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भय को कुचल डालो – पूज्य बापू जी



किसी भी परिस्थिति में तुम भयभीत न होना । निर्भयता से ही
सारी सफलताएँ मिलती हैं, भय को कुचल डालो । हिम्मत रखो, ईश्वर
तुम्हारे साथ है । भय को दूर भगाकर प्रतिदिन निर्भयस्वरूप परमात्मा
का ध्यान करो । ‘ॐ… ॐ… मैं निर्भय नारायण परमात्म-चेतना के साथ
एक हो रहा हूँ । ॐ…ॐ… जो सदा है, अमर है उसी निर्भय पद में मैं
शांत व आनंदित हो रहा हूँ । ॐ…ॐ…
इन छः तीखी तलवारों को फेंक दीजिये – पूज्य बापू जी

  1. अत्यंत अभिमान में आकर बोलना ।
  2. अंदर से द्रोह रखना ।
  3. आसक्ति रखना, त्याग का अभाव ।
  4. अश्लील बोलना ।
  5. क्रोधपूर्ण व्यवहार ।
  6. अपना ही पेटपालू बन जाना, परिवार का, पड़ोस का या दूसरों
    का ख्याल न करना ।
    इन छः तीखी तलवारों को निकाल के फेंक दीजिये ।
    इन्हें फेंक देंगे तो आपका जीवन उन्नत होगा, सबके प्रति सद्भाव
    व आत्मीयता के रस से परिपूर्ण होने लगेगा और जो लोग आपको
    दुत्कारते थे, कोसते थे वे भी आपको स्नेह करने लगेंगे । तो आप ये
    सद्गुण अपने जीवन में उतारना, सँजोना लेकिन दूसरे आपको स्नेह करें
    यह अपेक्षा रख के नहीं अपितु संत का प्रसाद है ऐसा समझकर करना ।
    प्रयत्नपूर्वक करें वीर्य की रक्षा
    भगवान श्रीकृष्ण कहते है-
    आत्मा हि शुक्रमुद्दिषअटं दैवतं परमं महत् ।

तस्तामत् सर्वप्रयत्नेन निरुन्ध्याच्छुक्रमात्मनः ।।
आयुस्तेजो बलं वीर्यं प्रज्ञा श्रीश्च महद् यशः ।
पुण्यं च मत्प्रियत्वं च लभते ब्रह्मचर्यया ।।
‘वीर्य को आत्मा बताया गया है । वह सबसे श्रेष्ठ देवता है ।
इसलिए सब प्रकार का प्रयत्न करके अपने वीर्य की रक्षा करनी चाहिए ।
मनुष्य ब्रह्मचर्य के पालन से आयु, तेज, बल, वीर्य, बुद्धि, लक्ष्मी,
महान यश, पुण्य और मेरी प्रीति को प्राप्त करता है ।’ (महाभारत,
आश्वमेधिक पर्वः अध्याय 92)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2022, पृष्ठ संख्या 19 अंक 356
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जीवन में गुरु की अनिवार्यता – रमण महर्षि



