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मंत्रदीक्षा से जीवन-परिवर्तन


-स्वामी श्री शिवानंद सरस्वती

वेदों तथा उपनिषदों के प्राचीनकाल में आत्मानुभवी महात्माओं तथा ऋषियों को ईश्वर-सम्पर्क से जो सूक्ष्म-से-सूक्ष्म रहस्य प्राप्त हुए, मंत्र उन्हीं के विशेष रूप हैं । ये पूर्ण अनुभव के गुप्त देश में पहुँचाने वाले निश्चित साधन हैं । मंत्र के सर्वश्रेष्ठ सत्य का ज्ञान जो हमें परम्परा से प्राप्त हो रहा है, उसे प्राप्त करने से आत्मशक्ति मिलती है । गुरु-परम्परा की रीति के द्वारा ये मंत्र अब तक, इस कलियुग के समय पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आये हैं ।

मंत्रदीक्षा पाने वाले के अंतःकरण में एक बड़ा परिवर्तन होना आरम्भ हो जाता है । दीक्षा लेने वाला इस परिवर्तन से अनभिज्ञ रहता है क्योंकि उस पर मूल अज्ञान का पर्दा अब भी पड़ा हुआ है । जैसे एक गरीब आदमी को, जो अपनी झोंपड़ी में गहरी नींद सोया हो, चुपचाप ले जाकर बादशाह के महल में सुंदर कोच (गद्देदार बिस्तर) पर लिटा दिया जाय तो उसको इस परिवर्तन का कोई ज्ञान नहीं होगा क्योंकि वह गहरी नींद में सो रहा था । न होगा क्योंकि वह गहरी नींद में सो रहा था । भूमि में बोये हुए बीज की भाँति आत्मानुभव आत्मज्ञानी को सर्वोच्च शिखर पर पहुँचाता है । पूर्णरूप से फूलने-फलने के पूर्व जिस प्रकार बीज विकास के मार्ग में भिन्न-भिन्न अवस्थाओं का अनुभव करता है और बीज से अंकुर, पौधा, वृक्ष और फिर पूरा वृक्ष बन जाता है, उसी प्रकार साधक को आत्मानुभव में सफलता प्राप्त करने के लिए निरंतर उत्साहपूर्वक प्रयत्न करना आवश्यक है ।

इस अवसर पर केवल साधक पर ही पूर्णतया उत्तरदायित्व है और गुरु में उसकी पूर्ण भक्ति और अचल विश्वास होने पर इस कार्य में उसको निःसंदेह गुरु की सहायता और कृपा मिलेगी । जिस प्रकार समुद्र में रहने वाली सीप स्वाती नक्षत्र में बरसने वाले जल की बूँद की उत्कण्ठा तथा धैर्य पूर्वक प्रतीक्षा करती है और स्वाती की बूँद मिलने पर उसको अपने में लय कर अपने साहस और प्रयत्न से अमूल्य मोती बना लेती है । उसी प्रकार साधक श्रद्धा और उत्कण्ठा से गुरुदीक्षा की प्रतीक्षा करता है और कभी शुभ अवसर पर उसे प्राप्त करके अपनी धारणा का पोषण करता है और प्रयत्न तथा नियमपूर्वक साधन करके उससे ऐसी अदभुत आत्मिक शक्ति प्राप्त करता है, जो अविद्या तथा अज्ञान को छिन्न-भिन्न कर मुक्तिद्वार का रास्ता स्पष्टरूप से खोल देती है । मंत्रदीक्षा द्वारा आप सर्वोच्च तथा सर्वश्रेष्ठ वस्तु का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, जिसको पाकर आप सब कुछ पा जाते हैं और जिसको जानकर सब कुछ जान जाते हैं । फिर अन्य कोई वस्तु जानने तथा पाने योग्य शेष नहीं रह जाती । मंत्रदीक्षा द्वार आपको इस बात का पूर्ण ज्ञान तथा अनुभव हो जाता है कि आप मन या बुद्धि नहीं हैं वरन् आप सच्चिदानंद परम प्रकाश और परमानदस्वरूप हैं । सद्गुरु की अनुकम्पा से आपको भगवत्प्राप्ति होकर परम शांति उपलब्ध हो ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 5 अंक 199

