Tag Archives: Ishwar Prapti

Self Realization

परमात्म-प्राप्ति के सोपान


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

परमात्मा अच्छे हैं… दयालु हैं…. कृपालु हैं…. वास्तव में ऐसा कहनी भी अपनी बालबुद्धि का परिचय है। परमात्मा के विषय में जो लोग शेखी बघारते हैं, वे समझो, परमात्मा को गाली ही देते हैं, लेकिन ये तोतली भाषा की मीठी गालियाँ हैं, इनसे ईश्वर को मजा आता होगा।

जैसे, कोई अपने करोड़पति पिता को बोलेः “पिता जी ! आपके पास तो बहुत सारे रुपये हैं। आप तो तीन हजार रुपये के मालिक हैं।”

पिता भी कह देता हैः “हाँ, बेटा ! ठीक है।”

ऐसे ही लोग भगवान को कह देते हैं कि ‘भगवान ! आप तो त्रिलोकीनाथ हैं। आप तो चौदह भुवनों के स्वामी हैं।’

अरे ! क्या आपको पता है कि आपके शरीर में कितने जीवाणु (बैक्टीरिया) हैं ? नहीं, ऐसे ही सृष्टिकर्ता ईश्वर को भी पता नहीं है कि कितनी सृष्टियाँ हैं मेरे में।

यहाँ कोई संदेह कर सकता है कि ‘ईश्वर तो सर्वान्तर्यामी हैं फिर भी उनको पता नहीं ?’ जैसे आप अपने पूरे शरीर को जानते हो – पैर पर चींटी चले, नाक पर मच्छर काटे और कान पर मक्खी बैठे तो आपको एक साथ अनुभव होगा कि क्रमशः होगा ? एक साथ अनुभव होगा। आप सारे शरीर में सर्वव्यापी हो फिर भी शरीर में कितने जीवाणु (बैक्टीरिया) हैं आप गिनकर नहीं बता सकते। ऐसे ही ईश्वर में कितनी सृष्टियाँ हैं, वह ईश्वर को भी पता नहीं है। जब ईश्वर को ही पता नहीं तो आपको-हमको कैसे पता चलेगा ?

कई कोट पाताल के वासी।

कई कोट जतींदर जोगी।

कई कोट ब्रह्मरस भोगी।।

कई करोड़ ब्रह्मज्ञानी हो गये। भले इस लोक में ही या अन्य लोक में। वे ब्रह्मज्ञान की चर्चा करते-करते ब्रह्मरस का पान करते हैं।

ब्रह्म परमात्मा की चर्चा हो रही है, यह भी तो ब्रह्मरस है। बिना वस्तु, बिना व्यक्ति, बिना सुविधा के भी अंदर का रस आ रहा है – यह ब्रह्मरस है, परमात्म-रस है।

विषय विकारों का जो रस होता है, वह संसार में गिराता है।  ध्यान का रस है शांत रस, जो सामर्थ्य बढ़ाता है। भगवद् रस भाव को बढ़ाता है और तत्त्वज्ञान का रस नित्य एकरस रहता है। जीवनमुक्ति रस नित्य नवीन रस है। जिसने इस रस को पाया है उसका फिर पुनर्जन्म नहीं होता है।

लोगों का भगवान उनका माना हुआ भगवान है क्योंकि लोगों को भगवत्स्वरूप का ज्ञान नहीं है।

जो भगवान सदा है, वह सर्वत्र भी है। जो सर्वत्र है, वह सबमें है। जो सबमें है वह हममें भी है। जो कभी है और कभी नहीं हैं, वे भगवान नहीं हो सकते। जो कहीं हैं और कहीं नहीं हैं, वे भगवान नहीं हो सकते हैं। भगवान के रूपविशेष हो सकते हैं।

परब्रह्म परमेश्वर तो सारे संसार में व्याप्त हैं। किसी व्यक्ति ने महात्मा से पूछाः “महाराज ! सर्वत्र भगवान हैं ?”

महात्माः “हाँ।”

व्यक्तिः “महाराज ! आप पक्का कहते हैं ?”

महात्माः “अरे, पक्का नहीं तो कच्चा है क्या ?”

व्यक्तिः “महाराज ! आपको मिले हैं ?”

महात्माः “हाँ।”

व्यक्तिः “आपको सर्वत्र दिखते हैं ?”

