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Brahmcharya

बुलंदियों तक पहुँचाने वाले दो पंख पूज्य बापू जी


बच्चों को प्राणशक्ति और ज्ञानशक्ति (बुद्धिशक्ति) – इन दो शक्तियों की जरूरत है। ये दोनों बढ़ गयीं तो व्यक्ति सारी दुनिया को आश्चर्य में डाल सकता है। जिसके जीवन में ज्ञानदाता एवं प्राणशक्ति बढ़ाने वाले सदगुरु हैं, वह बच्चा भी कभी नहीं रहता कच्चा ! वह छोटे से छोटा बच्चा भी बड़ी बुलंदियों तक पहुँचाने वाले काम कर सकता है।

मगधनरेश कुमारगुप्त के 14 साल के बेटे स्कंदगुप्त ने हूण प्रदेश के दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिये थे। मेरे गुरु जी की प्राणशक्ति, ज्ञानशक्ति विकसित हुई थी तो उनकी आज्ञा से नीम का पेड़ भी खिसक गया उचित स्थान पर, जहाँ झूलेलालवालों की हद लगती थी। वहाँ दोनों समाजों में सुलह का संगीत लहराने लगा। ‘लीलारामजी’ में से ‘लीलाशाहजी’ कहकर मुसलमान भी नवाजने लगे। प्राणशक्ति और ज्ञानशक्ति बढ़ जाये तो संकल्प से सब कुछ हो सकता है।

प्राणशक्ति बढ़ाने के उपाय

पोषक आहारः ब्रेड, बिस्कुट, मिठाइयाँ, फास्टफूड, कोल्ड ड्रिंक्स आदि बाजारू खाद्य पदार्थों से जीवनशक्ति क्षीण होती है। प्राकृतिक आहार जैसे फल, सब्जी, गाय का दूध तथा पाचनशक्ति के अनुसार ऋतु-अनुकूल आहार लेने से जीवनशक्ति का विकास होता है। सुबह 9 से 11 और शाम को 5 से 7 बजे के बीच भोजन करने वाले की प्राणशक्ति बढ़िया रहती है।

व्यायाम प्राणायाम

ब्राह्ममुहूर्त (सूर्योदय से सवा दो घंटे पूर्व से सूर्योदय तक) में सभी दिशाओं की हवा सब प्रकार के दोषों से रहित होती है। अतः इस वेला में वायुसेवन तथा दौड़, दीर्घ श्वसन आदि बहुत ही हितकर होता है। प्रातः 4 से 5 बजे के बीच प्राणायाम करें तो प्राणशक्ति खूब बढ़ेगी।

संयमः बॉयफ्रेंड, गर्लफ्रेंड बनाने से जीवनीशक्ति व संयम का नाश होता है। जो लड़के लड़कियों से, लड़कियाँ लड़कों से दोस्ती करती हैं, उनकी प्राणशक्ति दब्बू बन जाती है। लड़की लड़कियों को सहेली बनाये, लड़के लड़कों को दोस्त बनाये तो संयम से प्राणशक्ति और जीवनीशक्ति मजबूत होती है। सदाचरण और ब्रह्मचर्य का पालन करें। साथ ही कब खाना – क्या खाना, कब बोलना, इसका संयम भी होना चाहिए।

ज्ञानशक्ति बढ़ाने के उपाय

तटस्थताः बुद्धि में तटस्थता हो, पक्षपात न हो तो ज्ञानशक्ति बढ़ती है। अपनों के प्रति न्याय और दूसरों के प्रति उदारता का व्यवहार करो। ॐकार का जप करते-करते सो जाओगे तो ज्ञानशक्ति तो बढ़ेगी ही, अनुमान शक्ति और अऩुशासनीय शक्ति भी बढ़ेगी।

समताः किसी भी खुशामद से तुम फूलो नहीं और किसी भी झूठी  निंदा से सिकुड़ो नहीं। सबसे सम व्यवहार करने तथा सुख-दुःख में सम रहने का अभ्यास बढ़ाने से ज्ञानशक्ति बढ़ती है। इससे आप मेधावी बन जाओगे। किस  समय क्या करना है इसकी सूझबूझ और त्वरित निर्णय की क्षमता भी आपमें आयेगी। समत्वयोग समस्त योगों में शिरोमणि है। पचास वर्ष  नंगे पैर घूमने की तपस्या, बीसों वर्ष के व्रत-उपवास चित्त की दो क्षण की समता की बराबरी नहीं कर सकते।

