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Prerak Prasang

मूर्ख शिरोमणियों की खोज


एक राजा ने अपने महामंत्री को आदेश दियाः “जाओ, अपनी जनता में जो दो सबसे बड़े मूर्ख हों, उन्हें दरबार में लाओ । उन मूर्खों को ‘मूर्ख शिरोमणि’ की उपाधि देंगे ।”

मंत्री महामूर्खों की तलाश में लग गया । कुछ दिन बाद वह दरबार में आया । उसको अकेले देखकर राजा ने पूछाः “मंत्री ! तुम्हारे साथ कोई मूर्ख नहीं दिख रहे हैं । क्या तुम उन्हें ढूँढने में असफल रहे ?”

“नहीं राजन् ! मैं सफल रहा पर उन्हें पहचानने में देर हुई । वे दोनों महामूर्ख तो अपने दरबार में ही हैं । अभयदान मिले तो बताऊँ ।”

“मेरे प्राणप्रिय मंत्री ! तुम्हें प्राणों की चिंता ! हिचको मत, दे दिया तुम्हें अभयदान ।”

“राजन् ! बुरा न मानें । राज्य का दूसरा सबसे बड़ा मूर्ख…. आप ही हैं !”

“मैं…. ! अरे महामूर्ख ! निर्लज्ज ! अब मैं अभयदान से बँधा हूँ वरना… बता मैं दूसरा महामूर्ख कैसे ?”

“साफ है नरेश ! जो राजा अपने राज्य में निवास करने वाले संतों-महापुरुषों एवं धर्मज्ञ सात्त्विक विद्वानों की खोज न कराके मूर्खों की खोज कराये, संतों का आदर न करके मूर्खों को सम्मानित कराये, वह मूर्ख नहीं तो और क्या है !”

“यदि मैं दूसरा हूँ तो मूर्खों में प्रथम कौन है ?”

“वह तो मैं ही हूँ । एक आत्मानुभवी जागृत महापुरुष के सत्संग में जाने से अब मेरा विवेक जागृत हुआ है कि आप तो ज्यादा सोचे-समझे बगैर जैसा मन में फुरना आया वैसा आदेश दे के किनारे हो गये लेकिन मैं तो थोड़ा-सा वेतन कमाने के लिए आपके ऐसे बेतुके आदेशों पर अमल करने में अपना अनमोल मनुष्य जीवन नष्ट कर रहा हूँ ।

सम्राट के साथ राज्य करना भी बुरा है, न जाने कब रुला दे !

सद्गुरु के साथ भीख माँगकर रहना भी अच्छा है, न जाने कब मिला दें !

आज मैं अपनी मूर्खता को छोड़ रहा हूँ । मैं मंत्री पद का त्याग कर रहा हूँ ।”

“मंत्री ! मुझे क्षमा करो । तुम्हारा यही निर्णय है तो मैं भी इसी समय अपनी मूर्खता छोड़ने का संकल्प कर रहा हूँ । तुम मुझे भी उन जागृत महापुरुष के सत्संग में ले चलो जिनके सत्संग में जाने से तुम्हारा यह विवेक जगा । तुम्हारा यह राजा अब जनता के दिलों पर राज करने वाले उन ‘महाराज’ के दर्शन-सत्संग से अपनी सूझबूझ बढ़ाना चाहता है । उनका सम्मान-सत्कार कर अपनी महामूर्खता का मार्जन (शुद्धीकरण) करना चाहता है ।”

“अवश्य ! अवश्य चलिये महाराज !”

मंत्री अपना पद छोड़ के उन आत्मपद में जगह हुए संत से शिक्षा-दीक्षा पा के ईश्वरप्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर हुआ और राजा ने भी उनसे दीक्षा ले के उनके मार्गदर्शन में अपना शासन ‘कर्मयोग’ में  परिणत कर लिया ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2019, पृष्ठ संख्या 24 अंक 316

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भगवान किनसे पाते हैं अपने घर की समस्या का हल ?


एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने देवर्षि नारदजी से कहाः “देवर्षे ! मनुष्य किसी व्यक्ति में बुद्धि-बल की पूर्णता देखकर ही उससे कुछ पूछता या जिज्ञासा प्रकट करता है । मैं आपके सौहार्द पर भरोसा रखकर आपसे कुछ निवेदन करता हूँ । मैं अपनी प्रभुता दिखा के कुटुम्बीजनों को अपना दास बनाना नहीं चाहता । मुझे जो भोग प्राप्त होते हैं, उनका आधा भाग कुटुम्बीजनों के लिए छोड़ देता हूँ और उनकी कड़वी बातें सुन के भी क्षमा कर देता हूँ ।

बड़े भाई बलराम में असीम बल है, वे उसी में मस्त रहते हैं । छोटे भाई गद में अत्यंत सुकुमारता है (अतः वह परिश्रम से दूर भागता है), रह गया बेटा प्रद्युम्न, वह अपने रूप-सौंदर्य के अभिमान से मतवाला बना रहता है । वृष्णिवंश में और भी बहुत से वीर पुरुष हैं, जो महान बलवान, दुस्सह पराक्रमी हैं, वे सब सदा उद्योगशील रहते हैं । ये वीर जिसके पक्ष में न हों, उसका जीवित रहना असम्भव है और जिसके पक्ष में चले जायें वह विजयी हो जाय । परंतु परनाना आहुक और काका अक्रूर ने आपस में वैमनस्य रख के मुझे इस तरह अवरूद्ध कर दिया है कि मैं इनमें से किसी एक का पक्ष नहीं ले सकता । आपस में लड़ने वाले दोनों ही जिसके स्वजन हों, उसके लिए इससे बढ़कर दुःख की बात और क्या होगी ?

