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Prerak Prasang

कैसे होंगे हृदय के नारायण प्रकट ? पूज्य बापू जी


ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय, द्रष्टा-दर्शन-दृश्य की त्रिपुटी से रहित पद में फतेह सिंह के गुरु महाराज क्षणभर के लिए गये और फतेह सिंह को कहाः “बेटा ! तुम परमात्मा, चैतन्य, सर्वेश्वर भगवान श्री नारायण के विषय में जानते तो हो लेकिन नारायण का रूप समझकर सामने वालों की सेवा करने में अभी तुम तत्पर नहीं हुए । नारायण अनेक रूपों में हैं यह बात तुमने सुन रखी है लेकिन यह सुनी हुई बात तुम्हारे अमल में नहीं आयी । बेटा ! जब यह बात अमल में आयेगी तब हृदय के नारायण प्रकट हो जायेंगे ।”

वह समझदार व्यक्ति था । उसने गुरु महाराज का आभार व्यक्त किया, हृदय से प्रणाम किया । चने, कोहरी (उबले हुए मसालायुक्त चने, मटर आदि) का खोमचा (टोकरा) सिर पर रख के अपने घर की ओर चल पड़ा । रास्ते में एक लकड़हारे को चक्कर आ गया, वह गिर पड़ा । खोमचे वाले ने खोमचा नीचे धर के उसको उठाया, पानी-वानी छाँटा, फिर अपने जो छोले-वोले थे वो खिलाये । उसकी घर की स्थिति जान ली और यथायोग्य मुट्ठी भर के उसको दे दिये रूपये पैसे । वह लकड़हारा तो गिरकर उठ गया लेकिन फतेह सिंह उठा नहीं ! वह लीन हो गया । उसका द्रष्टा (अहं-प्रत्यय), दर्शन एवं दृश्य आत्मदेव में लीन हो गये । ऐसी मस्ती आयी… आज तक जो सुन रखा था मानो, वह फूट निकला । बड़ा आनंद, चेहरे पर बड़ी रौनक, बड़ी प्रसन्नता, बड़ी सहजता… ।

दूसरे दिन गुरुचरणों में बैठ के सत्संग सुनता है तो मानो उसकी आँखें कह रही हैं कि ‘बस, सर्वोऽहं… आनंदोऽहं…. शुद्धोऽहं…. अनेक रूपों में मैं ही मैं हूँ । न मैं सेवा करता हूँ न मैं सेवा लेता हूँ । सेवा लेने वाले-करने वाले में, सबमें मेरी ही चेतना है। मायामित्रमिदं द्वैतम् । (यह द्वैत मायामात्र है) यह इन्द्रियों का आकर्षण धोखा है । ये मैं और तू की बातें, भेद की, अज्ञानता की बातें – इसी से फँसा है जीव, बाकी तो मेरे ज्ञानस्वरूप में कोई पुण्य-पाप नहीं, कोई कर्तव्य-अकर्तव्य नहीं, सोऽहं….

उसकी आँखों की तरंगे गुरु पढ़ गये, उसके चेहरे की रौनक गुरु देख गये, भाँप गये । बोलेः “क्या बात है फतेह सिंह ?”

“गुरु महाराज ! वाणी नहीं जाती । बस, ऐसी कृपा हुई आपकी, बात बन गयी ।”

“कैसे बात बनी ?”

“आज तक सुना था कि ‘हमारा वास्तविक स्वरूप शुद्ध है, हमारा कोई बेटा नहीं, कोई बाप नहीं, कोई पत्नी नहीं, अरे ! हमारा शरीर भी नहीं है । अगर है तो सबमें मैं ही हूँ । या तो मेरा कुछ नहीं या तो सब मैं ही हूँ – दोनों में से एक कोई भी बात बन जाय, जँच जाय ।’

महाराज जी ! कल रास्ते में एक लकड़हारा गिरा था बेहोश होकर । उसके रूप में जो मेरा स्वरूप था…. अब तक तो मैं खाली देह की, अपने देह से संबंधितों की सेवा करता था । अब पता चला कि यह तो संकीर्ण मति है । इतना तो चिड़िया भी करती है, अपने बच्चों को खिलाती है, कुत्ता भी अपने बच्चों को खिला लेता है । अब मेरा ज्ञान व्यवहार में आ गया, वृत्ति मेरी व्यापक हो गयी महाराज ! उस लकड़हारे पर तो मैंने पानी छिड़का, उसको छोले खिलाये, मुट्ठीभर पैसे दिये लेकिन महाराज ! पता चला कि रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च । (सब प्राणियों का अंतरात्मा परब्रह्म एक होते हुए भी नाना रूपों में उन्हीं के जैसे रूपवाला (हो रहा है) और उनके बाहर भी है ।) धर्म का आचरण करके ही मेरा धर्म प्रकट हो गया । न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं… चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ।। मैं चिद्घन चैतन्य हूँ । संकीर्णता पाप है, उदारता पुण्य है लेकिन उदारता और संकीर्णता से भी परे जो पद है, उस परम पद में ऐसी आपकी कृपा से…. वहाँ वाणी नहीं जाती, बस !”

