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तो आपके जन्म कर्म दिव्य हो जायेंगे – पूज्य बापू जी



भगवान श्री कृष्ण मध्यरात्रि 12 बजे प्रकट हुए, रामजी मध्याह्न
12 बजे प्रकट हुए और आपके बाबा जी भी मध्याह्न 12 बजे… यह
कैसी लीला है ! आत्मप्रसाद बाँटने वाले भगवद्-अवतार, संत-अवतार इस
प्रकार सुयोग्य समय में अवतरित होते हैं ।
श्रीकृष्ण ने तो खुलेआम रास्ता बता दिया है – जन्म कर्म च मे
दिव्यं… मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं ऐसा जो तत्त्व से जानता है उसके
भी जन्म, कर्म दिव्य हो जाते हैं ।
जन्म किसको बोलते हैं ? छुपी हुई वस्तु प्रकट हो, जन्मे । छुपा
हुआ अंतवाहक शरीर साकार रूप में प्रकट हुआ तो हो गया जन्म ।
अंतवाह शरीर सूक्ष्मदर्शी यंत्र से भी नहीं दिखेगा । यंत्रों से जीवाणु
(बेक्टीरिया) तो दिख जायेगा, और भी कई चीजें दिख जायेंगी परंतु
आत्मा अथवा सुक्ष्म शरीर यंत्रों से नहीं दिख सकता है, इतना सूक्ष्मतम
होता है ।
है तो जन्मदिन परंतु जन्म और कर्म दिव्य हो जायें ऐसी श्रीकृष्ण
की और महापुरुष की अनुभूतिवाली बात आपको सहज में मिल रही है ।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्तित तत्त्वतः।… (गीताः4.9)
कर्म इन्द्रियों से होते हैं, मन से होते हैं, वासना से होते हैं, उनको
देखने वाला मैं चैतन्य हूँ ऐसी भगवान की मति को अपनी मति बना लो
तो तुम्हारे कर्म और जन्म दिव्य हो जायेंगे ।
और लोग कर्मबंधन से जन्म लेते हैं पर भगवान और संतों के
अवतार परहित के लिए होते हैं । तो साधारण जीवों का जन्म होता है,
संतों और ईश्वर का प्राकट्य होता है । जब चाहो तुम आत्मदृष्टि करो
तो प्रकट होने वाले हो गये, जीवदृष्टि करो तो जन्मने वाले हो गये,

पसंद तुम्हें करना है । जीव बनना चाहो लो बनो जीव – मैं फलानी हूँ,
फलाना हूँ… और मैं साक्षी-द्रष्टा हूँ, चैतन्य हूँ तो लो जन्म कर्म दिव्य !
बड़ा आसान है, कठिन नहीं है । लेकिन जिनको कठिन नहीं लगता है
ऐसे महापुरुषों का मिलना कठिन है, ऐसों में अपनत्व होना कठिन है,
यह हो गया तो फिर जरा-जरा बात में खिन्न होना कठिन है, पतंगे की
नाईं जरा-जरा बात में आकर्षित-प्रभावित होने वाले लल्लू-पंजू होना
कठिन है ।
अवतरण दिवस का कल्याणकारी संदेश
इस दिवस का संदेश यही है कि आप अपने जन्म और कर्म दिव्य
बनाने का पक्का संकल्प करें । और मैं कसम खा के कहता हूँ कि यह
जो शरीर का जन्म है वह वास्तव में आपका जन्म नहीं है, माँ-बाप का
विकार है । आप इसके पहले थे और इसके मरने के बाद भी रहेंगे ।
और आपको अपने कुछ नहीं चाहिए । आप सत्य हैं, शरीर मिथ्या है ।
आप नित्य हैं, शरीर अनित्य है । आप चेतन हैं, शरीर जड़ है । आप
शाश्वत हैं, शरीर मरने वाला है । इस मरने वाले को मैं मानते हैं तो
आपका जन्म तुच्छ है, मरने वाले शरीर की वस्तुओं को मेरा मानते हैं
तो आपके कर्म तुच्छ हैं और मरने के पहले जो आप थे उसको आप मैं
मानते हैं अथवा मैं को जानने के रास्ते चल रहे हैं और कर्मों में
कर्ताभाव नहीं, सेवाभाव छुपा है तो आपके कर्म दिव्य हो जायेंगे । जैसे
पुरुष नहीं चाहता कि मेरे पीछे-पीछे मेरी छाया आये’ तो भी छाया आती
है ऐसे ही आप न चाहओ तो भी मुक्ति, माधुर्य, सफलता और यश
आपके पीछे लग ही जायेंगे ।
कबिरा मन निर्मल भयो, जैसे गंगा नीर ।
पीछे पीछे हरि फिरै, कहत कबीर कबीर ।।