आत्मानुभ के लिए प्रयत्नशील साधकों के लिए गुरु आवश्यक हैं
लेकिन पूरे मनोयोग से प्रयत्न न करने वालों में गुरु आत्मानुभव
उत्पन्न नहीं कर सकते । यदि साधक आत्मदर्शन के लिए गम्भीर
प्रयत्न करता है तो गुरु की अनुग्रहशक्ति अपने-आप प्रवाहित होने
लगती है । यदि प्रयास न किया जाय तो गुरु असहाय हैं ।
गुरु अनिवार्य हैं । उपनिषद कहती है कि ‘मन से तथा इन्द्रियों से
दिखने वाले दृश्यों के जंगल से मनुष्य को गुरु के बिना और कोई
निकाल नहीं सकता । गुरु अवश्य होने चाहिए ।
आत्मसाक्षात्कार के लिए गुरु अऩिवार्य
जब तक आप आत्मसाक्षात्कार करना चाहते हैं, गुरु आवश्यक हैं
(भाव यह है कि किसी को संसार-सागर में सुख-दुःख के थपेड़े खाना
स्वीकार हो जाय तो उसके लिए गुरु की आवश्यकता नहीं है, वह भले
निगुरा होकर दुःख, शोक, भय, चिंता की ठोकरें खाता रहे) । जब तक
आप में द्वैत भाव है, गुरु आवश्यक हैं । चूँकि आप स्वयं को शरीर से
एकरूप मानते हैं, आप सोचते हैं कि ‘गुरु भी एक शरीर हैं’ परंतु आप
शरीर नहीं हैं, न ही गुरु शरीर हैं’ परंतु आप शरीर नहीं हैं, न ही गुरु
शरीर हैं । आप आत्मा हैं और गुरु भी आत्मा हैं । जिसे आप
आत्मसाक्षात्कार कहते हैं उससे यह ज्ञान प्राप्त होता है ।
गुरु के पास जाकर श्रद्धा से उनकी सेवा करके मनुष्य उनकी कृपा
से अपने जन्म तथा अन्य दुःखों का कारण जानना चाहिए । यह
जानकर कि ये सब आत्मा से च्युत होने की वजह से उत्पन्न हुए हैं,
दृढ़तापूर्वक आत्मनिष्ठ हो के रहना श्रेष्ठ है ।

हालाँकि जिन लोगों ने मोक्षमार्ग को अंगीकार किया है और
दृढ़तापूर्वक उसका अनुसरण करते हैं वे कभी-कभी या तो विस्मृति के
कारण या किसी अन्य कारण से वैदिक पथ से एकाएक भटक सकते हैं
। उनको गुरु के वचनों से विरुद्ध कभी भी नहीं जाना चाहिए । ऋषियों
के वचन से यह जाना गया है कि यदि मनुष्य ईश्वर का अपराध करता
है तो गुरु उसे दोष से मुक्त करते हैं किंतु गुरु के प्रति किये गये
अपराध से स्वयं ईश्वर भी मुक्त नहीं करता ।
सभी लोग जिसकी कामना करते हैं वह शांति किसी के द्वारा
किसी भी तरह किसी भी देश या काल में प्राप्त नहीं हो सकती जब तक
मनुष्य सद्गुरु की कृपा से मन कि निश्चलता प्राप्त नहीं करता ।
इसलिए हमेशा एकाग्रतापूर्वक अऩुग्रह पाने की साधना में लगे रहिये ।
आत्मा पर त्रुटिपूर्ण सीमा का स्व-आरोपण अज्ञान का कारण है ।
भजन करने पर ईश्वर स्थिर भक्ति देते हैं, जो आत्मसमर्पण में परिणत
होती हैं । भक्त के आत्मसमर्पण करने पर ईश्वर गुरुरूप में प्रकट होकर
दया करते हैं । गुरु, जो कि ईश्वर हैं, यह कहकर भक्त का मार्गदर्शन
करते हैं कि ‘ईश्वर अंदर है और आत्मा से भिन्न नहीं है ।’ इससे मन
की अन्तर्मुखता सिद्ध होती है जो अंत में आत्मानुभव में परिणत होती
है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2022, पृष्ठ संख्या 16 अंक 356
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साधना में शीघ्र सफलता हेतु 12 नियम – पूज्य बापू जी


ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु द्वारा दिया हुआ मंत्र इष्टमंत्र है, सर्वोपरि मंत्र है ऐसा दृढ़ विश्वास रखना चाहिए फिर चाहे – ‘ड्रें-ड्रें’ मंत्र क्यों न हो । एक गुरु ने शिष्य को धनप्राप्ति के लिए दे दिया मंत्रः ″जा बेटा ! ‘ड्रें-ड्रें-ड्रें…’ जप करना ″ और वह ‘ड्रें-ड्रें’ को गुरु मंत्र समझकर लग गया जप में । उसकी उसी से धनप्राप्ति की कामना पूरी हुई । ‘मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यम्’ । सुनते थे ‘राम-राम’ परंतु अब वह गुरुमंत्र होकर मिला है तो बात पूरी हो गयी… कबीर जी लग गये और सिद्धपुरुष बन गये । तर्क-कुतर्क के द्वारा भगवान को या सद्गुरु को या गुरुमंत्र को नहीं जाना जाता । गुरुमंत्र, गुरु-तत्व को जानना है तो भक्ति, श्रद्धा, तत्परता और सातत्य चाहिए । अतः मंत्रदीक्षित साधकों को इन 12 बातों को ठीक से समझ लेना चाहिए ।

