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Self Realization

भगवान का अनुभव कैसे होता है ?


पूज्य बापू जी

मेरे गुरुदेव कहते कि “भगवान की कसम खा के बोलता हूँ कि तुम रोज भगवान का दर्शन करते हो लेकिन “यही है भगवान” यह नहीं जानते। महापुरुष झूठ क्यों बोलेंगे ? अब तुम मान लो तो संशय टला, विश्रांति मिली और विश्रांति मिली तो पता चला कि “यह है”। यह जरूरी नहीं कि बहुत लोग मानें तभी हुआ। सबका अपना-अपना प्रारब्ध है, अपना-अपना कार्यक्षेत्र है। आत्मा तो सबका वही का वही, जो विश्रांति पा ले, निःसंशय हो जाये उसका काम बन जाय।

संशय सबको खात है संशय सबका पीर।

संशय की फाँकी करे वह है संत फकीर।।

एक व्यक्ति ने पूछा, “बाबा जी ! भगवान का दर्शन हो जाय तो क्या होता है ? आत्मसाक्षात्कार कैसा होता है ?”

बाबा जी बोलेः “मैं पूछता हूँ कि आप रोटी खाते हो तो कैसा अनुभव होता है ?”

“बाबा जी ! स्वाद आता है, भूख मिटती है और पुष्टि मिलती है।”

“बस, ऐसे ही अंतरात्मा का संतोष होता है, तृप्ति रहती है अंदर।”

“कैसे पता चले कि हमको हो गया है ?”

“मैं पूछता हूँ कि कैसे पता चले कि मैंने खाना खा लिया है ?”

“अरे, वह तो अनुभव का विषय है।”

“तो यह भी अनुभव का विषय है।?

किन्हीं संत के पास पहुँच गया ऐसा एक फक्कड़ ब्रह्मचारी लेकिन था अर्धनास्तिक। बोलेः “महाराज ! आप सिद्धपुरुष हैं, पहले भगवान का दर्शन करा दो, फिर मैं मानूँगा कि भगवान हैं।”

संतः “भाई ! पहले तू मान, फिर धीरे-धीरे तेरी वृत्ति भगवताकार बनेगी, तभी तो अनुभव होगा !”

“नहीं, महाराज !”

“बेटा ! यह अनजाना देश है, अनमिला पिया है। अभी पिया से मिले नहीं तभी तो जन्म-मरण में भटक रहे हो। इसलिए गुरु की बात मान लो।”

बोलेः “जब लग न देखूँ अपने नैन, तब लग न मानूँ गुरु के बैन।

महाराज ! जब तक हम आँखों से नहीं देखेंगे, तब तक नहीं मानेंगे।”

महाराज ने देखा कि अब इसका ऑपरेशन ही इलाज है। महाराज जरा मस्त रहे होंगे। बोलेः “बड़ा आया “भगवान का अनुभव करा दो”, तेरे बाप के नौकर हैं ? साधु-संत के पास जाना है तो

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। (गीताः 4.34)

विधिसहित, श्रद्धा-भक्तिसहित सेवा करो।

“महाराज ! सेवा करने से भगवान मिल जाता है तो मैं क्या सेवा करूँ ?”

“सेवा क्या करेगा, कम-से-कम प्रणाम तो कर श्रद्धा से।”

“मैं दंडवत् प्रणाम करता हूँ।”

लम्बा पड़ गया। महाराज भी थे मौजी, कस के मार दिया घूँसा पीठ पर।

“आह ! यह क्या कर दिया महाराज ! क्या भगवान का दर्शन ऐसे होता है ?”

“क्या हुआ ?”

“बहुत दुःख रहा है । !

“अच्छा, देखें कहाँ दुःखता है ?”

“क्या महाराज ! यह आँखों से दिखेगा ?”

“अच्छा, ठीक है तो हम सूँघ के देखें ?”

“सूँघने से नहीं पता चलेगा।”

“चख के देखें ?”