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शिक्षा और दीक्षा


शिक्षा मानव-जीवन में सौंदर्य प्रदान करती है, कारण कि शिक्षित व्यक्ति की माँग समाजो सदैव रहती है । इस दृष्टि से शिक्षा एक प्रकार का सामर्थ्य है । यद्यपि सामर्थ्य सभी को स्वभाव से प्रिय है पर उसका दुरुपयोग मंगलकारी नहीं है । अतः शिक्षा के साथ-साथ दीक्षा अत्यंत आवश्यक है । शिक्षा का सदुपयोग दीक्षा से ही सम्भव है । दीक्षित मानव की प्रत्येक चेष्टा लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही होती है । शिक्षा अर्थात् ज्ञान, विज्ञान एवं कलाओं के द्वारा जो शक्ति प्राप्त हुई है, उसका दुरुपयोग न हो इसलिए शिक्षित मानव का दीक्षित होना अनिवार्य है ।

मानव-जीवन कामना और माँग का पुँज है । कामना मानव को पराधीनता, जड़ता एवं अभाव की ओर गतिशील करती है और माँग स्वाधीनता, चिन्मयता एवं पूर्णता की ओर अग्रसर करती है । माँग की पूर्ति एवं कामनाओं की निवृत्ति में ही मानव-जीवन की पूर्णता है । मानवमात्र का लक्षय एक है । इस कारण दीक्षा भी एक है । दीक्षा के दो मुख्य अंग हैं – दायित्व और माँग । प्राकृतिक नियमानुसार दायित्व पूरा करने का अविचल निर्णय तथा माँग-पूर्ति में अविचल आस्था रखना दीक्षा है । यह दीक्षा प्रत्येक वर्ग, समाज, देश, मत, सम्प्रदाय, मजहब आदि के मानव के लिए समानरूप से आवश्यक है । इस दीक्षा के बिना कोई भी मानव मानव नहीं हो सकता और मानव हुए बिना जीवन अपने लिए, जगत के लिए और उसके जो सर्व का आधार तथा प्रकाशक है, उपयोगी नहीं हो सकता ।

शिक्षा सामर्थ्य है और दीक्षा प्रकाश । सामर्थ्य का उपयोग अंधकार में करना अपने विनाश का आह्वान करना है । शिक्षा का प्रभाव शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि पर होता है और दीक्षा का प्रभाव अपने पर होता है अर्थात् कर्ता पर होता है करण पर नहीं । करण कर्ता के अधीन कार्य करते हैं । अतः शिक्षा का उपयोग दीक्षा के अधीन होना चाहिए । किसी भी मानव को यह अभीष्ट नहीं है कि सबल उसका विनाश करें, अतः बल का दुरुपयोग न करने का व्रत कर्तव्य-पथ की दीक्षा है ।

यद्यपि शिक्षा बड़े ही महत्त्व की वस्तु है पर दीक्षित न होना भारी भूल है । दीक्षित हुए बिना शिक्षा के द्वारा घोर अनर्थ भी हो जाते हैं । अशिक्षित मानव से उतनी क्षति हो ही नहीं सकती, जितनी दीक्षारहित शिक्षित से होती है । शिक्षित मानव का समाज में बहुत बड़ा स्थान है, कारण कि उसके सहयोग की माँ समाज को सदैव रहती है । इस दृष्टि से शिक्षित का दीक्षित होना अत्यंत आवश्यक है ।

दीक्षा के बिना माँग अर्थात् लक्षय क्या है और उसकी प्राप्ति के लिए दायित्व क्या है, इसका विकल्परहित निर्णय संभव नहीं है, जिसके बिना सर्वतोमुखी विकास सम्भव नहीं है । दीक्षा का बाह्य रूप भले ही भिन्न-भिन्न प्रकार का प्रतीत हो किंतु उसका आंतरिक स्वरूप तो कर्तव्यपरायणता, असंगता एवं शरणागति में ही निहित है । इतना ही नहीं, कर्तव्य की पूर्णता में शरणागति स्वतः आ जाती है । कर्तव्यपरायणता के बिना स्वार्थभाव का, असंगता के बिना जड़ता का और शरणागति के बिना सीमित अहंभाव का सर्वांश में नाश नहीं होता । स्वार्थभाव ने ही मानव को सेवा से, जड़ता ने मानव को चिन्मय जीवन से एवं सीमित अहंभाव ने प्रेम से विमुख किया है । स्वार्थभाव, जड़ता एवं सीमित अहंभाव का नाश दीक्षा में ही निहित है ।

शिक्षा मानव को उपयोगी बनाती है और दीक्षा सभी के ऋण से मुक्त करती है । ऋण से मुक्त हुए बिना शांति, स्वाधीनता तथा प्रेम के साम्राज्यों में प्रवेश नहीं होता, जो वास्तविक जीवन है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 4,7 अंक 199

