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सद्गुरु देते भवरोग से मुक्ति की युक्ति


माता पार्वती जी ने भगवान शिवजी से पूछाः ″यदि श्रीराम ईश्वर हैं और वे अवतरित हुए हैं तो सभी व्यक्ति उनको ईश्वररूप में क्यों नहीं देख पाते ?″

शिवजी ने कहाः ″पार्वती !

मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना ।

राम रूप देखहिं किमि दीना ।।

जिनका हृदयरूपी दर्पण मैला है और जो नेत्रों से हीन हैं वे बेचारे श्रीरामचन्द्रजी का रूप कैसे देखें !″

( श्री रामचरित. बा. कां. 114.2 )

व्यक्ति के पास दर्पण तो है पर वह स्वच्छ न होकर मलिन है तो व्यक्ति ऐसे दर्पण में अपनी आकृति को क्या देख पायेगा ! ऐसे ही मलिन अंतःकरण वाले व्यक्ति भगवान और भगवत्स्वरूप महापुरुष को ईश्वररूप में नहीं देख पाते और लाभ लेने से वंचित रहकर अभागे-के-अभागे ही रह जाते हैं ।

मन को रोगों के वैद्य

वस्तुतः हमारा आपका मन ही दर्पण है । उसको स्वच्छ करने का उपाय बताते हुए संत तुलसीदास जी ने श्री रामचरित मानस के अयोध्या कांड में कहा हैः

श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि ।

गुरुदेव की चरणों की रज ( उनके सत्संग, सेवा व आत्मानुभव ) द्वारा मन के दर्पण को स्वच्छ किया जा सकता है । गुरुदेव के बताये अनुसार उपाय करके मन को स्वच्छ किया जा सकता है ।

उत्तर कांड में मन के रोगों ( काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि ) और उनकी दवा का विस्तृत वर्णन है । काकभुशुंडि जी गरुड़ जी को कहते हैं-

″नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान ।

भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान ।।

‘नियम, धर्म, आचार ( उत्तम आचरण ), तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों औषधियाँ हैं परंतु हे गरुड़ जी ! उनसे ये रोग नहीं जाते ।’ ( श्री रामचरित. उ. कां. 121 )

यद्यपि दवाएँ तो बहुत है पर रोग दूर नहीं होता । अच्छे कार्यों के कारण प्राणियों के रोग दब गये हैं इसलिए भले ही प्रत्यक्ष नहीं दिखाई दे रहे हों पर हैं अवश्य ।″

गरुड़ जी ने पूछाः ″यदि हम मन के इन रोगों को नष्ट करना चाहें तथा स्वस्थ होना चाहें तो उपाय क्या है ?″

काकभुशुंडिजी ने कहाः ″आप वैद्य के पास जाइये !″

वस्तुतः संसार में जब कोई व्यक्ति हमारे आपके दोषों को वर्णन करता है तो इसके पीछे उसकी वृत्ति होती है नीचा दिखाने की, विरोध करने की । और तब स्वाभाविक है हमें बुरा लगेगा । पर जब हम डॉक्टर या वैद्य के पास जाते हैं और वह बताता है कि ‘तुम कुपथ्य करते हो या तुम अमुक भूल करते हो जिसके कारण रोग हुआ है’ तो हम बुरा नहीं मानते । इसी प्रकार अहंता-ममता में फँसाकर जन्म-मरणरूपी रोगों को देने वाले मन के रोगों से मुक्ति पाने हेतु सद्गुरुरूपी वैद्य के पास जाना होगाः सदगुर बैद… सद्गुरु ही वैद्य हैं ।

इसका अभिप्राय है कि हम ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु के पास जायें तो पहले से ही यह मानकर जायें कि हमारा मन रोगी है और उसे स्वस्थ करने के लिए ही हम सद्गुरुरूपी वैद्य के पास जा रहे हैं ।

रावण को लाभ क्यों नहीं हुआ ?

