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Prerak Prasang

संत दर्शन व सत्संग के दो अक्षर कहाँ से कहाँ पहुँचा देते हैं ! –
पूज्य बापू जी


संत दर्शन व सत्संग के दो अक्षर कहाँ से कहाँ पहुँचा देते हैं ! –
पूज्य बापू जी
क्षीरसागर में भगवान विष्णु शयन कर रहे थे । नारदजी आये,
बोलेः ”भगवान ! कभी तो आप योगनिद्रा में, ब्रह्मरस में होते हो और
योगनिद्रा से उठते हो तो सत्संग में । योगनिद्रा में तो चलो आप स्व-
स्वरूप में, ब्रह्मस्वरूप में मस्त रहते हो परंतु सत्संग से क्या फायदा
होता है ?”
भगवान ने कहाः “नारद ! तूने कीर्तन तो किया पर कीर्तन के बाद
जो सत्संग होना चाहिए – सत्य का संग होना चाहिए उसका अभी तेरे
को माहात्म्य पता नहीं चला ।”
“तो महाराज ! सत्संग का क्या माहात्म्य है ?”
भगवान ने सोचा, ‘मैं बताऊँगा तो सैद्धान्तिक व्याख्या हो जायेगी
। यह जरा पक्का ग्राहक बने इसलिए इसको प्रायोगिक अनुभव कराओ
।’
भगवान ने कहाः ‘बंग देश में एक वटवृक्ष है । उसकी अमुक डाल
के कोटर में तोते ने अंडा दिया है । तुम्हारे जाते-जाते अंडा फूटकर
उसमें से बच्चा निकल आयेगा । उससे सत्संग की महिमा पूछो ।”
नारदजी गये और उस तोते के बच्चे से पूछाः “भाई ! सत्संग की
क्या महिमा है ?”
‘सत्संग’ शब्द तोते के बच्चे के कान में पड़ते ही उसकी गर्दन मड़
गयी और उसका रामनाम सत् हो गया । नारदजी ने देखा कि ‘यह तो
सत्संग का नाम सुन के ही मर गया !’
नारदजी भगवान के पास गये, बोलेः “भगवान ! वह सत्संग की
महिमा क्या सुनाये, ‘सत्संग’ शब्द कान में पड़ते ही वह तो मर गया !”

भगवान बोलेः “अच्छा, उस वटवृक्ष की दायीं ओर एक अहीर का
झोंपड़ा है । उसकी गाय ब्यायी है । उस गाय के बछड़े से पूछो ।”
“महाराज ! अगर तोते के बच्चे जैसा हाल हो जाय तो ?”
“कुछ भी हो जाय तू सत्संग की महिमा का प्रायोगिक अनुभव क,
संदेह मत कर ।”
नारदजी गये, बोलेः “बछड़ा देवता ! सत्संग की महिमा क्या है ?”
इतना सुनते ही बछड़े की आँखें उलट गयीं और वह उस देह से
रवाना हो गया ।”
वे वापस आये, बोलेः “भगवान ! बछड़े ने तो कुछ सुनाया नहीं
परंतु उसका भी स्वर्गवास हो गया ।”
भगवानः “अच्छा, उसी नगर के राजा के यहाँ बेटे का जन्म हुआ
है, उसके जाकर पूछ ।”
नारदजी बोलते हैं- “नारायण ! नारायण !! तोता मर गया… कोई
हरकत नहीं, बछड़ा चला गया… कोई हरकत नहीं परंतु उस राजकुमार से
पूछँ और उसकी आँखें उलट जायें तो महाराज ! मेरे को हथकड़ी लग
जायेगी ।”
“नहीं-नहीं, हिम्मत करो, वह नहीं मरेगा ।”
नारदजी आये, राजा को आशीर्वाद दिया, बोलेः “तुम्हारे घर में
अभी-अभी लाल का प्राकट्य हुआ है ।”
राजाः “महाराज ! आप अंतर्यामी हो ।”
नारदजी समझते हैं कि अंतर्यामी की कृपा से बोल रहा हूँ । बोलेः
“राजन ! हम उस बालक के दर्शन करना चाहते हैं ।”
“महाराज ! दर्शन क्या, उस बालक को आप आशीर्वाद दो ।”

