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Gurupoornima

Rishi Prasad 270 Jun 2015

यह है मानव-जीवन की बड़ी उपलब्धि


गुरु तीन प्रकार के होते हैं- 1. देव गुरु, 2 सिद्ध गुरु, 3. मानव गुरु।
देव गुरु- जैसे देवर्षि नारद हैं और बृहस्पति जी हैं। सिद्ध गुरु कभी-कभी परम पवित्र, परम सात्विक, तीव्र तड़प वाले साधक को मार्गदर्शन देते हैं, जैसे – गुरु दत्तात्रेय जी। परंतु मानव गुरु तो मानव के बहुत नजदीक होते हैं, मानव की समस्याओं व उसकी मति-गति से गुजरे हुए होते हैं और मानव की योग्यताओं को जानकर ऊँचाइयों को छुए हुए होते हैं। इसलिए मानव-समाज के लिए मानव गुरु जितने हितकारी, उपयोगी और सुलभ होते हैं, उतने सिद्ध गुरु नहीं होते और देव गुरु को तो बुलाने में कितना कुछ लगे !
परम तत्त्व को पाये हुए मानव गुरु हमारे मन की समस्याओं तथा बुद्धि की उलझनों को जानते हैं और उनके निराकरण की व्यवस्था को भी जानते हैं। यहाँ तक कि हम भी अपने मन को उतना नहीं जानते जितना मानव गुरु जानते हैं। ऐसे सदगुरु के प्रति श्रद्धा होना मानव जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि है।
देव गुरु को प्रणाम है, सिद्ध गुरु को भी प्रणाम है, मानव गुरु को बार-बार प्रणाम है। गुरु बनने से पहले गुरु के जीवन में भी कई उतार चढ़ाव तथा अनेक प्रतिकूलताएँ आयी होंगी, उनको सहते हुए भी वे साधना में रत रहे और अंत में गुरु-तत्त्व को पाने में सफल हुए। वैसे ही हम भी उनके संकेतों को पाकर उनके आदर्शों पर चलने का, ईश्वर के रास्ते पर चलने का दृढ़ संकल्प करके तदनुसार आचरण करें तो यही बढ़िया गुरु-पूजन होगा।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2015, पृष्ठ संख्या 13, अंक 270
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जीव को ब्रह्म बनाने का विश्वविद्यालय