शरीर को मैं माना और संसार से सुख लेने का भाव आया तो मन
मलिन हो जायेगा, खटपट चालू हो जायेगी । बातें चाहे कितनी मीठी
करो, भाषण चाहे जितन कर दो लेकिन दृष्टि किसी की जेब पर या
शरीर की सुख-सुविधा पर है तो फिर आपकी खैर नहीं है हुजूर ! आगर
दृष्टि सबके हृदय में छुपे हुए प्रभु है और सबके मंगल के लिए आपके
कर्म हैं तो आपके कर्म दिव्य हो जायेंगे, आपका जन्म दिव्य हो जायेगा

यह मैं आपसे धोखा नहीं कर रहा हूँ भाई । झूठ और कपट से
अपने आत्मा के साथ ही अन्याय होता है तो दूसरे से न्याय क्या होगा !
ज्यों-ज्यों अऩित्य संसार में प्रीति होगी और संसार से सुख चाहेगा
त्यों-त्यों झूठा, कामी, क्रोधी, लोभी, मोही, कपटी बन जायेगा । और
ज्यों-ज्यों अपने नित्य परमेश्वर से शाश्वत प्रीति की और अंतरात्मा का
सुख चाहा त्यों-त्यों कामी की जगह रामी हो जायेगा, मोही की जगह
पर निर्मोही हो जायेगा ।
मोह (अज्ञान) सब व्याधियों का मूल है । शरीर को मैं मानने से
मोह पैदा होता है । जिसका शरीर में ज्यादा मोह है वह कुटुम्ब में
आदरणीय नहीं होता, जिसका केवल कुटुम्ब में ही ज्यादा मोह है वह
पड़ोस में आदरणीय नहीं होता, जिसका केवल पड़ोस में ही मोह है वह
गाँव में आदरणीय नहीं होगा, जिसका केवल गाँव में ही मोह है वह
तहसील में आदरणीय नहीं होगा, जिसका केवल तहसील में ही मोह है
वह जिले में आदरणीय नहीं होगा परंतु जिनका किसी एक व्यक्ति या
एक दायरे से मोह नहीं है वे तो संत हैं ! उन संतों का प्राकट्य दिवस वे
स्वयं नहीं मनाना चाहते हैं तो करोड़ों लोग मनाने लग जाते हैं क्योंकि
मोह नहीं है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2023, पृष्ठ संख्या 13,14 अंक 363
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आप भी ऐसा जीवन लक्ष्य बना लो – पूज्य बापू जी



