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Prerak Prasang

….तब भगवान में हमारी प्रीति होती है – पूज्य बापू जी


मेरे मित्रसंत लाल जी महाराज ने मेरे को बताया कि एक मकान के बरामदे में बूढ़ा और बूढ़ी अपने पोते को खेल खिला रहे थे । मैं उधर से जाते-जाते खड़ा हो गया । बूढ़ी बोले जा रही थीः “मेरा बबलू ! और मेरा राजा ! ओ मेरा प्रभु ! ओ मेरा प्यारा !…”

बच्चे को तो पता ही नहीं होता जितने अलंकारों से अथवा जिन भावों से उसको तुम बुलाते हो । लाल जी महाराज टुकुर-टुकुर देखने लगे । तब उन बूढ़े-बूढ़ी ने कहाः “महाराज ! क्या है ? कहीं जाना है ?”

महाराजः “कुछ नहीं, ऐसे ही…. कहीं जाना नहीं है ।”

“किसको मिलना है ?”

“मिलना किसी को नहीं है । आप इस बच्चे को प्रेम कर रहे हो न, वह जरा देख रहा हूँ । तुम जो इसको बोल रहे हो, ‘राजा ! मेरा हीरा ! मेरा सोनू ! मेरा बबलू !….’ इसको इतने अलंकार दे रहे हो, क्या इसको पता है ?”

माई बच्चे को प्यार करती जा रही थी और बोलीः “महाराज ! मूल से भी ज्यादा ब्याज प्यारा होता है, बेटे से भी पौत्र ज्यादा प्यारा होता है ।”

नम्रता की मूर्ति लाल जी महाराज ने कहाः “आज्ञा दो तो मैं एक सवाल पूछूँ ?”

“हाँ, पूछिये ।”

“यह तुम्हारा पौत्र जब माँ के गर्भ में था तब भी तो आपको पता था कि हमारा पौत्र है, बालक है, तो तब हुआ था ऐसा प्यार ?”

“माँ के गर्भ में भी हमारा पौत्र था लेकिन देखे बिना और नामरूप के बिना प्रीति कैसे होगी ?”

लाल जी महाराज ने मुझसे कहाः “देखो, कैसा उसने जवाब दिया !”

ऐसे ही भगवान के नाम और रूप के बारे में सुने बिना, भगवान की महिमा सुने बिना भगवान में प्रीति कैसे जगेगी ? जैसे बालक जब गर्भ से बाहर आता है तब दिखता है और तभी उससे प्रीति होती है, ऐसे ही संतों के हृदय से जब वाणी के द्वारा भगवान का नाम, रूप, गुण स्वभाव, लीला, ऐश्वर्य आदि हमारे कानों तक आता है तब उस परमात्मा में प्रीति होती है । इसलिए बार-बार सत्संग सुनना चाहिए और भगवान की स्तुति करनी चाहिए ।

(अवश्य पढ़ें आश्रम की समितियों के सेवाकेन्द्रों पर उपलब्ध पुस्तक ‘श्री नारायण स्तुति’)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2019, पृष्ठ संख्या 7 अंक 320

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यह मेरे तारणहार का तिलक है – पूज्य बापू जी


एक सेठ अपने रसोइये को डाँटते कि “तू मेरे घर का खाता है, मेरी नौकरी करता है तो जैसा मैं तिलक करता हूँ, मेरा परिवार तिलक करता है ऐसा तू भी किया कर ।”

रसोइया ‘हाँ’, ‘हाँ’ कहता रहा लेकिन अपना तिलक नहीं बदला । आखिर सेठ परेशान हो गये । सेठ ने कहाः “अगर कल हमारे सम्प्रदाय का तिलक तूने नहीं किया तो नौकरी से छुट्टी समझना ।”

इस प्रकार डाँटते हुए सेठ ने नौकर से दूसरे ढंग से तिलक करने का वचन ले लिया ।

दूसरे दिन नौकर आया, सेठ चकित हो गये कि नौकर के ललाट पर वही अपना तिलक ! सेठ ने दुत्कारते हुए, फटकारते हुए कहाः “पागल ! कल वचन दे गया था फिर भी तिलक तू अपने ढंग का करता है, हमारे ढंग का क्यों नहीं किया ?”

