी में जिसमें तेरी रजा है ।।
जो परमात्मा में विश्रांति पाये हुए महापुरुष हैं वे यदि बोलते हैं तो
अच्छा है परंतु ऐसे महापुरुषों का अगर दिदार भी मिल जाता है तो
हृदय विकारों से बचकर निर्विकार नारायण की ओर चल पड़ता है ।
एक अन्य अवसर पर श्री रामकृष्ण ने नरेन्द्र को बुलाकर कहाः
“देखो नरेन्द्र ! तपस्या के प्रभाव से मुझे अणिमा आदि दिव्य शक्तियाँ
प्राप्त हैं पर मैं ठहरा विरक्त पुरुष । इन ऋद्धि-सिद्धियों का उपयोग
करने का समय मेरे पास नहीं है । अतः मैं चाहता हूँ कि मेरे पास जो
ऋद्धि-सिद्धियाँ आदि हैं वे तुम्हें दे दूँ ताकि तुम लोकसंग्रह के काम में
इनका उपयोग कर सको ।”
नरेन्द्र ने तुरन्त पूछाः “ठाकुर ! ये शक्तियाँ ऋद्धि-सिद्धियाँ
परमात्मप्राप्ति में सहयोग दे सकती हैं क्या ?”
“सहयोग तो नहीं दे सकतीं वरन् अगर असावधान रहे तो
परमात्मप्राप्ति के मार्ग से दूर ले जा सकती हैं ।”
“फिर ठाकुर ! मुझे इनकी जरूरत नहीं है ।”
“पहले परमात्मप्राप्ति कर ले फिर इनका उपयोग कर लेना । अभी
रख ले ।”
“ठाकुर ! अभी रखूँ फिर परमात्मप्राप्ति करूँ, बाद में इनका उपयोग
करूँ…? नहीं, पहले ईश्वरप्राप्ति हो जाय, बाद में सोचूँगा कि इन्हें लेना
चाहिए कि नहीं ।”
रामकृष्ण नरेन्द्र का यह उत्तर सुनकर बहुत प्रसन्न हुए, बोलेः
“ईश्वरप्राप्ति हो जायेगी फिर लेने-न-लेने का प्रश्न ही नहीं उठेगा ।”
आप भगवान से, गुरु से यह न माँगो कि ‘मुझे ऋद्धि-सिद्धियाँ
मिल जायें, कोई वरदान मिल जाय…’ ये सब तो छोटी चीजें है ।
भगवान से इन्हें माँगना सम्राट से चने माँगने जैसा है । सम्राट से चार
पैसे के चने क्या माँगना ? भगवान का भजन करोगे तो इतना तो हो
ही जायेगा किंतु अंत में क्या ? आप तो भगवान से यह माँगो कि ‘हे
भगवान ! तुम्हारी भक्ति मिल जाय, तुम्हारे में प्रीति हो जाय, तुम मुझे
दूर न लगो । हे भगवान ! तुमको छोड़कर मेरा मन कहीं न टिके… ।’
नरेन्द्र को तो उनके गुरुदेव स्वयं ऋद्धि-सिद्धियाँ दे रहे थे लेकिन
उऩ्होंने इन्कार कर दया । अपने लक्ष्य के प्रति उनकी सजगता व दृढ़
गुरुभक्ति ने ही उन्हें नरेन्द्र में से स्वामी विवेकानन्द बना दिया ।
ऋषि प्रसाद, जनवरी 2023, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 361
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