“आशीर्वाद तो देंगे परंतु उसी कमरे में बालक होगा जिस कमरे में
2 दरवाजे होंगे । एक दरवाजे से मैं जाऊँ, उसको आशीर्वाद दूँ और दूसरे
दरवाजे से मैं छू हो जाऊँ, बाद में तुम आओ । इस तरह से आशीर्वाद
दूँगा ।”
राजा ने सोचा कि कोई गोपनीय बात है ।
ज्यों केले के पात में, पात पात में पात ।
त्यों संतन की बात में, बात बात में बात ।।
राजा को क्या पता कि इनका प्रश्न सुनते ही 2 प्राणियों का काम
तमाम हो गया है । 2 दरवाजे वाले खंड में बच्चे को रख दिया गया ।
सब लोग दूर हो गये । नारद जी चारों तरफ देखते हैं कि ‘भागने की
जगह-वगह तो है न ! और कोई सुन या देख तो नहीं रहा है !’ फिर
बच्चे के नज़दीक आये, बोलेः “अरे नवजात शिशु ।”
वह शिशु बोलता हैः “महाराज ! बोलो, क्यों डरते हो ?”
नारदजी छाती पर हाथ रखते हैं, धड़कनें सँभालते हैं । बोलेः
“सत्संग की महिमा…?”
“सत्संग की महिमा आप अभी तक पूछ रहे हो ? देखा नहीं कि
सत्संग का ‘सत्’ शब्द सुनते ही मैं तोते में से बछड़े के शरीर में आया
और वहाँ सत्संग का ‘सत्’ शब्द सुनते ही चल बसा और यहाँ राजकुमार
हो गया । जन्मजात इतनी जायदाद का मालिक हो गया । केवल संत-
दर्शन और सत्संग के 2 अक्षरों से इतना खजाना मिला है महाराज !”
इसलिए संत तुलसीदास जी ने कहाः
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध ।
तुलसी संगत साध की, हरे कोटि अपराध ।।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2023, पृष्ठ संख्या 11,12 अंक 364

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शीलवान व्यक्ति के लिए कुछ भी असम्भव नहीं



महर्षि बोधायन के पास कई विद्यार्थी अध्ययन करने के लिए आते
थे । उनका आश्रम विद्यार्थियों से भरा रहता और वे उनके सर्वांगीण
विकास पर विशेष ध्यान देते थे ।
एक दिन वे शिष्यों की प्रार्थना पर आश्रम के निकट स्थित एक
नदी के तट पर गये । शिष्य गुरु के साथ नदी में बड़ी देर तक तैरते
रहे । फिर सब तट पर आये और भोजन के बाद वहीं विश्राम करने लेट
गये । थोड़ी देर बाद आश्रम जाने हेतु सब एकत्र हुए पर शिष्य गार्ग्य
का कुछ पता न था । सभी उसको खोजने लगे । महर्षि उसे खोजते हुए
वहाँ जा पहुँचे जहाँ गार्ग्य लेटा था । उन्होंने कहाः “उठो वत्स ! हमें
आश्रम चलना है ।”
गार्ग्य ने कहा लेटे-लेटे कहाः “कैसे उठूँ गुरु जी ? एक बहुत बड़ा
सर्प मेरे पैरों से लिपट कर सो रहा है । यदि मैं उठता हूँ तो उसकी भी
नींद खुल जायेगी । अतः जब तक वह स्वयं उठकर नहीं चला जाता,
मेरा इसी प्रकार लेटे रहना मुझे उचित लग रहा है ।”
महर्षि बोधायन इंतजार करने लगे । अब तक अन्य शिष्य भी वहाँ
आकर यह कौतुक देखने लगे थे । कुछ देर बाद साँप जागा और झाड़ियों
में चला गया । गुरु बोधायन ने गार्ग्य को गले से लगा लिया । उन्होंने
गार्ग्य को आशीर्वाद देते हुए कहाः “बेटा ! एक विषधर के प्रति तुम्हारा
यह मानवीय व्यवहार प्रकट करता है कि तुम मानव के प्रति निश्चय ही
शीलवान और दयावान बने रहोगे । तुम्हारा यह शील अक्षय बना रहे ।”
गार्ग्य का एक गुरुभाई मैत्रायण पास ही खड़ा था, उसे गुरु का
आशीर्वाद समझ न आया । उसने पूछाः भगवन् ! गार्ग्य के व्यवहार में