यह उसकी भाषा नहीं थी, सुना हुआ नहीं, उसकी अनुभूति बोल रही थी । गुरु जी प्रसन्न हुए, बोलेः “आज तू नारायणस्वरूप हो गया । अब तो स्वर्ग में या वैकुंठ में जाना भी तेरे लिए तुच्छ हो गया, छोटा हो गया । तू जहाँ कदम रखेगा वहाँ वैकुंठ हो जायेगा ।

वैकुंठ माने जिसकी बुद्धि कुंठित नहीं होती देह में, मन में, परिस्थिति में ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 312

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गुरु तो अपना पूरा खजाना लुटाना चाहते हैं किंतु…


बड़ौदा में प्रतापसिह राव गायकवाड़ का राज्य था । उनकी महारानी शांतादेवी स्वामी शांतानंद जी के दर्शन करने गयीं । आश्रम में जाकर उन्होंने देखा कि एक व्यक्ति गौशाला में सफाई कर रहा है । शांतादेवी ने उससे कहाः “मुझे पूज्य गुरुदेव के दर्शन करने हैं ।”

उसने कहाः “यहाँ कोई गुरुदेव नहीं रहते ।”

आगे जाकर उन्होंने किसी दूसरे से पूछाः “स्वामी शांतानंदजी महाराज क्या इधर नहीं हैं ?”

वह बोलाः “इधर ही हैं । क्या आपने उन्हें गौशाला में नहीं देखा ?”

“वे तो मना कर रहे हैं ?”

“गौशाला में सेवा करने वाले स्वयं ही पूज्यपाद स्वामी शांतानंद जी महाराज है ।”

यह सुनकर वे पुनः गौशाला की ओर गयीं एवं प्रणाम करते हुए बोलीं- “मुझे पता नहीं था कि आप ही परम पूज्य गुरुदेव हैं और गौशाला में इतनी मेहनत कर रहे हैं ।”

स्वामी शांतानंदः “तो क्या साधु या संन्यासी वेश परिश्रम से इन्कार करता है ?”

“आज मैं आपके दर्शन करने एवं सत्संग सुनने के लिए आयी हूँ ।”

“अच्छा ! सत्संग सुनना है तो सेवा कर । ले यह लकड़ी का टुकड़ा और मिट्टी का तेल । इन छोटे-छोटे बछड़ों के खुरों में कीड़े पड़ गये हैं । उन्हें लकड़ी से साफ करके तेल डाल ।”

शांतादेवी ने बड़े प्रेम से बछड़ों के पैर साफ किये और हाथ पैर धोकर स्वामी शांतानंद जी के चरणों में सत्संग सुनने जा बैठीं । उनके दो वचन सुन के शांतादेवी ने कहाः “महाराज ! आज सत्संग से मुझे जो शांति, जो लाभ मिला है ऐसा लाभ, ऐसी शांति जीवन में कभी नहीं मिली ।”

स्वामी शांतानंद जीः “आज तक तूने मुफ्त में सत्संग सुना था । आज कुछ देकर फिर पाया है इसीलिए आनंद आ रहा है ।”

गुरु तो अपना पूरा खजाना लुटाना चाहते हैं किंतु…. शिष्य को चाहिए कि तत्परता से सेवा करके अपना भाग्य बना ले तो वह दिन दूर नहीं, जब वह गुरु के पूरे खजाने को पाने का अधिकारी हो जायेगा । सत्संग के साथ-साथ यदि साधक के जीवन में सेवा का समन्वय भी हो तो फिर उतने परिश्रम की आवश्यकता भी नहीं होती । सेवा से अंतःकरण शुद्ध होता है और शुद्ध अंतःकरण में परमात्मा का प्रकाश शीघ्र होता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 21, अंक 312

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किन लोगों को शनि नहीं सताता ? – पूज्य बापू जी


पुराणों की प्रचलित कथा है। किसी को पाँच वर्ष की, किसी को साढ़े सात वर्ष की शनैश्चर की पनोती (ग्रहबाधा) लगती है। यह शनीचरी किसको लगती है और किसको नहीं लगती है यह जरा समझ लेना।

एक बार शनीचरी आयी भगवान राम के पास और बोलीः “हे रघुवर ! आप मेरे से लड़िये। मैंने कइयों को लड़ाया और कइयों को भगाती, घुमाती रहती हूँ। दूसरे ग्रह बोलते हैं कि ‘जब राम जी को हराओ तब हम तुमको जानें।’ इसलिए आप मेरे साथ लड़ने के लिए आ जाइये।”

रामजीः “तू ठहरी स्त्री-जाति की, तेरे साथ कौन लड़े ?”