जो व्यक्ति अपने को रोगी नहीं मानता अर्थात् जिसका रोग इतना अधिक बढ़ गया है हो कि वह स्वयं यह निष्कर्ष निकालने में समर्थ ही न हो कि मुझे कोई रोग हुआ है, ऐसे व्यक्ति को सद्गुरु की आवश्यकता ही नहीं महसूस होती, फलतः वह अपने दोषों के निवारण हेतु सद्गुरु के पास नहीं जायेगा । ऐसों को तो प्रकृति ही कर्मों के बंधन में बाँधकर जबरन ही उपचार करेगी क्योंकि ऐसा व्यक्ति यदि सद्गुरु के पास जायेगा भी तो रावण की तरह उसे कोई लाभ होने वाला है नहीं । रावण की स्थिति उसी प्रकार की है कि जैसे कोई व्यक्ति विश्वप्रसिद्ध डॉक्टर को बुला ले और यह गर्व करे कि ‘हमारे पास विश्वप्रसिद्ध डॉक्टर आता है ।’ इससे उसे गर्व की अनुभूति हो सकती है पर यदि उसकी दवा का सेवन और उसके द्वारा बताये गये पथ्य का वह पालन न करे तो उसे कोई लाभ होने वाला नहीं है । रावण की समस्या यही है ।

रावण जब शंकरजी को गुरु के रूप में वरण करता है तो दोषों के निवारण के लिए नहीं, मात्र शोभा के रूप में कि ‘जीवन में कोई गुरु भी होना आवश्यक है ।’

सद्गुरुरूपी वैद्य पर पूरा विश्वास हो

कई लोग प्रश्न करते हैं कि ‘जीवन में सद्गुरु का होना आवश्यक है कि नहीं ?’ तो उत्तर यह है कि अगर हमारा मन रोगी है,  उसमें दोष हैं, तब जैसे वैद्य की आवश्यकता होती है वैसे ही सद्गुरु की भी आवश्यकता है । जो आशा हम डॉक्टर से करते हैं वही हमें सद्गुरु से करनी चाहिए कि ‘वे हमारी कमियों को मिटायें, जन्म-मरणरूपी रोग से हमें छुटकारा दिलायें ।’ पर साथ ही सदगुर बैद बचन बिस्वासा – सद्गुरु जो कुछ कहें उनकी वाणी पर हमें पूरा विश्वास हो कि ‘मेरे सद्गुरु जो कह रहे हैं वह मेरे कल्याण के लिए है और बिल्कुल ठीक कह रहे हैं ।’

दवा के साथ परहेज जरूरी

सद्गुरु कह दें कि ‘यह लो मंत्र, यह लो माला ।’ तो मानो दवा ही दी है उन्होंने । किसी को बता दिया कि ‘तुम जप करो ।’ किसी को बता दिया कि ‘तुम ध्यान करो ।’ सद्गुरु शिष्यों को अलग-अलग साधन बताते हैं । पर हम कहीं एक ओर सद्गुरु के द्वारा साधना की दवा का सेवन करें और दूसरी ओर मनमाने कुपथ्य का भी सेवन करें तो निश्चित रूप से यदि दवा का लाभ भी होगा तो अत्यल्प ही होगा, कारण कि दवा की मात्रा थोड़ी और कुपथ्य की मात्रा बहुत है । इसलिए काकभुशुंडि जी ने गरुड़ जी से पहले दवा की बात नहीं की अपितु कहा कि पहले पथ्य सुनोः

सदगुर बैद बचन बिस्वासा ।

संजम यह न विषय कै आसा ।।

‘सद्गुरुरूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो । विषयों की आशा न करे, यही संयम ( परहेज ) हो ।’ ( श्रीरामचरित. उ. कां. 121.3 )

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2022, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 354

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वर्षा ऋतु में कैसे करें स्वास्थ्य की रक्षा ? – पूज्य बापू जी