आप ऐसे लोगों से संबंध रखो कि जिनसे आपकी समझ की शक्ति बढ़े, जीवन में आने वाले सुख-दुःख की तरंगों का अपने भीतर शमन करने की ताकत आये, समता बढ़े, जीवन तेजस्वी बने।

विवेकः सत्संग का विवेक, शास्त्रसंबंधी विवेक हो तो ज्ञानशक्ति बढ़ती है। ‘नित्य क्या है, अनित्य क्या है ? करणीय क्या है, अकरणीय क्या है ?’ आदि का विवेक होना चाहिए। आवेश में आकर कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए। मन में जो आये वह करने लग गये, ऐसा नहीं। विचार करना चाहिए कि मेरी इस चेष्टा का परिणाम क्या होगा ? श्रेष्ठ लोग, गुरु या भगवान देखें, सुनें तो क्या होगा ? विवेकरूपी चौकीदार रहेगा तो बहुत सारी विपदाओं से, पतन के प्रसंगों से ऐसे ही बच जाओगे।

वसिष्ठ जी कहते हैं- “हे राम जी ! जिस पुरुष ने शास्त्रीय विचार का आश्रय लिया है, वह सदविचार की दृढ़ता से जिसकी वांछा ( इच्छा) करता है उसको पाता है। इससे सदविचार उसका परम मित्र है। सदविचारवान पुरुष आपदा में नहीं फँसता और जो कुछ अविचार से क्रिया करते हैं वह दुःख का कारण होती है। जहाँ अविचार है वहाँ दुःख है का कारण होती है। जहाँ अविचार है वहाँ दुःख है, जहाँ सदविचार है वहाँ सुख है। हे राम जी ! शास्त्रीय  विचार से रहित पुरुष बड़ा कष्ट पाता है। इससे एक क्षण भी विचाररहित नहीं रहना।”

भगवान को एकटक देखकर ‘ॐ’ का जप करने से प्राणशक्ति औरर ज्ञानशक्ति दोनों निखरती हैं। ये दोनों शक्तियाँ जितने अंश में विकसित होती हैं, उतने अंश में जीवन सुख, सम्पदा, आयु, आरोग्य और पुष्टि से भर जाता है। ईश्वर, गुरु, ॐ का भ्रूमध्य में थोड़ी देर ध्यान एवं शास्त्र-अध्ययन करने से विचारशक्ति, बुद्धिशक्ति, प्राणशक्ति का खजाना खिलने लगता है। सही सूझबूझ का धनी बना देता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2014, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 255

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सत्साहित्य जीवन का आधार है


जैसा साहित्य हम पढ़ते हैं, वैसे ही विचार मन के भीतर चलते रहते हैं और उन्हीं से हमारा सारा व्यवहार प्रभावित होता है। जो लोग कुत्सित, विकारी और कामोत्तेजक साहित्य पढ़ते हैं, वे कभी ऊपर नहीं उठ सकते। उनका मन सदैव काम विषय के चिंतन में ही उलझा रहता है और इससे वे अपनी वीर्यरक्षा करने में असमर्थ रहते हैं।

गंदे साहित्य कामुकता का भाव पैदा करते हैं। सुना गया है कि पाश्चात्य जगत से प्रभावित कुछ नराधम चोरी छिपे गंदी फिल्मों का प्रदर्शन करते हैं, जिससे वे अपना और अपने सम्पर्क में आने वालों का विनाश करते हैं। ऐसे लोग महिलाओं, कोमल वय की कन्याओं तथा किशोर एवं युवावस्था में पहुँचे हुए बच्चों के साथ बड़ा अन्याय करते हैं। ʹब्ल्यू फिल्मʹ देखने-दिखाने वाले महाअधम, कामांध लोग मरने के बाद कूकर, शूकर, खरगोश, बकरा आदि दुःखद योनियों में भटकते हैं। निर्दोष कोमल वय के नवयुवक उन दुष्टों के शिकार न बनें, इसके लिए सरकार और समाज को सावधान रहना चाहिए।

बालक देश की सम्पत्ति हैं। ब्रह्मचर्य के नाश से उनका विनाश हो जाता है। अतः नवयुवकों को मादक द्रव्यों, गंदे साहित्यों व गंदी फिल्मों के द्वारा बरबाद होने से बचाया जाय। वे ही तो राष्ट्र के भावी कर्णधार हैं। युवक-युवतियाँ तेजस्वी हों, ब्रह्मचर्य की महिमा समझें। स्कूलों कॉलेजों में विद्यार्थियों तक संयम पर लिखा गया साहित्य पहुँचायें। पुण्यात्मा, परोपकारी, बुद्धिमान यह दैवी कार्य करते हैं, और लोग भी उनके सहयोगी बनें।