“तो आप हार मान लो।”

लखनपाल बोलते हैं- “भाई, हार कैसे मानेंगे !”

राम जी शनीचरी को बोलते हैं- “देख, तू हमारे सेवक से लड़कर दिखा दे। मेरे शिष्य को तू हरा के दिखा दे। मेरा शिष्य हारा तो मैं हारा और शिष्य जीता तो मैं जीता।”

ऐसे ही होते हैं राम ! उनके भीतर आशा होती है कि शिष्य भी राम हो जाय।

राम जी ने हनुमान जी के पास भेज दिया शनीचरी को।

पनोती हनुमान जी को कहती हैः “सरकार ने भेजा है और मैंने कइयों को घुमाया है, अब तुम्हारी बारी है। इधर ‘हूप’ से काम नहीं चलेगा, पूँछ फटकारने से काम नहीं चलेगा, गदा दिखाने से काम नहीं चलेगा और मैं तो बड़ी अटपटी हूँ, आ जाओ।”

हनुमान जीः “अच्छा ! मेरे स्वामी ने तुझे भेजा है ! मेरे जीतने में स्वामी की जय हो रही है। तेरी चुनौती यदि नहीं स्वीकारता हूँ तो मेरे स्वामी की हार का मुझ पर धब्बा लग जायेगा लेकिन देख, तेरे से लड़ूँ भी कैसे ? मैं स्त्री को छूता नहीं, बालब्रह्मचारी हूँ।”

अब क्या किया जाय… हनुमान जी ने खूब सोचा। बोलेः “अब देख, सारे शरीर के प्राण ऊपर को आ जाते हैं तो तू मेरे पूरे शरीर को न छू, सिर को ही छू ले।”

वह पनोती हनुमान जी के सिर पर चड़ गयी। पनोती जब आती है तो सिर पर चढ़ती है और घुमाती है खोपड़ी को। हनुमान जी ने देखा कि ‘यह अब खोपड़ी को घुमायेगी।’

हनुमान जी एकांत में चले गये। खोपड़ी बोलती हैः ‘भागो यहाँ से।’ पनोती बोलती हैः ‘चलो….’ हनुमान कहते हैं- ‘चलूँ तो सही लेकिन ॐकार का जरा मंत्र लगा दूँ तेरे को।’ हनुमान जी ने ‘ॐऽऽऽऽऽऽ… ‘ करके पहाड़ी  उठा के अपनी खोपड़ी पर धर दी।

पनोती ‘ची… ची…. ‘ करके चीखने लगीः “हटाओ, मैं तो मर गयी !”

“मैंने तो तेरे को छुआ तक नहीं।”

“छुआ नहीं लेकिन पीस डाला ! छोड़ो मुझे, दुबारा नहीं आऊँगी।”

“मेरे स्वामी को हराने निकली थी। स्वामी की बतायी हुई युक्ति है – ‘जब गड़बड़ हो तो ॐऽऽऽऽऽ… करके सिर पर हाथ धर देना।’ अब यहाँ तो तू बैठी है, हाथ कैसे धरूँ इसीलिए जरा-सा पर्वत का टुकड़ा ही रख दिया।”

“छोड़ो, छोड़ो….. तुम जीते, मैं हार गयी।”

“अब उतार दूँ ?”

“उतार दो।”

पर्वत का टुकड़ा हटा दिया। उसको बोलाः “जा, कूद जा नीचे।”

पनोती नीचे कूदी, बोलीः “मैं तुम्हारे बल और गुरुभक्ति पर प्रसन्न हूँ, तुमको वरदान देना चाहती हूँ।”

हनुमान जी बोलते हैं- “जा, हारी हुई ! तेरा वरदान मैं क्या करूँगा ?”

“अच्छा, मैं वरदान देने के लायक तो नहीं हूँ, लेकिन आपकी आज्ञा मानने के तो लायक हूँ, आप मुझे कुछ आज्ञा करिये।”

“जो मेरे जैसा बलवान भाव का हो, जो मेरा चिंतन करता हो और अपने स्वामी के प्रति सेवक के दायित्व को निभाता हो उस पर तू कभी मत बैठना। जो बैठी तो तू चकनाचूर हो जायेगी।”

तब से सद्गुरु के शिष्यों पर पनोती (ग्रहबाधा) बैठती नहीं। जहाँ ज्ञान है, ध्यान है वहाँ ये ग्रह भी ठंडे हो जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 13 अंक 311

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