साहस और दृढ़ता का परिचय मिलता है पर आपने शील अक्षुण्ण रहने
का आशीर्वाद दिया । ऐसा क्यों ?”
महर्षि बोधायन ने कहाः “वत्स ! जिस प्रकार जल का ठोस रूप
हिम है उसी प्रकार शील का घनीभूत रूप साहस, दृढ़ता और धैर्य है ।
यदि व्यक्ति हर परिस्थिति मे अपने शील की रक्षा के प्रति सजग रहे
तो वह असाधारण वीरता को विकसित कर सकता है । सामान्यतः शील
और धैर्य को वीरता का गुण नहीं माना जाता लेकिन यथार्थ में पराक्रम
इन्हीं में बसता है ।”
पूज्य बापू जी के सत्संग-वचनामृत में आता हैः “जिसके पास शील
है उसका दुनिया में कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता । शील क्या है ?
अपनी तरफ से किसी का बुरा न चाहना एवं बुरा न करना शील है ।
शीलवान सदा संतुष्ट रहता है । यह शील बाहर की चीज़ नहीं हैं, इसे
तो हर कोई धारण कर सकता है । आवश्यकता है केवल व्यर्थ की
वासनाएँ छोड़ने की । निरर्थक वासनाएँ एवं निरर्थक कर्म छोड़ दें तो
सार्थक कर्म अपने-आप होने लगते हैं । सार्थक कर्म, दूसरों के प्रति हित
की भावना से किये गये कर्म शीलवान बनने में सहायक होते हैं और जो
शीलवान होता है उसके लिए दुनिया में कुछ भी असम्भव नहीं है ।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2023, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 364
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वे जीते-जी मृतक समान हैं



महात्मा बुद्ध प्रवचन कर रहे थे । अचानक प्रवचन सुनने के लिए
बैठे लोगों में से एक व्यक्ति से पूछाः “वत्स ! सो रहे हो ?”
“नहीं भगवान ! ऊँघते (झपकी लेते) हुए व्यक्ति ने हड़बड़ाते हुए
उत्तर दिया ।
प्रवचन पूर्ववत् शुरु हो गया और वह श्रोता फिर पहले की तरह
ऊँघने लगा । महात्मा बुद्ध ने तीन-चार बार उसे जगाया, पूछाः “सो रहे
हो ?” परंतु वह हर बार ‘नहीं भगवन् !’ कहता और फिर ऊँघने लगता ।
कुछ समय के पश्चात तथागत ने फिर पूछाः “वत्स ! जीवित हो ?”
वह तुरन्त बोल पड़ाः “नहीं भगवन् ” उपस्थित जनसमूह में हँसी
की लहर दौड़ गयी ।
बुद्ध भी मुस्कराये फिर गम्भीर होकर बोलेः “वत्स ! निद्रा में
तुमसे सही उत्तर निकल गया । जो मोह-निद्रा में सोये हैं वे मृतक
समान हैं । संत अहैतुकी कृपा करके मोह-निद्रा से बार-बार जगा रहे हैं
फिर भी अब तक नहीं जगह तो कब जगेंगे ? आयुष्यरूपी खेत के नष्ट-
भ्रष्ट होने के बाद कितना भी रोओगो, पछताओगे तो क्या होने वाला है
? इस गहन मोह-निद्रा से जागो ।”
शास्त्र कहते हैं-
दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभंगुरः ।
तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुण्ठप्रियदर्शनम् ।।
मनुष्य देह मिलना दुर्लभ है । यदि वह मिल भी जाय तो भी वह
क्षणभंगुर है । ऐसी क्षणभंगुर मनुष्य-देह में भी भगवान के प्रिय संतजनों
का दर्शन तो उससे भी अधिक दुर्लभ है ।

अतः सावधान हो जाओ । बुद्ध पुरुषों के वचनों का लक्ष्यार्थ हृदय
में बोध को पा लो ।
अमृत बिंदु – पूज्य बापू जी
अगर ब्रह्मविचार नहीं तो हृदय में जलन होगी, किसी को देखकर
ईर्ष्या होगी, किसी को देख के द्वेष होगा, किसी वस्तु को देख के लालच
होगा और जब तक ये लालच, ईर्ष्या, द्वेष हैं तब तक आप अपने घर
(अंतरात्मा) से बाहर धक्के खाते रहेंगे ।
अगर ब्रह्मविचार नहीं है तो शिवलोक में जाने के बाद भी ईर्ष्या-
द्वेष रहेगा और वैकुंठ में जाने के बाद भी ईर्ष्या द्वेष रहेगा ।
मनुष्य का अंतरात्मा, मनुष्य का वास्तविक तत्त्व इतना महान है
कि जिसका वर्णन करते-करते वेद भगवान भी नेति-नेति पुकारते हैं ।
लेकिन भय ने, स्वार्थ ने, तमो और रजो गुण के प्रभाव ने इसको दीन-
हीन बना दिया है ।
देह-बल से, बुद्धि बल से, सत्ता बल से, वैकुंठ के बल से, स्वर्ग के
बल से, अप्सराओं के बल से, गंधर्वों के बल से, आत्मबल, आत्मसुख
अधिक बलवान है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2023, पृष्ठ संख्या 13 अंक 364
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