मैं इन दोनों सुहृदों में से एक की विजयकामना करता हूँ तो दूसरे की भी पराजय नहीं चाहता । इस प्रकार मैं सदा दोनों पक्षों का हित चाहने के कारण दोनों ओर से कष्ट पाता रहता हूँ । ऐसी दशा में मेरा अपना तथा इनका भी जिस प्रकार भला हो वह उपाय बताने की कृपा करें ।”

देवर्षि नारद जी ने कहाः “श्री कृष्ण ! आप एक ऐसे कोमल शस्त्र से, जो लोहे का बना हुआ ना होने पर भी हृदय को छेद डालने में समर्थ है, परिमार्जन1 और अनुमार्जन2 करके उन्हें मूक बना दें (जिससे फिर कलह न हो) ।

1 क्षमा, सरलता और कोमलता के द्वारा दोषों को दूर करना 2 यथायोग्य सेवा-सत्कार से हृदय में प्रीति उत्पन्न करना ।

श्रीकृष्ण ने पूछाः “उस शस्त्र को मैं कैसे जानूँ, जिसके द्वारा परिमार्जन, अनुमार्जन कर सकूँ ?”

“अपनी शक्ति के अनुसार सदा अन्नदान करना, सहनशीलता, सरलता, कोमलता तथा यथायोग्य आदर-सत्कार करना – यही बिना लोहे का बना हुआ शस्त्र है । जब सजातीय बंधु आपको कड़वी तथा ओछी बातें कहना चाहें, तब आप मधुर वचन बोल के उनके हृदय, वाणी तथा मन को शांत कर दें ।

आप इस यादव संघ के मुखिया हैं । यदि इसमें फूट हो गयी तो इस समूचे संघ का विनाश हो जायेगा । अतः आप ऐसा करें जिससे आपको पाकर इसका मूलोच्छेद न हो जाय ।

श्रीकृष्ण ! सदा अपने पक्ष की उन्नति होनी चाहिए जो धन, यश तथा आयु की वृद्धि करने वाली हो और जिससे कुटुम्बीजनों में से किसी का विनाश न हो । यह सब जैसे भी सम्भव हो, वैसा कीजिये ।

माधव ! आप जैसे महापुरुष का आश्रय लेकर ही समस्त यादव सुखपूर्वक उन्नति करते हैं ।

जो महापुरुष नहीं है, जिसने अपने मन को वश में नहीं किया है वह कोई भारी भार नहीं उठा सकता । अतः आप ही इस गुरुतर भार को वहन करें ।”

जब भगवान के जीवन में ऐसी समस्याएँ आ सकती हैं तो अन्य किसी के जीवन में आ जायें तो क्या आश्चर्य ! परंतु समस्या आने पर निराश न हो के ब्रह्मज्ञानी महापुरुष का, सदगुरु का, उनके सत्संग का आश्रय लिया जाय तो कठिन-से-कठिन समस्या को सुलझाने की सुकोमल सूझबूझ निखर आती है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2019, पृष्ठ संख्या 11, 23 अंक 316

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पहले खुद को पहचानो


एक बार श्री रमण महर्षि जी के एक शिष्य ने उनसे पूछाः “भगवन् ! मैं किताबें पढ़ना चाहता हूँ ताकि मुक्ति का मार्गदर्शन मिल सके, पर मैं पढ़ना नहीं जानता हूँ, मैं क्या करूँ ? मुझे मुक्ति कैसे मिल सकती है ?”

महर्षि जी ने कहाः “तुम अनपढ़ हो इससे क्या फर्क पड़ता है ? तुम आत्मा को जानो यही काफी है । ये किताबें क्या सिखाती हैं ? तुम अपने-आपको देखो, और फिर मुझे । यह तो ऐसे ही है जैसे तुमसे कहना कि “दर्पण में अपने-आपको देखो ।’ दर्पण में वही दिखेगा जो होगा । यदि मुँह धोकर देखोगे तो चेहरा साफ दिखेगा, नहीं तो दर्पण कहेगा, ‘मुँह गंदा है, यहाँ धूल है, वहाँ गंदा है, धोकर आओ ।’ किताब भी ऐसा ही कुछ करती है । यदि आत्मज्ञान के बाद पुस्तक पढ़ोगे तो सब आसानी से समझ में आयेगा । यदि आत्मज्ञान से पहले पढ़ोगे तो (सही मार्गदर्शन में भी) त्रुटियाँ दिखेंगी । पुस्तक भी यही कहती है, पहले अपने-आपको पहचानो फिर मुझे पढ़ो । पहले खुद को पहचानो । इस किताबी ज्ञान की तुम इतनी चिंता क्यों करते हो ?”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2019, पृष्ठ संख्या 7 अंक 316

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