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आत्ममहिमा में जगाने वाला पर्वःगुरूपूनम – पूज्य बापू जी


जन्म-जन्मांतर तक भटकाने वाली बुद्धि को बदलकर ऋतम्भरा प्रज्ञा बना दें, रागवाली बुद्धि को हटाकर आत्मरति वाली बुद्धि पैदा कर दें, ऐसे कोई सदगुरु मिल जायें तो वे अज्ञान का हरण करके, जन्म-मरण के बंधनों को काटकर तुम्हें स्वरूप में स्थापित कर देते हैं। आज तक तुमने दुनिया का जो कुछ भी जाना है, वह आत्मा-परमात्मा के ज्ञान के आगे दो कौड़ी का भी नहीं है। वह सब मृत्यु के एक झटके में अनजाना हो जायेगा लेकिन सदगुरु तो दिल में छुपे हुए दिलबर का ही दीदार करा देते हैं। ऐसे समर्थ सदगुरुओं की दीक्षा जब हमें मिल जाती है तो जीवन की आधी साधना तो ऐसे ही पूरी हो जाती है।

यदि तुम अज्ञान में ही मंत्र जपते जाओगे तो मंत्रजप का फल होगा तुम्हारी वासनापूर्ति और वासनापूर्ति हुई तो तुम भोग भोगोगे। समाधि से उठे तो योग कम्पित हो जाता है, भोगों में भी योग कम्पित हो जाता है लेकिन एक ऐसी अवस्था है कि भोग और योग दोनों बौने हो जाते हैं। ब्रह्मज्ञानी भोगते हुए भी अभोक्ता हैं, करते हुए भी अकर्ता हैं, खिन्न होते हुए भी खिन्न नहीं हैं, ऐसे अपने पद में पूर्ण हैं। उसी को बोलते हैं-

पूरा प्रभु आराधिया, पूरा जा का नाउ।

नानक पूरा पाइया, पूरे के गुन गाउ।।

पूरा पाइये। इन्द्र पद पूरा नहीं है, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति पद पूरा नहीं है। राष्ट्रपति पद से उतरे हुए लोगों को देखो, इन्द्र पद से उतरे हुए लोगों को भी कैसी-कैसी योनियों में भटकना पड़ता है ! ब्रह्मपद ही पूरा है !

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे न शेष।

मोह कभी न ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश।।

पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान।…..

ऐसे आत्मानुभव से तृप्त महापुरुषों की, ब्रह्मवेत्ता सदगुरुओं की पूजा का जो पावन दिन है, वही गुरुपूनम है।

गुरूपूनम का संदेश

ʹव्यासपूर्णिमाʹ का उद्देश्य है कि आपके जीवन की शैली सुव्यवस्थित हो जाय। सुख आपको गुलाम न बनाये, दुःख आपको दबोचे नहीं। मृत्यु का भय आपको सताये नहीं क्योंकि आपकी कभी मौत हो नहीं सकती। जब भी मरेगा तो मरने वाला शरीर मरेगा। तुमको मौत का बाप भी नहीं मार सकता और भगवान भी नहीं मार सकता और भगवान भी नहीं मार सकते क्योंकि भगवान का आत्मा और तुम्हारा आत्मा एक ही है। घड़े का आकाश और महाकाश एक ही है।

जो गुरु से वफादार है वह मृत्यु के समय मौत के सिर पर पैर रखकर अमरता की तरफ चला जाता है। सत्संग हमें अमर कर देता है, अमर ज्ञान देता है, अमर जीवन की खबर देता है।

गुरूपूनम का पावन संदेश

आप नहा धोकर तिलक लगा के फिर ठाकुरजी को नहलाओ, तिलक लगाओ – ऐसी व्यवस्था है, ऐसी परम्परा है ताकि आपको पता चले कि ʹजो ठाकुर जी हैं, वे मेरे आत्म-ठाकुरजी के बल से सुन्दर बनते हैं। मैं ही सौंदर्य का विधाता हूँ। देवमूर्ति, गुरुमूर्ति, गुरु-भगवान, ये भगवान…. इस मुझ भगवान से ही  उनकी सिद्धि होती है।ʹ कब तक नाक रगड़ते रहोगे ? मरने वाला शरीर आप नहीं हो, दुःखी होने वाला मन आप नहीं हो, चिंतित होने वाला चित्त आप नहीं हो। आप इन सबको जानते हो। आप जानने वाले को जान लो तो आपका दीदार करने वाला निहाल हो जायेगा। आपकी नूरानी निगाहें जिन पर पड़ेंगी, वे खुशहाल होने लगेंगे। आपको छूकर जो हवाएँ जायेंगी, वे भी लोगों को पाप-ताप से मुक्त करके सत्संगी बना देंगी। जिसको आत्मप्रीति मिलती है, वृक्षादि का भी कल्याण करने की आध्यात्मिक आभा उसके पास होती है। आप कितने महान हैं, आपको पता नहीं। आप कितने सुखस्वरूप हैं, आपको पता नहीं।