महात्माः “हाँ।”

व्यक्तिः “महाराज ! फिर हम लोगों को क्यों नहीं दिखते ?”

महात्माः “मुफ्त में सवाल का जवाब पूछेगा ? कुछ सेवा वगैरह भी कर, दूध तो पिला।”

वह व्यक्ति कटोरा भर कर दूध ले आया और बोलाः “लीजिये, महाराज !”

महाराज ने पूछाः “दूध में मक्खन होता है और दूध से ही घी निकलता है न ?”

व्यक्तिः “हाँ, महाराज !”

महात्माः “दूध में ही घी अथवा मक्खन व्याप्त है न ?”

व्यक्तिः “हाँ, महाराज !”

महाराज ने दूध में उँगली घुमाते हुए कहाः “झूठ बोलता है। कहाँ व्याप्त है ?”

व्यक्तिः “महाराज ! व्याप्त है लेकिन दिखता नहीं है। देखने के लिए पहले दूध को गरम करना पड़ेगा, फिर इसमें दही डालकर जमाना पड़ेगा, फिर इसे मथना पड़ेगा। उसके बाद मक्खन निकलेगा।”

महात्माः “बस, ऐसे ही परमेश्वर सर्वत्र है। पहले संयम आदि करके अपने हृदय को, अपने अंतःकरण को शुद्ध करो। फिर ध्यान करके इसमें परमात्मभाव को, ज्ञान को जमाओ। फिर आत्मविचार करके अनात्मा को छोड़ते जाओ और आत्मा को, ‘अहं ब्रह्मास्मि’ को समझते जाओ तो परमात्म-प्राप्तिरूपी मक्खन तैयार ! तब सर्वत्र व्याप्त परमेश्वर के दर्शन हो सकते हैं। दूध पीना नहीं था, केवल तुझे समझाना था। जा, दूध ले जा। जैसे दूध में मक्खन व्याप्त है, वैसे ही सर्वत्र परमेश्वर व्याप्त है।”

उस सर्वत्र व्याप्त परमेश्वर को जानने के लिए सोपान हैं-

पुराने संस्कारों के आकर्षणों को निकालना। मनुष्य को चाहिए कि अपने पुराने दोषों को निकालने का यत्न करे। पुरानी वासना के अनुसार जो मन बह रहा है उसको ईश्वर की ओर मोड़े।

गुणों का आदान करना। भगवान सर्वगुण-सम्पन्न हैं। किसी में बुद्धि की कुशलता है। किसी में बल की प्रधानता है। किसी में समता का गुण। किसी में सत्य का गुण है। किसी में स्मृति निखरी है। किसी में निर्भयता निखरी है। ये जो सारी निखारें हैं वे उस परब्रह्म परमात्मा की ही सत्ता की किरणें हैं।

अपने चित्त में गुणनिधि परमेश्वर हैं। उनका जो गुण अपने में निखरा है, उस गुण को निखारते-निखारते गुण के मूल (परमेश्वर) को धन्यवाद देना चाहिए, उन्हीमें विश्रांति पानी चाहिए। जैसे श्रीकृष्णावतार में प्रेम-गुण का निखार है, श्रीरामावतार में सत्य-गुण का विशेष निखार है, कपिलावतार में आत्मज्ञान का विशेष निखार है तथा नृसिंहावतार और परशुराम अवतार में बल के गुण का निखार है।

ऐसे ही अपने जीवन में भी किसी न किसी गुण का निखार होता ही है। किसी में श्रद्धा के गुण का निखार है, किसी में समता का निखार है तो किसी के जीवन में एक दूसरे में सुलह कराने का, शांति स्थापित करने के गुण का निखार है। श्रद्धा, शांति, प्रेम, समता, निर्भयता आदि जो भी सदगुण हैं वे सारे सदगुण सत्यस्वरूप ईश्वर के ही हैं।