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दीक्षा से सुधरती है जीवन-दशा


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

उस मनुष्य का जीवन बेकार है जिसके जीवन में किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु की दीक्षा नहीं है । दीक्षारहित जीवन विधवा के श्रृंगार जैसा है । बाहर की शिक्षा तुम भले पाओ किंतु उस शिक्षा को वैदिक दीक्षा की लगाम देना जरूरी है । दीक्षाविहीन मनुष्य का जीवन तो बर्बाद होता ही है, उसके संपर्क में आने वालों का भी जीवन बर्बाद होने लगता है…. खाया-पिया, दुःखी-सुखी हुए और अमर तत्त्व को जाने बिना मर गये ।

दीक्षा के बिना सांसारिक आवागमन से मनुष्य की मुक्ति नहीं हो सकती । यदि कोई अंधा व्यक्ति अकेला सड़क पर दौड़ रहा है तो वह दौड़ तो सकता है किंतु दुर्घटना का होना निश्चित है । गुरु के बिना इस संसार की असारता का रहस्य-विषयक ज्ञान नहीं हो सकता और ज्ञान के बिना जीव की मुक्ति नहीं हो सकती, जैसे दिशाविहीन नौका गहन समुद्र में कभी तट को प्राप्त नहीं कर सकती । धन, मान या पद से कोई गुरु से दीक्षा प्राप्त नहीं कर सकता । दीक्षा तो श्रद्धावान, सौम्य गुणवाले, विनीत शिष्य ही प्राप्त कर सकते हैं । धन का, सत्ता का अहंकार तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि सब विकार श्रद्धारूपी रसायन में पिघल जाते हैं ।

यह श्रद्धरूपी रसायन चिंता, भय को अलविदा कर देता है और परमात्मा-रस से भरा दीवाना बना देता है । नश्वर शरीर से संबंधित अपनी हीनता भी याद नहीं रहती और अपना अहंकार भी याद नहीं रहता अपितु श्रद्धालु दीक्षा पाकर अपनी शाश्वतता की तरफ उन्मुख होने लगता है । इसलिए जीवन में दीक्षा, श्रद्धा और सत्संग की अनिवार्य आवश्यकता है ।

मंत्रदीक्षा देने वाले गुरु तीन प्रकार के होते हैं । एक होते हैं बाजारू गुरु, जो मंत्रदीक्षा का धंधा लेकर चल पड़ते हैं ।

कन्या-मन्या कुर्र… तू मेरा चेला मैं तेरा गुर्र…।

दर्क्षिणा धर्र… तू चाहे तर्र चाहे मर्र….।।

अला बाँधूँ, बला बाँधँ….. भूत बाँधूँ, प्रेत बाँधूँ…

डाकिनी बाँधूँ, शाकिनी बाँधूँ….

इस प्रकार के लोग मनचले होते हैं । खुद तो बीड़ी पीना, क्या-क्या गलत कर्म करना और साथ में दूसरों को मंत्र दीक्षा देना ! अरे, मंत्रदीक्षा कोई मजाक की बात है ! इसमें तो बड़ी जिम्मेदारी होती है, अपनी तपस्या का अंख देना होता है । बाजारू लोग यह बात नहीं जानते । विवेकानंद जी ने ऐसे लोगों की अच्छी तरह से खिंचाई की ।

दूसरे होते हैं संप्रदाय-विशेष के गुरु, जो अपने-अपने सम्प्रदाय का मंत्र देते हैं । कोई रामानंदी संप्रदाय के हैहं तो ‘सीताराम-सीताराम’ मंत्र देंगे, वैष्णव संप्रदाय के हैं तो भगवान विष्णु का मंत्र देंगे, शैव संप्रदाय के हैं तो ‘ॐ नमः शिवाय’ देंगे । कोई मुल्ला-मौलवी हैं तो ‘अल्लाहो अकबर…..’ इस प्रकार सिखायेगा अपने संप्रदाय, परम्परा के अनुसार । कोई विरले-विरले होते हैं लोकसंत, जो वैदिक परम्परा के अनुसार मंत्र देते हैं । उनका अपना कोई अलग संप्रदाय नहीं होता, वे तो जिसका जिससे भला होता हो वही मंत्र उसको देते हैं ।

