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Brahmcharya

संयम की महिमा


आधुनिक मनोविज्ञान  मानसिक विशलेषण, मनोरोग शास्त्र और मानसिक रोग की चिकित्सा – ये फ्रायड के रूग्ण मन के प्रतिबिम्ब हैं। फ्रायड स्वयं स्पास्टिक कोलोन (प्रायः सदा रहने वाला मानसिक अवसाद), स्नायविक रोग, सजातीय संबंध, विकृत स्वभाव, माइग्रेन, कब्ज, प्रवास, मृत्यु व धननाश का भय, साइनोसाइटिस, घृणा और खूनी विचारों के दौरे आदि रोगों से पीड़ित था। स्वयं के जीवन में संयम का नाश कर दूसरों को भी घृणित सीख देने वाला फ्रायड इतना रोगी और अशांत होकर मरा। क्या आप भी ऐसा बनना चाहते हैं ? आत्महत्या के शिकार बनना चाहते हैं ? उसके मनोविज्ञान ने विदेशी युवक-युवतियों को रोगी बनाकर उनके जीवन का सत्यानाश कर दिया। सम्भोग से समाधि का प्रचार फ्रायड की रूग्ण मनोदशा का ही प्रचार है।

प्रो.एडलर और प्रो.सी.जी. जुंग जैसे मूर्धन्य मनोवैज्ञानिकों ने फ्रायड के सिद्धान्तों का खंडन कर दिया है, फिर भी यह खेद की बात है कि भारत में अभी भी कई मानसिक रोग विशेषज्ञ और सैक्सोलॉजिस्ट फ्रायड जैसे पागल व्यक्ति के सिद्धान्तों का आधार लेकर इस देश के युवक युवतियों को अनैतिक और अप्राकृतिक मैथुन का, संभोग का संदेश व इसका समर्थन समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के द्वारा देते रहते हैं। फ्रायड ने तो मृत्यु से पहले अपने पागलपन को स्वीकार किया था लेकिन उसके अनुयायी स्वयं स्वीकार न करें तो भी अनुयायी तो पागल के ही माने जायेंगे। अब वे इस देश के लोगों को चरित्र-भ्रष्ट और गुमराह करने का पागलपन छोड़ दें, ऐसी हमारी नम्र प्रार्थना है। ‘दिव्य प्रेरणा प्रकाश’ पुस्तक पाँच बार पढ़ें-पढ़ायें, इसी में सबका कल्याण है।

‘ नेशनल क्राइम विक्टिमाइजेशन सर्वे’ के अनुसार अमेरिका में सन् 2002 में कुल 1686600 बड़े गुनाह हुए। जिनमें से 1036400 गुनाह दर्ज किये गये। 28797 खून, 201589 बलात्कार, 633543 लूटपाट, 1238288 गम्भीर मारकाट और 4463596 साधारण मारकाट के गुनाह हुए। इस प्रकार कुल 6565805 हिंसक अपराध हुए।

वर्षक 2002 में अमेरिका में 12 से 17 वर्ष की उम्र के लड़कों ने 2 लाख 78 हजार अपराध किये। 18 वर्ष से बड़ी उम्र के लड़कों ने 181000 अपराध किये। अज्ञात उम्र के लड़कों ने 1 लाख 93 हजार अपराध किये। सन् 2002 में अमेरिका का राष्ट्रीय स्वास्थ्य व्यय 1548 अरब डॉलर अर्थात् करीब 69660 अरब रूपये था। सन् 2001 में किये गयेक एक सर्वेक्षण के अनुसार अमेरिका में 51 प्रतिशत शादियाँ तलाक में बदल जाती हैं। प्रकृति द्वारा मनुष्य के लिए निर्धारित किये गये संयम का उपहास करने के कारण प्रकृति ने उन लोगों को जातीय रोगों का शिकारक बना रखा है। उनमें मुख्यतः एड्स की बीमारी दिन दूनी रात चौगुनी फैलती जा रही है वहाँ के पारिवारिक व सामाजिक जीवन में क्रोध, कलह, असंतोष, संताप, अशांति, उच्छृंखलता, उद्दंडता और शत्रुता का महाभयानक वातावरण छा गया है। विश्व की लगभग 4.6 प्रतिशत जनसंख्या अमेरिका में है। उसके उपभोग के लिए विश्व की लगभग 40 प्रतिशत साधन-सामग्री (जैसे कि कार, टी.वी., वातानुकूलित मकान आदि) मौजूद हैं, फिर भी वहाँ अपराधवृत्ति इतनी बढ़ी है।