अपने जीवन में भी कोई न कोई विशेष गुण आपको मिलेगा। जो कुछ विशेषता है वह उस सच्चिदानंद की विशेष किरण है। सब लोगों की विशेषता अपने में न भरो तो कोई बात नहीं लेकिन अपनी विशेषता को निखारते-निखारते आप उस गहराई में शांत हो सकते हो, जहाँ से वह विशेषता आती है। जैसे सूर्य की भिन्न-भिन्न किरणें सूर्य के ही आधार से दिखती हैं, वैसे ही समस्त गुणों का आधार है परमात्मा। उस गुणनिधान परमात्मा में ही विश्रांति मिले ऐसा प्रयास करना चाहिए एवं दूसरों की विशेषताओं का आदर करना चाहिए। जो दूसरों की विशेषताओं का आदर करना चाहिए। जो दूसरों की विशेषताओं का आदर नहीं करता उसमें मत्सर दोष आ जाता है। मात्सर्यवाला पुरुष दूसरे के गुणों को नहीं देख सकता है।

परमात्मा को जानने का तीसरा सोपान है-आत्मचिंतन करना। गुण-दोषमयी दृष्टि एवं पाप-पुण्य का मिश्रण लेकर मनुष्य शरीर बना है। उन पाप-पुण्यों के प्रभावों को मिटाने के लिए आत्मचिंतन करें।

आत्मचिंतन का मतलब क्या है ? जैसे यह पुष्पों की माला है तो ‘यह माला है, मैं माला नहीं हूँ। माला मुझे दिखती है तो मुझसे अलग है।’ ऐसे ही ‘यह हाथ है, मैं हाथ नहीं हूँ…. यह शरीर, मैं शरीर नहीं….. मैं मन नहीं…. मैं इन्द्रियाँ नहीं…’ इस प्रकार नहीं, नहीं करते-करते मन शांत हो जायेगा। शून्यमना हो जायेगा। ऐसी निःसंकल्प अवस्था आत्मचिंतन से प्राप्त होती है। आरम्भ में यह निःसंकल्प अवस्था भले एक सेकेण्ड के लिए हो फिर बढ़ाते-बढ़ाते दो सेकेण्ड की हो जायेगी। ऐसा करते-करते मन यदि भागने लगे तो ॐ का दीर्घ उच्चारण करें, ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ का जप करें अथवा श्वासोच्छ्वास की गिनती करने लगें या विशाल आकाश की ओर दृष्टि करके वृत्ति व्यापक करने से मन निःसंकल्प नारायण के सुख में स्थित होने लगेगा।

इन तीन सोपानों को पार करके मनुष्य सर्वत्र व्याप्त परमात्मा का दीदार करने में सफल हो सकता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2002, पृष्ठ संख्या 2-5, अंक 110

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

मुक्ति कैसे पायें ?


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

असमाधेरविक्षेपान्न मुमुक्षर्न चेतरः।

निश्चित्य कल्पितं पश्यन्ब्रह्मैवास्ते महाशयः।।

ʹज्ञानी पुरुष समाधिरहित होने के कारण मुमुक्षु नहीं है और विक्षेप (द्वैतभ्रम) के अभाव के कारण उसके विपरीत अर्थात् बद्ध भी नहीं है परंतु निश्चयपूर्वक इस सब जगत को कल्पित समझता हुआ ब्रह्मवत् स्थित रहता है।ʹ (अष्टावक्रगीताः 18.28)

अष्टावक्र मुनि कहते हैं कि ज्ञानी महापुरुष को न समाधि है, न विक्षेप है, न मुमुक्षा है। मुमुक्षा उसे प्राप्त होती है जिसे छूटना होता है। ज्ञानी को न छूटना है न बँधना है।

छूटने की चाह भी तो एक इच्छा है। हालाँकि धन की इच्छा, मान की इच्छा, नश्वर भोगों की इच्छा से तो भगवान की भक्ति की इच्छा अच्छी है। फिल्म देखने की इच्छा से तो भजन कीर्तन में जाने की इच्छा ठीक है लेकिन है तो इच्छा ही। फिल्म देखकर मनुष्य थोड़ा रजस-तमस का मजा लेता है तो कीर्तन करके थोड़ा सात्त्विक मजा लेता है लेकिन मजा जहाँ से आता है वहाँ तो उसकी अभी गति नहीं हुई है।

यह बात ठीक है कि अन्य इच्छाओं को मिटाने के लिए मुक्ति की इच्छा की जाये, किन्तु जब मनुष्य ऊँचा उठता है तो एक ऐसी घड़ी आती है कि मुक्ति की इच्छा भी उसे बाधक लगने लगती है। मुक्ति की इच्छा भी जब छूट जाती है तब मनुष्य परम पद पाने का मोक्ष पाने का अधिकारी बनता है।

