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सदगुरु के प्रति कृतज्ञता प्रकटाने का पर्वः गुरुपूर्णिमा


पूज्य बापू जी की ज्ञानमयी अमृतवाणी

किसी चक्र के केन्द्र में जाना हो तो व्यास का सहारा लेना पड़ता है। यह जीव अनादिकाल से माया के चक्र में घटीयंत्र (अरहट) की नाईं घूमता आया है। संसार के पहिये को जो कील है वहाँ नहीं पहुँचा तो उसका घूमना चालू ही रहता है और वहाँ पहुँचना है तो ʹव्यासʹ का सहारा लेना होगा। जैसे प्रधानमंत्री के पद पर कोई बैठता है तो वह प्रधानमंत्री है, ऐसे ही संसार के चक्र से पार करने वाले जो गुरु हैं वे ʹव्यासʹ हैं। वेदव्यासजी के प्रसाद का जो ठीक ढंग से वितरण करते हैं, उन्हें भी हम ʹव्यासʹ कहते हैं।

आषाढ़ी पूर्णिमा को ʹव्यास पूर्णिमाʹ कहा जाता है। वेदव्यासजी ने जीवों के उद्धार हेतु, छोटे से छोटे व्यक्ति का भी उत्थान कैसे हो, महान से महान विद्वान को भी लाभ कैसे हो – इसके लिए वेद का विस्तार किया। इस व्यासपूर्णिमा को ʹगुरुपूर्णिमाʹ भी कहा जाता है। ʹगुʹ माने अंधकार, ʹरूʹ माने प्रकाश। अविद्या, अंधकार में जन्मों से भटकता हुआ, माताओं के गर्भों में यात्रा करता हुआ वह जीव आत्मप्रकाश की तरफ चले इसलिए इसको ऊपर उठाने के लिए गुरुओं की जरूरत पड़ती है। अंधकार हटाकर प्रकाश की ज्योति जगमगाने वाले जो श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ आत्मरामी महापुरुष अपने-आप में तृप्त हुए हैं, समाज व्यासपूर्णिमा के दिन ऐसे महापुरुषों की पूजा आदर सत्कार करता है। उनके गुण अपने में लाने का संकल्प करता है।

बिखरी चेतना, बिखरी वृत्तियों को सुव्यवस्थित करके कथा वार्ताओं द्वारा जो सुव्यवस्था करें उनको ʹव्यासʹ कहते हैं। व्यासपीठ पर विराजने वाले को आज भी भगवान व्यास की पदवी प्रदान करते हैं। हे मेरे तारणहार गुरुदेव ! आप मेरे व्यास हो । जिनमें जिज्ञआसुओं को तत्त्वज्ञान का उपदेश देने का सामर्थ्य है वे मेरे गुरु हैं। हे सच्चिदानंदस्वरूप का दान देने वाले दाता ! आप व्यास भी हैं और मेरे गुरु भी हैं।

त्रिगुणमयी माया में रमते जीव को गुणातीत करने वाले हे मेरे गुरुदेव ! आप ही मेरे व्यास, मेरे गुरु और मेरे सदगुरु हैं। आपको हजार हजार प्रणाम हों ! धन्य हैं भगवान वेदव्यासजी, जिन्होंने जिज्ञासुओं के लिए वेद के विभाग करके कर्म, उपासना और ज्ञान के साधकों का मार्गदर्शन किया। उन व्यास के सम्मान में मनायी जाती है व्यासपूर्णिमा। ऐसी व्यासपूर्णिमा को भी प्रणाम हो जो साधकों को प्रेरणा और पुष्टि देती है।

गुरु माने भारी, बड़ा, ऊँचा। गुरु शिखर ! तिनका थोड़े से हवा के झोंके से हिलता है, पत्ते भी हिलते हैं लेकिन पहाड़ नहीं डिगता। वैसे ही संसार की तू-तू, मैं-मैं, निंदा-स्तुति, सुख-दुःख, कूड़ कपट, छैल छबीली अफवाहों में जिनका मन नहीं डिगता, ऐसे सदगुरुओं का सान्निध्य देने वाली है गुरूपूर्णिमा। ऐसे सदगुरु का हम कैसा पूजन करें ? समझ में नहीं आता फिर भी पूजन किये बिना रहा नहीं जाता।

कैसे करें मानस पूजा ?

