Gurubhaktiyog

महान संकट की ओर बढ़ रहे थे बुल्लेशाह के कदम और बुल्लेशाह अनजान था (भाग- 7)


बुल्लेशाह अपने गमो मे डूबा रहता बुल्लेशाह ने विरह मे अलग अलग मौसमों का जायका भी चखा। चखकर जो भी हाल हुआ उसमें अपने बारह माह नामक लोक काव्य मे दर्ज किया बारह महीनों की अलग अलग विरह गाथा के तौर पर बड़ी ही सुन्दर काफिया है।सतशिष्यों को तो हमने रोते बिलखते बहुत देख लिया …

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महान संकट की ओर बढ़ रहे थे कदम और बुल्लेशाह अनजान था (भाग-6)


जिंदगी मे होश संभालने के बाद शायद पहली बार तवायफ के मुंह से निकला भाईजान। बोलकर अच्छा सा लगा मेरी एक शर्त है आपसे जब आपके मुर्शीद आप पर फजल कर दे आप पर प्रसन्न हो जाए तो मुझे भी उनसे रूबरू कराईयेगा में देखना चाहती हूं उस रूहानी माशूक को जिसने इस मतलबी जमाने …

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महान संकट की ओर बढ़ रहे थे क़दम और बुल्लेशाह अनजान था (भाग-5)


मरकर भी दिखा देंगे तेरे चाहने वाले मरना तेरे बिन जीने से बड़ा काम नहीं है आज शिष्य ने मरने से भी बड़ा और जोखिम भरा काम चुन लिया था सतगुरु के बगैर जिंदा रहने का दम भर लिया था रुह के बगैर अपनी बेजान जिस्म ढोने की हिम्मत कर दिखाई थी बुल्लेशाह गुरुद्वार पर …

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