मुक्ति की इच्छा भी तो भविष्य की इच्छा ही है और जो भविष्य में सुखी होने की इच्छा रखते हैं, भविष्य में भगवान से मिलने की इच्छा करते हैं वे तो मानों संसार की इच्छा को ही दृढ़ करते हैं। जो वर्त्तमान में ही इच्छाओं को छोड़ देते हैं, उनके हृदय में उसी समय परमात्म-प्रेम, परमात्म-रस छलकने लगता है।

मेरे गुरुदेव से किसी व्यक्ति ने प्रश्न किया किः “मुक्ति कैसे पायें ? संसार की इच्छाएँ कैसे छूटें ?”

गुरुदेव बोलेः “मान लो एक कुआँ है जिसमें काई हो जाने के कारण गंदगी हो गयी है। अब कोई पूछे कि ʹइस कुएँ का पानी तो काम नहीं आ सकता। इसको काम में कैसे लाया जाये ?ʹ

जवाब होगाः “मछलियाँ डाल दो।”

काई को तो मछलियाँ साफ कर देती हैं किन्तु धीरे-धीरे मछलियों का परिवार बढ़ जाता है। फिर कछुआ डाल दो। कछुआ धीरे मछलियों को साफ कर देगा। फिर कछुए को भी निकाल दो तो पानी निर्मल हो जायेगा।

ऐसे ही सुख लेने की इच्छाएँ हमें चंचल कर देती हैं, विक्षिप्त कर देती हैं। अतः उस विक्षेप को हटाने के लिए, चंचलता और आसक्ति को हटाने के लिए, सुख लेने की इच्छा हटाने के लिए सुख देने की इच्छा डाल दो तो संसार की विषय-विकारों रूपी काई को साफ करने में मदद मिलेगी और भीतरी सुख उभरने लगेगा।”

वैसे भी सुख लेने की इच्छा हमें वास्तव में दुःख ही देती हैं जबकि सुख देने की इच्छा से आनंद आने लगता है। सेवा लेने वाले को उतना आनंद नहीं आता जितना सेवा करने वाले को आता है। भोजन करने वाले को उतना आनंद नहीं आता, जितना भोजन कराने वाले को आता है। दान लेने वाले को उतना आनंद नहीं आता, जितना उत्साह से दान देने वाले को आता है। यह तो कईयों का अनुभव है।

सेवा करके सुखी होना यह आदर्श भोक्ता के लक्षण हैं जबकि सेवा लेकर सुखी होना यह बीमार भोक्ता के लक्षण हैं… लेकिन हैं दोनों भोक्ता ही। अभी परम शांति से वे दोनों दूर हैं। सेवा करते-करते अन्तःकरण की शुद्धि होने लगती है और उसमें लीन होने से शांति प्राप्त होती है। शांति दोषों की निवर्तक व प्रसाद की जननी है। वह परमात्मशांति ही सार है। परमात्मशांति जहाँ से प्रकट होती है उस परमात्मभाव में जाग जाना परम सार है।

फिर मनुष्य के मन में जिज्ञासा उठने लगती है कि ʹमैं कौन हूँ ? जगत क्या है ? भगवान कैसे हैं ? मुक्ति क्या है ?ʹ आदि। ऐसे प्रश्न जिसके हृदय में अपने-आप उठने लगे तो समझना चाहिए कि उसका भजन फलित हो रहा है। उसमें मोक्ष की आकांक्षा जाग उठती है। फिर साधक देखने लगता है कि ʹकौन सी इच्छा आयी ? इच्छा पूरी हुई तो क्या ?ʹ इस प्रकार उसकी सात्त्विक इच्छाएँ भी छूटने लगती हैं।

सब इच्छाओं को हटाते-हटाते अंत में मुक्ति की इच्छा आये या भगवद्-दर्शन की इच्छा आये तो उसको भी हटा दो। फिर देखो, कितनी शांति और कितना आनंद आपके हृदय में अपने-आप प्रगट होने लगता है ! फिर तो नानकजी की भाषा में आपकी ऐसी स्थिति हो जायेगी किः

