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Prerak Prasang

किनकी शरण श्रेष्ठ है ? – पूज्य बापू जी


योगः कर्मसु कौशलम् । कर्म में कुशलता क्या है ? काजल की कोठरी में जायें और कालिमा न लगे यह कुशलता है । संसार में रहें और संसार का लेप न लगे यह कुशलता है ।

एक महात्मा थे । बीच शहर में उनका मठ था । मठ द्वारा सामाजिक उन्नति की बहुत सारी प्रवृत्तियाँ होती थीं । उन महापुरुष ने बच्चों, युवक-युवतियों, ब्रह्मचारियों, गृहस्थों आदि सभी की उन्नति के लिए, मनुष्यमात्र की उन्नति के लिए बहुत सारे सेवा के विभाग खोल रखे थे ।

एक साधक उनके पास गया, बोलाः ″बाबा जी ! मैं आपके चरणों में आया हूँ । मुझे भगवत्प्राप्ति का उपदेश दीजिये । मुझे शांति का प्रसाद मिल जाय, दुःख-सुख के थपेड़ों से छूट जाऊँ ऐसा कुछ उपाय बता दीजिये । मुझे अपना शिष्य बनाइये नाथ ! मैं आपकी शरण में आया हूँ ।″

महाराज ने कहाः ″देख बेटा ! तेरी श्रद्धा है, यौवन है, तू कुछ कर सकता है तो मेरे जैसे के पास तू मत टिक । देख, मैं तो संसार में डूबा हूँ । चाँदी की थाली में शिष्य भोजन लाते हैं वह खाता हूँ, गाड़ी-मोटरों में घूमता हूँ और बड़ी-बड़ी प्रवृत्तियाँ करता हूँ, दिन-रात उसी में लगा हूँ । दिन को तो लोक-सम्पर्क रहता है लेकिन प्रभात को ध्यान करने के बाद सोचता हूँ कि ‘आज यह-यह करना है, ऐसा-ऐसा करना है ।’ रात को भी सोच लेता हूँ कि ‘ क्या-क्या ठीक हुआ, क्या बेठीक हुआ ?’ मैं तो प्रवृत्ति में, कर्मों में डूबा हुआ हूँ बेटा ! मैं तो रागियों के बीच जी रहा हूँ और राग से भरा हुआ हूँ । जा किसी वैरागी महात्मा के पास । यहाँ से 8 कोस दूर फलाने इलाके में जायेगा तो एक शांत वातावरण में नदी-किनारे एक झोंपड़ी है, वहाँ तुझे एक अलमस्त संत मिलेंगे । उनका शिष्य हो जा, तेरा काम बन जायेगा ।″

जहाँ का पता बताया था वहाँ वह साधक पहुँचा तो देखा कि कोई झोंपड़ी है और एक अलमस्त संत चिथड़ों में पड़े हैं । कपड़े फटे-पुराने हैं, झोंपड़ा तो ऐसा-वैसा है किंतु दृष्टि में सौम्यता है, शांति है, हृदय किसी रस से रसीला हो रहा है । साधक ने महात्मा को दूर से दंडवत् प्रणाम किया और नजदीक जाकर अपने हृदय की माँग सुना दी कि ″महाराज ! मैं फलानी-फलानी इच्छा से फलाने महापुरुष के पास गया था तो उन्होंने आपका नाम बताया ।″ उन्होंने कहा कि ″मैं तो प्रवृत्ति में, कर्मों में डूबा हूँ । ये जंगल में रहने वाले महात्मा विरक्त हैं, एकांत में रहते हैं, भगवद्भजन करते हैं, तू उनके पास जा ।″

महात्मा बोलेः ″अच्छा-अच्छा, फलाने स्वामी जी ने तुमको भेजा है । भैया ! मैं विरक्त तो दिखता हूँ, कर्मों को छोड़कर एकांत में भजन करता हूँ, थोड़ा बहुत लाभ तो हुआ है मुझे परंतु उनको तो परम लाभ हुआ है । वे तो संसाररूपी कीचड़ में रहते हुए भी उससे न्यारे हैं, काजल की कोठरी में रहते हुए उनको दाग नहीं लग रहा है । मैं तो दाग से भयभीत होकर यहाँ आया हूँ, मैं तो थोड़ा सा पलायनवादी और थोड़ा-सा साधक हूँ पर वे तो पूरे सिद्ध हैं, तू उनके चरणों में जा । यह तो उनका बड़प्पन है कि मेरे को यश दिलाने के लिए उन्होंने तुमको मेरे पास भेजा है, यह उनका विनोद है । कर्म करने की कुशलता उनके पास है ।