वर्षा ऋतु में लोग बारिश के पानी में नहाते हैं जो कि हानि करता है । इससे बुढ़ापे में वायुप्रकोप और जोड़ों के दर्द के साथ-साथ गठिया, लकवा (paralysis) आदि होने की सम्भावना बढ़ती है । वर्षा ऋतु में गुनगुने जल से स्नान करें ।

अगर दीर्घजीवी व स्वस्थ रहना है तो बारिश के दिनों में ठीक समय पर ( सुबह 9 से 11 तथा शाम को 5 से 7 बजे के बीच ) भोजन करें और वह परिमित करें अर्थात् जितनी पाचनशक्ति है उससे थोड़ा कम व हलका-फुलका भोजन करें । इस ऋतु में पाचन मंद होता है, थोड़ा भी ज्यादा खायेंगे तो खबर ले लेगा ।

आपकी जठऱाग्नि 2 छोटी-पतली रोटियाँ पचाने की क्षमता रखती है और आप 3 खाते हो तो वे आम (कच्चा रस) बना देंगी, वात बना देंगी, घुटनों के दर्द में मदद करेंगी । अगर आपकी 100 ग्राम पचाने की ताकत है और आप 105 ग्राम खाते हैं तो आम बनेगा, फिर आम वायु के साथ मिलेगा तो भी पीड़ा करेगा, कफ और पित्त के साथ मिलेगा तो भी पीड़ा करेगा ।

आम का इलाज है उपवास । उपवास से शरीर में हलकापन महसूस होगा । (उपवास अपनी प्रकृति के अनुसार करें) । जिसको बुढ़ापा और रोगनाशक बात समझनी है वह ऋषियों की सार बातें अपने जीवन में उतारने का दृढ़ संकल्प करे ।

हमारे गुरुदेव कहते थेः ″अगर पाचनशक्ति से एक कौर भी अधिक या विपरीत आहार खाया तो वह शाम को खबर लेगा, अगले दिन खबर लेगा, 10 दिन के बाद खबर लगा, 10 महीने के बाद खबर लेगा, नहीं तो 10 साल के बाद भी खबर लेगा ।″

बारिश के दिनों में भोजन परिमित करें और बारिश के पानी में स्नान न करें ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2022, पृष्ठ संख्या 32 अंक 354

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वर्षभर का हिसाब कर आगे बढ़ने का संकल्प लेने का दिवस – पूज्य बापू जी


गुरुपूर्णिमा मनुष्य जीवन को सुव्यवस्थित करने वाली, लघु को ऊँचा बनाने वाली पूर्णिमा है । लघु वस्तुओं की आसक्ति और प्रीति जीव को तुच्छ बनाती है और परमात्मा की प्रीति व ज्ञान जीव को महान बना देते हैं । ‘गुरु’ माने बड़ा । श्रुति, युक्ति, अनुभूति से जीवन का बड़े-में-बड़ा रहस्य, बड़े-में-बड़ा काम, बड़े-में-बड़ी उपलब्धि जो समझा दें उन्हें ‘गुरु’ कहा जाता है । अगर मानव-जीवन में से यह गुरु-पूर्णिमा निकल जाय तो मनुष्य का जीवन कीट-पतंग, मक्खी और मच्छर से भी ज्यादा नीच हो जाय ।

गुरुपूर्णिमा के पावन पर्व के निमित्त हम यह पावन प्रार्थना, पावन जिज्ञासा, इच्छा करते हैं कि ‘वे दिन कब आयेंगे कि हमें यह संसार सपने जैसा लगेगा ? वे दिन कब आयेंगे कि सुख के समय हृदय में हर्ष न होगा, दुःख के समय शोक न होगा, सुख-दुःख के हम साक्षी हो जायेंगे ? वे दिन कब आयेंगे कि जो ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों का अनुभव है वह हमारा हो जायेगा ?…’