कामुकता के समर्थक फ्रायड जैसे दार्शनिक की ही यह देन है। उन्होंने पाश्चात्य देशों को मनोविज्ञान के नाम पर बहुत प्रभावित किया है और वहीं से यह आँधी अब हमारे देश में भी फैलती जा रही है। अतः हमारे देश की अवदशा अमेरिका जैसी हो, उसके पहले हमें सावधान होना पड़ेगा। यहाँ के कुछ अविचारी दार्शनिक भी फ्रायड के मनोविज्ञान के आधार पर युवक-युवतियों को बेलगाम सम्भोग की तरफ उत्साहित कर रहे हैं, जिससे हमारी युवा पीढ़ी गुमराह हो रही है। फ्रायड ने तो केवल मनःकल्पित मनोवैज्ञानिक मान्यताओं के आधार पर व्यभिचारशास्त्र बनाया लेकिन तथाकथित दार्शनिक ने तो सम्भोग से समाधि की परिकल्पना द्वारा व्यभिचार को आध्यात्मिक जामा पहनाकर धार्मिक लोगों को भी भ्रष्ट किया है। सम्भोग से समाधि नहीं होती, सत्यानाश होता है। ‘संयम से ही समाधि होती है’ – इस भारतीय मनोविज्ञान को अब पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक भी सत्य मानने लगे हैं।

जब पश्चिमी देशों में ज्ञान-विज्ञान का विकास प्रारम्भ भी नहीं हुआ था और मानव ने संस्कृति के क्षेत्र में प्रवेश भी नहीं किया था, उस समय भारतवर्ष के दार्शनिक और योगी मानव-मनोविज्ञान के विभिन्न पहलुओं तथा समस्याओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार कर रहे थे। फिर भी पाश्चात्य विज्ञान की छत्रछाया में पले हुए और उसके प्रकाश की चकाचौंध से प्रभावित वर्तमान भारत के मनोवैज्ञानिक भारतीय मनोविज्ञान का अस्तित्व तक मानने को तैयार नहीं हैं, यह खेद की बात है। भारतीय मनोवैज्ञानिकों ने चेतना के चार स्तर माने हैं- जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय। पाश्चात्य मनोविज्ञान प्रथम् तीन स्तरों को ही जानते हैं। पाश्चात्य मनोविज्ञान नास्तिक है। भारतीय मनोविज्ञान ही आत्मविकास और चरित्र-निर्माण में सबसे अधिक उपयोगी सिद्ध हुआ है, क्योंकि यह आत्मा परमात्मा से अत्यधिक प्रभावित है। भारतीय मनोविज्ञान् आत्मज्ञान और आत्म सुधार में सबसे अधिक सहायक सिद्ध होता है। इसमें बुरी आदतों को छोड़ने और अच्छी आदतों को अपनाने तथा मन की प्रक्रियाओं को समझने एवं उन पर नियंत्रण करने के महत्त्वपूर्ण उपाय बताये गयें है। इसकी सहायता से मनुष्य सुखी, स्वस्थ और सम्मानित जीवन जी सकता है। मुक्ति-भुक्ति दोनों उसके चरणों में स्वयं आ जाती है।

‘उत्तम भोक्ता वही है जिसमें भोग लोलुपता न हो।’ – यह व्यवस्था भारतीय संस्कृति में है। भोग लोलुपता जिस व्यक्ति, जिस जाति, जिस समाज में है, वे तुच्छता की खाई में गिरा है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 216

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वीर्य कैसे बनता है ?