गुरुपूनम की सुबह उठें। नहा-धोकर थोड़ा-बहुत धूप, प्राणायाम आदि करके श्रीगुरुगीता का पाठ कर लें। फिर इस प्रकार मानसिक पूजा करें-

ʹमेरे गुरुदेव ! मन ही मन, मानसिक रूप से मैं आपको सप्ततीर्थों के जल से स्नान कर रहा हूँ। मेरे नाथ ! स्वच्छ वस्त्रों से आपका चिन्मय वपु (चिन्मय शरीर) पोंछ रहा हूँ। शुद्ध वस्त्र पहनाकर मैं आपको मन से ही तिलक करता हूँ, स्वीकार कीजिये। मोगरा और गुलाब के पुष्पों की दो मालाएँ आपके वक्षस्थल में सुशोभित करता हूँ। आपने तो हृदयकमल विकसित करके उसकी सुवास हमारे हृदय तक पहुँचायी है लेकिन हम यह पुष्पों की सुवास आपके पावन तन तक पहुँचाते हैं, वह भी मन से, इसे स्वीकार कीजिये। साष्टांग दंडवत् प्रणाम करके हमारा अहं आपके श्रीचरणों में धरते हैं।

हे मेरे गुरुदेव ! आज से मेरी देह, मेरा मन, मेरा जीवन मैं आपके दैवी कार्य के निमित्त पूरा नहीं तो हर रोज 2 घंटा, 5 घंटा अर्पण करता हूँ, आप स्वीकार करना। भक्ति, निष्ठा और अपनी अऩुभूति का दान देने वाले देव ! बिना माँगे कोहिनूर का भी कोहिनूर आत्मप्रकाश देने वाले हे मेरे परम हितैषी ! आपकी जय-जयकार हो।ʹ

इस प्रकार पूजन तब तक बार-बार करते रहें जब तक आपका पूजन गुरु तक, परमात्मा तक नहीं पहुँचे। और पूजन पहुँचने का एहसास होगा, अष्टसात्त्विक भावों (स्तम्भ-खम्भे जैसा खड़ा होना, स्वेद-पसीना छूटना, रोमांच, स्वरभंग, कम्प, वैवर्ण्य-वर्ण बदलना, अश्रु-प्रलय-तल्लीन होना) में से कोई-न-कोई भाव भगवत्कृपा, गुरुकृपा से आपके हृदय में प्रकट होगा। इस प्रकार गुरुपूर्णिमा का फायदा लेने की मैं आपको सलाह देता हूँ। इसका आपको विशेष लाभ होगा, अनंत गुना लाभ होगा।

गुरुकृपा तो सबको चाहिए

बुद्धिमान मनुष्य कंगाल होना पसंद करता है, निगुरा होना नहीं। वह निर्धन होना पसंद करता है, आत्मधन का त्याग नहीं। वह निःसहाय होना पसंद करता है, गुरु की सहायता का त्याग कभी नहीं। और जिसको गुरु की सहायता मिलती है वह निःसहाय कैसे रह सकता है ! जिसके पास आत्मधन है उसको बाहर के धन की परवाह कैसी !

इन्द्र से जब उनके गुरु रूठे तभी इन्द्र निःसहाय हुए थे। जब गुरुकृपा मिली तो इन्द्र फिर सफल हुए। देवताओं को और उनके राजा को भी गुरुकृपा चाहिए। दैत्यों और दैत्यों के राजा को भी गुरुकृपा चाहिए। बुद्धिमान शिवाजी जैसों को भी गुरुकृपा चाहिए और विवेकानन्द को भी गुरुकृपा चाहिए।