शुभ संकल्प करने का शुभ अवसर

गुरुपूर्णिमा के दिन हर्ष-शोक, विषाद से पार निर्भय, निरंजन, सच्चिदानंदघन स्वभाव अपने आप में जागृत होने का संकल्प करें । गुरुपूर्णिमा के दिन भगवान वेदव्यासजी ने ब्रह्मसूत्र लिखने का प्रारम्भ किया था । इस दिन से संन्यासी, त्यागी, संत, जती, जोगी 4 महीने के ले चतुर्मास करते हैं,  एकांत में स्वाध्याय अर्थात् ‘स्व’ का अध्ययन करते हैं, शास्त्र-अध्ययन करते हैं, तत्त्वज्ञान और उपनिषद का विचार करके कल्पित संसार के आकर्षणों को दूर हटा फेंकते हैं । तुम भी इस महापर्व के शुभ आगमन पर दृढ़ता के साथ शुभ संकल्प करो कि ‘दृढ़ता से ध्यान करूँगा, जप करूँगा, मंत्र का अनुष्ठान करूँगा । चित्त को आकर्षित करने वाले विषय-विकारों को कुचलकर उस परमात्मनिधि के अखूट भंडार तक पहुँचूँगा ।’

ज्यों ही तुमने यह दृढ़ संकल्प किया त्यों प्रकृति में जो अखूट ज्ञाननिधि भरी है, तुम्हारे चैतन्यस्वरूप में जो अद्भुत रस, प्रेम भरा है तुम्हारा हृदय उस अमर आनंद से, ज्ञान-प्रसाद से, प्रेम-प्रसाद से, आत्मरस से परितृप्त होने लगेगा और उसमें अमरता के गीत गूँजेंगे ।

पावन संदेश

गुरुपूनम का संदेश है कि ‘लघु जीवन से ऊपर उठो । खाना-पीना, सुखी-दुःखी होना यह तो कुत्ता भी जानता है । दुःख आये तो दुःखहारी हरि की शरण जाओ । दुःखी व्यक्ति का दुःख तब तक जिंदा रहता है जब तक वह संसार के सुख से दुःख को दबाना चाहता है अथवा छल-कपट करके सुखी होना चाहता है । जब दुःखहारी भगवान की शरण जाय, ब्रह्मवेत्ता संत की आज्ञा के अनुसार सत्संग सुने, सच्चाई से व्यवहार करे तो  उसका दुःख सदा के लिए मिट जाता है ।’ ऐसा गुरु का ज्ञान लोगों को हजम हो इसलिए जैसे हर वर्ष 5वीं कक्षावाला छठी में, छठीवाला 7वीं में… इस प्रकार विद्यार्थी आगे बढ़ते हैं और जैसे व्यापारी दीवाली के दिनों में बहीखाता देखता है कि ‘किस चीज से व्यापार में फायदा हुआ और कौन-सी चीज पड़ी रही ?’ ऐसे ही साधकों के लिए बीते वर्ष की आध्यात्मिक उन्नति का हिसाब करने व नूतन वर्ष में और भी उन्नत होने का संकल्प करने का दिवस गुरुपूनम महापर्व होता है । इस अवसर पर गुरु पुराने साधकों को कुछ नयी ऊँची साधना बता देते हैं ।

गुरुपूनम पर नूतन साधना-प्रयोग

बिना क्रिया के, बिना संग्रह के आपका जीवन स्वस्थ, सुखी, सम्मानित करने में बहुत-बहुत मदद करेगा यह प्रयोग । बड़ा सरल व बड़ा सामर्थ्यदायी साधन है और आप सभी लोग कर सकते हैं । ‘इसके बिना नहीं रह सकता हूँ… चाय, पान-मसाले या दारू के बिना नहीं रह सकता हूँ…’ ये सारी कमजोरियाँ दूर हो जायेंगी ।