ऊठत बैठत ओई उटाने,

कहत कबीर हम उसी ठिकाने ।

वे उठते-बैठते उसी आत्मा में रमण कर रहे हैं ।″

साधक को संसार में रहते हुए भी उससे निर्लेप रहने वाले, पूर्णता को पाये हुए उन ब्रह्मज्ञानी संतपुरुष की महिमा पता चली तो वह जंगल से शीघ्र लौटा उन संतपुरुष के पास, उनकी शरण ली और उनका अनुग्रह पाकर भगवत्प्राप्ति के पथ पर तीव्रता से लग गया ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 20, 26 अंक 347

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अमरफल लाने वाला बालक रंगु – पूज्य बापू जी


मद्रास ( चेन्नई ) की घटना है । एक बच्चा था रंगु । एक दिन उसके पिता ने उसको पैसे दिये और कहाः ″जाओ बेटे ! फल-वल ले आओ, खायेंगे ।″

पैसे लेकर वह बबलू रंगु फल लेने गया । रास्ते में उसने देखा कि एक व्यक्ति कराह रहा है तो उसने पूछाः ″चाचा जी ! क्या हुआ, आप क्यों कराह रहे हैं ?″

व्यक्ति बोलाः ″बेटे ! बहुत भूखा हूँ ।″

तो फिर रंगु ने जो पैसे थे उनसे कुछ फल-वल, भोजन-फुलका, दाल-वाल आदि ले के उसको खिलाया और साथ ही कुछ चीज वस्तुएँ भी दे के वह खाली हाथ घर लौटा । हाथ तो खाली थे लेकिन हृदय बड़ा आनंद से, प्रसन्नता से भरा था, बड़ा अच्छा लग रहा था । बच्चा जब खाली हाथ घर आया तो पिता ने पूछाः ″रंगु बेटे ! फल-वल लाया ?″

″पिता जी ! फल तो लाया हूँ ।″

″कहाँ हैं ?″

″वे दिखेंगे नहीं ।″

″दिखेंगे नहीं, ऐसे फल कौन से हैं ?″

तो रंगु ने सारी बात सुना दी कि ″एक गरीब, भूखा-प्यासा था । उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा था । मेरा ध्यान गया । मैंने उसको भोजन कराया, फल आदि दे के आया । पैसे उसकी सेवा में लगा के आया । इससे मेरे अंतर का परमेश्वर संतुष्ट हुआ । पिता जी ! यह अमरफल लाया हूँ ।″

पिता ने रंगु को अपने हृदय से लगा लिया ।

पुत्र तुम्हारा जगत में, सदा रहेगा नाम ।

लोगों के तुमसे सदा, पूरण होंगे काम ।।

पिता ने इसी प्रकार का आशीर्वाद देते हुए कहाः ″मेरे लाल ! सचमुच तू अमर फल लेकर आया है । तेरे ये दिव्य गुण एक दिन तुझे जरूर महान बनायेंगे ।″

वही रंगु बच्चा आगे चल के संत रंगदास जी बन गये । दक्षिण भारत में उस महान संत को बहुत लोग जानते थे ।

कार्यदक्षता क्यों आवश्यक है ?

सुखं दुःखान्तमालस्यं दाक्ष्यं दुःखं सुखोदयम् ।

भूतिः श्रीर्ह्रीर्धृतिः कीर्तिर्दक्षे वसति नालसे ।। ( महाभारतः शांति पर्वः 27.31 )

आलस्य सुखरूप प्रतीत होता है पर उसका अंत दुःख है तथा कार्यदक्षता दुःखरूप प्रतीत होती है पर उससे शाश्वत आत्मसुख की यात्रा हो जाती है । ऐश्वर्य, लक्ष्मी, लज्जा, धृति और कीर्ति – ये कार्यदक्ष पुरुष में ही निवास करती हैं, आलसी में नहीं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 18 अंक 347

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जीवन की सारी समस्याओं का हलः गुरु-समर्पण


एक धर्मात्मा राजा था, जो प्रजा को पुत्रवत् स्नेह करते हुए शासन करता था । वह संसार से ऊब गया था अतः एक दिन अपने ब्रह्मज्ञानी सद्गुरु के आश्रम में जाकर उन्हें साष्टांग प्रणाम करते हुए बोलाः ″गुरुदेव ! मैं इस राज्य की झंझटों, समस्याओं से बड़ा दुःखी हो गया हूँ । एक समस्या हल करता हूँ तो दूसरी खड़ी हो जाती है । दूसरी को सुलझाता हूँ तो तीसरी…. इस प्रकार नित्य नयी उलझन ! नित्य नये बखेड़े ! मैं तो तंग आ गया इस जीवन से ! क्या करूँ ?″