भगवत्पाद सदगुरुदेव साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज की आज्ञा से पूज्य बापू जी ने संवत् 2028 में गुरुपूर्णिमा अर्थात् 8 जुलाई 1971 को अहमदाबाद की धरती पर चरण रखे। आश्रम स्थापना के बारे में पूज्य श्री बताते हैं- “हम वाड़ज (अहमदाबाद) में सत्संग करने के लिए आये थे। शहरी माहौल से हमारा चित्त ऊब गया था, इसलिए इधर घूमने के लिए आये थे। यहाँ आते ही हमारे चित्त में कुछ विलक्षण एहसास हुआ। हमने समितिवालों से कहा कि ‘यहाँ एक कुटिया बना दें तो कैसा रहेगा ?’
उन्होंने कहाः “बापू जी ! जरूर बननी चाहिए।” मोक्ष कुटीर बनाने के कार्य में मजदूरों के साथ हम भी लगे थे। लगभग 15 साल तो हम मोक्ष कुटीर में रहे।”
‘मौनी अमावस्या’ के दिन संवत् 2028 अर्थात् सन् 1972 में मोक्ष कुटीर तैयार हुआ था। इस आश्रम की महत्ता बताते हुए पूज्य बापू जी कहते हैं- “यहाँ पूर्वकाल में जाबल्य ऋषि ने तपस्या की थी। यहाँ पिछले 43 साल से ध्यान-भजन चल रहा है। कितना भी अशांत व्यक्ति इधर आश्रम के माहौल में आता है तो उसके चित्त में यहाँ की आध्यात्मिक आभा का, ध्यानयोग का, भक्तियोग का कुछ-न-कुछ सात्त्विक एहसास होने लगता है। इस भूमि में आत्मसुख को जगाने की आभा है।”
करीब 30-35 वर्ष पूर्व कुछ पर्यटक अहमदाबाद आश्रम में आये थे। आश्रम के एकांत और प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण वातावरण से प्रभावित हुए बिना वे नहीं रह सके। उन्होंने पूज्य बापू जी से पूछाः “यहाँ क्या प्रवृत्ति होती है ?” पूज्य श्री बोलेः “त्रिकाल संध्या होती है। ध्यान-भजन होता है।”
उन्होंने आश्चर्य से पूछाः “इतनी सुंदर जगह ! क्या यहाँ कुछ प्रवृत्ति नहीं होती ?”
तब पूज्य श्री ने कहाः “यहाँ जीव को अपने ब्रह्मस्वभाव में जगाने का विश्वविद्यालय चलता है !”
पूज्य बापू जी के कल्याणकारक मार्गदर्शन में आश्रम द्वारा लोक-कल्याण की अनेकानेक सत्प्रवृत्तियाँ चलायी जा रही हैं, जिनसे समाज के विभिन्न वर्गों के असंख्य लोग लाभान्वित हो रहे हैं। इस आश्रमरूपी विशाल वटवृक्ष की शाखाएँ भारत के शहरो-गाँवों तक ही नहीं, केवल विदेशों तक ही नहीं बल्कि करोड़ों हृदयों तक फैल चुकी हैं।
इस महान तपोभूमि, तीर्थभूमि के 43वें स्थापना दिवस के उपलक्ष्य में 20 जनवरी को अहमदाबाद आश्रम म् ‘श्री आशारामायण’ का सामूहिक पाठ, पादुका-पूजन, पूज्य श्री के दुर्लभ सत्संग, भजन-कीर्तन, प्रार्थना आदि कार्यक्रमों का आयोजन हुआ। 40-45 वर्षों से पूज्य श्री के सान्निध्य से लाभान्वित हो रहे साधकों ने अपने अनुभव बताये। सभी साधकों ने पूज्य बापू जी से करूण भाव से प्रार्थना कीः ‘हे गुरुवर ! आपके बिना सब सूना है। हम बच्चों के लिए ही सही, अब तो आश्रम जल्दी आ जाइये !’
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2015, पृष्ठ संख्या 27, अंक 266
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विश्वप्रेम की जाग्रत मूर्ति हैं सदगुरुदेव – पूज्य बापू जी


 

(गुरु पूर्णिमाः 12 जुलाई 2014)

सदगुरु-महिमा

गुरु के बिना आत्मा-परमात्मा का ज्ञान नहीं होता है। आत्मा परमात्मा का ज्ञान नहीं हुआ तो मनुष्य पशु जैसा है। खाने-पीने का ज्ञान तो कुत्ते को भी है। कीड़ी को भी पता है कि क्या खाना, क्या नहीं खाना है, किधर रहना, किधर से भाग जाना। किधर पूँछ हिलाना, किधर पूँछ दबाना यह तो कुत्ता भी जानता है लेकिन यह सब शारीरिक जीवन का ज्ञान है। जीवन जहाँ से शुरु होता है और कभी मिटता नहीं, उस जीवन का ज्ञान आत्मज्ञान है।

भगवान शिवजी ने पार्वती जी को वामदेव गुरु से मंत्रदीक्षा दिलायी, काली माता ने प्रकट होकर गदाधर पुजारी को कहा कि ‘तोतापुरी गुरु से ज्ञान लो’ और महाराष्ट्र के नामदेव महाराज को भगवान विट्ठल ने प्रकट होकर कहाः ‘विसोबा खेचर से दीक्षा लो।’ तो गुरु के ज्ञान के बिना, आत्मज्ञान के प्रकाश के बिना जीवन निर्वासनिक, निर्दुःख नहीं होता है।

सोने की लंका पा ली रावण ने लेकिन निर्वासनिक नहीं हुआ, निर्दुःख नहीं हुआ और शबरी भीलन ने केवल मतंग गुरु का सत्संग सुना और गुरुवचनों का आदर किया तो वह निर्वासनिक हो गयी। वासना ने रावण को कहीं का नहीं रखा और निर्वासनिक शबरी, राजा जनक आदि ने पूर्णता पा ली।

पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान।

शबरी भीलन आत्मरस से ऐसी पवित्र हो गयी कि भगवान राम उसके जूठे बेर खाते हैं। मीराबाई का भोग लगता तो श्रीकृष्ण खाते हैं। भगवान की भक्ति और भगवान का ज्ञान सत्संग से जैसा मिलता है, ऐसा सोने की लंका पाने से भी नहीं मिलता। व्यासपूर्णिमा, गुरुपूर्णिमा कितना दिव्य ज्ञान देती है कि हम भगवान वेदव्यास के ऋणी हैं, सदगुरु के हम आभारी हैं। जिसके जीवन में सदगुरु नहीं हैं उसका कोई सच्चा हितैषी भी नहीं है। बिना गुरु के व्यक्ति मजदूर हैं, संसार का बोझा उठा-उठा के मर जाते हैं।

कालसर्पयोग बड़ा दुःख देता है लेकिन गुरु का मानसिक पूजन व प्रदक्षिणा, गुरुध्यान, गुरुमंत्र के जप और गुरु के आदर से कालसर्पयोग का प्रभाव खत्म हो जाता है।

गुरु किसको बोलते हैं ? जो विश्वप्रेम की जाग्रत मूर्ति हैं। विश्व की किसी भी जाति का आदमी हो, किसी भी मजहब का हो सबके लिए जिनके हृदय में मंगलमय आत्मदृष्टि, अपनत्व है, वे हैं सदगुरु।

गुरुकृपा हि केवलं…..

गुरुकृपा क्या होती है ? जो संत हैं, सदगुरु हैं व मरने वाले शरीर में अनंत का दर्शन करा देंगे। जो मुर्दा शरीर है, शव है, उसमें शिव का साक्षात्कार, जो जड़ है उसमें चेतन का अनुभव करा दे उसको बोलते हैं गुरुकृपा। जैसे चन्द्रमा से चकोर तृप्ति पाता है, पानी से मछली आनंद पाती है और भगवान के दर्शन से भक्त आनंदित होते हैं, ऐसे ही सदगुरु के दर्शन से सत्संगी आनंदित, आह्लादित और ज्ञान सम्पन्न होते हैं। मेरे को अगर गुरु नहीं मिले होते तो मैंने जितनी तपस्या की उससे हजार गुना ज्यादा भी करता तो भी इतना मुझे फायदा नहीं होता जितना गुरुकृपा से हुआ। बिल्कुल सच्ची, पक्की बात है।

मैं अपने बापू जी (भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज) की बात करता हूँ। साँईं से (मन-ही-मन) बातचीत हुई। वे पूछ रहे थेः “छा खपे ?” मतलब क्या चाहिए ? मैंने कहाः “जहिं खे खपे, तहिं खे खपायो।” मतलब जिसको चाहिए उसी को खपा दो। जो अब भी चाहने वाला है तो उसी को खपाओ। बहुत हँसे, आनंदित हो रहे थे।

आध्यात्मिक ज्ञान गुरु-परम्परा से ही मिलता है। नाथ सम्प्रदाय में पुत्र पिता कि परम्परा नहीं होती है, गुरुवंश की परम्परा होती है। गोरखनाथजी मत्स्येन्द्रनाथजी के पुत्र हैं। मत्स्येन्द्रनाथजी अपने गुरु के पुत्र हैं। दैहिक पिता की परम्परा नहीं चलती, आध्यात्मिक पिता की परम्परा चलती है। आशाराम थाऊमल नहीं चलेगा, आशाराम लीलाशाह जी। लीलाशाहजी केशवानंदजी चलेंगे। केशवानंद जी और आगे चलेंगे। ऐसे करते-करते दादू दयालजी तक परम्परा जायेगी और दादू दयाल जी से आगे जायेंगे तो ब्रह्मा जी तक, और आगे जायेंगे तो विष्णु भगवान तक। विष्णु भगवान जहाँ से पैदा हुए उस ब्रह्म तक की हमारी परम्परा है, आपकी भी वही है। देखा जाये तो आपका हमारा मूल ब्रह्म ही है।

ज्ञान की परम्परा से दीये से दीया जलता है। तोतापुरी जी के शिष्य रामकृष्ण परमहंस, रामकृष्ण से ज्ञान मिला विवेकानंदजी को। ऐसे ही अष्टावक्र मुनि हो गये, उनके शिष्य थे राजा जनक और जनक से ज्ञान मिला शुकदेवजी को। उद्दालक से आत्मसाक्षात्कार हुआ श्वेतकेतु को, भगवान सूर्य से याज्ञवल्क्य को और याज्ञवल्क्य से मैत्रेयी को।

