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बाल्यकाल से ही हो ज्ञान, ध्यान, कीर्तन में प्रीति – पूज्य बापू जी


गुरुनानक जी के पास सत्संग में एक लड़का रोज आकर बैठ जाता था। एक दिन नानक जी ने उससे पूछाः “बेटा ! कार्तिक की ठंड में प्रभात स्नान करके इतनी शीघ्र आ जाता है, क्यों ?”

वह बोलाः “महाराज ! क्या पता कब मौत आकर ले जाय ?”

“इतनी छोटी सी उम्र का लड़का ! अभी तुझे मौत थोड़े ही मारेगी ! अभी तो तू जवान होगा, बूढ़ा होगा फिर मौत आयेगी।”

“महाराज ! मेरी माँ चूल्हा  जला रही थी। बड़ी-बड़ी लकड़ियों को आग ने नहीं पकड़ा तो फिर उन्होंने मुझसे छोटी-छोटी लकड़ियाँ मँगवायीं। माँ ने छोटी-छोटी लकड़ियाँ डालीं तो उन्हें आग ने जल्दी पकड़ लिया। इसी तरह हो सकता है मुझे भी छोटी उम्र में ही मृत्यु पकड़ ले। इसीलिए मैं अभी से सत्संग में आ जाता हूँ।”

(सिख साहित्य में यह प्रसंग भी आता हैः

एक दिन वह बालक गुरु नानक जी के दर्शन के लिए आते समय मक्खन की एक मटकी ले आया। गुरु जी ने कहाः “पुत्र ! यह मक्खन कहाँ से लाये हो ?”

“महाराज जी ! अपने घर से चोरी करके आपके लिए लाया हूँ क्योंकि गुरु एवं संतों के पास खाली हाथ नहीं जाना चाहिए।”

“जब तुम्हारे माता-पिता को पता लगेगा तो वे तुम्हारी पिटाई करेंगे। हमें यह चोरी का मक्खन नहीं लेना। यह तू वापस ले जा।”

बालक ने आँसू बहाते हुए कहाः “माता-पिता मुझे मारेंगे तब मारेंगे, आप तो अभी ही मुझे मार रहे हो। पहले कृपा करके अपना प्रेम प्रदान किया है और अब दूर कर रहे हो गुरु जी !”)

नानक जी बोल उठेः “है तो तू बच्चा लेकिन बात बड़े-बुजुर्गों की तरह करता है। अतः आज से नाम ‘भाई बुड्ढा’ रखते हैं। उन्हीं भाई बुड्ढा को नानक जी के बाद उनकी गद्दी पर बैठने वाले 5 गुरुओं को तिलक करने का सौभाग्य मिला। बाल्यकाल में ही विवेक था तो कितनी ऊँचाई पर पहुँच गये। शास्त्र में आता हैः

निःश्वासे न हि विश्वासः कदा रुद्धो भविष्यति।

कीर्तनीयमतो बाल्याद्धरेर्नामैव केवलम्।। (कैवल्याष्टकम् – 4)

इस श्वास का कोई भरोसा नहीं है कब रूक जाय। अतः बाल्यकाल से ही हरि के ज्ञान-ध्यान व कीर्तन में प्रीति करनी चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2018, पृष्ठ संख्या 6 अंक 304

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हुआ प्रकाश, बरसे आँसू


एक बार संत नामदेव जी के सत्संग में श्यामनाथ नामक एक धार्मिक व्यक्ति अपने पुत्र तात्या को लेकर आये। श्यामनाथ जी पक्के सत्संगी थे जबकि उनका पुत्र धर्म-कर्म और साधु-संतों की संगति से दूर भागता था। पिता ने संत को दंडवत् प्रणाम कर कहाः “महाराज ! यह मेरा पुत्र तात्या सारा दिन कामचोरी और आवारागर्दी में व्यतीत करता है। सत्संग के तो नाम से ही बिदकता है। कृपया इसका मार्गदर्शन कीजिये।”

नामदेव जी उऩ दोनों को मंदिर के पीछे लम्बे-चौड़े दालान में ले गये। वहाँ एक कोने में लालटेन जल रही थी लेकिन संत उन्हें उससे दूर दूसरे अँधेरे वाले कोने में ले गये तो तात्या बोल पड़ाः “महाराज ! यहाँ अँधेरे वाले कोने में क्यों? वहाँ लालटेन के पास चलिये न ! वहाँ हमें उचित प्रकाश मिलेगा और हम एक दूसरे को देख भी सकेंगे।”