ʹदिव्य प्रेरणा प्रकाशʹ पुस्तक से कोई एक परिवार पतन की खाई से बचा तो यह पुण्य-कार्य देश के, परिवार के लिए तो हितकारी है लेकिन जिन्होंने किया उनका भी तो भगवान मंगल ही करेंगे।

कर भला सो हो भला।

सरकार का यह नैतिक कर्तव्य है कि वह संयम विषय पर शिक्षा प्रदान कर विद्यार्थियों को सावधान करे ताकि वे तेजस्वी बनें।

जितने भी महापुरुष हुए हैं, उनके जीवन पर दृष्टिपात करो तो उन पर किसी न किसी सत्साहित्य की छाप मिलेगी। अमेरिका के प्रसिद्ध लेखक इमर्सन के शिष्य थोरो ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। उन्होंने लिखा हैः ʹʹमैं प्रतिदिन गीता के पवित्र जल से स्नान करता हूँ। यद्यपि इस पुस्तक को लिखने वाले देवता को अनेक वर्ष व्यतीत हो गये लेकिन इसके बराबर की कोई पुस्तक अभी तक नहीं निकली है।”

योगेश्वरी माता गीता के लिए दूसरे एक विदेशी विद्वान, इंग्लैंड के एफ.एच.मोलेम कहते हैं- “बाइबिल का मैंने यथार्थ अभ्यास किया है। जो ज्ञान गीता में है, वह ईसाई या यहूदी बाइबिलों में नहीं है। मैं ईसाई होते हुए भी गीता के प्रति इतना आदर मान इसलिए रखता हूँ कि जिन गूढ़ प्रश्नों का हल पाश्चात्य वैज्ञानिक अभी तक नहीं कर पाये, उनका हल इस गीता ग्रँथ ने शुद्ध और सरल रीति से दे दिया है। गीता में कितने ही सूत्र अलौकिक उपदेशों से भरपूर देखे, इसी कारण गीता जी मेरे लिए साक्षात् योगेश्वरी माता बन गयी हैं। विश्व भर के सारे धन से भी न मिल सके, भारतवर्ष का यह ऐसा अमूल्य खजाना है।”

सुप्रसिद्ध पत्रकार पॉल ब्रंटन सनातन धर्म की ऐसी धार्मिक पुस्तकें पढ़कर जब प्रभावित हुआ तो वह हिन्दुस्तान आया और यहाँ के रमण महर्षि जैसे महात्माओं के दर्शन करके धन्य हुआ। देशभक्तिपूर्ण साहित्य पढ़कर ही चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, वीर सावरकर जैसे रत्न अपने जीवन को देशहित में लगा पाये।

इसलिए सत्साहित्य की तो जितनी महिमा गायी जाय उतनी कम है। श्री योगवासिष्ठ महारामायण, श्रीमदभगवदगीता, श्रीमदभागवत, रामायण, महाभारत, उपनिषद, दासबोध, सुखमनी साहिब, विवेकचूड़ामणि, स्वामी रामतीर्थ के प्रवचन, जीवन रसायन, दिव्य प्रेरणा-प्रकाश आदि भारतीय संस्कृति की ऐसी कई पुस्तकें हैं, जिन्हें पढ़ो और अपने दैनिक जीवन का अंग बना लो। ऐसी वैसी विकारी और कुत्सित पुस्तक-पुस्तिकाएँ हों तो उन्हें उठाकर कचरे के ढेर पर फेंक दो या चूल्हे में डालकर आग तापो, मगर न तो स्वयं पढ़ो और न दूसरों के हाथ लगने दो।

आध्यात्मिक साहित्य सेवन में संयम, स्वास्थ्य मजबूत करने की अथाह शक्ति होती है। संयम, स्वास्थ्य, साहस और आत्मा-परमात्मा का आनंद व सामर्थ्य अपने जीवन में जगाओ। कब तक दीन-हीन होकर लाचार-मोहताज जीवन की ओर घसीटे जाओगे भैया ! प्रातःकाल स्नानादि के पश्चात दैनंदिन कार्यों में लगने से पूर्व एवं रात्रि को सोने से पूर्व कोई-न-कोई आध्यात्मिक पुस्तक पढ़नी चाहिए। इससे वे ही सत्त्वगुणी विचार मन में घूमते रहेंगे जो पुस्तक में होंगे और हमारा मन विकारग्रस्त होने से बचा रहेगा।

कौपीन (लँगोटी) पहनने का भी आग्रह रखो। इससे अंडकोष स्वस्थ रहेंगे और वीर्यरक्षण में मदद मिलेगी। वासना को भड़काने वाले नग्न व अश्लील पोस्टरों एवं चित्रों को देखने का आकर्षण छोड़ो। अश्लील शायरी और गाने भी जहाँ गाये जाते हों, वहाँ न रूको।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2012, पृष्ट संख्या 23,24, अंक 232

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तुम हो अपने चरित्र के विधाता !