हनुमान जी का प्राकट्य दिवस चैत्री पूनम है । हनुमान जी के
जीवन में कर्म को योग बनाने की जो कला है उसमें से थोड़ी सी भी
कला आपके जीवन में आये तो आपका जीवन निष्कलंक नारायण के
अनुभव से सम्पन्न हो जायेगा । हनुमान जी सेवा का महत्त्व जानते हैं
। नकली सेवक अधिकार चाहते हैं, वासना बढ़ाते हैं और भोग विकार में
तबाह हो जाते हैं । असली सेवक अधिकार बिना ही सामने वाले के तन
की तंदुरुस्ती, मन की प्रसन्नता और बुद्धि में बुद्धिदाता का प्रकाश हो
इस प्रकार की सेवा करते हैं ।
अवतरण की निराली कथा
हनुमान जी की गाथा कुछ निराली है । दशरथ जी द्वारा
पुत्रकामेष्टि यज्ञ करने के बाद अग्निदेव खीर का कटोर लेकर प्रकट हुए
। वसिष्ठ जी ने कहाः राजन् ! “धर्मपत्नी तुम्हारी कौसल्याजी हैं, कैकेयी
तो तुम्हारी प्रिया हैं ।”
तो खीर का आधा हिस्सा पहले कौसल्या जी को दिया गया ।
बाकी आधे भाग का कुछ हिस्सा पहले सुमित्रा को और फिर कैकेयी को
दिया गया ।
कैकेयी यह जानकर रोष में आ गयी और दशरथ जी को बोलीः
“मेरे को तुमने समझ क्या रखा है ! उऩको पहले मिला और मुझे बाद
में क्यों ? क्या मैं दासी हूँ ?…”
इस प्रकार कैकेयी का थोड़ा कुचक्र चला । शिवजी की प्रेरणा से
चील आयी और कैकेयी के हाथ से खीर का पात्र उड़ा के अंजन पर्वत पर
ले गयी, जहाँ अंजनी देवी दिव्यात्मा पुत्र के लिए तप कर रही थीं ।
चील ने जाकर उनके हाथ में वह खीर रखी । अंजनी देवी ध्यान में थी

तो उनको पता ही नहीं चला कि यह खीर चील रख गयी है । उन्होंने
माना मैंने शिवजी की उपासना की तो यह शिवजी ने प्रसाद दिया है ।
तो वह प्रसाद खा गयी । उसी से गर्भ रह गया और हनुमान जी प्रकट
हुए । उधर कैकेयी का प्रसाद चील ले गयी यह देखकर वह बहुत दुःखी
हुई तब दयालु कौसल्या जी ने अपने भाग में से थोड़ी खीर कैकेयी को
दी व सुमित्रा ने भी थोड़ी खीर कैकेयी को दी ।
राम काज करने में लज्जा कैसी ?
अशोक वाटिका में हनुमान जी हाथ नहीं आ रहे थे तो मेघनाद ने
ब्रह्मास्त्र छोड़ा । हनुमान जी ने ब्रह्मास्त्र का आदर किया, वे पेड़ से
नीचे गिर पड़े । मेघनाद ने देखा कि हनुमान जी मूर्च्छित हो गये तब
वह उनको नागपाश से बाँध कर ले गया । बँधे-बँधाये हनुमान जी रावण
की सभा में खड़े कर दिये गये परंतु हनुमान जी के चेहरे परन लज्जा है
न उच्छृंखलता है । हनुमान जी की निष्फिक्रता, निश्चिंतता और समता
देखकर रावण भड़क गया, बोलाः “अरे बंदर ! नागपाश में बाँधकर तुमको
यहाँ लाया गया है और ऐसे निश्चिंत खड़े हो मानो यह सभा कोई
तुम्हारे स्वागत और यशगान के लिए है ! यह अपनी सत्कार-सभा
मानकर खड़े हो क्या ?”
हनुमान जी बोलेः “मैं आदर और अनादर का महत्त्व नहीं जानता
हूँ, मैं तो जानता हूँ कि मेरे राम जी का कार्य हो रहा है ।”
आदर मिले तो क्या, अनादर मिले तो क्या, सेवक तो स्वामी के
कार्य में तृप्त रहता है, निश्चिंत रहता है ।
रावणः “इस बंदर पर अभी कुछ प्रभाव नहीं हुआ । इसकी पूँछ पर
कपड़े लपेटो और आग लगा दो !”