गुरु जी बोलेः ″राजन् ! ऐसी बात है तो छोड़ दो इस राज्य को ।″

राजा ने कहाः ″कैसे छोड़ दूँ ? मेरे छोड़ देने से समस्याएँ तो सुलझ नहीं जायेंगी, उलटा सब कुछ तितर-बितर हो जायेगा । अराजकता फैल जायेगी चारों ओर ।″

″तो ठीक है, पुत्र को शासन सौंप दो और तुम निश्चिंत होकर मेरे पास रहो ।″

″परंतु पुत्र तो अभी छोटा-सा नादान बच्चा है । वह इस भार को सँभालेगा कैसे ?″

गुरु जी ने नया उपाय बताते हुए कहाः ″यह बात है तो शासन मुझे दे दो, मैं सँभालूँगा उसे ।″

राजा खुश होकर बोलाः ″हाँ गुरुदेव ! यह मुझे स्वीकार है ।″

″तो हाथ में पानी लेकर संकल्प करते हुए सारा राज्य मुझे दान कर दो ।″

राजा ने ऐसा ही किया और उठकर चल पड़ा । गुरु जी ने टोकते हुए पूछाः ″अब कहाँ जाते हो ?″

″राजकोष से कुछ धन लेकर परदेश जाऊँगा । वहाँ कोई व्यापार करके जीवन चलाऊँगा ।″

गुरु जी हँसकर बोलेः ″जब राज्य मेरा हो गया तो राजकोष भी मेरा है । तुम्हारा उस पर अधिकार ही क्या है ?″

राजा ने सिर झुकाकर कहाः ″सचमुच कोई अधिकार नहीं रहा । अब तो कहीं चाकरी ही करनी होगी ।″

गुरु जी बोलेः ″चाकरी ही करनी है तो मेरी कर ले । इतना बड़ा राज्य है मेरे पास । इसे चलाने के लिए किसी-न-किसी को तो रखना ही पड़ेगा । मुझे सेवक की जरूरत है, तुम्हें मालिक की । बोलो, करोगे मेरी नौकरी ?″

राजा ने खुशी से कहाः ″करूँगा ।″

गुरुजी ने आदेश दियाः ″तो जाओ, आज से मेरा सेवक बन के राज-काज करो । देखो, वहाँ तुम्हारा अपना कुछ भी नहीं । भला हो या बुरा, हानि हो या लाभ, सब मेरा होगा । तुम्हें केवल वेतन मिलेगा ।″

राजा ने स्वीकार किया । लौटकर शासन करने लगा ।

एक मास के बाद गुरु जी ने आकर पूछाः ″क्यों भाई ! राज-काज निपटाकर थक तो नहीं जाते ? अब भी दुःखी रहते हो क्या ? जीवन सरल चल रहा है या संकटमय लगता है ?″

राजा मुस्कराते हुए बोलाः ″गुरुदेव ! मैं तो सेवक हूँ । पूरी लगन और परिश्रम से राज-सेवा करता हूँ और सुख की नींद सोता हूँ ।″

यह है वह साधन जिसे अपना लिया जाय तो कर्म करता हुआ भी मनुष्य उस कर्म में लिप्त नहीं होता । स्वयं को स्वामी नहीं, ईश्वर का, ब्रह्मज्ञानी गुरु का सेवक समझो । यह सब ठाठ-बाट तुम्हारा तो है नहीं । तुम मैं-मेरे की अहंता-ममता करके क्यों फँस रहे हो ? तुम्हारे पास जो है वह सब, यहाँ तक की तुम्हारा शरीर भी परमात्मा का दिया हुआ है । तुम इन सबका सदुपयोग उसी परमात्मा की प्राप्ति के उद्देश्य से उसी की सेवा के लिए करो और भाव रखोः

मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर ।

तेरा तुझको देत हूँ, क्या लागत है मोर ।।

जो ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु के वचनों में निष्ठा रखते हुए लगन के साथ तन-मन-धन लगाकर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना से उनके समाजोत्थान के दैवी कार्य में लग जाते हैं वे भी ऐसे प्रजावत्सल राजा की तरह जीवन में निर्लिप्त रहते हुए सुख से सोते हैं और देर-सवेर परमात्म-तत्त्व में प्रतिष्ठित हो जाते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 7,8 अंक 347

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