भगवान गणपति की परम्परा वाले गणपति जी का मंत्र देंगे, अच्छा है, गायत्री की परम्परा वाले सबको गायत्री मंत्र देंगे, ठीक है, अच्छा है, यह भी वैदिक परम्परा है, हमारा इससे विरोध नहीं है, ठीक है । उन बाजारू गुरुओं से तो ये बहुत अच्छे हैं लेकिन इनसे भी बढ़कर एक विलक्षण गुरु होते हैं नारद जी जैसे, कबीर जी जैसे, नानकजी जैसे, जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य जी जैसे, भगवत्पाद लीलाशाह जी बापू जैसे, जो सामने वाले का जल्दी-से-जल्दी हित हो इस प्रकार की मंत्रदीक्षा और मंत्र जपने की रीति बताते हैं । हम भी दीक्षा देते समय किस विधि से जप करने पर कौन सा लाभ होता है आदि सब बता देते हैं । दीक्षित साधक एक बार ध्यान योग शिविर में आ जाते हैं न, तो सारी बातें उनको हस्तामलकवत् (हाथ पर रखे आँवले की तरह प्रत्यक्ष) हो जाती हैं, प्रत्यक्ष एहसास हो जाता है । फिर उनको लगता है कि ‘इतने साल हम कहाँ झख मार रहे थे !’ ऐसे-ऐसे खजाने खुलने लगते हैं दीक्षा के बाद, सारे रहस्य खुलने लगते हैं ।

तो आप जहाँ हैं वहीं से आपको यात्रा करनी होगी । जैसे आप दिल्ली में हैं तो यात्रा मुम्बई से थोड़े ही प्रारम्भ करेंगे, दिल्ली से ही प्रारम्भ करनी पड़ेगी, ऐसे ही आपका मन और प्राण कौन-से केन्द्र में ज्यादा रहते हैं उस प्रकार के मंत्र की आपकी पसंदगी होती तो आपके जीवन में परिवर्तन जल्दी होगा । इसीलिए लोकसंत, सद्गुरु सभी को एक प्रकार का मंत्र नहीं देते । वे विद्यार्थियों को सारस्वत्य मंत्र, स्वास्थ्य-अर्थियों को स्वास्थ्य मंत्र, मुक्ति अर्थियों को प्रणव (ॐ) युक्त मंत्र अथवा प्रणव – इस तरह अलग-अलग मंत्र देते हैं, जिनसे उनका  विकास जल्दी होता है ।

मंत्रदीक्षा देते समय हम ऐसे-ऐसे प्रयोग और प्राणायाम सिखा देते हैं, जिससे साधकों की बुद्धि का नाड़ी-जाल शुद्ध हो जाता है, बुद्धि में चमत्कारिक परिवर्तन होने लगते हैं । फिर लोग बोलते हैं कि ‘बापू जी ने चमत्कार कर दिया ।’ वास्तव में चमत्कार का खजाना पड़ा था, मैंने कुंजी दिखा दी और आपके जीवन में फायदे होने लगे । फिर मंत्रजप की और रीति भी बताता हूँ जिससे श्वासों का नियंत्रण होने से अकाल मृत्यु टल जाती है, आयुष्य लम्बा होने में मदद मिलती है और मन एकाग्र करने में बड़ी आसानी हो जाती है । श्वास (प्राण) तो हमारे पूरे शरीर में जाता है तो भगवदीय रस, भगवदीय ऊर्जा, भगवदीय आभा भी पैदा होने लगती है । जैसे जब आप किसी की निंदा सुनते हैं या करते हैं तो एक प्रकार के हानिकारक रसायन आपके शरीर में पैदा होते हैं, वैसे ही जब आप भगवान को प्रेम करते हुए भगवान का नाम लेते हैं तो सत्त्वमय, सुखमय, अमृतमय रसायन पैदा होते हैं, इसीलिए जीवन में परिवर्तन हो जाता है । ‘मैंने दीक्षा ली और यह परिवर्तन हो गया, वह हो गया….।’ इन चमत्कारों का रहस्य यह है कि आपके खजानों की चाबी भी मैं जानता हूँ और ताला भी मैं जानता हूँ । दीक्षा देते समय वह चाबी दे देता हूँ तो चमत्कार होता है ।

तो जो वैदिक दीक्षा लेकर भक्ति करते हैं उनकी भक्ति क्लेशनाशिनी हो जाती है । वे मनमुखी नहीं गुरुमुखी होते हैं । उनकी आधी साधना वैदिक दीक्षा लेने मात्र से पूरी हो जाती है और फिर बताये गये नियम के अनुसार थोड़े दिन की साधना से उनका जीवन जीवनदाता के ज्ञान-ध्यान से, रस से रसमय हो जाता है । वे जीते-जी मुक्ति के अधिकारी हो जाते हैं और मुक्ति पा लेते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 198

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