आज पक्का कर लो कि यह गुरुपूर्णिमा हमें गुरु बनाने के लिए है। विषय विकार हमें लघु बनाते हैं। ज्ञान-वैराग्य, विवेक और भगवत्प्राप्ति की ख्वाहिश हमें गुरु बना देती है। गुरु माना ऊँचे सुख का धनी, ऊँचे ज्ञान का धनी, ऊँचे-में-ऊँचे रब का धनी। ईश्वर ने आपको दास बनाने के लिए सृष्टि नहीं बनायी है। आप ईश्वर के हो, ईश्वर आपके हैं। सिकुड़-सिकुड़कर भीख मत माँगो। देवो भूत्वा देवं यजेत्। ʹदेव होकर देव का पूजन करें।ʹ

जो नानक जी के समय में नानक जी को देखते होंगे, उनको कितनी आसानी  हुई होगी ! हयात महापुरुष को देखने सुनने से आत्मज्ञान में बड़ी आसानी हो जाती है। कबीर जी, नानक जी हो गये, तब हो गये लेकिन अभी भी तो कोई हैं, हमारी आँखों के सामने हैं। उनसे कितना उत्साह मिलता है, कितना विश्वास अडिग होता है ! हमें भी हयात महापुरुष लीलाशाहजी प्रभु मिले तो हमें बड़ी आसानी हो गयी और तुम्हें भी आसानी है। फिर काहे को ढीलापन, काहे को लिहाज रखते हो ? परिस्थितियों का ज्यादा लिहाज न रखो, ज्यादा इंतजार मत करे। चल पड़ो जहाँ सदगुरु तुम्हें ले जाना चाहते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2013, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 247

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सदगुरु से क्या सीखें ?


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रसाद से)

साधक को 16 बातें अपने गुरु से जान लेनी चाहिए अथवा गुरु को अपनी ओर से कृपा करके शिष्य को समझा देनी चाहिए। इन 16 बातों का ज्ञान साधक के जीवन में होगा तो वह उन्नत रहेगा, स्वस्थ रहेगा, सुखी रहेगा, संतुष्ट रहेगा, परम पद को पाने का अधिकारी हो जायेगा।

पहली बात, गुरुजी से संयम की साधना सीख लेनी चाहिए।

ब्रह्मचर्य की साधना सीख लो। गुरु जी कहेंगे- “बेटा ! ब्रह्म में विचरण करना ब्रह्मचर्य है। शरीरों को आसक्ति से देखकर अपना वीर्य क्षय किया तो मन, बुद्धि, आयु और निर्णय दुर्बल होते हैं। दृढ़ निश्चय करके ʹ अर्यमायै नमः।ʹ का जप कर, जिससे तेरा ब्रह्मचर्य मजबूत हो। ऐसी किताबें न पढ़, ऐसी फिल्में न देख जिनसे विकार पैदा हों। ऐसे लोगों के हाथ से भोजन मत कर मत खा, जिससे तुम्हारे मन में विकार पैदा हों।”

दूसरी बात गुरु से सीख लो, अहिंसा किसे कहते हैं और हम अहिंसक कैसे बनें ?

बोलेः “मन से, वचन से और कर्म से किसी को दुःख न देना ही अहिंसा है।

ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय।

औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय।।

जो दूसरे को ठेस पहुँचने के लिए बोलता है, उसका हृदय पहले ही खराब हो जाता है। उसकी वाणी पहले की कर्कश हो जाती है। इसलिए भले ही समझने के रोकें, टोंकें, डाँटें पर मन को शीतल बनाकर, राग से नहीं, द्वेष से नहीं, मोह से नहीं। राग, द्वेष और मोह – ये तीनों चीजें आदमी को व्यवहार व परमार्थ से गिरा देती हैं। श्रीकृष्ण का कर्म रागरहित है, द्वेषरहित है, मोहरहित है। अगर मोह होता तो अपेने बेटों को ही सर्वोपरि कर देते। अपने बेटों के लक्षण ठीक नहीं थे तो ऋषियों के द्वारा शाप दिलाकर अपने से पहले उनको भेज दिया, तो मोह नहीं है। गांधारी को मोह था तो इतने बदमाश दुर्योधन को भी वज्रकाय बनाने जा रही थी।

गुरु से यह बात जान लें कि हम हिंसा न करें। शरीर से किसी को मारें-काटें नहीं, दुःख न दें। वाणी से किसी को चुभने वाले वचन न कहें और मन से किसी का अहित न सोचें।”

तीसरी बात पूछ लो कि गुरुदेव ! सुख-दुःख में समबुद्धि कैसे रहें ?

