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गुरु आज्ञा की अवहेलना का फल – पूज्य बापू जी



ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु जो भी आज्ञा करें उसका शिष्य़ को अविलम्ब
पालन करना चाहिए । गुरु आज्ञा की अवहेलना या गुरु को धोखा देना
महाविनाश को आमंत्रित करता है । यह प्रसंग कुछ ऐसा ही सिद्ध कर
रहा है ।)
गुरु के संकेत में क्या चमत्कार होता है ध्यान देना ! संत दादू जी
का खास शिष्य था केशवदास । दादू जी के आश्रम की भोजन-व्यवस्था
वही सँभालता था । मिट्टी के चूल्हे बनते हैं, उनमें लकड़ियाँ डाल के
जलाते हैं । चूल्हा थोड़ा टूट गया था । दोपहर का भोजन पूरा हो गया ।
केशवदास ने सोचा कि ‘शाम का भोजन बने उसके पहले मिट्टी ले आऊँ
और चूल्हा ठीक कर लूँ ।’ तो धीरे से मिट्टी लेने जा रहा था ।
दादू जी बोलेः “ऐ केशव ! कहाँ जा रहा है ?”
उसने बताया कि “चूल्हे के लिए मिट्टी लेने जा रहा हूँ ।”
“नहीं जाना, बैठ जाओ । अभी नहीं जाना है ।”
देखो, आप जो करना चाहते हो, गुरु जी वह रुकवा देते हैं और जो
नहीं करना चाहते, नहीं जानते वह गुरु जी अपनी कृपा से आपको
जबरन दे देते हैं । हम जो करना चाहते थे वह गुरु जी ने छीन लिया –
भगवान, ठाकुर जी, पूजा-वूजा… और हम जो नहीं जानते थे वह खजाना
हमको गुरु जी ने दे दिया । गुरु की पहुँच और सूझबूझ के आगे हम
सब बबलू हैं ।
दादू जी ने कहाः “नहीं केशव ! छोड़ ।”
केशव वापस आ के बैठ गया । परंतु उसने देखा कि गुरु जी अब
उधर चले गये तो धीरे से नज़र बचा के खिसक गया और पहुँच गया
खदान पर । उसने ज्यों ही मिट्टी की खदान में फावड़ा मारा त्यों ही

खदान के ऊपर का बहुत बड़ा भाग केशव पर गिर पड़ा और वह मर
गया ।
दादू जी तक खबर पहुँची । बोलेः “मैंने मना किया था फिर भी
गया ?”
बोलेः “हाँ ।”
“फिर उसे आश्रम में क्यों लाना, उसका शरीर उधर ही पहाड़ी पर
रख दो तो जीव जंतुओं का पेट भरेगा ।”
कौए, चील-गीध, और जीव-जंतु खा गये, कुत्ते की नाईं उसका अंत
कर दिया । गुरु से नज़र छुपा के गय और अकाल मृत्यु मर गया । जो
गुरु की अवज्ञा करता है उसकी अंत्येष्टि क्या करना ? दादू जी ने
फिंकवा दिया उसे ।
जो गुरु से धोखा कर सकता है वह दूसरे से कितना वफादार रहेगा
? हमने कभी 1 मिनट के लिए भी गुरु को धोखा नहीं दिया, इस बात
का हमें संतोष है । पहले गुरु जी की आज्ञा आती फिर हम जाते और
गुरु जी के ध्यान में रहता कि आज इधर हैं, आज इधर हैं… दाढ़ी बाल
कटवाते अथवा तो मुंडन करवाते तो पहले चिट्ठी लिखकर आज्ञा लेते
थे, आज्ञा आती तब कराते थे ।
(जो यह देखते, समझते हुए कि ‘अमुक-अमुक लोग आये दिन गुरु
की आज्ञा की अवहेलना कर रहे हैं, गुरु के सिद्धान्त से स्वयं तो दूर
जा रहे हैं, साथ ही लोगों को भी भटका रहे हैं’ फिर भी उन्हीं के गीत
गाते रहते हैं ऐसे लोग महा अभागे हैं । गुरु आज्ञा की अवहेलना करने
वालों के यहाँ जाने वाले का भविष्य तो अंधकारमय है ही लेकिन जो
उनको ठीक सिद्ध करने में लगे हैं ऐसे लोग भी हतभागी होते ही हैं ।
अपने पैरों पर आप कुल्हाड़ा मार रहे हैं । – संकलक)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2021, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 346
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…तो छोटे-से-छोटा बालक भी महान हो जायेगा – पूज्य बापू जी


माता-पिता और गुरुजनों को जो प्रणाम नहीं करते हैं उन्हें उनके
आगे झुकने में बड़ी मेहनत लगती है लेकिन जिन बच्चों को प्रणाम
करने का अभ्यास हो गया है उनको क्या मेहनत लगती है ! वे तो दिन
में एक बार क्या तीन बार भी प्रणाम कर लेंगे, उनको तो कोई कठिनाई
नहीं होगी । माँ-बाप के हृदय से आशीर्वाद ही तो निकलता है !
तो अच्छा अभ्यास कर दें । आत्मज्ञान का अभ्यास, जप का
अभ्यास, शास्त्र पढ़ने का, मौन रखने का, कम बोलने का, सार रूप
बोलने का अभ्यास और अच्छे व श्रेष्ठ पुरुषों के संग का अभ्यास – इस
प्रकार के अभ्यास पर थोड़ा ध्यान दें तो कैसा भी – छोटे-से-छोटा बालक
भी बड़ा बन जायेगा, महान आत्मा हो जायेगा ! बाहर से बड़े होने या
बड़ी जगह बर बैठने से कोई बड़ा थोड़े ही होता है ! सद्गुणों से बड़ा
होता है न !
सूरज उगने से पहले ही प्राणायाम करें, नहा धोकर संध्या करें ।
इससे बुद्धि विकसित होगी । फिर पढ़ने के पहले भगवान के नाम का
सुमिरन करें । परीक्षा के समय भगवन्नाम सुमिरन करें और ‘यह कठिन
है, कठिन है’ ऐसा नहीं सोचें तो पढ़ाई मे भी अच्छा सफल होगा ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 19 अंक 347
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किनकी शरण श्रेष्ठ है ? – पूज्य बापू जी



