भगवान का प्यारा कैसे बनें ?

भगवान का प्यारा कैसे बनें ?


भगवान श्री राम सीता जी को खोजते हुए किष्किंधा पहुँचे। वानरराज सुग्रीव के कहने पर हनुमान जी ब्राह्मण का रूप लेकर राम जी का भेद जानने आये। उन्होंने प्रभु को प्रणाम कर परिचय पूछा, तब भगवान ने परिचय दिया और हनुमान जी से पूछाः “तुम कौन हो ?”

हनुमान जी पहचान गये कि ये तो वे ही प्रभु हैं जिन्होंने रावण-वध के लिए अवतार लिया है। हमारे स्वामी, जिनका हम ध्यान-भजन करते हैं ये ही वे प्रभु हैं। हनुमान जी चरणों में गिर पड़े, स्तुति कीः “मैं तो आपकी माया के वश में हूँ और भूला-भूला फिर रहा हूँ। इसलिए प्रभु को नहीं पहचाना लेकिन क्या आप भी माया के वश में हैं ? आप भी भुलाये फिर रहे हैं ? हे दीनबन्धु ! भगवान ! आपने भी मुझे छोड़ दिया तो अब मेरे लिए क्या गति है ?

जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें। स्वामी ! यद्दपि मेरे में बहुत अवगुण हैं लेकिन यदि सेवक शरणागत हो तो स्वामी उसका परित्याग नहीं करते। प्रभु अपने सेवक को कभी नहीं भूल सकते, चाहे वह बहुत अवगुणी क्यों न हो। शास्त्र में वर्णन आया है कि जो अपनी शरण में हो, सच्चा सेवक हो, उसमें जो अवगुण हो उसको नहीं देखा जाता।

हे नाथ ! यह जीव तो आपकी माया से ही मोहित हो रहा है। जोइ बाँधे सोइ छोरे। जो इसे बाँधने वाला है वही इसे छुड़ाने वाला है। जब प्रभु कृपा करें तब मनुष्य इससे छूट सकता है। मैं तो भजन का कुछ उपाय भी नहीं जानता, माने हमारे उपाय और उपेय (जिस लक्ष्य हेतु उपाय किया जाना हो वह) तो दोनों एक आप ही हो।

अज्ञानी मनुष्य बुद्धि लड़ाकर जितना-जितना छूटने का उपाय करता है,  उतना ही अपने को बंधन में डाल देता है क्योंकि भगवान अक्ल लगाने से नहीं मिलते। हमको तो भजन की कोई युक्ति मालूम नहीं है। सेवक अपने स्वामी और बेटा माता-पिता के भरोसे हमेशा चिंतारहित होकर रहता है और वे सेवक या बालक की रक्षा करते ही हैं।”

ऐसा कहकर हनुमान जी व्याकुल हो भगवान के चरणों में पुनः गिर पड़े और उन्होंने अपना असली रूप प्रकट किया। भगवान बोलेः “तुम तो हमारे हृदय से लगने योग्य हो। तुम अपने मन में अपने को कम मत समझना। तुम तो मेरे लक्ष्मण से भी ज्यादा प्यारे हो। लक्ष्मण साथ में रहकर सेवा करते हैं, इतने अनुयायी हैं तब हमारे प्यारे हैं और तुम दूर हो तब भी हमारे उनसे भी ज्यादा प्यारे हो। सब कहते हैं कि ‘भगवान समदर्शी हैं’ लेकिन मैं सचमुच समदर्शी नहीं हूँ। मुझे अपना सेवक बहुत प्यारा है लेकिन कब ? कि जब वह अनन्य गति होवे। मुझे छोड़कर दूसरे का आसरा-भरोसा उसको न हो।”

सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत।

मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत।।

अनन्य वह है जिसकी ऐसी बुद्धि कभी टले नहीं, हमेशा बनी रहे कि ‘हमारे स्वामी भगवान सचराचर रूप हैं और मैं सेवक हूँ।’ माने सम्पूर्ण विराट का वैभव परमात्मा का स्वरूप है। मैं जिसको देखता हूँ, जिससे मिलता हूँ, जिससे हँसता हूँ, जिसे पानी पिलाता हूँ, जिसको खिलाता हूँ वह सब भगवंत का ही स्वरूप है, ऐसी बुद्धि जिसकी बनी रहे उसको अनन्य कहते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2018, पृष्ठ संख्या 11, अंक 310

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