गुरुदेव कहेंगे कि “कर्म भगवान के शरणागत होकर करो। जब मैं भगवान का हूँ तो मन मेरा कैसे ? मन भी भगवान का हुआ। मैं भगवान का हूँ तो बुद्धि भी मेरी कैसे ? बुद्धि भी भगवान की हुई। अतः बुद्धि का निर्णय मेरा निर्णय नहीं है।

भगवान की शरण की महत्ता होगी तो वासना गौण हो जायेगी और नियमनिष्ठा मुख्य हो जायेगी। अगर वासना मुख्य है तो आप भगवान की शरण नहीं हैं, वासना की शरण हैं। जैसे शराबी को अंतरात्मा की प्रेरणा होगी कि ʹबेटा ! आज दारू पी ले, बारिश हो गयी है, मौसम गड़बड़ है।ʹ भगवान प्रेरणा नहीं करते, अपने संस्कार प्रेरणा करते हैं। झूठा, कपटी, बेईमान आदमी बोलेगाः ʹभगवान की प्रेरणा हुईʹ लेकिन यह बिल्कुल झूठी बात , वह अपने को ही ठगता है। ʹसमत्वं योग उच्यते।ʹ हमारे चित्त में राग न हो, द्वेष न हो और मोह न हो तो हमारे कर्म समत्व योग हो जायेंगे। श्रीकृष्ण, श्रीरामजी, राजा जनक, मेरे लीलाशाह प्रभु और भी ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों के कर्म समत्व योग हो जाते हैं। सबके लिए अहोभाववाले, गुदगुदी पैदा करने वाले, सुखद, शांतिदायी व उन्नतिकारक हो जाते हैं। ज्ञानी महापुरुष के सारे कर्म सबका मंगल करने वाले हो जाते हैं। ऐसा ज्ञान-प्रकाश आपके जी जीवन में कब आयेगा ? जब आप राग-द्वेष और मोह रहित कर्म करोगे। ईश्वर सबमें है, अतः सबका मंगल, सबका भला चाहो। कभी किसी को डाँटो या कुछ भी करो तो भलाई के लिए करो, वैर की गाँठ न बाँधो तो समता आ जायेगी।”

चौथी बात पूछ लो कि वास्तविक धर्म क्या है ?

गुरु कहेंगेः “जो सारे ब्रह्मांडों को धारण कर रहा है वह धर्म है सच्चिदानंद धर्म। जो सत् है, चेतन है, आनंदस्वरूप है, उसकी ओर चलना धर्म है। जो असत् है, जड़ है, दुःखरूप है उसकी तरफ चलना अधर्म है। आप सत् हैं, शरीर असत् है। शरीर को ʹमैंʹ मानना और ʹसदाʹ बना रहूँ – ऐसा सोचना रावण के लिए भी भारी पड़ गया था तो दूसरों की क्या बात  है ! शरीर कैसा भी मिले पर छूट जायेगा लेकिन मैं अपने-आपसे नहीं छूटता हूँ, ऐसा ज्ञान गुरुजी देंगे। तुम सत् हो, सुख-दुःख और शरीर की जन्म-मृत्यु असत् है। तुम चेतन हो, शरीर जड़ है। हाथ को पता नहीं मैं हाथ हूँ, पैर को पता नहीं मैं पैर हूँ लेकिन तुम्हें पता है यह हाथ है, यह पैर है। तुम सत् हो, तुम चेतन हो तो अपनी बुद्धि में सत्ता का, चेतनता का आदर हो और तदनुरूप अपनी बुद्धि व प्रवृत्ति हो तो आप दुःखों के सिर पर पैर रख के परमात्म-अनुभव के धनी हो जायेंगे।

गुरु से धर्म सीखो। मनमाना धर्म नहीं। कोई बोलेगाः ʹहम पटेल हैं, उमिया माता को मानना हमारा धर्म है।ʹ, ʹहम सिंधी हैं, झुलेलाल के आगे नाचना, गाना और मत्था टेकना हमारा धर्म है।ʹ

ʹहम मुसलमान हैं, अल्ला होઽઽ अकबर… करना हमारा धर्म है।ʹ यह तो मजहबी धर्म है। आपका धर्म नहीं है। लेकिन प्राणीमात्र का जो धर्म है, वह सत् है, चित् है, आनंदस्वरूप है। अपने सत् स्वभाव को, चेतन स्वभाव को, आनंद स्वभाव को महत्त्व देना। न दुःख का सोचना, न दुःखी होना, न दूसरों को दुःखी करना। न मृत्यु से डरना, न दूसरों को डराना। न अज्ञानी न बनना, न दूसरों को अज्ञान में धकेलना। यह तुम्हारा वास्तविक धर्म है, मानवमात्र का धर्म है। फिर नमाजी भले नमाज पढ़ें और हरकत नहीं, झुलेलाल वाले खूब झुलेलाल करें कोई मना नहीं लेकिन यह सार्वभौम धर्म सभी को मान लेना चाहिए, सीख लेना चाहिए कि आपका वास्तविक स्वभाव सत् है, चित् है, आनंद है। शरीर नहीं था तब भी आप थे, शरीर है तब भी आप हो और शरीर छूटने के बाद भी आप रहेंगे। शरीर को पता नहीं मैं शरीर हूँ किंतु आपको पता है। वैदिक ज्ञान किसी का पक्षपाती नहीं है, वह वास्तविक सत्य धर्म है। गुरु से सत्य धर्म सीख लो।”

क्रमशः

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2012, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 238

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पाँचवाँ प्रश्न गुरु जी से यह पूछें कि “गुरु महाराज ! कैवल्य वस्तु क्या है ?”