भोग-जोग जाके नहीं, वैरी मीत समान।

कह नानक सुन रे मना, मुक्त ताहि ते जान।।

मलिन वासनाओं को हटाने के लिए शुद्ध वासनाओं की आवश्यकता होती है। जगत के आकर्षण और चिंतन से बचने के लिए भगवान के भजन-कीर्तन की, भगवद्-चिंतन की आवश्यकता है लेकिन जब आप वासनाओं को, इच्छाओं को महत्त्व देना बंद कर देते हो, मन से संबंध-विच्छेद कर लेते हो तो फिर शुभ वासनाओं की, शुभ इच्छाओं की भी कोई जरुरत नहीं रह जाती।

तुच्छ इच्छा वासनाओं का  प्रभाव आप पर तब तक ही रहता है जब तक आप सावधान नहीं रहते हो। आप सावधान हो गये तो फिर वासनाओं का प्रभाव भी नष्ट हो जायेगा। वासनाएँ आती हैं मन में और आप असावधान रहते हैं तो उनकी पूर्ति में लग जाते हैं। यदि आप सावधान हो गये तो आप उन्हें पूरी करने में नहीं लग जायेंगे, बल्कि थोड़ा विचार करेंगे। अतः इच्छाओं को मिटाने के लिए सतत् मन का निरीक्षण करते रहो। उसे तुच्छ विषय-विकारों की ओर जाने से रोकते रहो। जैसे पंखा घूमता है किन्तु यदि आप बटन बंद कर दें, विद्युत संपर्क काट दें तो उस पंखे का घूमना कब तक जारी रहेगा ? ऐसे ही आप मन का संबंध काट दोगे तो इच्छाएँ भी कोई प्रभाव नहीं रख सकेंगी।

आप जब मन को सत्ता देते हो तभी वासनाएँ आपको दबा देती हैं। मन को सत्ता देने से, स्वीकृति देने से ऐहिक जगत के नश्वर भोग आप पर हावी हो जाते हैं जबकि मन के द्रष्टा बनने पर आपकी जीत हो जाती है। इसीलिए अष्टावक्र मुनि कहते हैं-

ʹमहापुरुष लोग सारे जगत को कल्पित जानते हैं। उनको न समाधि है न विक्षेप है, न मुमुक्षा है न अन्य कुछ है। वे तो समस्त दृश्य जगत को निश्चित रूप से कल्पित जानकर ब्रह्म में स्थित हो जाते हैं।ʹ

यह जगत कल्पित है। जिस वक्त जैसी कल्पना होती है उस वक्त जगत वैसा ही लगता है। जिन्होंने थोड़ा सा भी सत्संग सुना है उनके मन पर दूसरे की कल्पना का अधिक प्रभाव नहीं पड़ता। …..और यदि वह अपनी कल्पना से आप पार हो जाये तो पूरे विश्व का भी उसके चित्त पर प्रभाव नहीं पड़ता है। वह ʹविश्वजितʹ कहलाता है।

ऐसा नहीं कि किसी की संस्था को देखकर कोई प्रभावित हो जाये कि हम भी ऐसी ही संस्था बनायें, किसी के सौन्दर्य को देखकर आप भी सुन्दर दिखना चाहे, किसी की गाड़ी देखकर खुद भी वैसी ही गाड़ी खरीदने की सोचने लगे। ना ना…. जैसे हर फूल अपनी जगह पर अपने ही ढंग से, सहज रूप से खिलता है, वैसे ही निर्वासनिक पद में आने पर आपसे सहज स्वाभाविक रूप से जो होगा वह बहुत अच्छा होगा। किसी के महल-बँगले, गाड़ी-वाड़ी, बगीचा देखकर वैसा ही बनाने या लेने की इच्छा हो गयी तो वह सब न मिलने पर मन में खटकेगा और मिल गया तो उतना सुख नहीं मिलेगा जितना निर्वासनिक होने पर मिलता है। उन भोगों से प्राप्त सुख तो क्षणिक होगा जबकि निर्वासनिक होने पर सुख का दरिया आपके भीतर ही लहरा उठेगा।