“चख के भी नहीं पता चलेगा।”

“जब तक दिखे नहीं, सूँघने में आये नहीं, अनुभव में आये नहीं तो मैं कैसे मानूँ कि तेरे को पीड़ा है ?”

“महाराज ! लगी हो तो आपको पता चले। यह तो अनुभव का विषय है।”

“जब एक घूँसे की पीड़ा भी अनुभव का विषय है या भोजन का स्वाद भी अनुभव का विषय है तो परमात्मस्वाद भी अनुभव का विषय है बेटा !”

“तो उसका अनुभव कैसे हो बाबा ?”

“भगवान की सत्ता, चेतनता बुद्धिपूर्वक समझ में आ जाती है, भगवान की आनंदता का अनुभव करना पड़ता है। विषय विकारों की इच्छा होती है और इच्छापूर्ति होने पर इच्छा हट जाती है एवं दूसरी उभर जाती है। पहली इच्छा हटते ही जो सुख की झलक आती है, जो आनंद मिलता है वह सुखाभास है। जब सुखाभास है तो सुख भी है, प्रतिबिम्ब भी है तो बिम्ब भी है।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2017, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 293

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भगवत्प्राप्ति का मूल


संत एकनाथ जी

हे ॐकारस्वरूप, सहज आत्मस्वरूप देव ! तुम्हें नमस्कार है ! तुम विश्वात्मा होते हुए चतुर्भुज हो। अष्टभुज भी तुम्हीं हो और विश्वभुज अर्थात् अनंतभुज भी तुम्हीं हो। तुम्हारा मैं गुरुत्व से ही गौरव (आदर-सम्मान) करता हूँ। अपने शिष्यों के भाव-अर्थ गुरु के नाम से अभय देने वाले तुम्हीं हो। अभय देकर संसार-दुःख का निवारण करने वाले तुम्हीं हो। जन्म-मरण का निवारण करने वाले तुम्हीं हो। जन्म-मरण का निवारण कर तुम स्वयं, स्वयं से ही मिलन करते हो। अतः गुरु और शिष्य इन नामों से तुम्हारा ऐक्य (एकता) मालूम होने लगता है। यह एकता दृष्टि को दिखाई पड़ते ही एकनाथ और जनार्दन (संत एकनाथ जी के सदगुरु) – ये एकरूप ही हो जाते हैं। सारी सृष्टि गुरुत्व से भरकर सारा संसार ‘स्व’ आनंद से विचरने लगता है। ऐसा वह स्वानंद-ऐक्य चिद्घनस्वरूप जगदगुरु जनार्दन है। उन जनार्दन की शरण जाकर एकनाथ ने अपनी एकता दृढ़ की। यह दृढ़ हुआ ऐक्य भी सदगुरु ही बन गया। तब एकनाथ और जनार्दन एक हो जाने के कारण ‘मैं’ पन – ‘तू’ पन समाप्त हो गया। इस प्रकार अकेले एक होते हुए भी एकनाथ को जनार्दन ने कवि  बना दिया। तब उसे एकादश (श्रीमद्भागवत के 11वें स्कंध) के गहरे एकत्व का सहज ही बोध हो गया। उसी एकता की सच्ची राजा पुरुरवा को भी प्राप्त हो गयी थी और सत्संग से उसका यह अनुताप (भगवद्-विरह से तपन), विरक्ति और भगवद्भक्ति दृढ़ हो गयी। यह बात 26वें अध्याय में श्रीकृष्ण ने अपने ही मुख से बतायी।

श्रीकृष्ण ने कहाः ‘सत्संग से भगवद्भक्ति होती है और उससे साधकों को पूर्ण वैराग्य प्राप्त होता है (सत्संग से भगवत्स्वरूप महापुरुष एवं भगवद्भक्तों की संगति तथा साधन-भजन सेवा में रूचि प्राप्त होती है। और भगवद्-रस के प्रभाव से संसार रस फीका होकर सहज में पूर्ण वैराग्य प्राप्त होता है।) भगवद्भक्ति किये बिना विरक्ति कभी उत्पन्न नहीं होगी और विरक्ति के बिना भगवद्भक्ति कल्पांत ( कल्प का अंत। 1 कल्प=ब्रह्मा जी का 1 दिन = 4 अरब 32 करोड़ मानवीय वर्ष) में भी नहीं होगी।’ श्रीमद् एकनाथी भागवत, अध्याय 27 से