गुरु जी कहेंगेः “सब कुछ आ-आकर चला जाता है, फिर भी जो रहता है वह कैवल्य तत्त्व है। आज तक जो तुम्हारे पास रहा है वह कैवल्य है, अन्य कुछ नहीं रहा। सब सपने की नाईं बीत रहा है, उसको जानने वाला ʹमैंʹ – वह तुम कैवल्य हो। वह तुम्हारा शुद्ध ʹमैंʹ कैवल्य, विभु, व्याप्त है। जिसको तुम छोड़ नहीं सकते वह कैवल्य तत्त्व है और जिसको तुम रख नहीं सकते वह मिथ्या माया का पसारा है।ʹ गुरु जी ज्ञान देंगे और उसमें आप टिक जाओ।

छठा प्रश्न गुरु जी से यह पूछो कि “गुरु महाराज ! एकांत से शक्ति, सामर्थ्य एवं मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। एकांत में हम कैसे रहें ? एकांत में रहने को जाते हैं लेकिन भाग आते हैं।”

गुरुजी कहेंगे कि “भजन में आसक्ति होने पर, गुरु के वचनों में दृढ़ता होने पर, अपना दृढ़ संकल्प और दृढ़ सूझबूझ होने पर एकांत में आप रह सकोगे। मौन-मंदिर में बाहर से ताला लग जाता है तो शुरु-शुरु में लगता है कि कहाँ फँस गये ! आरम्भ में आप भले न रह सको लेकिन एक-एक दिन करके मौन मंदिर में सात दिन कैसे बीत जाते हैं, पता ही नहीं चलता। वक्त मिले तो पन्द्रह दिन क्या, पन्द्रह महीने पड़े रहें इतना सुख प्रकट होता है एकांत में ! एकांत का जो आनंद है, एकांत में जो भजन का माधुर्य है, एकांत में जो आपकी सोयी हुई शक्तियाँ और ब्रह्मसुख, ब्रह्मानंद प्रकट होता है…. मैंने चालीस दिन मौन, एकांत का फायदा उठाया और जो खजाने खुले, वे बाँटते-बाँटते 48 साल हो गये, रत्तीभर खूटता नहीं-ऐसा मिला मेरे को। एकांतवास की बड़ी भारी महिमा है ! भजन में रस आने लगे, विकारों से उपरामता होने लगे, देखना, सुनना, खाना, सोना जब कम होने लगे तब एकांत फलेगा। नहीं तो एकांत में नींद बढ़ जायेगी, तमोगुण बढ़ जायेगा।”

सातवीं बात गुरुदेव से यह जाननी चाहिए कि “गुरु महाराज ! अपरिग्रह कैसे हो ?”

गुरुजी समझायेंगेः “जितना संग्रह करते हैं अपने लिए, उतना उन वस्तुओं को सँभालने का, बचाने का तनाव रहता है और मरते समय ʹमकान का, पैसे का, इसका क्या होगा, उसका क्या होगा ?….ʹ चिंता सताती है। पानी की एक बूँद शरीर से पसार हुई, बेटा बनी और फिर ʹमेरे बेटे का क्या होगा ?…ʹ चिंता हो जाती है, नींद नहीं आती। लाखों बेटे धरती पर घूम रहे हैं उनकी चिंता नहीं है लेकिन मेरे बेटे-बेटी का क्या होगा उसकी ही चिंता है। यह कितनी बदबख्ती है !

बेटे का ठीक-ठाक करो लेकिन ऐसी ममता मत करो कि भगवान को ही भूल जायें। लाखों बेटों को भूल जाओ और अपने बेटे में ही तुम्हारी आसक्ति हो जाय तो फिर उसी के घर में आकर पशु, प्राणी, जीव-जंतु बनकर भटकना पड़ेगा।”

तो अनासक्त कैसे हों, अपरिग्रही कैसे हों ?

गुरु जी बतायेंगेः “संसार की सत्यता और वासनाओं को विवेक वैराग्य से तथा महापुरुषों के संग से काटते जाओ। उनके सत्संग से उतना आकर्षण और परिग्रह नहीं रहेगा जितना पहले था, बिल्कुल पक्की बात है !” (क्रमशः)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 27 अंक 239

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आठवीं बात गुरु महाराज से यह सीख लो कि हम हर हाल में, हर परिस्थिति में सदा संतुष्ट कैसे रहें ? संतोषी कैसे बनें ?

