एक लड़का संयमी था । उसने अपने पहलवान गुरु से खूब मल्ल-
विद्या सीखी । गुरु ने उसकी पीठ ठोक दीः “बेटा ! जा विजयी भव ।”
वह तहसीलों में, जिलों में तो विजयी हुआ, पूरे राज्य में भी उसने
डंका बजा दिया । तो वाहवाही की भूख जगी, ‘मैं राज्य विजेता बन
जाऊँ, मेरे को प्रमाण पत्र मिले ।’
राजा के पास गया, बोलाः “पूरे राज्य में मेरी बराबरी का कोई
पहलवान नहीं है । आप मेरे को राज्य पहलवान घोषित कर दें, प्रमाणित
कर दें ।”
राजा सत्संगी था, किन्हीं पहुँचे हुए गुरु (बह्मवेत्ता महापुरुषों के
चरणों में जाता था । ऐसे गुरु के सम्पर्क में जो रहते हैं वे सौभाग्यशाली
होते हैं, बाकी तो संसार में पछाड़े जाते हैं । हिटलर पछाड़ा गया,
सिकंदर पछाड़ा गया, सीजर पछाड़ा गया लेकिन शिवाजी महाराज नहीं
पछाड़े गये, समर्थ रामदास जी के चरणों में रहते थे । हम नहीं पछाड़े
जायेंगे कभी भी क्योंकि हम हमारे सद्गुरु के सम्पर्क में हैं ।
राजा ने कहाः “पूरे राज्य में तुम सर्वोपरि पहलवान हो ? सबको
हरा दिया ?”
पहलवान बोलाः “हाँ ।”
“अपने राज्य में तो तुम्हारे गुरु जी का अखाड़ा भी है । तुम्हारे गुरु
जी भी अपने राज्य में ही रहते हैं । तुम उनको हराओ तब हम मानेंगे
।”
वाहवाही की लालसा ने ऐसा बिल्लौरी चश्मा (बिल्लौरी काँच से
बना चश्मा, जिसमें से वस्तुएँ देखने पर वे बड़े आकार की दिखायी देती
हैं ।) चढ़ा दिया कि वाहवाही बड़ी लगने लगी ।
वह पहलवान अपने गुरु जी को बोलाः “गुरु जी ! अब आप तो बूढ़े
हो गये हैं, हो जाय दो-दो हाथ । आपको मैं हरा देने में सक्षम हूँ ।
आपको हरा दूँगा तो मेरे को राज्य पहलवान का पद मिलेगा ।”
गुरु ने देखा कि ‘पहलवानी का कर्म नश्वर और पद नश्वर, यह
नश्वर को पाने के लिए शाश्वत की बलि दे रहा है, मूर्ख है ।’
अब शिष्य की, भक्त की मूर्खता मिटाना गुरु का और भगवान का
स्वभाव होता है ।
गुरु बोलेः अच्छी बात है बेटे ! तुम बोलते हो तो कुश्ती कर लेते हैं
पर मेरी इच्छा नहीं है । मैं तो पतला-दुबला हो गया हूँ, पहलवानी छोड़
दी, कई वर्ष हो गये ।”
“नहीं-नहीं गुरुजी ! शिष्य के लिए एक बार जरा सा कर लो । मेरे
को मेहनत नहीं करनी पड़ेगी और आप हार जाओगे ।”
शिष्य ने सोचा, ‘गुरु जी जोर मारेंगे तो हम जरा सवाया जोर ठोक
देंगे, क्या फर्क पड़ता है ! कुश्ती तो कुश्ती होती है ।’
कुश्ती हुई और गुरु ने उसे घुमा-फिरा के धरती सुँघा दी । शिष्य
ने खूब कोशिश की लेकिन दाँव पलटे नहीं । फिर गुरु ने दूसरे दाँव से
घुमा-फिरा कर आसमान के तारे दिखा दिये । फिर एक दाँव से उसके
पकड़ के, जकड़ के गुरु जी उसकी छाती पर चढ़ के बैठे । आखिर
निर्णायक ने गुरु की विजय की सीटी बजायी । राजा ने कहाः “साधो !
साधो ! जय हो ! जय हो !”
चेले ने गुरु के पैर पकड़ेः “गुरु जी ! यह कौन सा दाँव है ?”
गुरु बोलेः “बेटा ! शिष्य या भक्त जब अहंकारी हो जाता है अथवा
नश्वर में फँसने लगता है तो उसको सबक सिखाने के लिए एक दाँव गुरु
और भगवान अपने पास रखते हैं ।”
गुरु और भगवान का दाँव हितकारी होता है । दुश्मन का दाँव
खतरनाक होता है । माता-पिता, सद्गुरु और भगवान के दाँव कैसे भी
हों, हमारे को हराने के हों फिर भी उनमें हमारी जीत छुपी है । और
वाहवाही करने वाले हमारे को कितना भी जिता दें, उसमें हमारी हार
छुपी है ।
ऋषि प्रसाद, फरवरी 2023, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 362
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