Tag Archives: Prerak Prasang

Prerak Prasang

असली चमत्कार


एक बार स्वामी अखंडानंद जी की किसी शिष्या ने उनके चरणों में अपना एक प्रश्न रखाः “बहुत से महात्मा चमत्कार दिखाते हैं, आप क्यों नहीं दिखाते ?”

स्वामी जीः “तुम जब पहली बार हमसे मिलीं तो तुम्हारे चित्त की क्या स्थिति थी ?”

“उस समय तो मैं अत्यधिक डाँवाडोल स्थिति में थी।”

“सत्संग करते हुए 10 वर्ष तो तुमको हो ही चुके होंगे, बताओ, अब तुम्हारे चित्त की क्या स्थिति है ?”

“आपसे प्रथम मिलने के बाद, इस क्षण पर्यन्त मुझे ऐसा स्मरण नहीं कि मैं रोयी हूँ, अथवा कभी दुःखी हुई हूँ। निरंतर आपकी कृपा का अनुभव होता है।

“क्या तुम उसको हमारा ‘चमत्कार’ नहीं मानतीं ? ‘सिद्धियाँ-चमत्कार’ चमत्कार नहीं हैं। असली चमत्कार है चित्त का परिवर्तन !”

और यह चमत्कार पूज्य बापू जी के अनगिनत शिष्यों, भक्तों एवं सम्पर्क में आने वालों के जीवन में प्रत्यक्ष देखने को मिलता है।

स्रोतः ऋषि प्रसादः अगस्त 2018, पृष्ठ संख्या 7 अंक 308

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

कितना ऊँचा होता है महापुरुषों का उद्देश्य !


एक बार स्वामी दयानन्द सरस्वती अमृतसर में सरदार भगवान सिंह के मकान में ठहरे थे। एक दिन 7-8 घमंडी लोग अपने साथियों सहित दयानंद जी से शास्त्रार्थ करने आये और अकड़कर उनके सम्मुख बैठ गये। उन्हें शास्त्रार्थ तो क्या करना था, उनके साथियों ने धूल व ईंट-पत्थर फेंकने आरम्भ कर दिये। ऋषि दयानंद के इस अपमान को देखकर भक्तजन कुपित हो उठे। उन्हें शांत करते हुए दयानंद जी ने कहाः “मदरूपी मदिरा से उन्मत्त जनों पर कोप नहीं करना चाहिए। हमारा काम एक वैद्य का है। उन्मत्त मनुष्य को वैद्य औषध देता है निश्चय जानिये, आज जो लोग मुझ पर ईंट, पत्थर और धूर बरसा रहे हैं, वे ही पछताकर कभी पुष्प-वर्षा करने लग जायेंगे।”

जब दयानंद जी अपने डेरे पर पधारे तो एक भक्त ने कहाः “महाराज ! आज दुष्ट लोगों ने आप पर बहुत धूल-राख फेंकी, आपका घोर अपमान किया।”

दयानंद जी ने कहाः “परोपकार और परहित करते समय अपने मान-अपमान की चिंता और परायी निंदा का परित्याग करना ही पड़ता है। इसके बिना सुधार नहीं हो सकता। मेरी अवस्था एक माली जैसी है। पौधों में खाद डालते समय राख और मिट्टी माली के सिर पर भी पड़ जाया करती है। मुझ पर धूर-राख चाहे जितनी पड़े, मुझे इसकी कुछ भी चिंता नहीं परंतु वाटिका हरी-भरी बनी रहे और निर्विघ्न फूले-फले।”

कैसा होता है महापुरुषों का हृदय ! कितना ऊँचा होता है उनका उद्देश्य ! आज भी ऐसे महापुरुष धरती पर विद्यमान हैं, तभी यह धरती टिकी है। ऐसे महापुरुष अपनी चिंता नहीं करते, खुद निंदा-दुष्प्रचार और अत्याचार सहकर भी ईश्वर की यह संसाररूपी वाटिका अधिक-से-अधिक कैसे फले-फूले, महके इसके लिए अपना जीवन और सर्वस्व लगा देते हैं। जिस दिन धरती पर ऐसे संतों का अभाव हो जायेगा, यह धरती नहीं रहेगी, नरक हो जायेगी।

किन्हीं मनीषी ने कहा हैः

आग लगी आकाश में झर-झर गिरे अंगार।

संत न होते जगत में तो जल मरता संसार।।

कितना दुर्भाग्य होगा उन लोगों का, जो अपने इन परम हितैषियों को समझ न पाते हों और उनसे उनके हयातीकाल में ही लाभ उठाने से खुद वंचित रह जाते  और दूसरों को भी वंचित करते हों ! उन्हें जीवन के अंतिम क्षणों में पश्चात्ताप अवश्य होता है। किसी के साथ अत्याचार किया है तो मरते समय अंतरात्मा लानतें देता है। ऐसे लोग समय रहते ही चेत जायें तो कितना मंगल हो !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2018, पृष्ठ संख्या 9 अंक 308