भगवान पर निर्भर रहने से मनुष्य संतोषी होता है। श्रीकृष्ण ने कहाः संतुष्टः सततं योगी….. त्रिभुवन में ऐसा कोई भोगी नहीं जो सदा संतुष्ट रह सके और संतोष के बराबर और कोई धन नहीं है। सारी पृथ्वी का राज्य मिल जाये, सोने की लंका मिल जाय लेकिन संतोष नहीं था तो रावण की दुर्दशा हुई। शबरी को संतोष था तो उसकी ऊँची दशा हो गयी। संतोष इतना भारी सदगुण है ! लोग सोचते हैं, ʹबराबर सेटल (सुस्थिर) हो जायें, आराम से रहें, कल को कुछ इधर-उधर हो जाये तो अपना फिक्स डिपोजिट काम करेगा।ʹ तो ईश्वर पर भरोसा नहीं है, प्रारब्ध पर भरोसा नहीं है। स्वामी रामसुखदासजी का अऩुभव है – सबसे रद्दी चीज है ʹपैसाʹ। न खाने के काम आता है, न पहनने के काम आता है, न बैठने के काम आता है और न सोने के काम आता है पर सताता जरूर है। जब उस रद्दी चीज को किसी के ऊपर कुर्बान (खर्च) करते हैं तब सोना, खाना, रहना, यश आदि मिलता है।

तो सदा संतोषी कैसे बनें ? भगवान पर निर्भर हो जाओ। शरीर का पोषण प्रारब्ध करता है, पैसा नहीं करता। पैसा होते हुए भी तुम लड्डू नहीं खा सकते क्योंकि मधुमेह (डायबिटीज) है। पैसा होते हुए भी तुम अपनी मर्सिडीज, ब्यूक आदि प्यारी, महँगी, मनचाही गाड़ियों में नहीं घूम सकते क्योंकि लकवा है। तो आप ईश्वर पर निर्भर रहो। जिस परमात्मा ने जन्मते ही हमारे लिए दूध की व्यवस्था की, वह सब कुछ छूट जायेगा तो भी हमारे लिए भरण-पोषण की व्यवस्था करेगा। नहीं भी करेगा तो शरीर मर जायेगा तब भी हम तो अमर हैं। वह अमर (आत्मा) किसी भी परिस्थिति में मर नहीं सकता, फिर चिंता किस बात की ? अमर को तो भगवान भी नहीं मार सकते हैं। अमर को भगवान क्या मारेंगे ! मरने वाले शरीर तो भगवान ने भी नहीं रखे और अमर तो भगवान का स्वरूप है, आत्मा है। आपको भगवान भी नहीं मार सकते तो बेरोजगारी क्या मार देगी ! भूख क्या मार देगी ! काल का बाप भी नहीं मार सकता। मरता है तब शरीर मरता है, आप अमर चैतन्य हैं। इस प्रकार ज्ञान की सूझबूझ से और प्रारब्ध पर, ईश्वर पर निर्भर होने से आप संतोषी बन जायेंगे। जो होगा देखा जायेगा, वाह-वाह !

नौवीं बात गुरुजी से सीख लो कि भगवान और शास्त्र में प्रीति कैसे आये ?

संत और भगवान की कृपा से संत और शास्त्र में होती है। संत और भगवान की कृपा कैसे मिले ? बोले, उनकी आज्ञा मानो। माता-पिता की आज्ञा में चलते हैं तो उनकी कृपा और सम्पत्ति मिलती है। ऐसे ही भगवान और संत की सम्पदा – शास्त्र-ज्ञान और उनका अनुभव मिलेगा।

दसवीं बात गुरुजी से सीख लो कि निद्रा-त्याग कैसे हो ?

भजन में अधिक प्रीति से तमस् अंश कम होगा। भजन के प्रभाव से निद्रा कम हो जायेगी और थकान भी नहीं होगी। जैसे गुरुपूनम के दिनों में किसी रात को हम डेढ़ बजे सोते हैं तो कभी साढ़े तीन बजे और सूरज उगने से पहले तो उठना ही है। और देखो कितनी प्रवृत्ति है ! तो क्या आपको हम थके-माँदे लगते हैं ? अर्जुन निद्राजित थे इस कारण उनका एक नाम गुड़ाकेश था। ऐसे ही उड़िया बाबा, घाटवाले बाबा भी निद्राजित थे। थोड़ा सा झोंका खा लेते थे बस। भजन में अधिक प्रीति से, अंतर्सुख मिलने से निद्रा का काम हो जाता है। सत्ययुग में लोग सोते नहीं थे। ध्यान, समाधि से हीं नींद का काम हो जाता था।

क्रमशः

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 21, 25 अंक 240

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गुरु जी से चौदहवीं बात यह जान लो कि स्त्री, पुत्र, गृह एवं सम्पत्ति भगवान को कैसे अर्पण करें ?

इनमें ममता रहेगी तो कितनी भी होशियारी छाँटे लेकिन जहाँ ममता है, मर के वहीं भटकेगा। तो इन्हें भगवान का कैसे मानें ?

