सेवा ही भक्ति – २
नारायण नारायण नारायण !! छट्ठे अध्याय का पहला श्लोक में है ‘अनाश्रितः कर्म फलं कार्यं कर्म करोति यः | स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः|| जो आसक्ति रहित होकर अपना नित्य कर्म, नैमितिक कर्म करता है, संध्या वंदन आदि नित्य कर्म है, दानपुण्य, सेवा-पूजा आदि नित्य कर्म है, और किसी निमित्त से जो …