हे साधक ! अपनी बुद्धि को आकाश की नाई व्यापक, अपने चित्त को दरिया की नाईं गम्भीर और अपने निश्चय को हिमालय की नाई ठोस बनाओ फिर देखो, सिद्धिर्भवति कर्मजा… कर्म करने से तुम्हें सिद्धि प्राप्त होगी और अष्टसिद्धि  नवनिधि नहीं, आत्मसिद्धि प्राप्त होगी ! अष्टसिद्धि-नवनिधि मायिक हैं, समय पाकर क्षीण हो जाती हैं परंतु आत्मसिद्धि को महाप्रलय भी छू नहीं सकता । 33 करोड़ देवता तुम्हारे विरुद्ध खड़े हो जायें फिर भी तुम्हारी आत्मसिद्धि, आत्मज्ञान नहीं छीन सकते हैं । अगर आत्मसिद्धि पाने का इरादा पक्का है तो तुम अपने जीवन में इन 12 बातों को जरूर उतारोगेः

1 गुरुमंत्र, इष्टमंत्र को गुप्त रखें और माला का आदर करें । माला को जहाँ-तहाँ नहीं भूलना, जहाँ-तहाँ नहीं रखना । जिस माला से जप करते हो उसको साधारण मत समझो । कभी दुर्भाग्य से माला टूट जाये और मनके कम हो जायें तो नयी माला के मनके जप वाली माला में मिलाकर जोड़ लो । जिस माला पर गुरुमंत्र जपा है उसका दाना-दाना इष्ट है, उसका जर्रा-जर्रा मंत्र के प्रभाव से पवित्र है, पावन है ।

2 निश्चित समय व निश्चित जगह पर भजन ध्यान और नियम करें । निश्चित समय पर बैठने से उस समय तुम्हारा मन अपने-आप ध्यान, जप की तरफ खिंचेगा और निश्चित जगह पर करोगे तो उस जगह पर बैठने से ही अपने-आप जप होने लगेगा । मुसाफिरी में होने से अगर निश्चित जगह नहीं मिलती है तो भले वहाँ यथोचित जो मिले उस स्थान पर अपना नियम कर लो परंतु घर में एक ऐसी जगह बनाओ कि वहाँ ध्यान-जप ही किया जाता रहे, संसारी कर्म वहाँ नहीं किये जायें ।

हिमालय में कौन सी गुफा में जाओगे ? तीर्थों में आजकल कैसे-कैसे लोग घुस गये हैं ! मैं खूब सारे अनुभव कर बैठा हूँ । अब तो तुम अपने घर में ही तीर्थ बना लो और सद्गुरु जहाँ रहे वह भूमि महातीर्थ है । मेरे लिये नैनीताल का जंगल महातीर्थ है । भगवान की भक्ति, भगवान का चिंतन, स्मरण, भगवद्-जन महापुरुषों के सम्पर्क में अथवा महापुरुषों की भूमि में बैठना, उनका सत्संग सुनना यह असली कमाई है ।

वर्षों से इधर आश्रमों ( संत श्री आशाराम जी आश्रमों ) में भजन-ध्यान चल रहा है । कितना भी अशांत व्यक्ति इधर आश्रम के माहौल में आता है तो उसके चित्त में यहाँ की आध्यात्मिक आभा का, ध्यानयोग का, भक्तियोग का कुछ-न-कुछ सात्विक एहसास होने लगता है । इसलिए आश्रम की पवित्र भूमि में ध्यान, जप का लाभ अवश्य लेते रहना चाहिए ।