हनुमान जी ने पूँछ लम्बी की । कपड़े लपेटते-लपेटते और घी-तेल
लगाते-लगाते दैत्य थक गये तो इन्द्रजीत (मेघनाद) भयभीत होकर
बोलाः “पिता श्री ! इस बंदर की पूँछ में आग लगायें और इसने लंका के
चारों तरफ आग को फैला दिया तो पूरी लंका तहस-नहस हो सकती है
।”
हनुमान जी समझ गये कि ‘यह तो गड़बड़ हो जायेगी ।’ तो
उन्होंने संकल्प करके पूँछ सिकोड़ ली । दैत्य पूँछ पूरी ढकने में सफल
हो गये ।
हनुमान जी के संकल्प से काम हुआ है परंतु दैत्य बोलते हैं कि
“हम सफल हो गये ।”
स्वामी का यश बढ़ाने हेतु अपनायी सुंदर युक्ति
हनुमान जी ने दैत्यों को मजा चखाना चाहा । दैत्य पूँछ को आग
लगायें उससे पहले हनुमान जी ने संकल्प किया कि ‘हे पिता श्री ! हे
वायुदेव ! आपका और अग्नि का तो सजातीय संबंध है । अग्नि न लगे
ऐसी कृपा करना ।’
दैत्य आग लगाते हैं लेकिन पूँछ को आग पकड ही नहीं रही है,
केवल धुआँ-धुआँ हो रहा है । आखिर रावण ने कहाः “हनुमान ! अग्नि
क्यों नहीं लग रही है ?”
“लंकेश ! आपको पता है कि सुशील, सदाचारी ब्राह्मण यजमान के
आमंत्रण के बिना उसके घर नहीं जाते हैं और ये अग्निदेव तो
महासदाचारी है । आप यजमान बनो और अग्निदेव को आमंत्रित करो
तभी आयेंगे । और ये लोग एक मुख से फूँकते हैं, आप दसों मुख से
एक साथ फूँकोगे तो अग्निदेव प्रसन्न हो जायेंगे ।”

रावण को लगा कि हनुमान की युक्ति ठीक है । चलो, अब हम
स्वयं अग्नि लगायेंगे ।
उसने ठीक से कुल्ला-वुल्ला किया, अग्निदेवता का आवाहन किया
और बोलाः “दस-दस मुख से फूँकूँगा तो बिल्कुल आग लगेगी !”
रावण की बुद्धि ऐसी मारी गयी कि जो हनुमान जी ने ठान लिया
वही करने लगा । उसमें रावण ने एक बेईमानी जोड़ दी कि “मैं ऐसी
फूँक मारूँगा कि पूँछ के साथ यह बंदर भी जल जाय तो मेरा यश होगा
। हा हा हा…. !’
हनुमान जी ने देखा कि ‘ठीक है, तुम भी मनाओ खुशियाँ । हमें न
खुशी चाहिए न रंज (दुःख) चाहिए, हमें तो रामजी की प्रसन्नता मिल
रही है ।’
रंज और दुःख से दुःखहारी हरि की शांति और आनंद बहुत ऊँची
चीज है । हनुमान जी इसका अनुभव कर रहे थे, निष्काम कर्मयोगी थे

रावण ने खूब घी तेल लगवाया । फिर श्वास भर के एक साथ दसों
मुँह से जोर से फूँक मारी । फूँक मारने के लिए झुका था और एकाएक
अग्नि भड़की तो रावण की दाढ़ी-मूँछ जल गयी ।
हनुमान जी का जीवन-उद्देश्य
हनुमान जी का उद्देश्य राम जी की सेवा था और आश्रय रामनाम
था, जीवन में कर्मयोग था । हनुमान जी ने श्रीराम की दुहाई देकर
रावण को समझाने की कोशिश की लेकिन रावण ने हेकड़ी नहीं छोड़ी,
तब हनुमान जी ने लंका जला दी । उसका उद्देश्य था कि रावण अभी
समझ जाय कि ‘मैं तो राम जी छोटा सा दूत हूँ । जब मैं ऐसा हूँ तो
मेरे स्वामी कैसे होंगे ?’ तो हनुमान जी का उद्देश्य अपने स्वामी का