हकीकत में परम पद पाना कठिन नहीं है, लेकिन ये इच्छाएँ ही मनुष्य को जन्म-मरण के चक्र में घुमाती रहती हैं। हाँ, कई बार ऐसा भी होता है कि तुच्छ इच्छाओं की जगह कुछ अच्छी इच्छाएँ उठती हैं, परमात्म-प्राप्ति की भी इच्छा उठती है किन्तु है तो इच्छा ही। तुच्छ इच्छाएँ लोहे की जंजीर हैं तो ये अच्छी इच्छाएँ सोने की जंजीर हैं।ʹ अभी यहाँ ईश्वर नहीं हैं, हिमालय में जाऊँगा तब मिलेंगे….. अभी तो धन कमा लूँ फिर ʹडिपोजिटʹ रखकर पेंशन मँगाकर आराम से भजन करूँगा….ʹ यदि ऐसा सोचने लगे तो समझो आपने मुक्ति के द्वार बंद कर दिये। अतः इच्छाओं का त्याग करो।

इच्छाओं का त्याग करते-करते एक ऐसी ऊँची अवस्था आती है जहाँ समाधि की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। रोग हो तब तक औषधि की आवश्यकता पड़ती है और रोग ही न रहे तो औषधि की कोई आवश्यकता ही नहीं है। ऐसे ही जिसकी वासनाएँ पूर्णतः निर्मूल हो गयीं, जिसने निर्वासनिक पद को पा लिया उसके लिए समाधि को भी आवश्यता नहीं रह जाती।

अष्टावक्रजी महाराज इसीलिए कहते हैं- “महाशय ज्ञानी को न समाधि है न विक्षेप है, न मुमुक्षा है न अन्य कुछ। समस्त दृश्य जगत को निश्चय ही कल्पित जानकर वह ब्रह्म में स्थित हुआ है।”

इसी बात को श्री भोलेबाबा ने ʹवेदान्त छन्दावलीʹ में इस प्रकार कहा हैः

करता समाधि है नहीं, जिसमें नहीं विक्षेप है।

नहीं मोक्ष ही है चाहता, रहता सदा निर्लेप है।।

विश्व कल्पित जानकर, नहीं चित्त को भटकाय है।

संलग्न रहता ब्रह्म में, सो धीर शोभा पाय है।।

जिसका महान् आशय है, उसे ʹमहाशयʹ कहा जाता है। महान् आशय है अपने जीवन तत्त्व को जानना। जो अपने ऊपर किसी भी प्रकार की इच्छा वासनाओं की रेखा न खींचे अथवा खींची हुई रेखा को जिसने हटा दिया है, वह ʹमहाशयʹ है। ऐसा महाशय ही समस्त दृश्य जगत को कल्पनामात्र मानकर ब्रह्मस्वरूप में स्थित होता है।

हे मानव ! तू भी उठ, जाग और समस्त इच्छा वासनाओं को त्यागकर एक बार निर्वासनिक पद पाकर तो देख ! फिर मनुष्य तो क्या, समस्त यक्ष, गंधर्व, किन्नर तेरे चरणों में सिर झुकाने को तैयार हो जायेंग… देवता भी तेरे दर्शन कर अपना भाग्य बनायेंगे…. ऐसा तू महिमावान् हो जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1999, पृष्ठ संख्या 2-5, अंक 82

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

ऋषि विज्ञान की रहस्यमयी खोज


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

सृष्टि के अधिष्ठाता सच्चिदानंद  परमात्मा की सोलह कलाएँ हैं। जगत के जड़ चेतन पदार्थों तथा मानवेतर प्राणियों में उनमें से अलग-अलग कलाएँ निश्चित संख्या में विकसित होती हैं परन्तु मनुष्य में ईश्वर की संपूर्ण कलाओं को विकसित करने का सामर्थ्य होता है।

श्रीकृष्ण में समस्त सोलह कलाएँ पूर्ण रूप से विकसित थीं। श्रीरामचन्द्रजी में बारह कलाओं का विकास हुआ था। इसी प्रकार अनेक ऋषि-मुनियों में भिन्न-भिन्न संख्याओं में ईश्वरीय कलाओं का विकास हुआ था।

पत्थर तथा उसके जैसे अन्य जड़ पदार्थों में परमात्मा की एक ही अस्तित्त्वकला का विकास होता है। उसे तोड़ डालो तो उसके टुकड़े बन जाएँगे। पीस डालो तो चूर्ण हो जायेगा और उसे फूँक मारकर उड़ा दो तो वातावरण में ओझल हो जायेगा परन्तु फिर भी वह कहीं-न-कहीं रहता अवश्य है। उसका होना ही ईश्वर की  अस्तित्त्वकला है।