तो यह ज्ञान किताबों से नहीं मिलता, दीये से दीया जलता है। हयात महापुरुषों से ही आत्मसाक्षात्कार होता है, पुस्तक पढ़ के कोई साक्षात्कारी हो यह सम्भव नहीं है। सदगुरु के संग से बुद्धि की ग्रहणशक्ति बढ़ती है, बुराइयाँ कम होती हैं, वर्षों की थकान मिटती है।

‘वह भगवान, यह भगवान, यह मिले, वह मिले….’ अरे ! जो कभी नहीं बिछुड़ता है उस मिले मिलाये में विश्रांति सदगुरु की कृपा से ही होती है।

गुरुमंत्र का माहात्म्य

‘गुरु’ शब्द कैसा होता है पता है ?

गुरु शब्द में जो ‘ग’ कार है वह सिद्धि देने वाला है, ‘र’ कार है वह पाप को हरने वाला है और ‘उ’ कार अव्यक्त नारायण के साथ, हरि के साथ जोड़ देता है केवल गुरु बोलने से। ‘गुरु’ शब्द बहुत प्रभावशाली है और गुरुदर्शन, गुरु आशीष बहुत बहुत कल्याण करता है। भगवान का एक नाम ‘गुरु’ भी है। तो और सब ‘पूर्णिमा’ हैं लेकिन यह आषाढ़ मास की पूर्णिमा ‘गुरुपूर्णिमा’ है अर्थात् पाप, ताप, अज्ञान, अंधकार मिटानेवाली बड़ी पूर्णिमा, भगवान से मिलाने वाले पूर्णिमा और सिद्धि देने वाली पूर्णिमा है। ऐसी है गुरु पूर्णिमा। जैसे गं गं गं  जप करें तो बच्चों की पढ़ाई में सिद्धि होती है। ऐसे ही गुरु गुरु गुरु जपें तो भक्तों का मनोरथ पूरा होता है। भगवान शिवजी कहते हैं-

गुरुमंत्रो मुखे यस्य तस्य सिद्धियन्ति नान्यथा।…..

‘जिसके मुख में गुरु मंत्र है उसके सब कर्म सिद्ध होते है, दूसरे के नहीं।’ जिसके जीवन में गुरु नहीं हैं उसका कोई सच्चा हित करने वाला भी नहीं है। जिसके जीवन में गुरु हैं वह चाहे बाहर से शबरी भीलन जैसा गरीब हो फिर भी सोने की लंका वाले रावण से शबरी आगे आ गयी।

गुरुपूर्णिमा का महत्त्व

ब्राह्मणों के लिए श्रावणी पूर्णिमा, क्षत्रियों के लिए दशहरे का त्यौहार, वैश्यों के लिए दीपावली का त्यौहार तथा आम आदमी के लिए होली का त्यौहार…. लेकिन गुरुपूनम का त्यौहार तो सभी मनुष्यों के लिए, देवताओं के लिए, दैत्यों के लिए-सभी के लिए है। भगवान श्रीकृष्ण भी गुरुपूनम का त्यौहार मनाते हैं, अपने गुरु के पास जाते हैं। देवता लोग भी अपने गुरु बृहस्पति का पूजन करते हैं और दैत्य लोग अपने गुरु शुक्राचार्य का पूजन करते हैं और सभी मनुष्यों के लिए गुरुपूर्णिमा का महत्त्व है। इसको व्यासपूर्णिमा भी बोलते हैं। यह मन्वंतर का प्रथम दिन है। महाभारत का सम्पन्न दिवस और विश्व के प्रथम आर्षग्रंथ ‘ब्रह्मसूत्र’ का आरम्भ दिवस है व्यासपूर्णिमा।

एटलांटिक सभ्यता, दक्षिण अमेरिका, यूरोप, मिस्र, तिब्बत, चीन, जापान, मेसोपोटामिया आदि में भी गुरु का महत्त्व था, व्यासपूर्णिमा का ज्ञान, प्रचार-प्रसाक का लाभ उन लोगों को भी मिला है।

कितने भी तीर्थ करो, कितने भी देवी-देवताओं को मानो फिर भी किसी की पूजा रह जाती है लेकिन गुरुपूनम के दिन गुरुदेव की मन से पूजा की तो वर्षभऱ की पूर्णिमाएँ करने का व्रतफल मिलता है और सारे देवताओं व भगवानों की पूजा का फल मिल जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2014, पृष्ठ संख्या 4-6, अंक 258

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