भगवान कृष्ण अपने गुरु का आदर करते, उन्हें रथ में बिठाते और घोड़े खोलकर स्वयं रथ खींचते। श्रद्धाहीन निगुरे लोग क्या जानें गुरुभक्ति की महिमा, ईश्वरभक्ति की महिमा ! पाश्चात्य भोगविलास से जिनकी मति भोग के रंग से रँग गयी है, उनको क्या पता कि विवेकानंद को रामकृष्ण की करूणा-कृपा से मीरा को क्या मिला था ! वे क्या जानें समर्थ की निगाहों से शिवाजी को क्या मिला था ! वे क्या जानें लीलाशाहजी बापू की कृपा से आशाराम को क्या मिला था ! वे बेचारे क्या जानें ? दोषदर्शन करके अपने अंतःकरण की मलिनता फैलाने वाले क्या जानें महापुरुषों की कृपा-प्रसादी ! नास्तिकता और अहं से भरा दिल क्या जाने सात्त्विकता और भगवत्प्रीति की सुगंध की महिमा ! कबीर जी ने ऐसे लोगों को सुधारने का यत्न कियाः

सुन लो चतुर सुजान निगुरे नहीं रहना….

निगुरे का नहीं कहीं ठिकाना चौरासी में आना जाना।

पड़े नरक की खान निगुरे नहीं रहना….

निगुरा होता हिय का अंधा खूब करे संसार का धंधा।

क्यों करता अभिमान निगुरे नहीं रहना…

सुन लो….

और वे लोग संतों की निंदा करके पाठक संख्या या टी.आर.पी. बढ़ाना चाहते हैं, अपनी रोटी सेंकना चाहते हैं। प्रचार के साधनों की टी.आर.पी. बढ़ाकर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। ऐसे उल्लुओं को कबीरजी ने खुल्ला किया हैः

कबीरा निंदक न मिलो, पापी मिलो हजार।

एक निंदक के माथे पर, लाख पापिन को भार।।

संत तुलसीदास ने भी ऐसे कुप्रचारकों से बचने हेतु समाज को सावधान कियाः

हरि हर निंदा सुनई जो काना।

होई पाप गोघात समाना।।

हर गुरु निंदक दादुर होई।

जन्म सहस्र पाव तन सोई।।

गुरु ग्रन्थ साहब में आयाः

संत का निंदक महा हत्यारा।

संत का निंदक परमेसुरि मारा।।

संत के दोखी की पुजै न आसा।

संत का दोखी उठि चलै निरासा।।

अगर सदगुरु मिल जायें तो इस मैला बनाने वाले, वमन, विष्ठा, थूक और मूत्र बनाने वाले शरीररूपी कारखाने में परब्रह्म परमात्मा प्रकट कर सकती है सदगुरु की कृपा ! निंदक अभागे क्या जानें ? उऩ्हें तो निकोटिन जहरवाली सिगरेट अच्छी लगती है, उनको तो अनेक रोग देने वाली चाय और कॉफी अच्छी लगती है। उन्हें तो जिसमें अल्कोहल का जहर भरा है वह शराब अच्छी लगती है अथवा तो अहंकार बढ़ाने वाला जहर भरा है ऐसी खुशामद अच्छी लगती है लेकिन सदगुरु के सत्शिष्य को तो सदगुरु के दीदार अच्छे लगते हैं, सदगुरु का सत्संग अच्छा लगता है, सदगुरु का अनुभव अच्छा लगता है।

तू पचीस वर्ष नंगे पैर यात्रा कर ले, पचासों वर्ष तीर्थाटन कर ले, बारह साल शीर्षासन लगाकर उलटा लटक जा पर जब तक तू ज्ञानदाता सदगुरु की कृपा में, सदगुरु के चरणों में अपने-आपको नहीं सौंपेगा, तब तक अंहकार और अज्ञान नहीं जायेगा।

रहूगण राजा कहते हैं- “भगवन् ! आपने जगत का उद्धार करने के लिए ही यह श्रीविग्रह धारण किया है। मेरे सदगुरु ! आपके चरणों में मेरा बार-बार प्रणाम है।” धन्य है रहूगण की मति ! नंगे पैर, खुले सिर अवारा स्थिति में घूमने वाले जड़भरत को वह पूरा पहचान गया।