यश फैलाना था । उनके हृदय में रावण के प्रति द्वेष नहीं था और लंका
को जलाकर ‘मैं कुछ बड़ा हूँ ऐसा दिखाने का भाव नहीं था, रावण
भगवान श्री राम जी की महिमा जाने और उसका भला हो ऐसा उद्देश्य
था । तो आपको अपना रसमय जीवन पाना है तो हनुमान जयंती पर
हनुमान जी के जीवन-लक्ष्य का आप भी थोड़ा उद्देश्य बना लो ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2023, पृष्ठ संख्या 11,12,14 अंक 363
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इस झमेले के दुःखों से पार होना हो तो…. पूज्य बापू जी


जो लोग सोचते हैं, ‘मैं परेशान हूँ, मैं दुःखी हूँ’ वे अपने-आपके बड़े खतरनाक दुश्मन होते हैं । उनके दुःख भगवान भी नहीं मिटा सकते । ‘मैं परेशान हूँ, मैं दुःखी हूँ’ ऐसा चिंतन करने वाला व्यर्थ की परेशानी और दुःख की सृष्टि बनाता रहता है । अगर उसे मरते समय भी पीड़ा हुई और ‘मैं दुःखी हूँ, मैं परेशान हूँ’ ऐसा सोचा तो वह उस समय सुन्न हो जायेगा । फिर शरीर तो मर जायेगा लेकिन दुःख और परेशानी वाला अंतःकरण उसको न जाने कब तक सताता रहेगा ।

तो ‘मैं दुःखी हूँ, मैं परेशान हूँ’ इस प्रकार की वृत्ति को उखाड़ के फेंक देने का संकल्प करो । कैसी भी परिस्थिति आये, मैं परेशान हूँ, मुझे बड़ी समस्या है, मुझे बड़ी चिंता है, मैं दुःखी हूँ…’ ऐसा कभी न सोचना, कभी न कहना । इससे अपना बहुत-बहुत घाटा होता है । दुःख, परेशानी बाहर की परिस्थिति में होते हैं, उन्हें अपने में घुसेड़ना यह बड़ी भारी भूल है । ‘मैं दुःखी हूँ, मैं परेशान हूँ, मैं बीमार हूँ, मेरा कोई नहीं है, मेरा फलाना शत्रु है, मेरे फलाने प्यारे हैं – मित्र हैं…’ – यह चिंतन जीव को न जाने कितनी-कितनी दुःखद अवस्थाओं में भटकाने के लिए पर्याप्त हो जाता है । ‘ध्यान करके, भक्ति करके मैं ऐसा बनूँगा… ऐसा बनूँगा…’ यह भी एक प्रकार की विडम्बना ही है । न कुछ बनना है, न अपने को तुच्छ मानना है, न अपने को श्रेष्ठ मानना है, अपने को तो भगवान का मानना है क्योंकि वास्तव में हम ईश्वर के थे, हैं और रहेंगे । शरीर के हम हैं नहीं, थे नहीं और रह सकते नहीं । शरीर बदलता है, मन बदलता है, स्वभाव बदलता है – पत्नी का, पति का, सबका । बदलने वाले से जो अपने को जोडता है वह बड़ी भारी भूल करता है और उसी का भारी-भारी दंड भोगता रहता है । तीर्थों में भी जाता है, मंदिरों, मस्जिदों और चर्चों में भी जाता है किंतु दुःख से जान नहीं छूटती ।

