तोतापुरी महाराज समुद्र की बालू में दोपहर तक लेटे रहते और
धूनी भी जगाते थे । उनके शरीर में पित्तदोष बढ़ गया, इससे उनका
स्वभाव गुस्सेवाला हो गया था । एक बार रामकृष्णदेव को पता चला कि
पौष मास की कड़कड़ाती ठंडी में गुरुजी फलानी जगह पर आये हैं ।
रामकृष्णदेव अपने गुरु की महिमा, प्रभाव जानते थे क्योंकि वे माँ काली
की उपासना से, प्रीति से सुसम्पन्न हृदय के धनी थे । वे गुरु जी की
सेवा में पहुँच गये । रात का समय था । गुरु-शिष्य के बीच सात्तिवक
वार्तालाप और सत्संग चल पड़ा । सुख-दुःख में समता का महत्त्व, सर्वं
कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते… सारे शुभ कर्मों का फल यह है कि
अपने आत्मा-परमात्मा के ज्ञान में जीवन धन्य हो जाय… आदि विषयों
पर गुरु-शिष्य की चर्चा चलते-चलते प्रभात हो चला ।
इतने में एक हुक्केबाज नशेड़ी आया । बोलाः “बाबा ! थोड़ी-सी
अग्नि चाहिए, तुम्हारी धूनी से एक कोयला ले लूँ ?”
बाबा ने देखा कि यह तो हुक्केबाज है, बोलेः “अग्नि नहीं है ।”
“बाबा ! आप सहमति दो तो मैं एक कोयला ढूँढ लूँ ?”
बाबा ने सोचा होगाः ‘लातों के भूतों को बातो से मनाने में समय
गँवाना ठीक नहीं है ।’
बाबा ने लाल आँखें दिखायीं और चिल्लाये । वह तो दौड़ा, बाबा जी
भी चिमटा हाथ में ले के उसके पीछे दौड़े ।
“तू ठहर, तेरे को देखता हूँ, ठहर तू….!’
वह आगे और बाबा जी पीछे । दे धमाधम…! धमाधम…!! उसको
दूर भगा के आये तो रामकृष्ण हँसने लगे । कोई क्रुद्ध हो और उस पर
आप उसी समय हँसो तो क्रुद्ध व्यक्ति का क्रोध कहीं भी बरस सकता
है ।
तोतापुरी गुरु ने गुस्से-गुस्से में रामकृष्ण को 3 चिमटे दे मारे ।
3 चिमटे परीक्षा के लिए नहीं, गुस्से में आ के मार दिये ।
रामकृष्ण की उपासना थी भावप्रधान, प्रसन्नताप्रधान ! वे हँसेः “गुरुदेव !
आज जो प्रसाद मुझे मिला है ऐसा किसी को नहीं मिला होगा । आपकी
बड़ी कृपा है, आपने मेरे को अपना माना ।” ऐसा करके गुरुदेव के चरणों
में पड़ गये और उऩकी महिमा गयी ।
तो गुरु तोतापुरी जी को हुआ कि ‘अरे, मैंने कोध के आवेग में
आकर इसको मारा और यह मेरे में सद्गुण देखता है !’ तुरंत अपने
साक्षी स्वभाव में, अष्टधा प्रकृति से परे स्वभाव में सजग हो गये ।
प्रेमिल व्यक्ति गुस्से के प्रसंग को भी प्रेम में बदल देता है परंतु
दुर्वासा ऋषि आदि गुस्सा करते थे तो छोटे हो गये और अन्य बड़े हो
गये ऐसा नहीं है । पित्तवाले व्यक्ति को गुस्सा आ ही जाता ह । वात-
पित्त-कफ, गुण-दोष सब अष्टधा प्रकृति में हैं, तुम्हारे शुद्ध स्वरूप में
कुछ भी नहीं है । न पित्त है, न काम है, न क्रोध है, न भय है, न जन्म
है, न मृत्यु है । असलियत में तुम अखंड आनंदस्वरूप, सच्चिदानंद हो !
