Satsang

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सेवा ही भक्ति – २


नारायण नारायण नारायण !! छट्ठे अध्याय का पहला श्लोक में है  ‘अनाश्रितः कर्म फलं कार्यं कर्म करोति यः |  स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः|| जो आसक्ति रहित होकर अपना नित्य कर्म, नैमितिक कर्म करता है, संध्या वंदन आदि नित्य कर्म है, दानपुण्य, सेवा-पूजा आदि नित्य कर्म है, और किसी निमित्त से जो …

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सेवा ही भक्ति – १


अपनी सेवा वही है के अपने को परस्थितियों का गुलाम ना बनाये। परिस्थितियों के दास्ताँ से मुक्त करे। वही स्वतंत्र व्यक्ति है और जो स्वतंत्र है वही सेवा कर सकता है | पद और कुर्सी मिलने से सेवा होगी और बिना कुर्सी के सेवा नहीं होगी ये नासमजी है। जो अपनी सेवा कर सकता है …

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