कभी न छूटे पिंड दुःखों से जिसे ब्रह्म का ज्ञान नहीं ।

मैं वास्तव में आत्मा हूँ और यह आत्मा सर्वत्र व्याप्त है इसलिए मैं ब्रह्म हूँ । जैसे घड़े का आकाश और महाकाश एक है ऐसे ही आत्मा और ब्रह्म एक है, ऐसा ज्ञान जब तक स्वीकार नहीं होता, जब तक इस ज्ञान में रुचि नहीं होती तब तक स्वर्ग मिलने से भी दुःख नहीं मिटते । अपने निर्दुःख आत्मस्वभाव को पहचाने बिना, अपने निर्दुःख नारायण का रस पाये बिना नीरसता, शुष्कता जाती नहीं है । नीरसता ही संसार में, विकारों में गिराती है । नीरसता मिटते ही व्यक्ति निर्विकार हो जाता है, निर्भीक और निश्चिंत हो जाता है । वास्तव में हमारा असली स्वरूप परम रस है, सच्चिदानंद-स्वभाव हमारा परम रस है, रस-स्वभाव हमारा वास्तविक स्वरूप है । जब तक इस रस-स्वभाव में ठीक से गति नहीं हुई, स्थिति नहीं हुई तब तक देखने, सूँघने आदि का रस, पति-पत्नी के शरीरों को नोचकर मलिनता का रस ले के भी व्यक्ति नीरसता मिटाने-मिटाने में नीरस हो हो जाता है । अंदर रस नहीं है तो सिगरेट का रस लेता है लेकिन वह तो और नीरस बनायेगी, सुरा और सुंदरी नीरस बनायेंगी, विकारी सुख-भोग भी नीरस ही बनायेगा । तो रस की माँग-माँग में नीरसता बढ़ती जा रही है ।

विदेशियों की ऐसी दुर्दशा है कि रस-रस के चक्कर में इतने नीरस हो रहे हैं कि आत्महत्या तक कर लेते हैं । आदर पाने की, बड़ा व्यक्ति बनने की इच्छा-इच्छा में ऐसे गंदे काम करते हैं कि क्या बतायें ! आदरणीय बनना हो तो सुंदर-सरल उपाय है – अपनी योग्यताओं का ठीक से सदुपयोग करें, चाहे कितनी छोटी-सी योग्यता हो । प्रभु में विश्वास है तो आदर पाने के लिए बेईमानी और कपट करने से विश्वास हट जायेगा । जिनको प्रभु में विश्वास नहीं है उनको रुपयेग-पैसे, ठगी, प्रमाणपत्र आदि में विश्वास होता है और वह विश्वास उनको सताता है । मरते समय वे प्रमाणपत्र साथ में नहीं आते । ‘मैं दुःखी होकर जा रहा हूँ’ या ‘मैं दुःखी हूँ, मैं परेशान हूँ’ अथवा ‘मैं दुःखी हूँ, दुःखी हूँ’ ऐसा स्वभाव बनाना तो और भी मुसीबत बढ़ाने वाला होगा । न जाने किस समय मृत्यु आये और तब वह दुःखी-दुःखी का भाव लेकर जाओगे तो फिर भगवान भी तुम्हारा दुःख नहीं मिटा सकते, दुःखद योनियों में ही जाना पड़ेगा । लेकिन ‘मैं भगवान का हूँ, भगवान का हूँ….’ ऐसा झूठमूठ में ही बोलो तो आहाहा !… वास्तव में भगवान के हो ही पर झूठमूठ में भी बोलो तो भगवान सोचेंगे, ‘चलो, मेरा नाम तो लिया !’ फिर वे न जाने कैसी कृपा कर दें ! कैसे सत्संग में भेज दें ! कैसी सूझबूझ दे दें कि मरने के बाद दुर्गति में से भी सद्गति हो जाय ।

बिगड़ी जनम अऩेक की सुधरहिं अब और आजु ।

तुलसी होहिं राम को राम भजि तजि कुसमाजु ।।

काम, क्रोध, लोभ, आलस्य, निद्रा, तन्द्रा, दोष-दर्शन, अपने में विशेषता का भाव – ये कुविकार लोफर हैं, सब अहंकार और उसकी माया है । इसलिए ‘हे प्रभु आनंददाता ! यह ज्ञान दीजिए कि आप सत् रूप हैं, आप चेतन रूप हैं, आनंदरूप है, ये विकार अष्टधा प्रकृति में हैं, पंचभौतिक शरीर, मन, बुद्धि और अहं में हैं, उऩको जानने वाला मेरा आत्मा आप ही का सनातन अमृतपुत्र है । जान गये, बलमा की बात पहचान गये । वाह मेरे आनन्ददेवा !’ ऐसा चिंतन करेंगे तो तुरंत आप इस झमेले के दुःखों से और पापों से मुक्त हो सकते हैं ।

ऋषि प्रसाद, जनवरी 2023, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 361

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