वास्तव में पाँच भूतों की गहराई में भगवत्सत्ता है। सभी चीजें भगवत्सत्ता से बनी हैं, भगवत्सत्ता में ही रह रही हैं और भगवत्सत्ता में ही खेल रही हैं। इनमें केवल ममता ही है कि ʹयह मेरा बेटा है, मेरा घर है, मेरी स्त्री है।ʹ वास्तव में हमारा शरीर भी हमारा नहीं है, हमारे कहने में नहीं चलता। हम चाहते हैं बाल सफेद न हों पर हो जाते हैं, बूढ़ा न होना पड़े पर हो जाते हैं। जब शरीर ही मेरा नहीं तो ʹयह मेरी स्त्री, यह मेरा पति, यह मेरी सम्पत्ति…ʹ यह कितना सत्य है ? सब भ्रममात्र है। वास्तव में ʹभगवान मेरे हैं, मैं भगवान का हूँ।ʹ ऐसी प्रीति और समझ दोहराने से ममता की जंजीरें कटती जायेंगी, ममता का जाल कटता जायेगा। संत तुलसीदास जी ने सुंदर उपाय बताया हैः

तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार।

राग न रोष न दोष दुःख, दास भये भवपार।।

वह जन्म मरण के चक्कर से, दुःखों से पार हो जाता है।

पन्द्रहवाँ प्रश्न है कि संतों में प्रेम होने से इतना फायदा होता है तो संतों में, संत-वचनों में प्रीति कैसे हो ?

बोलेः ʹसंतों में प्रीति का एक ही उपाय है-उन्हीं की कृपा हो, ईश्वर की कृपा हो।ʹ

भगति तात अनुपम सुखमूला।

मिलई जो संत होइँ अऩुकूला।। (श्रीरामचरित. अरं. कां 15-2)

जब संत अनुकूल हों तब भक्ति मिलती है। संत अनुकूल कब होंगे ? संतों के सिद्धान्तों के अनुरूप अपने को ढालने की केवल इच्छा करने से। यदि ढाल नहीं सकते तो कोई बात नहीं, केवल इच्छा ही करो बस। बच्चा पढ़ा-लिखा थोड़े ही बाल मंदिर में आता है, केवल पढ़ने की इच्छामात्र से आता है तो आगे स्नातक हो जाता है। ऐसे ही उस इच्छामात्र से आये तो भी उसका काम बन जायेगा।

सोलहवाँ प्रश्न यह पूछो कि हम सेवा में सफल कैसे हों ?

सेवा के लिए ही सेवा करें। मन में कुछ ख्वाहिश रखकर बाहर से सेवा का स्वाँग करेंगे तो यह समाज के साथ धोखा है। जो समाज को धोखा देता है वह खुद को भी धोखा देता है। सेवा का लिबास पहनकर, सेवा का बोर्ड लगाकर अपना उल्लू सीधा करना यह काम उल्लू लोग जानते हैं। सच्चा सेवक तो सेवा को इतना महत्त्व देगा कि सेवा के रस से ही वह तृप्त रहेगा।

बोलेः ʹभगवान की कृपा से ही ईमानदारी की सेवा होती है।ʹ नहीं तो सेवा के नाम पर लोग बोलते हैं कि ʹहमारी बस सर्विस पिछले चालीस वर्षों से सतत प्रजा की सेवा में है। हमारी कम्पनी पिछले इतने सालों से सेवा कर रही है।ʹ अब सेवा की है कि सेवा के नाम पर अपने बँगले बनाये हैं, मर्सडीज लाये हैं ! अपने पुत्र-परिवार में ममता बढ़ायी फिर जन कल्याण की संस्था खुलवायी। अपनी वासनापूर्ति का नाम सेवा नहीं है। वासना-निवृत्ति हो जिस कर्म से, उसका नाम है सेवा ! अहंकार पोसने का नाम सेवा नहीं है। मनचाहा काम तो कुत्ता भी कर लेता है। आपने देखा होगा कि जब सड़क पर गाड़ी दौड़ाते हैं तो कई बार कुत्ते आपकी गाड़ी के पीछे भौंकते हुए थोड़ी दूर तक दौड़ लगा लेते हैं। यह मनचाहा काम तो कुत्ते भी खोज लेते हैं। आप मनचाहा करोगे तो आपका मन आप पर हावी हो जायेगा। यदि किसी कार्य में आपकी रूचि नहीं है, कोई कार्य आपको अच्छा नहीं लगता है लेकिन शास्त्र और सदगुरू कहते हैं कि वह करना है तो बस, बात पूरी हो गयी ! वह कार्य कर ही डालना चाहिए।

ये सोलह बातें अगर जान लीं और इन पर डट गये तो बस, हो गया काम ! (समाप्त)

स्रोतः ऋषि प्रसाद मई 2013, पृष्ठ संख्या 25,26, अंक 245

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महिमावंत दृष्टि – पूज्य बापू जी