सत्शिष्य सदगुरु के पास आयेगा, पायेगा, मिटेगा, सदगुरुमय होगा और सैलानी आयेगा तो देखकर, जाँच पड़ताल (ऑडिट) करके चला जायेगा। विद्यार्थी दिमाग का आयेगा तो सदगुरु की बातों को एकत्र करेगा, सूचनाएँ एकत्र करके ले जायेगा, अन्य जगह उन सूचनाओं का उपयोग करके अपने को ज्ञानी सिद्ध करने के भ्रम में जियेगा। सत्शिष्य ज्ञानी सिद्ध होने के लिए नहीं, ज्ञानमय होने के लिए सदगुरु के पास आता है, रहता है और अपने पाप, ताप, अहं को मिटाकर आत्ममय हो जाता है।

पाश्चात्य देशों में देखा गया है कि समाज में जो व्यक्ति प्रसिद्ध हो गया है, जिसके द्वारा बहुजनहिताय की प्रवृत्ति हुई है उसके नाम का स्मारक (मेमोरियल) बनाते हैं, मूर्ति (स्टैचू) बनाते हैं. कालेज का खंड बनाते हैं लेकिन भारतीय ऋषियों ने काल की गति को जाना कि खंड भी देखते-देखते जीर्ण-शीर्ण हो जाता है, मेमोरियल भी भद्दा हो जाता है। जो श्रेष्ठ हैं, समाज के लिए आदरणीय हैं उन महापुरुषों की स्मृति होनी ही चाहिए ताकि समाज उनको देखकर ऊपर उठे। उऩ आदरणीय पुरुषों को किसी कमरे की दीवार के पत्थऱ में न छपवाकर साधकों के दिल में छापने की जो प्रक्रिया है वह व्यासपूर्णिमा से शुरू हुई।

साधकों के दिल में उन महापुरुषों की गरिमा और महत्त्व को जानने की प्रक्रिया का संस्कार डालने की ऋषियों ने जो आशंका की, उस दिव्य इच्छा के पीछे महापुरुषों के हृदय में केवल करूणा ही थी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2012, अंक 234, पृष्ठ संख्या 12,13

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।।गूरूपूर्णिमा।।


गुरुदेव कह रहे हैं- “हे जीव ! हे वत्स ! अब तू तेरे निज शिव-स्वभाव की ओर जा। अब तू प्रगति कर। ऊपर उठ। कब तक प्रकृति, जन्म-मृत्यु और दुःखों की गुलामी करता रहेगा !

गुरुपूर्णिमा का यह उत्सव उत्थान के लिए आयोजित किया गया है। तू विलम्ब किये बिना इस उत्सव में आकर अत्यन्त आनंदपूर्वक भाग ले। आ जा…. आ जा…. तू तेरे अपने सिंहासन पर आकर बैठ जा। साधक कोई डरपोक सियार या गरीब बकरी नहीं है, साधक तो सिंह है सिंह ! आध्यात्मिक सत्संग में उमंगपूर्वक आने वाले साधक के लिए तो गुरु का हृदय ही सिंहासन है। उस सिंहासन पर तू आरूढ़ हो। तू अपनी महिमा में आ जा। तू आ जा अपने आत्मस्वभाव में….

वत्स ! तू तेरे उत्कृष्ट जीवन में ऊपर उठता जा। प्रगति के सोपान एक के बाद एक तय करता जा। दृढ़ निश्चय कर कि अब अपना जीवन दिव्यता की तरफ लाऊँगा।”

दया के सागर, कृपासिंधु वेदव्यासजी को हम नतमस्तक होकर प्रणाम करते हैं। ब्रह्मवेत्ता सदगुरुओं को हम व्यास कहते हैं। उन्होंने मानव-जाति का परम हित करने के लिए ऐश-आराम, ऐन्द्रिक आकर्षण का, सबका त्याग करके जीवनदाता के साथ एकत्व साधा और जीवन के सभी पहलुओं को देख लिया। उन्होंने जीवन का उज्जवल पक्ष भी देखा और अंधकारमय पक्ष भी देखा। आसुरी भावों को भी देखा, सात्त्विक भावों को भी देखा और इन दोनों भावों को सत्ता देने वाले भावातीत, गुणातीत तत्त्व का भी साक्षात्कार किया। ऐसे आत्मज्ञानी महापुरुषों से लाभ लेने का पर्व, उनके और निकट जाने का पर्व है गुरूपूर्णिमा।