तुम ऐसे संकल्प करो कि अपने असली रूप को जानने में सहयोगी हों ।
अपने आपको जानो फिर तो तुम्हारा मौत से कोई लेना-देना ही नहीं,
शरीर चाहे हजार वर्ष जिये, चाहे हजार सेकंड जिये, चाहे 2 सेकंड में
चला जाय ।
जन्म मृत्यु मेरा धर्म नहीं है… यह अष्टधा प्रकृति का है । पाप
पुण्य कछु कर्म नहीं है… यह कर्ता का है, अहंकार का है ।
मैं अज निर्लेपी रूप, कोई कोई जाने रे ।।
बोलेः “मेरे में क्रोध की आदत है ।”
आपमें नहीं है क्रोध की आदत, अष्टधा प्रकृति में है । आप जब
अपनी महिमा को भूलते हैं, अष्टधा प्रकृति से जुड़ते हैं तो उसका दोष
अपने में मानकर व्यवहारकाल में बोल देते हो । वरना तो आप चैतन्य
हैं, अमर हैं, शाश्वत हैं । आपमें कोई दोष या कोई दुःख हो ही नहीं
सकता, व्यवहार में तो ज्ञानवानों को भी बोलना पड़ता है, ‘मेरे मैं है’ ।
तोतापुरी जी ने लम्बा श्वास लिया और दृढ संकल्प किया कि
‘आज के बाद इस क्रोध को फटकने नहीं दूँगा ।’ और उऩके इस दृढ़
संकल्प ने जीवनभर क्रोध को पास में फटकने नहीं दिया ।
दोष अष्टधा प्रकृति में है और निर्दोष होने का सामर्थ्य तुम्हारे
आत्मदेव में है । यदि व्यक्ति संकल्प करके दृढ़ निश्चय करे कि ‘चाहे
कुछ भी हो जाय मुझे क्रोध नहीं करना है… या अमुक दुर्गुण के वशीभूत
नहीं होना है’ तो क्रोध या उस दुर्गुण से बच सकता है । संकल्प में बड़ी
शक्ति होती है । बस, संकल्प शिथिल नहीं होना चाहिए । तुम ठान लो
असम्भव भी सम्भव हो जायेगा ।
वो कौन सा उकदा है जो हो नहीं सकता ?
तेरा जी न चाहे तो हो नहीं सकता ।।
छोटा सा कीड़ा पत्थर में घर करे ।
इंसान क्या दिले-दिलबर में घर न करे ?
तुम दिलवाले हो । दिल का देवता तुम्हारा सजग है । तो बहादुरों
के बहादुर हैं तोतापुरी महाराज ! ठान लिया कि ‘क्रोध भड़के तो सावधान
रहूँगा, अब यह क्रोध नहीं होगा ।’
मन को वश करने की कुंजी
ऐसे मैं अपनी बात बताता हूँ । सींगदाना (मूँगफली) में विटामिन ई
होता है और नमकीन सींगदाना स्वादिष्ट भी होता है तो मैंने सेवक को
कहा कि अगर नमकीन सींगदाने आये हों तो ले के आना । मैंने अपने
लिए कोई चीज खरीद के खायी हो ऐसा मेरे को याद नहीं है । सहज में
आता है तो कहता हूँ- “ले आओ ।” थोड़ा नमकीन सींगदाना ले आया ।
वह पड़ा रहा, पड़ा रहा… । मन ने कहाः ‘खा लो ।’
मैंने कहाः ‘तू खा के देख ! उठा के तो देख !’ दम मार दिया !
ऐसा चुप हो गया कि कई दिनों, कई सप्ताह तक पड़ा रहा । मेरे को
हुआ, ‘बस ! अब आ गयी कुंजी हाथ में ! कोई भी गड़बड़ संकल्प होगा
तो मन को कहूँगाः ‘करके तो देख !…’ दम मारूँगा मैं ।’ दम मारा तो
फिर दम सफल भी होना चाहिए और होता ही है । दृढ़ निश्चय से करो
तो हो ही जायेगा ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 24, 25 अंक
357
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