वीर्य शरीर की बहुत मूल्यवान धातु है। भोजन से वीर्य बनने की प्रक्रिया बड़ी लम्बी है। श्री सुश्रुताचार्य ने लिखा हैः

रसाद्रक्तं ततो मांसं मांसान्मेदः प्रजायते।

मेदस्यास्थिः ततो मज्जा मज्जायाः शुक्र संभवः।।

जो भोजन पचता है, उसका पहले रस बनता है। पाँच दिन तक उसका पाचन होकर रक्त बनता है। पाँच दिन बाद रक्त से मांस, उसमें से 5-5 दिन के अंतर से मेद, मेद से हड्डी, हड्डी से मज्जा और मज्जा से अंत में वीर्य बनता है। स्त्री में जो यह धातु बनती है उसे ‘रज’ कहते हैं। इस प्रकार वीर्य बनने में करीब 30 दिन व 4 घण्टे लग जाते हैं। वैज्ञानिक बताते हैं कि 32 किलो भोजन से 800 ग्राम रक्त बनता है और 800 ग्राम रक्त से लगभग 20 ग्राम वीर्य बनता है।

आकर्षक व्यक्तित्व का कारण

वीर्य के संयम से शरीर में अदभुत आकर्षक शक्ति उत्पन्न होती है, जिसे प्राचीन वैद्य धन्वंतरि ने ‘ओज’ कहा है। यही ओज मनुष्य को परम लाभ-आत्मदर्शन कराने में सहायक बनता है। आप जहाँ-जहाँ भी किसी के जीवन में कुछ विशेषता, चेहरे पर तेज, वाणी में बल, कार्य में उत्साह पायेंगे, वहाँ समझो वीर्यरक्षण का ही चमत्कार है।

एक स्वस्थ मनुष्य एक दिन में 800 ग्राम भोजन के हिसाब से 40 दिन में 32 किलो भोजन करे तो उसकी कमाई लगभग 20 ग्राम वीर्य होगी। महीने कि करीब 15 ग्राम हुई और 15 ग्राम या इससे कुछ अधिक वीर्य एक बार के मैथुन में खर्च होता है।

माली की कहानी

एक माली ने अपना तन मन धन लगाकर कई दिनों तक परिश्रम करके एक सुंदर बगीचा तैयार किया, जिसमें भाँति-भाँति के मधुर सुगंधयुक्त पुष्प खिले। उन पुष्पों से उसने बढ़िया इत्र तैयार किया। फिर उसने क्या किया, जानते हो ? उस इत्र को एक गंदी नाली (मोरी) में बहा दिया। अरे ! इतने दिनों के परिश्रम से तैयार किये गये इत्र को, जिसकी सुगंध से उसका घर महकने वाला था, उसने नाली में बहा दिया ! आप कहेंगे कि ‘वह माली बड़ा मूर्ख था, पागल था…..’ मगर अपने-आप में ही झाँककर देंखें, उस माली को कहीं और ढूँढने की जरूरत नहीं है, हममें से कई लोग ऐसे ही माली हैं।

वीर्य बचपन से लेकर आज तक, यानी 15-20 वर्षों में तैयार होकर ओजरूप में शरीर में विद्यमान रहकर तेज, बल और स्फूर्ति देता रहा। अभी भी जो करीब 30 दिन के परिश्रम की कमाई थी, उसे यों ही सामान्य आवेग में आकर अविवेकपूर्वक खर्च कर देना कहाँ की बुद्धिमानी है ! क्या यह उस माली जैसा ही कर्म नहीं है ? वह माली तो दो-चार बार यह भूल करने के बाद किसी के समझाने पर संभल भी गया होगा, फिर वही की वही भूल नहीं दोहरायी होगी परंतु आज तो कई लोग वही भूल दोहराते रहते हैं। अंत में पश्चाताप ही हाथ लगता है। क्षणिक सुख के लिए व्यक्ति कामांध होकर बड़े उत्साह से इस मैथुनरूपी कृत्य में पड़ता है परंतु कृत्य पूरा होते ही वह मुर्दे जैसा हो जाता है। होगा ही, उसे पता ही नहीं कि सुख तो नहीं मिला केवल सुखाभास हुआ परंतु उसमें उसने 30-40 दिन की अपनी कमाई खो दी।