योगः कर्मसु कौशलम् । कर्म में कुशलता क्या है ? काजल की
कोठरी में जायें और कालिमा न लगे यह कुशलता है । संसार में रहें
और संसार का लेप न लगे यह कुशलता है ।
एक महात्मा थे । बीच शहर में उनका मठ था । मठ द्वारा
सामाजिक उन्नति की बहुत सारी प्रवृत्तियाँ होती थीं । उन महापुरुष ने
बच्चों, युवक, युवतियों, ब्रह्मचारियों, गृहस्थों आदि सभी की उन्नति के
लिए, मनुष्यमात्र की उन्नति के लिए बहुत सारे सेवा के विभाग खोल
रखे थे ।
एक साधक उनके पास गया और बोलाः “बाबा जी ! मैं आपके
चरणों में आया हूँ । मुझे भगवत्प्राप्ति का उपदेश दीजिये । मुझे शांति
का प्रसाद मिल जाय, दुःख-सुख के थपेड़ों से छूट जाऊँ ऐसा कुछ उपाय
बता दीजिये । मुझे अपना शिष्य बनाइये नाथ ! मैं आपकी शरण में
आया हूँ ।”
महाराज ने कहाः “देख बेटा ! तेरी श्रद्धा है, यौवन है, तू कुछ कर
सकता है तो मेरे जैसे के पास तू मत टिक । देख, मैं तो संसार में डूबा
हूँ । चाँदी थाली में शिष्य भोजन लाते हैं वह खाता हूँ, गाड़ी-मोटरों में
घूमता हूँ और बड़ी-बड़ी प्रवृत्तियाँ करता हूँ, दिन-रात उसी में लगा हूँ ।
दिन को तो लोक सम्पर्क रहता है लेकिन प्रभात को ध्यान करने के बाद
सोचता हूँ कि ‘आज यह करना है, ऐसा-ऐसा करना है ।’ रात को भी
सोच लेता हूँ कि ‘क्या-क्या ठीक हुआ, क्या-क्या बेठीक हुआ ?’ मैं तो
प्रवृत्ति में, कर्मों में डूबा हूँ बेटा ! मैं तो रागियों के बीच जी रहा हूँ और
राग से भरा हुआ हूँ । जा किसी वैरागी महात्मा के पास । यहाँ से 8
कोस दूर फलाने इलाके में जायेगा तो एक शांत वातावरण में नदी

किनारे एक झोंपड़ी है, वहाँ तुझे अलमस्त संत मिलेंगे । उनका शिष्य हो
जा, तेरा काम बन जायेगा ।
जहाँ का पता बताया था वहाँ वह साधक पहुँचा तो देखा कि कोई
झोंप़ड़ी है और एक अलमस्त संत चिथड़ों में पड़े हैं । कपड़े फटे-पुराने हैं,
झोंपड़ा तो ऐसा-वैसा है किंतु दृष्टि में सौम्यता है, शांति है, हृदय किसी
रस से रसीला हो रहा है । साधक ने महात्मा को दूर से दंडवत् प्रणाम
किया और नजदीक जाकर अपने हृदय की माँग सुना दी कि “महाराज !
मैं फलानी-फलानी इच्छा से फलाने महापुरुष के पास गया था तो उन्होंने
आपका नाम बताया ।” उन्होंने कहा कि “मैं तो प्रवृत्ति में, कर्मों में डूबा
हूँ । ये जंगल में रहने वाले महात्मा विरक्त हैं, एकांत में रहते हैं,
भगवद्भजन करते हैं, तू उनके पास जा ।”
महात्मा बोलेः “अच्छा-अच्छा, फलाने स्वामी जी ने तुम्हें भेजा है ।
भैया ! मैं विरक्त तो दिखता हूँ, कर्मों को छोड़कर एकांत में भजन
करता हूँ, थोड़ा-बहुत लाभ तो हुआ है मुझे परंतु उनको तो परम लाभ
हुआ है । वे तो संसाररूपी कीचड़ में रहते हुए भी उससे न्यारे हैं, काजल
की कोठरी में रहते हुए उनको दाग नहीं लग रहा है । मैं तो दाग से
भयभीत होकर यहाँ आया हूँ, मैं तो थोड़ा सा पलायनवादी और थोड़ा सा
साधक हूँ पर वे तो पूरे सिद्ध हैं, तू उनके चरणों में जा । यह तो
उनका बड़प्पन है कि मेरे को यश दिलाने के लिए उन्होंने तुमको मेरे
पास भेजा है, यह उनका विनोद है । कर्म करने की कुशलता उनके पास
है ।
ऊठत बैठत ओई उटाने, कहत कबीर हम उसी ठिकाने ।
वे उठते-बैठते उसी आत्मा में रमण कर रहे हैं ।”

साधक को संसार में रहते हुए भी उससे निर्लेप रहने वाले, पूर्णता
को पाये हुए उऩ ब्रह्मज्ञानी संतपुरुष की महिमा पता चली तो वह जंगल
से शीघ्र लौटा उन संतपुरुष के पास, उऩकी शरण ली और उनका अनुग्रह
पाकर भगवत्प्राप्ति के पथ पर तीव्रता से लग गया ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 20, 26 अंक 347
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