दूसरे उत्सव तो हम मनाते हैं किंतु गुरूपूर्णिमा का पर्व हमारे उत्कर्ष के लिए मनाता है।

गुरूदेव कहते हैं- “हे बंधु ! हे साधक ! तू कब तक संसार के गंदे खेलों को खेलता रहेगा ! कब तक इन्द्रियों की गुलामी करता रहेगा ! कब तक तू इस संसार का बोझ वहन करता रहेगा ! कब तक अपने अनमोल जीवन को मेरे तेरे के कचरे में नष्ट करता रहेगा ! जाग… जाग…. जाग… अब तो जाग…. अहंकार को लगा दे आग और निजस्वरूप में जाग… लगा दे विषय-विकारों को आग और निजस्वरूप में जाग ! लगा दे जीवत्व को आग और शिवस्वरूप में जाग !

तू अभी जहाँ है वहीं से प्रगति कर। उठ, ऊपर उठ। जैसे वायुयान पृथ्वी को छोड़कर गगन में विहार करता है, ऐसे ही तू मन से देहाध्यास छोड़कर ब्रह्मानंद के विराट गगन में प्रवेश करता जा। ऊपर उठता जा। विशालता की तरफ आगे बढ़ता जा।

अरे ! कब तक इन जंजीरों में जकड़ा रहेगा ! जंजीर लोहे की हो या ताँबे की या फिर भले सोने की हो परंतु जंजीर तो जंजीर है। स्वतन्त्रता से वंचित रखने वाली पराधीनता की बेड़ी ही है।

हे वत्स ! दीन-हीन बनकर कब तक गुलामी की जंजीरी में जकड़ता रहेगा ! गुलाम को स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता। कल्पनाओं की जंजीरें खींचने से न टूटती हो तो ॐ की शक्तिशाली गदा मारकर इन्हें तोड़ डाल। ॐ….. ॐ…..

अब तक जन्म-मरण के चक्कर को काट डाल। चौरासी लाख शीर्षासनों की परम्परा को तोड़ दे। तुझमें असीम बल है, असीम शक्ति है, अनंत वेग है, असीम सामर्थ्य है। ॐ… ॐ…. ऊपर उठता जा, आगे बढ़ता जा।”

गुरुतत्त्व की प्रेरक सत्ता में निमग्न होने वाले साधक, सत्शिष्य के अंदर गुरुवाणी का गुंजन होने लगा। अंदर से गुरुवाणी का प्रकाश प्रकट होने लगा और गुरु ने प्रेरणा दी कि ‘हे वत्स ! तू जाग…. लगा दे अपने बंधनों को आग ! निजस्वरूप में जाग ! सब चिंताओं एवं शंकाओं को छोड़ दे। इसलिए तो तुझे यह अत्यंत दुर्लभ मनुष्य जन्म मिला है।

हे वत्स ! आ जा, मेरे राज्य में प्रेमपूर्वक पधार। मेरे इस विशाल साम्राज्य में तेरा स्नेहपूर्ण स्वागत है। मोक्ष के मार्ग पर चल। मुक्ति के धाम में आ पहुँच। आ जा स्वतन्त्रता के साम्राज्य में।’

हे वत्स ! आ जा, मेरे राज्य में प्रेमपूर्वक पधार। मेरे इस विशाल साम्राज्य में तेरा स्नेहपूर्ण स्वागत है। मोक्ष के मार्ग पर चल। मुक्ति के धाम में आ पहुँच। आ जा स्वतन्त्रता के साम्राज्य में।’

यह सचमुच में पावन उत्सव है, सुहावना उत्सव है, हमारे परम कल्याण का सामर्थ्य रखने वाला उत्सव है। अन्य देवी-देवताओं का पूजन करने के बाद भी कोई पूजा बाकी रह जाती है, किंतु उन आत्मारामी महापुरुष की पूजा के बाद फिर कोई पूजा बाकी नहीं रहती।