पेड़ पौधों में ईश्वर की दो कलाएँ होती हैं- पहली अस्तित्त्वकला तथा दूसरी ग्राह्यकला। वे पृथ्वी एवं वातावरण से अपना भोजन भी ग्रहण कर सकते हैं।

पशु-पक्षियों में उस सत्यस्वरूप परमात्मा की चार कलाएँ विकसित होती हैं- पहली अस्तित्त्वकला, दूसरी ग्राह्यकला, तीसरी स्थानान्तरणकला तथा चौथी अल्प स्मृतिकला।

पशु-पक्षी भोजन के साथ-साथ गमनागमन भी कर सकते हैं तथा उनमें थोड़ी स्मृति (यादशक्ति) भी होती है। पक्षी अपने घोंसलों को पहचान लेते हैं। गाय का बछड़ा सैंकड़ों गायों के बीच भी अपनी माँ को पहचान लेता है। कोई बछड़ा किसी दूसरी गाय का दूध पीने जाये तो वह उसे लात-सींगों से मारती है। यह ईश्वर की स्मृतिकला है परन्तु उनमें यह कला अल्पविकसित होती है।

बछड़ा जब बड़ा हो जाता है तब वह अपनी माँ को नहीं पहचानता अथवा जो कुछ महीने बछड़े को माँ से दूर रखा जाय और बाद में फिर उन्हें मिलाया जाय तो वे एक-दूसरे को नहीं पहचान पाते।

मनुष्य में पाँच कलाएँ विकसित होती हैं- अस्तित्त्वकला, ग्राह्यकला, स्थानान्तरणकला, स्मृतिकला तथा विचारकला।

मनुष्य में स्मृतिकला अधिक विकसित होती है। उसे अपने सम्बन्धों, जाति तथा वर्ण आदि की आजीवन स्मृति बनी रहती है।

मनुष्य की पाँचवीं कला है विचारकला जिसके द्वारा वह विचारने तथा जानने की क्षमता रखता है, नये-नये आविष्कार कर सकता है।

मनुष्य के अतिरिक्त अन्य सभी वस्तुएँ तथा जीव अपनी कुछ निश्चित कलाओं में बँधे हुए हैं। गाय आज से सौ वर्ष  पहले भी चार पैरों से चलती थी और आज भी चार पैरों से ही चलती हैं। पत्थर की कभी भी दूसरी कला विकसित नहीं हुई।

योनि बदल जाने के बाद कलाओं का बदलना और बात है परन्तु अपने एक जीवनकाल में ये जीव तथा वस्तुएँ अपनी निश्चित कलाओं तक ही सीमित रहते हैं।

मनुष्य का यह सौभाग्य है कि वह पाँच कलाओं से लेकर दस, पन्द्रह अथवा सम्पूर्ण सोलह कलाओं को  विकसित करत सकता है। वह छः भागवी कला बढ़ाकर भगवदीय सामर्थ्य प्राप्त कर सकता है।

दस कलाओं का विकास कर लेने पर मानव मुक्तात्मा हो जाता है। यदि योगाभ्यास बढ़ाकर और भी आगे बढ़े तो वह सोलह कलाओं तक की यात्रा कर सकता है। इसीलिए मनुष्य को सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहा जाता है।

आज के मनुष्य का यह दुर्भाग्य है कि वह अन्य जीवों की भाँति अपनी पाँच कलाओं में ही बँधकर रह जाता है। सामर्थ्य होते हुए भी आज का मानव अपने जीवन को पूर्ण विकसित नहीं कर पाता। इसका कारण है भौतिकवाद की चकाचौंध के पीछे मनुष्य का मोहित हो जाना तथा समाज में आध्यात्मिकता एवं योगविद्या का अभाव हो जाना।

हे मानव ! ईश्वर ने तुझे ईश्वर-पद तक की यात्रा करने का सामर्थ्य दिया है। अतः इस सामर्थ्य का उपयोग करके अपने जीवन-पुष्प को पूर्ण विकसित करके पूर्णता को प्राप्त कर। इसी में मानव जीवन की सार्थकता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1999, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 77

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