(ब्रह्मलीन स्वामी श्री शिवानंदजी सरस्वती)

यदि अपने जीवन में सफलता की कामना है, आध्यात्मिक मार्ग पर बढ़ने की अभिलाषा है और आत्मज्ञान प्राप्त करने की लगन है तो निष्कलंक चरित्र का उपार्जन करो। मनुष्य जीवन का सारांश है – चरित्र। मनुष्य का चरित्रमात्र ही सदा जीवित रहता है और मनुष्य को जीवित रखता है।

मनुष्य का शरीरांत होने पर भी उसका चरित्र बना रहता है, उसके विचार भी बने रहते हैं। चरित्र ही मनुष्य में वास्तविक शक्ति और शौर्य का स्फुरण भरता है। चरित्र शक्ति का ही पर्याय है। चरित्र का अर्जन नहीं किया गया तो ज्ञान का अर्जन भी नहीं किया जा सकता। चरित्रहीन व्यक्ति और जीवनहीन मुर्दे में कुछ भी अंतर नहीं है। समाज के लिए वह घृणास्पद है, समाज के लिए वह कल्मषक है।

अपने अलौकिक चरित्र के  कारण ही आज अनेकों शताब्दियों के बीत जाने पर भी आद्य शंकराचार्य जी तथा अन्य ऋषि हमें याद आते हैं। अपने चरित्र के कारण ही वे जनता के विचारों को प्रभावित कर सके और चरित्र-शक्ति के आधार पर ही जनसमाज की विचारधाराओं का निर्माण भी कर पाये।

चरित्र और धन की तुलना हो ही नहीं सकती। कहाँ चरित्र एक शक्तिशाली उपकरण, सुरभिपूर्ण सुंदर पुष्प और कहाँ धन एक चंचल वस्तु और कलह का आदिमूल। महान विचारवाले तथा उज्जवल चरित्रशाली व्यक्ति का ओज प्रभावशाली होता है। व्यक्तित्व का निर्माण चरित्र से ही होता है। कितना ही निपुण गायक क्यों न हो और कवि या वैज्ञानिक ही क्यों न हो, पर चरित्र न हुआ तो समाज में उसके कलिए सम्मान्य स्थान का सदा अभाव ही रहता है। जनसमाज उसकी अवहेलना ही करेगा।

‘चरित्र’ व्यापक शब्द है। साधारणतः चरित्र का अर्थ होता है नैतिक सदाचार। जब हम कहते हैं कि अमुक व्यक्ति चरित्रवान है तो हमारा अर्थ होता है कि वह नैतिक सदाचीरशील है। चरित्र का व्यापक अर्थ लिया जाय तो वह व्यक्ति की दयालुता, कृपालुता, सत्यप्रियता, उदारता, क्षमाशीलता और सहिष्णुता का द्योतक होता है। चरित्रवान व्यक्ति में सभी दैवी गुणों का समावेश रहता है। नैतिक दृष्टिकोण से तो वह सिद्ध होगा ही, साथ-साथ दैवी गुणों का विकास भी उसमें पूर्णतया होना चाहिए।

जानबूझकर असत्य भाषण करना, स्वार्थी और लोलुप होना, दूसरों के दिल को चोट पहुँचाना – इन सबसे मनुष्य के दुश्चरित्र का बोध होता है। अपने चरित्र का विकास करने के लिए व्यक्ति को सर्वांगीण उन्नति करनी होगी। चरित्र के विकास के लिए गीता के 12वें और 16वें अध्याय में बतलाये गये दैवी गुणों की साधना करनी होगी, तभी वह सिद्ध व्यक्ति बन सकता है। ऐसे ही व्यक्ति को निष्कलंक चरित्रशील कहा जाता है।

निष्कलंक चरित्र का निर्माण करने के लिए ये गुण उपार्जित किये जाने चाहिएः

नम्रता, निष्कपटता, अहिंसा, क्षमाशीलता, गुरुसेवा, शुद्धि(पवित्रता), सत्यशीलता, आत्मसंयम, विषयों के प्रति अनासक्ति, निरहंकारिता, जन्म, मृत्यु, जरा, रोग आदि में दुःख एवं दोषों का बार-बार विचार करना, निर्भयता, स्वच्छता, दानशीलता, शास्त्रवादिता, तपस्या, सरल व्यवहारशीलता, क्रोधहीनता, त्यागपरायणता, शांति, कूटनीति का अभाव, जीवदया, अलोलुपता, सौजन्य, सरल जीवन से प्रेम, क्षुद्र स्वभाव का दमन, वीर्य, शौर्य और दम तथा घृणा, प्रतिहिंसा का अभाव।