हरिहर आदिक जगत में पूज्य देव जो कोय।

सदगुरु की पूजा किये सबकी पूजा होय।।

दुनिया भर के काम करने के बाद भी कई काम करने बाकी रहे जाते हैं। सदियों तक भी वे पूरे नहीं होते। किंतु जो ब्रह्मवेत्ता सदगुरु द्वारा बताया गया काम उत्साह से करता है, उसके सब काम पूरे हो जाते हैं। शास्त्र कहते हैं-

स्नातं तेन सर्वं तीर्थदातं तेन सर्व दानम्।

कृतं तेन सर्व यज्ञं येन क्षणं मनः ब्रह्मविचारे स्थिरं कृतम्।।

जिसने एक क्षण के लिए भी ब्रह्मवेत्ताओं के अनुभव में अपने मन को लगा दिया, उसने समस्त तीर्थों में स्नान कर लिया, सब दान दे दिये, सब यज्ञ कर लिये, सब पितरों का तर्पण कर लिया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 2,5 अंक 211

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गुरुपूर्णिमा-संदेश


(गुरुपूर्णिमाः 8 जुलाई 2009)

पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

गुरुपूर्णिमा जन्म-जन्मांतर से भटकते  हुए जीव में आचार्य के, भगवान के, शास्त्रों के वचनों से और जीव के अपने अनुभव से ज्ञान, भक्ति और योग का प्रसाद भरकर उसकी योग्यता को ऐसा कर देती है कि वह जीव फिर माता के गर्भों की पीड़ा सहने का जो दुर्गम मार्ग है, उससे बचकर परम पद का अधिकारी हो जाता है । परम पद के अधिकारी बनाने वाले वेदव्यास जी महाराज जैसे जो ब्रह्मवेत्ता गुरु हैं, उन गुरुओं को याद करके अपने चित्त को पावन करने का दिन गुरुपूनम का दिन है ।

यह तपस्या का दिन है, व्रत का दिन है । यह दिन आचार्य के मार्गदर्शन के अनुसार अपने जीवन में कुछ नया व्रत लेने का दिन है । ‘मेरे मन में ये कमियाँ हैं, मेरे व्यवहार में ये-ये कमियाँ हैं, मेरे जीवन में ये-ये कमियाँ हैं’ – इस प्रकार आत्म-विश्लेषण करके उन कमियों को निकालने के लिए हम कर सकें उस प्रकार का कोई व्रत या जप-अनुष्ठान आदि का कोई नियम लेकर आगे की यात्रा के लिए संकल्प करने का दिन है । वर्ष भर में हमने जो साधन-भजन किया और जो कुछ अनुभूतियाँ हुईं उनसे आगे बढ़ने का संकेत पाने का दिन है ।

व्यासपूर्णिमा के बाद आध्यात्मिक संस्कृति के विद्यालय खुलते हैं और नये पाठ शुरु होते हैं । जैसे गर्मियों में पृथ्वी सूख जाती है और व्यासपूर्णिमा के समय वृष्टि होती है तो पृथ्वी में नयी चेतना आती है, वृक्षों में नया जीवन आता है, ऐसे ही व्यासपूर्णिमा साधक के जीवन में नयी आध्यात्मिक चेतना, नया प्रकाश, नया आनंद और नया उल्लास लाती है तो साधक को नवीन जीवन की तरफ अग्रसर होने की प्रेरणा मिलती है । इस पर्व से प्रेरणा लेकर जीवात्मा परमात्मा तक पहुँचने का प्रयत्न कर सकता है । वेदव्यास जी महाराज ने विश्व का सर्वप्रथम आर्ष ग्रंथ ‘ब्रह्मसूत्र’ व्यासपूर्णिमा के दिन लिखना प्रारम्भ किया था । ‘महाभारत’ व्यासपूर्णिमा के दिन ही पूर्ण हुआ था और देवताओं ने इस दिन को आशीर्वाद दिये थे कि ‘आज के दिन जो साधक आचार्य-उपासना करेगा, आचार्य को संतुष्ट करके अपने आध्यात्मिक मार्ग का निर्णय कर लेगा  उसको वर्ष भर के पर्व मनाने का फल मिलेगा ।’ तब से मनुष्य यह व्यासपूर्णिमा बड़े उत्साह से मनाता आ रहा है । भारतवासी तो ठीक लेकिन ऊपर के लोकों में यक्ष, गंधर्व, किन्नर और जो योगीपुरुष रहते हैं, वे लोग भी इस उत्सव को बड़े उत्साह से मनाते हैं ।