युवावस्था आने तक वीर्य संचय होता है। वह शरीर में ओज के रूप में स्थित रहता है। वीर्यक्षय से वह तो नष्ट होता ही है, साथ ही अति मैथुन से हड्डियों में से भी कुछ सफेद अंश निकलने लगता है, जिससे युवक अत्यधिक कमजोर होकर नपुंसक भी बन जाते हैं। फिर वे किसी के सम्मुख आँख उठाकर भी नहीं देख पाते। उनका जीवन नारकीय बन जाता है। वीर्यरक्षण का इतना महत्त्व होने के कारण ही कब मैथुन करना, किससे करना, जीवन में कितनी बार करना आदि निर्देश हमारे ऋषि-मुनियों ने शास्त्रों में दे रखे हैं।

सृष्टि क्रम के लिए मैथुनः एक प्राकृतिक व्यवस्था

शरीर से वीर्य-व्यय यह कोई क्षणिक सुख के लिए प्रकृति की व्यवस्था नहीं है। संतानोत्पत्ति के लिए इसका वास्तविक उपयोग है। यह सृष्टि चलती रहे इसके लिए संतानोत्पत्ति जरूरी है। प्रकृति में हर प्रकार की वनस्पति व प्राणिवर्ग में यह काम-प्रवृत्ति स्वभावतः पायी जाती है। इसके वशीभूत होकर हर प्राणी मैथुन करता है व उसका सुख भी उसे मिलता है किंतु इस प्राकृतिक व्यवस्था को ही बार-बार क्षणिक सुख का आधार बना लेना कहाँ की बुद्धिमानी है ! पशु भी अपनी ऋतु के अनुसार ही कामवृत्ति में प्रवृत्त होते हैं और स्वस्थ रहते हैं तो क्या मनुष्य पशुवर्ग से भी गया बीता है ? पशुओं में तो बुद्धितत्त्व विकसित नहीं होता पर मनुष्य में तो उसका पूर्ण विकास होता है।

आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम्।

भोजन करना, भयभीत होना, मैथुन करना और सो जाना – ये तो पशु भी करते है। पशु-शरीर में रहकर हम यह सब करते आये हैं। अब मनुष्य-शरीर मिला है, अब भी यदि बुद्धि विवेकपूर्वक अपने जीवन को नहीं चलाया व क्षणिक सुखों के पीछे ही दौड़ते रहे तो अपने मूल लक्ष्य पर हम कैसे पहुँच पायेंगे ?

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 214

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लापरवाही नहीं तत्परता !


(पूज्य बापू जी की सत्संग सुधा)

साधक के जीवन में, मनुष्यमात्र के जीवन में अपने लक्ष्य की स्मृति और तत्परता होनी ही चाहिए। संयम और तत्परता सफलता की कुंजी है, लापरवाही और संयम का अनादर विनाश का कारण है। जिस काम को करें, उसे ईश्वर का कार्य मानकर साधना का अंग बना लें। उस काम में से ही ईश्वर की मस्ती का आनंद आने लग जायेगा।

तत्परता व सजगता से काम करने वाला व्यक्ति कभी विफल नहीं होता। आलस्य और प्रमाद मनुष्य की योग्यताओं के शत्रु हैं। लापरवाही सारी योग्यताओं को खा जाती है, इसलिए अपनी योग्यता विकसित करने के लिए भी तत्परता से कार्य करना चाहिए। जिसकी कम समय में सुंदर, सुचारू रूप से व अधिक से अधिक कार्य करने की कला विकसित है, वह आध्यात्मिक जगत में जाता है तो वहाँ भी सफल हो जायेगा और लौकिक जगत में भी, परंतु समय बर्बाद करने वाला, टालमटोल करने वाला तो व्यवहार में भी विफल रहता है और परमार्थ में तो सफल हो ही नहीं सकता।