रसोइये ने कमीज उठाकर पेट दिखाया तो वहाँ पर सेठ के कुल का तिलक था ।

रसोइये ने कहाः “सेठ जी ! आपने आग्रह किया इसलिए आपका तिलक मैंने लगाया है । मैं आपके पास पेट के लिए आता हूँ इसलिए पेट पर आपके कुल का तिलक लगाया है । ललाट पर तो मुझे मेरे गुरुदेव के श्रद्धा-विश्वास का तिलक ही लगाने दो, औरों के तिलक की जरूरत नहीं है । यह मेरे तारणहार का तिलक है । सेठ जी ! मैं मजबूर हूँ इसलिए पेट पर तुम्हारा तिलक लगा दिया है ।”

भारत का रसोइया भी अपना विश्वास नहीं छोड़ता है, अपनी श्रद्धा नहीं छोड़ता है, अपनी दृढ़ता नहीं छोड़ता है तो तुम क्यों छोड़ो ? तुम क्यों भक्ति छोड़ो ? तुम क्यों नियम छोड़ो ? तुम क्यों संयम छोड़ो ? तुम क्यों अपने मनरूपी घोड़े को एकदम बेलगाम करो ?

कोई व्रत, कोई नियम, कुछ नियम-निष्ठा अपने जीवन में लाओ । अगर तुम उसमें थोड़े से सफल हुए तो तुम्हारा बल, तुम्हारी शक्ति विकसित होगी, मन अधीन होता जायेगा । छोटा सा ही नियम लो लेकिन उसको कड़ाई से पूरा करो । 10 प्राणायाम, 10-15 मिनट ध्यान, नीलवर्ण कमल (तीसरा केन्द्र – मणिपुर चक्र) विकसित करने का नियम (अग्निसार क्रिया) अवश्य करो, जिससे शरीर निरोग व फेफड़े बलवान बनेंगे, रोगप्रतिकारक शक्ति का विकास होगा, चित्त की प्रसन्नता, गुरुकृपा पाने की योग्यता, सद्ग्रुरु के ज्ञान को पचाने की क्षमता और मति की दृढ़ता में बढ़ोतरी हो जायेगी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2019, पृष्ठ संख्या 24, अंक 319

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कठिनाइयों, विरोधों को बना सकते हैं शक्ति का स्रोत !


एक सज्जन व्यक्ति थे । उनका एक नौकर था जो कोई काम सही तरीके से नहीं करता था । उसके काम करने का ढंग ऐसा था की धीर से धीर व्यक्ति भी उसे देखकर आपे से बाहर हो जाय परंतु उसका मालिक बड़ा साधु स्वभाव का था । वह न तो नौकर से खिन्न होता और न ही कभी क्रोधावेश में आता था बल्कि उसके साथ बड़ा मधुर व्यवहार करता था ।

एक बार उसके घर में एक मेहमान आया । वह नौकर के व्यवहार से बहुत अप्रसन्न हुआ । उसने मालिक से कहाः “आप इसको तुरन्त हटा दीजिये ।”

मालिकः “आपकी सलाह तो अच्छी है और मैं जानता हूँ कि आप मेरी भलाई चाहते हैं इसलिए यह सलाह दे रहे हैं । परंतु ऐसे व्यवहार के कारण ही मैं उसको रखे हुए हूँ ।”

अजीब उत्तर सुन के मेहमान अवाक् रह गया !

मालिकः “मेरे सम्पर्क में आने वाले अन्य सभी लोग बहुत अच्छे, नेक, सज्जन हैं । वे मेरा विरोध करने की सोचते भी नहीं, सिर्फ यही ऐसा व्यक्ति है जो मेरी आज्ञा नहीं मानता, ऐसी बातें ऐसे काम करता है जो मेरे लिए अप्रशंसनीय व अपमानजनक हैं । इससे मुझे एक विशेष प्रशिक्षण मिलता है – समता बढ़ाने का, अपने पर नियंत्रण रखने का, अविकम्प योग का प्रशिक्षण । जैसे लोग अपनी शारीरिक शक्ति बढ़ाने हेतु व्यायाम के लिए डम्बलों का प्रयोग करते हैं, उसी प्रकार यह मेरी आध्यात्मिकता बढ़ाने हेतु मानो एक डम्बल है, इसके माध्यम से मैं अपनी समता, शांति, उदारता, सहनशीलता, आत्मदृष्टि – इन शक्तियों को सुगठित करता हूँ ।”

यदि आपको लगता है कि आपके संबंधी या अन्य कोई व्यक्ति अथवा संसार की अन्य अप्रिय बातें आपके लिए बाधा बनती हैं तो आपको झल्लाने या घबराने की आवश्यकता नहीं । आप उक्त मालिक के उदाहरण का अनुकरण कीजिये और कठिनाइयों, मतभेदों, विरोधों को बल और शक्ति का अतिरिक्त स्रोत बना लीजिये ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2019, पृष्ठ संख्या 7 अंक 319

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