3 स्वच्छ, विद्युत का कुचालक आसन हो । भजन-ध्यान करते हैं तो एक प्रकार की सात्विक ऊर्जा या विद्युत शरीर में उत्पन्न होती है, जो हमारे शरीर को स्वस्थ और मन को प्रसन्न रखने में सहायता करती है । अर्थिंग मिलने से वह विद्युत नष्ट हो जाती है अतः उसकी रक्षा हेतु कम्बल आदि जैसा विद्युत-कुचालक आसन हो ।

4 आसानी से बैठ सकें ऐसा व्यवस्थित आसन ( बैठक ) हो । बैठने में अथवा माला जपने में ऐसा-वैसा तनाव न हो, सहज में बैठ सकें और बैठते समय रीढ़ की हड्डी सीधी हो । अगर झुक के बैठोगे तो ऊर्जा के प्रवाह व प्रभाव को ऊर्ध्वगामी होने में बाधा आयेगी, मन दौड़ेगा, आलस्य आयेगा, निद्रा आयेगी अथवा उठ के भाग जाने का विचार आयेगा इसीलिए सीधे बैठो । वैसे तो हर समय रीढ़ की हड्डी सीधी करके बैठना चाहिए ।

5 उत्तर या पूर्व की तरफ ही मुँह करके भजन, ध्यान, नियम करें । इससे सात्विकता बढ़ेगी । परंतु यह बात सत्संग के समय या गुरु के सामने अथवा व्यासपीठ के सामने बैठे हों तब पालनीय नहीं है  । गुरु अगर दक्षिण की तरफ बैठे हैं तो आपका मुँह उधर ही होगा, वहाँ संशय नहीं हो । वहाँ तो गुरु-तत्व का अपना कायदा चलता है ।

6 भगवान से प्रार्थना करें । जो-जो समस्याएँ-मुसीबतें हैं उनको दूर करने के लिए बल व ज्ञान प्राप्ति की प्रार्थना करो और जिनसे प्रार्थना करते हो उनको उस विषय में सर्वोपरि मानो । जब एक प्रतिमा के आगे सर्वोपरि भाव से प्रार्थना की जाती है तो सिलबट्टे से भी भगवान प्रकट हो सकते हैं तो हयात सद्गुरु या उनके श्रीचित्र के समक्ष सर्वोपरि भाव से प्रार्थना करने पर उनके हृदय से भगवत्कृपा क्यों नहीं बरसेगी ! क्यों नहीं मदद मिलेगी ! ( क्रमशः )

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2022, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 354

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7. सावधानी बरतें कि ‘कहीं मनोराज तो नहीं हो रहा है, झोंकों में ही तो समय पूरा नहीं हो रहा है ?’ माला जपते-जपते मन कहीं इधर-उधर भाग तो नहीं रहा ? अगर भाग रहा है तो लम्बा श्वास लेकर ‘हरि… ओऽऽ…. म्…’ या राऽऽ… म्…’ अथवा जो भी अनुकूल पड़े उस भगवन्नाम का उच्चारण करो।

8. व्यवहार के समय अंदर से ठोस रहें, पिघले नहीं और साधन भजन करते समय अंदर से पिघले बिना रहें नहीं । जैसे मोम पिघलता है तो उस समय जो रंग डालो वह उस रंग का बन जाता है ऐसे ही व्यवहार में अगर आप पिघलते रहोगे तो संसार के रंग से आपका चित्त रँगा रहेगा । व्यवहार में तटस्थ रहो । आपकी पदोन्नति हो गयी तो बहुत खुश होने की जरूरत नहीं, आपसे बड़े-बड़े पदोन्नति वाले पदोन्नत होकर मर गये । बहुत घाटा हो गया तो ज्यादा दुःखी होने की जरूरत नहीं है, अपमान हो गया तो ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं, भीतर से थोड़े मजबूत रहो तो उसका प्रभाव तुम पर नहीं पड़ेगा बल्कि तुम्हारा प्रभाव संसार पर पड़ेगा ।