गुरुमंत्र जपो फिर चुप हो के बैठो और नासाग्र दृष्टि रखो अथवा भगवान या सद्गुरु के श्रीचित्र को एकटक देखते-देखते फिर आँखें बंद करके नासाग्र दृष्टि करो । नाक के अग्रभाग को नासाग्र नहीं कहते हैं, नाक के मूल अर्थात् दोनों नेत्रों के मध्य में ( भ्रूमध्य में ) जहाँ तिलक किया जाता है उसको नासाग्र कहते हैं । यहाँ देखो, आँखों पर दबाव न पड़े । बाहर से तो वहाँ नहीं दिखेगा परंतु वहाँ देखने के भाव से आपकी दृष्टि, आपके मन की वृत्ति या सुरता वहाँ आयेगी । अगर मन इधर-उधर जाय तो ‘ॐ शांति,  ॐ आरोग्य, ॐ श्री परमात्मने नमः… ‘ ऐसा चिंतन करते हुए चुप हो गये ।

थोड़े दिन के अभ्यास से सुबह नींद से उठोगे तो गुरुमंत्रसहित यह साधन शुरु हो जायेगा और आपको दिनभर बिना संग्रह के, बिना हेराफेरी के, बिना कपट-बेईमानी के, बिना गुलामी, शिकायत अथवा शोषण के आनंद-आनंद रहेगा जैसे बापू जी को ( मुझे ) रहता है । आपकी क्रियाशक्ति में सत्त्वगुण रहेगा  अगर तमोगुण आता है तो बड़ा अनर्थ पैदा करता है और सत्त्वगुण आता है तो सार्थक जीवन हो जाता है । जो इसको साधना के रूप में मानते हैं उन साधकों की क्रियाशक्ति, ज्ञानशक्ति, आनंददायिनी शक्ति का विकास होता है ।

यह 5 मिनट कर लेने के बाद अपने शारीरिक क्लेशों के बारे में – ‘तबीयत कैसी है ? क्या खाने से ऐसा हुआ ? क्या करने से ठीक होगा ?…’ थोड़ा सोच लिया । कुटुम्ब-क्लेशों के बारे में आर्थिक क्लेशों के बारे में जरा सिंहावलोकन कर लिया और उनकी निवृत्ति के बारे में तनिक सोच लिया । फिर मन-ही-मन आज्ञाचक्र में चले गये, शांत हुए । गुरुमंत्र जपा फिर भगवान या सद्गुरु पर छोड़ दिया, अपने-आप अंदर से प्रेरणा आयेगी कि ‘यह कर्तव्य, यह भोक्तव्य, यह व्यक्तव्य है । यह करो, यह न करो, यह भोगो, यह त्यागो…’ इसके अनुसार बहुत सारी मुसीबतों से आप बच जाओगे । ‘भगवान आनंदस्वरूप हैं, ज्ञानस्वरूप हैं… उस भगवदीय ज्ञान और आनंद में मेरे सद्गुरुदेव रमण करते हैं । मैं उनका, वे मेरे… ॐ ॐ ॐ आनंद… ॐ शांति…’ ऐसा चिंतन किया फिर चुप । ‘ॐ शांति… ॐ गुरु… ॐ आनंद… ॐ माधुर्य…’ फिर चुप । फिर अपना गुरुमंत्र जपो, फिर बीच में चुप्पी । 10-20 सेकेण्ड जप, 10-20 सेकेण्ड चुप्पी, 10-15 सेकेण्ड भावना… । फिर मन इधर-उधर जायेगा तो ‘हरि ओऽऽऽ…म्…’ ऐसा गुंजन करो और ॐकार को भ्रूमध्य में देखो । ऐसा 5 से 7 मिनट किया तो बहुत हो गया । फिर आगे बढ़ाओ तो ठीक है परंतु आरम्भ में 5 मिनट भी अच्छा काम करेगा । ज्यादा करो तो ज्यादा लाभ है ।

हरि ओऽऽऽ…म्… ऐसा दीर्घ उच्चारण किया फिर शांत, चुप, निर्विचार… जहाँ पहुँचना है उसकी भावना अभी से करो । जल्दी पहुँच जाओगे ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2022, पृष्ठ संख्या 11, 12 अंक 354

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