नामदेव जी मुस्कराये, बोलेः “बेटा ! तुम्हारे पिता भी तुम्हें रात दिन यही समझाने में लगे रहते हैं। प्रकाश तो प्रकाश के स्रोत के पास जाने से ही मिलता है पर हम अँधकार में ही हाथ पैर मारते रह जाते है। जीवन का सर्वांगीण विकास करने वाले सच्चे, अमिट, आनंदप्रद ज्ञान का एकमात्र स्रोत ईश्वर-अनुभवी संत ही हैं और वह उनकी संगति से ही मिलता है। संतों के सत्संग से मलिन, कलुषित हृदय में भी भगवान का ज्ञान, रस, माधुर्य पाने की योग्यता आ जाती है। तुम्हारा कहना उचित ही है परंतु केवल लालटेन के प्रकाश से दुःखों का अँधेरा नहीं मिटता, वह तो संतों के ज्ञान-प्रकाश से ही मिट सकता है। समझे वत्स !”

तात्या स्तब्ध खड़ा था। नामदेव जी ने उसके सिर पर हाथ फेरा और तात्या की आँखों से अश्रुधाराएँ बहने लगीं। उसके अंतर में समझदारी का सवेरा हुआ, वह उन्नति के रास्ते चल पड़ा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2018, पृष्ठ संख्या 18 अंक 303

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भगवान व संतों का अवतरण भारत में ही बारंबार क्यों ?


  • पूज्य बापू जी

यह प्रकृति का विधान है कि जिसे जिस समय जिस वस्तु की अत्यंत आवश्यकता होती है उसे पूरी करने वाला उसके पास पहुँच जाता है अथवा तो मनुष्य स्वयं ही वहाँ पहुँच जाता है जहाँ उसकी आवश्यकता पूरी होने वाली है।

मुझसे ‘विश्व धर्म संसद, शिकागो’ में पत्रकारों ने पूछाः “भारत में ही भगवान के अवतार क्यों होते हैं ? हिन्दुस्तान में ही भगवान जन्म क्यों लेते हैं ? जब सारी सृष्टि भगवान की है तो आपके भगवान ने यूरोप या अमेरिका में अवतार क्यों नहीं लिया ? आद्य शंकराचार्य जी, गुरु नानक जी, संत कबीर जी, स्वामी रामतीर्थ जी जैसे महापुरुषों की श्रृंखला इन देशों में क्यों नहीं है ?”

मैंने उनसे पूछाः “जहाँ हरियाली होती है वहाँ वर्षा क्यों होती है और जहाँ वर्षा होती है वहाँ हरियाली क्यों होती है ?”

उन्होंने जवाब दियाः “बापू जी ! यह तो प्राकृतिक विधान है।”

तब मैंने कहाः “हमारे देश में अनादि काल से ही ब्रह्मविद्या और भक्ति का प्रचार हुआ है। इससे वहाँ भक्त पैदा होते रहे। जहाँ भक्त हुए वहाँ भगवान की माँग हुई तो भगवान व संत आये और जहाँ भगवान व संत आये वहाँ भक्तों की भक्ति और भी पुष्ट हुई। अतः जैसे जहाँ हरियाली वहाँ वर्षा और जहाँ वर्षा वहाँ हरियाली होती है वैसे ही हमारे देश में भक्तिरूपी हरियाली है इसलिए भगवान और संत भी बरसने के लिए बार-बार आते हैं।”

मैं दुनिया के अनेक देशों में घूमा, कई जगह प्रवचन भी किये परंतु भारत जितनी तादाद में तथा शांति से किसी दूसरे देश के लोग सत्संग सुन पाये हों ऐसा आज तक मैंने किसी भी देश में नहीं देखा। फिर चाहे ‘विश्व धर्म संसद’ ही क्यों न हो। जिसमें विश्वभर के वक्ता आयें वहाँ बोलने वाला 600 और सुनने वाले 1500 ! भारत में हर रोज़ सत्संग के महाकुम्भ लगते रहते हैं। भारत में आज भी लाखों की संख्या में हरिकथा के रसिक हैं। घरों में गीता एवं रामायण का पाठ होता है। भगवत्प्रेमी संतों के सत्संग में जा के उनसे ज्ञान-ध्यान प्राप्त कर श्रद्धालु अपना जीवन धन्य कर लेते हैं। अतः जहाँ-जहाँ भक्त और भगवत्कथा-प्रेमी होते हैं वहाँ-वहाँ भगवान और संतों का प्राकट्य भी होता ही रहता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2018, पृष्ठ संख्या 9 अंक 303

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