ऋषि कहते हैं-

ʹगुरुर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः।

जो ब्रह्मा की नाईं हमारे हृदय में उच्च संस्कार भरते हैं, विष्णु की नाईं उनका पोषण करते हैं और शिवजी की नाईं हमारे कुसंस्कारों एवं जीवभाव का नाश करते हैं, वे हमारे गुरु हैं।ʹ फिर भी ऋषियों को पूर्ण संतोष नहीं हुआ, अतः उन्होंने आगे कहाः

ʹगुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मैं श्रीगुरवे नमः।।

ब्रह्मा जी ने तो सृष्टि की रचना की, विष्णु जी ने पालन-पोषण किया और शिवजी संहार करके नयी सृष्टि की व्यवस्था करते हैं लेकिन गुरुदेव तो इन सारे चक्करों से छुड़ाने वाले परब्रह्मस्वरूप हैं, ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ।ʹ

पुष्पों के इर्दगिर्द मँडराने से क्या फायदा होता है किसी भ्रमर से पूछो। जल में क्या मजा आता है किसी जलचर से पूछो। ऐसे ही संत-महापुरुषों के सान्निध्य से क्या लाभ होता है वह किसी सत्शिष्य से ही पूछो।

सम्राट के साथ राज्य करना बुरा है,

न जाने कब रुला दे।

फकीरों के साथ भीख माँगकर रहना भी अच्छा है,

न जाने कब मिला दें।।

आज दुनिया में थोड़ी बहुत मानवता, प्रसन्नता, उदारता, स्नेह, सदाचार दिखरहा है, वह ऐसे सदगुरुओं एवं सत्शिष्यों के कारण ही है।

भक्त लोग हनुमान जी से प्रार्थना करते हैं-

जय जय हनुमान गोसाईं।

कृपा करहुँ गुरुदेव की नाईं।।

यह देवताओं जैसी कृपा की याचना नहीं है, गुरुदेव जैसी कृपा करते हैं वैसी कृपा की याचना है। गुरुदेव कैसी कृपा करते हैं ? जीव शिव से एक हो जाये – ऐसी गुरुदेव की निगाहें होती हैं। आनन्दस्वरूप गुरुदेव अपने शिष्य को भी उसी आनंद का दान देना चाहते हैं जो आनंद किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा परिस्थिति से आबद्ध नहीं है, जो आनन्द कही आता जाता नहीं है।

ऐसे सदगुरुओं के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने का जो दिन है – वह गुरुपूर्णिमा, व्यासपूर्णिमा। मेहनत के बाद भी वह चीज नहीं मिलती जो ब्रह्मेवेत्ताओं के द्वारा मिलती है। यदि हम उसका कुछ-न-कुछ बदला चुकायें नहीं हो हम कृतघ्न हो जायेंगे। हम कृतघ्ना के दोष से बचें और कुछ न कुछ अभिव्यक्त करें। उनसे जो मिला है उसका बदला तो नहीं चुका सकते हैं, फिर भी कुछ न कुछ भाव अभिव्यक्त करते हैं और यह भाव अभिव्यक्त करने का जो दिन है, उसे ʹव्यासपूर्णिमाʹ कहा जाता है।

ऐसा ही कोई दिन था जब हृदय भावों से भर गया और प्रेम उमड़ पड़ा, गुरु जी के पैर पकड़कर मैंने कहाः “गुरुजी ! मुझे कुछ सेवा करने की आज्ञा दीजिये।”

गुरुजीः “सेवा करेगा ? जो कहूँगा वह करेगा ?”

मैंने कहाः “हाँ गुरुजी ! आज्ञा कीजिये, आज्ञा कीजिये।”

गुरुजीः “जो माँगू वह देगा ?”

मैंने कहाः “हाँ गुरुजी ! जरूर दूँगा।”

गुरुजी शांत हो गये। कुछ क्षणों बाद गुरु जी ने पुनः कहाः “जो माँगू वह देगा ?”

मैंने कहाः “हाँ गुरुजी !”

गुरुजीः “तू आत्मज्ञान पाकर मुक्त हो जा और दूसरों को भी मुक्त करते रहना, इतना ही दे दे।।”

सदगुरु की कितनी महिमावंत दृष्टि होती है ! हम लोगों को मन में होता है कि ʹगुरूजी शायद यह न माँग लें, वह न माँग लें….ʹ अरे, सब कुछ देने के बाद भी अगर सदगुरु तत्त्व हजम होता है तो सौदा सस्ता है। न जाने कितनी बार किन-किन चीजों के लिए हमारा सिर चला गया ! एक बार और सही।… और वे सदगुरु यह पंचभौतिक सिर नहीं लेते, तो हमारी मान्यताओं का, कल्पनाओँ का सिर ही लेते हैं ताकि हम भी परमात्मा के दिव्य आनंद का, प्रेम का, माधुर्य का अनुभव कर सकें।