यह लम्बी चौड़ी कहानियाँ सुनने का उत्सव नहीं है, यह तो गुरु के निकट बैठने का उत्सव है । यह कथा का उत्सव नहीं है, सारी कथाएँ जहाँ से प्रकट होकर लीन हो जाती हैं ऐसे प्रकृति से पार आनंदस्वरूप आत्मा में आने का उत्सव है । उत्सव… ‘उत्’ माने समीप और ‘सव’ माने यज्ञ । गुरुकृपा से समीप-में-समीप आनंदस्वरूप आत्मा में पहुँचने का जो यज्ञ है, उसी का नाम ‘व्यासपूर्णिमा उत्सव’ है ।

दूसरे उत्सव तो हम मनाते हैं लेकिन व्यासपूर्णिमा हमें मनाती है । जैसे माँ बच्चे को मनाती है कि ‘इधर आ जा बेटा ! अब बहुत खेल लिया, मिट्टी में मैला हो गया, गंदगी लग गयी, अब नहा-धोकर स्वच्छ हो जा और मक्खन-मिश्री खा ।’ ऐसे ही व्यासपूर्णिमा कहती है कि ‘जन्मों-जन्मों से इधर-उधर घूमते हुए जीव ! अब तू अपने राम में आ जा, अपने ज्ञान में आ जा, अपने जीवनदाता की ओर आ जा ।’ जैसे माँ वात्सल्य से बालक को मनाकर स्वच्छ करके उसे पुष्ट करती है, ऐसे ही व्यासपूर्णिमा हमें मनाकर हमारे अंतःकरण को स्वच्छ करके अमानित्व, अदंभित्व आदि सद्गुण भरके आचार्य-उपासना आदि का मार्गदर्शन देकर हमें आचार्य के अनुभव को पचाने की योग्यता प्रदान करने की कृपा करती है ।

अपने मन में कभी तूफान चलता है, कभी संदेह आता है, कभी यह आता है, कभी वह आता है…. । मन जब उद्विग्न हो, साधन-भजन से गिर गया हो अथवा कुसंग के कारण साधन-भजन छूट गया हो तो इस व्यासपूर्णिमा के महोत्सव पर साधक नया संकल्प करके फिर से चलते हैं ।

इस व्यासपूर्णिमा के बाद आत्मारामी संत, विचरण करने वाले संत एक ही जगह पर ठहरकर नये ग्रंथों का आरम्भ करते हैं । ‘ब्रह्मसूत्र’ आदि ग्रंथों का पठन-पाठन और मनन करते हैं ।

मनुष्य कभी पतन की ओर जाता है तो आसुरी स्वभाव को, द्वैत के संस्कार का, जातिवाद का, ‘मेरे-तेरे’ के कुसंस्कार का फैलावा हो जाता है । जब मानव अद्वैत ज्ञान से दूर हो जाता है तब द्वैत की दुर्गंध से समाज अंदर में अशांत होने लगता है तो उसका परिणाम क्या होता है कि बाहर झगड़े, अशांति, संकीर्णता आदि फैलने लगते हैं । लेकिन जब आत्मानुभवी आचार्यों का ज्ञान समाज में फैलता है तब एकत्व, शांति, प्रेम, उदारता, क्षमा, आर्जव, शौच आदि सद्गुण चित्त में आकर चैतन्य प्रसाद से साधक को भर देते हैं ।