कार्य करते रहने पर एक प्रकार की आदत उदय होती है। अच्छी आदतों का बीज बो देने से चरित्र का उदय होता है। चरित्र का बीज बो देने से भाग्य का उदय होता है। चित्त में विचार, अनुभव और कर्म – इनके संस्कार मुद्रित हो जाते हैं। व्यक्ति के मर जाने पर भी ये विचार जीवित और सक्रिय रहते हैं। इनके ही कारण मनुष्य बार-बार जन्म लेता है। विचार और कर्मजन्य संस्कार मिलकर आदत का विकास करते हैं। अच्छी आदतों का संगठन होने से चरित्र का विकास होता है। व्यक्ति ही इन विचारों और आदतों का विधाता है। आज जिस अवस्था में व्यक्ति को देखते हो, वह भूतकाल का ही परिणाम है। यह आदत का उत्तररूप है। प्रत्येक व्यक्ति विचारों और कार्यों पर नियंत्रण स्थापित कर आदतों का मनोनुकूल निर्माण कर सकता है।

दुश्चरित्र व्यक्ति सदा के लिए दुश्चरित्र ही रहता है, यह उचित तर्क नहीं है। उसे संतों के सम्पर्क में रहने का अवसर दो। उसके जीवन में परिवर्तन खिल उठेगा, उसमें दिव्य गुण जाग उठेंगे। जगाई और मधाई, जिन्होंने चैतन्य महाप्रभु के शिष्य नित्यानंद जी पर पत्थर मारे थे, बाद में चैतन्यदेव एवं नित्यानंद जी की कृपा से महान भक्त बन गये। इन व्यक्तियों के मानसिक रूप, आदर्श और विचारों में समूल परिवर्तन हो गया था। इनकी आदतें सर्वथा बदल गयी थीं।

अपने बुरे चरित्र और विचारों को बदलने की शक्ति प्रत्येक व्यक्ति में सुरक्षित है, वर्तमान है। यदि बुरे विचारों और बुरी आदतों के बदले अच्छे विचारों और अच्छी आदतों का अभ्यास कराया जाय तो व्यक्ति को दिव्य गुणों से परिपूर्ण किया जा सकता है। दुश्चरित्र सच्चरित्र ही क्या, संत भी बन सकता है।

व्यक्ति की आदतों, गुणों और आचार (चरित्र) को प्रतिपक्ष-भावना की विधि से बदला जा सकता है। भय और असत्य को जीतने के लिए प्रतिपक्षीय भावना है-साहस और सत्यवादिता। ब्रह्मचर्य और संतोष का विचार करो तो काम-वासना और लोभ का पराभव किया जा सकेगा। प्रतिपक्षीय भावना द्वारा अपनी दुश्चरित्रता का दमन करना चाहिए, यह वैज्ञानिक विधान है।

संकल्प, रूचि, ध्यान और श्रद्धा के द्वारा स्वभाव-परिवर्तन या चरित्र-निर्माण किया जा सकता है। मनुष्य अपनी पुरानी क्षुद्र आदतों को त्यागकर नवीन सुंदर आदतों को ग्रहण कर ले। त्याग की भावना से किया गया कर्मयोग का अभ्यास भी मन में सुंदर आदतों का प्रतिष्ठापन करता है। भक्ति, उपासना और विचार के अभ्यास से भी पुरानी आदतों को हटाया जा सकता है।

यदि तुम्हें चरित्र-निर्माण में कठिनाई मालूम होती है तो संतों और महात्माओं के सम्पर्क में रहो। महात्माओं के सम्पर्क में रहने से उनकी आध्यात्मिक विचारधारा तुम्हारे जीवन में अदभुत परिवर्तन का श्रीगणेष करेगी।

अपने चरित्र का निर्माण करो। चरित्र-निर्माण से ही जीवन में सच्ची सफलता मिल सकती है। प्रतिदिन अपनी बुरी आदतों को हटाने का यत्न करते रहो। प्रतिदिन सत्कर्म करने का अभ्यास करो। सच्चरित्रता मनुष्य जीवन का प्राण है, उसके बिना मनुष्य मृतक के समान है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2011, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 220

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