अगर तुम जरा-जरा बात में प्रभावित होते रहे तो तुमको संसार गुड्डे की नाईं नचाता फिरेगा । इसलिए संसार की सफलता-विफलता में अपने हृदय को प्रभावित होने से बचाओ, पिघलो मत और साधन-भजन करते समय पिघले बिना रहो मत । चित्त जितना पिघला हुआ, द्रवित रहेगा उतना ही साधन-भजन का, भगवद्भाव का रंग चित्त पर चढ़ेगा और चित्त भगवन्मय, साधनमय, ध्यानमय, ज्ञानमय, प्रेममय होने लगेगा ।

9. मंत्र का उच्चारण स्पष्ट करें और मंत्र के अर्थ में अपने चित्त को लगायें ।

10. जप, माला आदि करते-करते अगर जपते-जपते ऊब गये, मन नहीं लगता है तो जोर-जोर से जपो । कोई नहीं है तो जोर-जोर से गुरुमंत्र जपो, अगर कोई है तो फिर किसी अन्य मंत्र का जोर-जोर से जप करके थोड़ा कीर्तन करो । तेजी से 5-10 श्वास लो और छोड़ो, इससे मनोवृत्ति बदल जायेगी ।

अगर क्रोध या कामुक विचार आते हैं और उनसे बचना चाहते हैं फिर भी गिर जाते हैं तो हाथ पैर धोओ, पानी के 3 आचमन लो, पंजों के बल थोड़ा कूदो, श्वास की लय बदलो और हृदय को भगवद्भाव से बदलो तो जहाँ 12-12 साल काम-क्रोध से युद्ध करते-करते लोग हारते हैं व मरते हैं वहीं उस युद्ध में तुम आसानी से बहुत कम समय में सफल हो सकते हो ।

11. जप करते-करते ध्यान करें । भगवान या सद्गुरु के श्रीचित्र की ओर एकटक देखें । उनके चरणों से लेकर घुटनों तक, घुटनों से नाभि तक, नाभि से वक्षस्थल तक और धीरे-धीरे अभ्यास बढ़ा के उनके मुखमण्डल या नेत्र जहाँ भी तुम्हारा चित्त ठहरता है, वहाँ 5-10 मिनट एकटक देखो । फिर आँखें बंद करके उस रूप को अपने भ्रूमध्य में, जहाँ तिलक करते हैं, वहाँ देखो । इससे छठे केन्द्र का विकास होता है ।

12. जप में विविधता लायें और विविधता के साथ विसर्जन और विश्राम । ध्यान, जप आदि का नियम पूरा हो गया तो फिर थोड़ा विश्राम करो । तुरंत उठकर जिस किसी से मिलो नहीं, जिस किसी से हाथ मिलाओ नहीं, कुछ खाओ नहीं । 10 मिनट बैठे ही रहो ऐसे ही – शांत ! मन में कोई विचार आये तो क्या है… आया, उसे महत्त्व न दो ! थोड़ा लेट गये, 5 मिनट शरीर को खींचा, ढीला छोड़ा, विश्राम किया और जप का जो भाव, जप की जो धारा, जो स्पंदन बने उनको अचेतन मन में गहरे उतरने दो, इससे बहुत फायदा होगा ।

इन 12 नियमों को जो अपने सामने रख कर चलता है उस साधक को साधना में जल्दी सफलता मिलती है । एक दिन में, एक महीने में नहीं परन्तु औरों की अपेक्षा बहुत जल्दी मिलेगी । तुमको लगेगा कि जो 12-12 साल से मनमाना भजन-पूजन करते हैं, दो महीने की साधना आपको उनसे बहुत ऊँचाई का अनुभव करा रही है । बिल्कुल पक्की बात है ! इसलिए साधक को, ईश्वरार्थी को, प्रभु-अर्थी को इन बातों पर खूब ध्यान देना चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2022, पृष्ठ संख्या 5,8 अंक 355

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