मनुष्य या तो चढ़ता है या उतरता है । चढ़ना तो बहुत अच्छा है लेकिन कम-से-कम चढ़ा हुआ साधक उतरे नहीं इसलिए साधक के जीवन में कोई-न-कोई सात्त्विक नियम हो कि पतन के समय भी उसकी रक्षा करे ।

आप अपने जीवन में कुछ-न-कुछ छोटा-मोटा नियम पकड़ लीजिये । कागज पर वह नियम लिख लीजिये । मन को याद दिलाने के लिए हो सके तो गुरुपूनम के दिन आश्रम में जाकर उस नियम के कागज को बड़दादा या व्यासपीठ से छुआकर अपने पास रखें । यह आप अपने पूजा के स्थान पर भी कर सकते हैं । ऐसा कोई नियम ले लो कि ‘मैं तो भाई ! हर रोज इतना जप करूँगा, इतने प्राणायाम करूँगा, हफ्ते में कम-से-कम इतने घंटे मौन रहूँगा, अपनी क्षमता के अनुसार महीने में एक, दो या पाँच दिन ईश्वर के लिए निकालूँगा । साल में इतने दिन अज्ञातवास, एकांतवास के लिए निकालूँगा अथवा धर्म के प्रचार के निमित्त वर्ष में इतने दिन निकालूँगा । आचार्य को, गुरु को संतुष्ट करने के लिए उनके दैवी कार्य में इतना समय, शक्ति का सद्व्यय करके मैं सत्पद को पाऊँगा…. ।’

यदि इस प्रकार का कोई-न-कोई नियम व्यासपूर्णिमा के दिन कोई साधक लेता है और ब्रह्मवेत्तारूपी व्यास को अपने हृदय-सिंहासन पर जल्दी-से-जल्दी देखना चाहता है तो देवताओं का संकल्प, गुरुओं की कृपा और साधक का पुरुषार्थ मिलकर वह कार्य अवश्य ही सिद्ध होता है ।

चित्त में कभी उतार आता है, कभी चढ़ाव आता है, कभी अच्छा संग मिलता है, कभी बुरा संग मिलता है । मनुष्येतर प्राणी तो कर्मों के फल भोगने की परम्परा में प्रकृति से प्रेरित होकर घसीटे जाते हैं लेकिन परमात्मा ने मनुष्य को कुछ स्वतन्त्रता दी है । मनुष्य उन्नत भी हो सकता है और अवनत भी । उन्नति करे तो ठीक है लेकिन अवनति, पतन न हो इसलिए जीवन में कोई नियम बना ले ।

जो सत्शिष्य हैं वे आचार्य-उपासना में अपने तन-मन और जीवन को लगाकर आचार्य-तत्त्व में टिक जाते हैं । शिष्य में शिष्यत्व रहे तो शिष्य गुरु-तत्त्व का प्रसाद पाता है । गुरु में गुरुत्व हो तो गुरु शिष्यों को गुरु-तत्त्व का प्रसाद चखाते हैं । जो प्रसाद पाने के अधिकारी हैं वे साधक, शिष्य कहे जाते हैं  और आध्यात्मिक प्रसाद बाँटने का जिनमें सामर्थ्य है वे गुरु कहे जाते हैं । ऐसे सदगुरु और सत्शिष्यों की जो महफिल है वह व्यासपूर्णिमा का महोत्सव है ।

इस दिन साधक दूध, फल अथवा अल्पाहार पर रहकर ध्यान-भजन, सेवा-सुमिरन, मौन आदि का अवलम्बन लेकर अपनी छुपी हुई आंतरिक शक्तियों को जगाने का दृढ़ संकल्प करता है और ज्यों-ज्यों भीतर का प्रसाद पाता है त्यों-त्यों निर्दोष होता जाता है । यह निर्दोष होने का उत्सव है, भीतर के प्रसाद पाने का उत्सव है और फिर आगे चलकर गुरु व शिष्य, भक्त व भगवान के बीच की दूरी मिटाने का उत्सव है, जन्म-मरण के चक्कर को तोड़ फेंकने का उत्सव है, प्रकृति का जहाँ प्रभाव नहीं उस परम तत्त्व में जगने का उत्सव है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 2-4 अंक 198

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