एक दिन महात्मा बुद्ध अपनी झोंपड़ी के बाहर बैठे थे, उनका
शिष्य आऩंद अंदर था । एक व्यक्ति आया, बोलाः “भंते ! मैं आपके
पास वह बात सुनने को आया हूँ जो कही नहीं जाती, वह बात समझने
को आया हूँ जो समझायी नहीं जाती, मैं उसको जानने आया हूँ जिसको
जानने वाला स्वयं रहता नहीं ।”
उसने अहोभाव से, धन्यवाद से बुद्ध की तरफ देखा, बुद्ध ने
उसकी तरफ देखा । बुद्ध के नेत्र बंद हो गये, उस व्यक्ति भी आँखें बंद
हो गयीं ।
आनंद ने दूर से झाँका तो सोचने लगा, ‘वह व्यक्ति चुप है, भंते
को हाथ नहीं हिलते, होंठ भी नहीं हिलते, क्या बात है ? हो सकता है
भंते ध्यान में हों और वह व्यक्ति कल्पनाओं के राज्य में खो गया हो ।’
भगवान कहते हैं-
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चितो युक्त आसीत मत्परः ।।
‘योगी को प्रशांतचित्त, निर्भय, ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित हो के
और मन को संयत करके मेरे में ही चित्त लगाकर एवं मुझको ही अपना
परम पुरुषार्थ समझते हुए योगयुक्त हो के बैठना चाहिए । (गीताः 6.14)
प्रशांतत्मा… शांत नहीं, प्रशांत आत्मा । शांत तो थोड़ी देर के लिए
हो जाते हैं परंतु ठीक से शांत… प्रशांत ! जैसे ब्रह्मचारी अपने गुरु के
आश्रम में रमण करता है ऐसे ही श्रमरहित विश्राम में रमण करने की
अवस्थावाले को बोलते हैं ‘प्रशातत्मा’ । आपाधापी-आपाधापी, हाय-हाय,
यह-वह… नहीं ।
बोलेः ‘मेरा जिगरी दोस्त मर गया इसलिए रो रहा हूँ ।’
रो मत । एक व्यक्ति की जिम्मेदारी से तू छूट गया, उसकी
बीमारी में जाना-आना तेरा माफ हो गया, उसके शादी उत्सव में दौड़ धूप
करना, ऊर्जा खर्च करना तेरा छूट गया, उसके पुत्र-परिवार की मांगलिक-
अमांगलिक महफिलों में तेरा घसीटा जाना माफ हो गया । किस बात
पर रोता है ? आये उसको एक धन्यवाद, जाय उसको सौ धन्यवाद कि
जान छोड़ी और कभी न आये उसको हजार धन्यवाद, हमें विश्रांति
मिलेगी ।
बुद्ध खोये रहे और उनके प्रभाव में वह व्यक्ति भी खोया रहा ।
समय बीतता गया । आनंद देखता रहा । जब वह व्यक्ति उठा तो
उसकी आँखों में चमक थी, चेहरे पर कुछ अलौकिक तेज था, हृदय भरा-
भरा था । बोलाः “भंते मिल गया । धन्यवाद ! मैं कृतज्ञ हूँ, आपका
आभारी हूँ ।”
आनंद सोचता रहा, ‘भंते कुछ बोले नहीं और यह बोलता है कि हो
गया, मिल गया… ।’
वह व्यक्ति गया । आनंद शिष्य भी था, चचेरा भाई भी था,
मुँहलगा भी था, अटपटी बातें पूछने की उसमें हिम्मत भी थी । बोलाः
”भंते ! आपने उस व्यक्ति से कुछ कहा भी नहीं, कोई सत्संग या चर्चा
हुई नहीं परंतु वह जाते समय धन्यवाद से भर गया और आपने भी
कृपापूर्ण हाथ उसके सिर पर रख दिया । हालाँकि आप जल्दी से जिस
किसी के सिर पर हाथ नहीं रखते हैं । आखिर उस व्यक्ति के पास
क्या था और उसको क्या मिला ?”
बुद्धः “आनंद ! तुम-हम घर में थे न, तो तुम्हें घुड़सवारी का शौक
था । घोड़ा कैसे भागता था पता है ? कुछ ऐसे घोड़े होते हैं कि सवार
चढ़े, एड़ी मारे, चाबुक मारे तब चलते हैं । कुछ ऐसे घोड़े होते हैं कि
सवार ने रकाब में पैर रखा, बैठा, लगाम हिलायी और घोड़ा चल पड़ा ।
कुछ ऐसे घोड़े होते हैं कि सवार ने लगाम भी नहीं खींची, केवल बैठा
और घोड़ा हवा हो गया । वह व्यक्ति इसी कोटि के घोड़े जैसा था ।
मेरी हाजिरीमात्र से शक्तिक्षीणता से बचने के रास्ते चल पड़ा और
आत्मविश्रांति में, परमात्म-योग में सराबोर हो गया ।”
संकल्प-विकल्प में भी शक्ति खर्च होती है इसलिए मैं बार-बार ‘हरि
ॐ’ का दीर्घ गुंजन करवाता हूँ – हरि ओऽऽऽ… म्… इसमें ‘अ’ और ‘म’
के बीच विश्रांति है । इसलिए मेरे साधक बहुत फायदे में हैं । निःसंकल्प
अवस्था… शांत ! शांत होते-होते फिर प्रशांत !…. अंतरात्मा का आनंद
और शांति आने लगें तो अंतरात्मा में चुप होना, विश्राम करना यह भी
लक्ष्य रखना । सत्संग में आये-गये, यह मिला – वह मिला, बड़ा मजा
आया लेकिन फिर थोड़े दिन में कुछ खाली पन महसूस हुआ और भागे
बैटरी चार्ज करने को, फिर बैटरी डिस्चार्ज करके फिर चार्ज करने को
आये । अरे, स्वयं पॉवर हाउस बन जाओ । ॐॐॐ…
जो सुख में सुखी हो जाते हैं उनकी शक्ति क्षीण होती है, दुःख में
दुःखी हो जाते हैं तो शक्ति क्षीण होती है । सुख में शक्ति कम क्षीण
होती है, दुःख में ज्यादा क्षीण होती है परंतु सुख और दुःख को देखकर
अपने में (साक्षीस्वरूप आत्मा में) आ गये तो शक्ति का संचय होता है ।
कितनी ऊँची बात है ! यह सुनने और समझने के लिए तो मेरे को
इतने-इतने साल लगे तब आयी समझ में बात । आपको यह ज्ञान मुफ्त
में मिल रहा है, कद्र करना… हाथ जोड़ता हूँ । बहुत ऊँची बाते हैं ।
लाखों-करोड़ों रूपयों से भी नहीं मिलेगा ऐसा आपके अंदर का खजाना
खुलेगा फिर लखपति, करोड़पति और बड़े नेता भी आपकी दुआ लेकर
अपना भाग्य बना लेंगे ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2023 पृष्ठ संख्या 5,6 अंक 365
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