लापरवाह, पलायनवादी लोगों को सुख-सुविधा और भजन का स्थान भी मिल जाय तो भी उनकी कार्य करने में तत्परता नहीं होती, ईश्वर में, जप में प्रीति नहीं होती। ऐसे व्यक्तियों को ब्रह्माजी भी आकर सुखी करना चाहें तो नहीं कर सकते। ऐसे व्यक्ति दुःखी ही रहेंगे। कभी-कभी दैवयोग से उन्हें सुख मिलेगा तो आसक्त हो जायेंगे और दुःख मिलेगा तो बोलेंगेः ‘क्या करें, जमाना ऐसा है !’ ऐसा कहकर वे फरियाद ही करेंगे।

काम-क्रोध तो मनुष्य के वैरी हैं ही परंतु लापरवाही, आलस्य, प्रमाद – ये मनुष्य की योग्यता के वैरी हैं, इसलिए अपने कार्य में तत्पर होना चाहिए। रावण, सिकंदर, हिरण्यकशिपु, हिटलर – ये तत्पर तो थे लेकिन अहं को पोसने में, विषय-विकारों को पाने में विनाश की तरफ चले गये। आत्मा परमात्मा को पाने का उद्देश्य बना के धर्म-मर्यादा के अनुरूप तत्परता होनी चाहिए। कई लोग तत्पर भी पाये जाते हैं पर भोग-विलास और अहं पोसने में लगते हैं तो विनाश की तरफ जाते हैं। तत्परता अविनाशी की तरफ होनी चाहिए। जो कर्मयोग में तत्पर नहीं है वह भक्तियोग और ज्ञान योग में तत्पर नहीं होगा। जप करेगा तो व्यग्रचित्त होकर बंदरछाप जप करेगा, इससे उसका फल क्षीण हो जायेगा। अतः जो भी काम करो तत्परता से करो। भोजन करो तो चबा-चबाकर करो। इधर-उधर देखते-देखते, बातें करते हुए, जल्दी-जल्दी, लापरवाही से भोजन करते हैं तो भोजन पचता नहीं, आँते खराब होती हैं, तबीयत खराब होती है। यात्रा करनी है और देर से गये, गाड़ी छूट गयी तो यह  लापरवाही है। रोटी बनाते बनाते रोटी पर काले दाग कर दिये, जला दी तो लापरवाह है, मूर्ख है। सब्जी बना रहा है तो सब्जी  को छौंक लगाकर इतना सेंका कि उसके बहुत सारे विटामिन नष्ट हो गये या नमक मिर्ची ज्यादा डाल दी अथवा तो फीकी बना दी। ऐसे लोग लापरवाह होते हैं। चावल ठीक से साफ नहीं किये, खाते समय कंकड़ आते हैं तो साफ करने वाला लापरवाह है, मूर्ख है। चाहे कितना भी बड़ा सेठ हो, साहब हो… साहब है, वेतन लेता है इसलिए उसकी जिम्मेदारी है कि दफ्तर का काम तत्परता से करे। झाड़ू लगाने वाला है तो झाड़ू ठीक से लगाये, यह उसकी जिम्मेदारी है।

संचालक लोग लापरवाह होते हैं तो स्वामी को बहुत कष्ट सहना पड़ता है। मुनीम, मैनेजर, सहायक लापरवाह होता है तो उसके मालिक को बहुत दुःख देखना पड़ता है। लापरवाह आदमी से भगवान नाराज रहते हैं। शबरी कर्म करने में कैसी तत्पर, रैदासजी कितने तत्पर, ध्रुव और प्रह्लाद काम करने में कितने तत्पर….. भगवान को प्रसन्न कर लिया, पा लिया। धिक्कार है लापरवाह लोगों को जो अपने स्वामी को दुःख देते हैं, समाज के लोगों से धोखा करते हैं ! खाना-पीना समाज का और समाज के कार्य में लापरवाही करना, ऐसे लोग कुत्ते से भी बेकार होते हैं। लापरवाह आदमी को ‘कुत्ता’ बोलो तो कुत्ता भी नाराज हो जायगा, ‘गधा’ बोलो तो गधा नाराज हो जायेगा। बोलेगाः ‘मैं तो रूखा-सूखा खा लेता हूँ और मालिक का खाता हूँ और काम विलम्ब में डालता है, ऊपर से सफाई देता है।’ पलायनवादी, लापरवाह व्यक्ति घर, दुकान, दफ्तर, आश्रम जहाँ भी जायेगा देर-सवेर असफल हो जायेगा। कर्म के पीछे भाग्य बनता है, हाथ की रेखाएँ बदल जाती हैं, प्रारब्ध बदल जाता है।