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2017, पृष्ठ संख्या 15 अंक 292

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साईँ श्री लीलाशाह जी की अमृतवाणी


मोक्ष का कारणः शुद्ध मन

गुप्त रूप से रहो। दिखावा बिल्कुल न करो। प्रत्येक बात पर संयम रखो। शुद्ध मन में आत्मा का प्रकाश होता है, न कि अशुद्ध मन में। अशुद्ध मन बंधन का कारण है और शुद्ध मन मोक्ष का।

आत्मा को समझने के लिए स्वयं को शरीर न समझो। शरीरभाव समाप्त करो, आत्मभाव रखो। शरीर न सुंदररूप है और न आनंदरूप। प्रत्येक व्यक्ति आनंद के लिए दौड़ रहा है जबकि स्वयं आनंदस्वरूप है।

मन का संयम

मन पर पूर्ण संयम होना चाहिए। बुरे संकल्पों से अलग रहना चाहिए, नहीं तो बड़ी खराबी होगी। किसी बुरे विचार को बार-बार न विचारना चाहिए, उसकी याद ही मिटा देनी चाहिए। मन की दौड़ बाहर की ओर न हो तो समझो कि तुम्हारे अभ्यास का मन पर प्रभाव पड़ा है। जैसे समुद्र में जहाज पर कोई पक्षी बैठा हो तो वह उड़कर  कहाँ जायेगा ? उड़ते-उड़ते इधर-उधर घूम फिर के थककर आ के जहाज पर शांत बैठेगा। वैसे ही मन भी भले ही दौड़े, स्वयं ही थककर आ के एक आत्मा में स्थिर होगा।

मन से, कर्म से, वचन से छल छोड़ देना अन्यथा करोड़ों उपचार करने से भी सच्चा सुख, स्थायी सुख नहीं मिलता।

करम वचन मन छाड़ि छलु जब लगि जनु न तुम्हार।

तब लगि सुखु सपनेहुँ नहीं किएँ कोटि उपचार।। (रामायण)

वास्तव में हर व्यक्ति का मूल स्वरूप सच्चिदानंद ब्रह्म-परमात्मा है। जैसे तरंग, बुलबुले का मूल स्वरूप पानी है, वैसे ही तुम्हारा मूल स्वरूप सच्चिदानंद परमात्मा है। अपने परमात्म-स्वभाव की स्मृति जगाओ। तुम साक्षी हो, चैतन्य हो, नित्य हो। आकर्षण-विकर्षण, विकारों में मन को भटकने मत दो। ॐ ॐ आनंद…. ॐ शांति…. ॐ माधुर्य… ॐ सोऽहम्…..’अरे मन ! मैं वही चैतन्य हूँ जिससे तू स्फुरित होकर भटकता है। संसारी आकर्षण और फरियाद छोड़कर मुझ चिद्घन चैतन्य से एकाकार हो जा। जड़-चेतन, जीव और जगत सभी राममय है और राम-ब्रह्म परमार्थरूप में सर्वरूप है, उसको समझ और सर्वरूप हो जा।’ वास्तव में हर तरंग और बुलबुला पानी है, ऐसे ही हर जीव ब्रह्मस्वरूप साक्षी है, चैतन्य है। उस चैतन्य ब्रह्मस्वभाव को पाना कठिन नहीं है लेकिन जिनको कठिन नहीं लगता ऐसे सत्पुरुषों का मिलना कठिन है। जो ईश्वर को अपने से दूर नहीं मानते, दुर्लभ, परे या पराया नहीं मानते अपितु अपना आत्मा जानते हैं, उनका सत्संग-सान्निध्य पाओ और उनके अनुभवों का आदर करो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2017, पृष्ठ संख्या 13 अंक 289

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