गुरु जी ने नाम रखा है – ʹआशारामʹ। हम आपकी हजार हजार बातें इसी आस से मानते आये हैं, हजार हजार अँगड़ाइयाँ इसी आस से सह रहे हैं कि आप भी कभी न कभी हमारी बात मान लोगे। और मेरी बात यही है तत्त्वमसि – तुम वही हो। सदैव रहने वाला तो एक चैतन्य आत्मा ही है। वही तुम्हारा अपना-आपा है, उसी में जग जाओ। मेरी यह बात मानने के लिए तुम भी राजी हो जाओ।

बाहर से देखो तो लगेगा कि ʹआहाहा… बापू जी को कितनी मौज है ! कितनी फूलमालाएँ ! लाखों लोगों के सिर झुक रहे हैं…. हजारों हजारों मिठाइयाँ आ रही हैं…. बापूजी को तो मौज होगी !”

ना-ना… इन चीजों के लिए हम बापू जी नहीं हुए हैं, इऩ चीजों के लिए हम हिमालय का एकांत छोड़कर बस्ती में नहीं आये हैं। फिर भी तुम्हारा दिल रखने के लिए…. तुमको जो आनंद हुआ है, जो लाभ हुआ है उसकी अभिव्यक्ति तुम करते हो, जो कुछ तुम देते हो, वह देते देते तुम अपना अहं भी दे डालो इस आशा से हम तुम्हारे फल फूल आदि स्वीकार करते हैं।

तुम गुरुद्वार पर आते हो तो गुरु की बात भी तो माननी पड़ेगी। गुरु की बात यही है कि तुम्हारी जो जातपाँत है वह हमको दे दो, तुम फलाने नाम के भाई या माई हो वह दे दो और मेरे गुरुदेव का प्रसाद ʹब्रह्मभावʹ तुम ले लो। फिर देखो, तुम विश्वनियंता के साथ एकाकार होते हो कि नहीं।

जिसको सच्ची प्यास होती है वह प्याऊ खोज ही लेता है, फिर उसके लिए मजहब, मत-पंथ, वाद-सम्प्रदाय नहीं बचता है। प्यासे को पानी चाहिए। ऐसे ही यदि तुम्हें परमात्मा की प्यास है और तुम जिस मजहब, मत-पंथ में हो, उसमें यदि प्यास नहीं बुझती है तो उस बाड़े को तोड़कर किन्हीं ब्रह्मज्ञानी महापुरुष तक पहुँच जाओ। शर्त यही है कि प्यास ईमानदारीपूर्ण होनी चाहिए, ईमानदारीपूर्ण पुकार होनी चाहिए।

तुम्हें जितनी प्यास होगी, काम उतना जल्दी होगा। यदि प्यास नहीं होगी तो प्यास जगाने के लिए संतों को परिश्रम करना पड़ेगा और संतों का परिश्रम तुम्हारी प्यास जगाने में हो, इसकी अपेक्षा जगी हुई प्यास को तृप्ति प्रदान करने में हो तो काम जल्दी होगा। इसीलिए तुम अपने भीतर झाँक झाँककर अपनी प्यास जगाओ ताकि वे ज्ञानामृत पिलाने का काम जल्दी से शुरु कर दें। वक्त बीता जा रहा है। न जाने कब, कहाँ, कौन चल दे कोई पता नहीं।

तुमको शायद लगता होगा कि तुम्हारी उम्र अभी दस साल और शेष है लेकिन मुझे पता नहीं कि कल के दिन मैं जिऊँगा कि नहीं। मुझे इस देह क भरोसा नहीं है। इसलिए मैं चाहता हूँ कि इस देह के द्वारा गुरु का कार्य जितना हो जाय, अच्छा है। गुरु का प्रसाद जितना बँट जाय, अच्छा है और मैं बाँटने को तत्पर भी रहता हूँ। रात्रि को साढ़े बारह-एक बजे तक भी आप लोगों के बीच होता हूँ। सुबह तीन चार बजे भी बाहर निकलता हूँ, घूमता हूँ। तुम सोचते होगे कि ʹबापू थक गये हैंʹ ना, मैं नहीं थकता हूँ। मैं देखता हूँ कि तुम्हारे अंदर कुछ जगमगा रहा है। मैं निहारता हूँ तुम्हारे अंदर ईश्वरीय नूर झलक रहा है। उसको देखकर ही मेरी थकान उतर जाती है। फिर भी कभी थकान लगती है तो आत्मा में गोता मार लेता हूँ। फिर तुमको श्रद्धा और तत्परता से युक्त पाता हूँ तो मैं ताजा हो जाता हूँ। कभी सुबह सात बजे रात्रि के बारह बजे एक बजे तक तुम्हारे बीच होता हूँ और ताजे का ताजा दिखता हूँ… केवल इसी आशा से कि ताजे में ताजा जो परमात्मा है, जिसको कभी थकान नहीं लगती है, उस चैतन्यस्वरूप आत्मा में तुम भी जाग जाओ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2012, अंक 234, पृष्ठ संख्या 4,5

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