सुविधा पूरी चाहिये लेकिन जिम्मेदारी नहीं, इससे लापरवाह व्यक्ति खोखला हो जाता है। जो तत्परता से काम नहीं करता, उसे कुदरत दुबारा मनुष्य शरीर नहीं देती। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनसे काम लिया जाता है परंतु तत्पर व्यक्ति को कहना नहीं पड़ता, वह स्वयं कार्य करता है। समझ बदलेगी तब व्यक्ति बदलेगा और व्यक्ति बदलेगा तब समाज और देश बदलेगा।

जो मनुष्य-जन्म में काम से कतराता है, वह पेड़-पौधा, पशु बन जाता है, फिर कुल्हाड़े मारकर, डंडे मारकर उससे काम लिया जाता है। सूर्य दिन रात कार्य कर रहा है, हवाएँ दिन-रात कार्य कर रही हैं, प्रकृति दिन रात कार्य कर रही है, परमात्मा दिन रात चेतना दे रहा है और हम अगर कार्य से भागते फिरते हैं तो स्वयं ही अपने पैर पर कुल्हाड़ा मारते हैं।

काम की अधिकता नहीं अनियमितता आदमी को मार डालती है। विद्यार्थी है तो ‘आज पढ़ने का पाठ कल पढ़ेंगे, बाद में करेंगे….’ ऐसा नहीं करे। जिस समय का जो काम है वह उस समय ही कर लेना चाहिए, बाद के लिए नहीं रखना चाहिए। बढ़िया समय आयेगा तब कुछ करेंगे या बढ़िया समय था तब कुछ कर लेते….’ नहीं, अभी जो समय है वही बढ़िया है।

जो काम, जो बात अपने बस की है उसे ईमानदारी, तत्परता और कुशलतापूर्वक करो। अपने प्रत्येक कार्य को ईश्वर की पूजा समझो। राज-व्यवस्था में भी अगर तत्परता नहीं है तो वह बिगड़ जाती है। रिश्वत मिल जाती है तो जो काम अधिकारियों से तत्परता से लेना है वह नहीं लेते और वे लापरवाह हो जाते हैं। इस देश में ‘ऑपरेशन’ की जरूरत है। जो कामचोर हैं, लापरवाह हैं, समाज का शोषण करते हैं, खूब रिश्वत ले के देश विदेशों में जमा करते हैं, ऐसे लोगों को तो कड़ी सजा मिलनी चाहिए, तभी देश सुधरेगा। आप लोग जहाँ भी हों, अपने जीवन को संयम और तत्परता के ऊपर उठाओ। परमात्मा हमेशा उन्नति में साथ देता है, पतन में नहीं। पतन में हमारी वासनाएँ, लापरवाही काम करती है। मुक्ति के रास्ते भगवान साथ देता है, प्रकृति साथ देती है, बंधन के लिए तो हमारी बेवकूफी, इन्द्रियों की गुलामी, लालच और हलका संग ही कारणरूप होता है। हम तो ईश्वर का संग करेंगे, संतों शास्त्रों की शरण जायेंगे, श्रेष्ठ संग करेंगे और संयमी व तत्पर होकर अपना कार्य करेंगे – यही भाव रखना चाहिए।

लापरवाही के दुर्गुण से बचने में लं बीजमंत्र का जप सहायक है, लाभदायी है।

रोज ॐ लं लं लं लं लं…. इस प्रकार आदर से, तत्परता से कम से कम हजार बार जप करने वाला लापरवाह भी सुधर जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 11,12 अंक 214

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