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

गुरुकृपा ने मारुति को बना दिया निसर्गदत्त महाराज


मार्च 1897 की पूर्णिमा को महाराष्ट्र में एक लड़के का जन्म हुआ, नाम रखा गया मारुति। उसके पिता शिवरामपंत एक निर्धन व्यक्ति थे। मारुति का बचपन शिक्षा से लगभग वंचित रहा पर वह अत्यंत ही जिज्ञासु और मननशील प्रकृति का था। बाल्यकाल में वह गायों आदि की देखभाल करना, हल चलाना आदि अनेक कार्यों में अपने पिता का हाथ बँटाता था। मारुति की 18 वर्ष की उम्र में ही उसके पिता चल बसे। उसने एक छोटा व्यवसाय शुरु किया। विवाह होकर एक व तीन बेटियाँ भी हुईं। अपनी मध्य आयु तक मारुति ने एक सामान्य मनुष्य जैसा ही जीवन व्यतीत किया। तत्पश्चात मारुति के जीवन में सद्गुरु मिलन का ऐसा सद्भाग्य जगा जिसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी।

मारुति के एक मित्र थे यशवंतराव बागकर। वे ब्रह्मज्ञानी महापुरुष श्री सिद्धरामेश्वरजी के शिष्य थे। एक संध्या को वे उन्हें अपने सदगुरु के पास ले गये। वह संध्या मारुति के जीवन में एक नया मोड़ ले आयी। गुरु ने उन्हें मंत्रदीक्षा दी और ध्यान के निर्देश दिये। अभ्यास के प्रारम्भ में ही उन्हें अनेक सूक्ष्म व दिव्य अनुभव होने लगे।

अब मारुति दुकान पर तो कार्य करते पर उनकी दृष्टि अब लाभ पर केन्द्रित न रहती। बाद में उन्होंने अपने  परिवार तथा व्यवसाय को छोड़ दिया और साधु होकर केवल पैदल ही यात्रा करने लगे। वे हिमालय की ओर चल दिये। उन्हें विचार हुआ कि ‘अपनी शेष आयु शाश्वत जीवन की खोज करते हुए वहीं बितायी जाय।’ शीघ्र ही उन्हें अनुभव हुआ कि शाश्वत जीवन की प्राप्ति और खोज कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसके लिए यहाँ-वहाँ (गुरु-निर्दिष्ट मार्ग से भिन्न किन्हीं एकांत गिरि-गुफाओं, वनों में) भटकना आवश्यक हो, यह तो उनके पास ही थी। गुरुप्रदत्त मार्ग व गुरुकृपा से ‘मैं देह हूँ’ इस विचार से परे चले जाने पर उन्हें ऐसी अत्यंत आनंदकारी, शांतिपूर्ण और महिमामयी नित्य अवस्था की प्राप्ति हो गयी जिसकी तुलना में अन्य सब कुछ अत्यंत तुच्छ हो गया। उन्हें आत्मोपलब्धि हो गयी। ये ही मारुति आगे चलकर श्री निसर्गदत्त महाराज के नाम से प्रसिद्ध हुए।

कैसे उन्हें सदगुरु का मार्गदर्शन मिला और आत्मानुभव हुआ यह बताते हुए वे स्वयं कहते हैं- “जब मैं अपने गुरु से मिला तो उन्होंने बताया कि ‘तुम वह नहीं हो जैसा कि अपना होना तुम मान्य करते हो। इसका पता लगाओ कि तुम क्या हो ?’ ‘मैं हूँ’ की भावना का निरीक्षण करो, अपने वास्तविक स्वरूप का पता लगाओ।’ मैंने उनकी आज्ञा का पालन किया क्योंकि उन पर मेरी श्रद्धा थी। मैंने वैसा ही किया जैसा उन्होंने मुझे कहा था। अपने अवकाश के सारे समय को मैंने मौन में अपने-आपका निरीक्षण करते हुए व्यतीत किया करता था और इसके फलस्वरूप कितना अधिक अंतर आ गया और वह भी कितने शीघ्र !

अपने वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार करने में मुझे मात्र 3 वर्ष लगे। जब मैं 34 वर्ष का था तब मेरी भेंट मेरे गुरु से हुई और जब मैं 37 वर्ष का था तब मुझे आत्मज्ञान हो चुका था।”

ब्रह्मानुभव हेतु गुरुआज्ञा-पालन व गुरुनिष्ठा को अत्यंत आवश्यक बताने वाले श्री निसर्गदत्त महाराज 8 सितम्बर 1981 को ब्रह्मलीन हुए।

निसर्गदत्त महाराज के अनुभव वचन

सान्निध्य का अर्थ यह नहीं कि एक ही वायु से सब साँस लें। इसका तात्पर्य होता है भरोसा और आज्ञाकारिता, गुरु की सदिच्छाओं को व्यर्थ न जाने देना। अपने गुरु को सदा अपने हृदय में रखो और उनके आदेशों को स्मरण रखो – यह वास्तविक सत्यनिष्ठा है। अपने सम्पूर्ण जीवन को अपने गुरु के प्रति तुम्हारी श्रद्धा और प्रेम की अभिव्यक्ति बना दो, यही यथार्थतः गुरु के साथ रहना है।

गुरु का यही स्वभाव है कि वे प्रयास कभी नहीं छोड़ते। परंतु सफलता हेतु यह आवश्यक है कि उनका प्रतिरोध न किया जाय। संदेह रखने से, आज्ञाकारिता के अभाव से (लक्ष्यप्राप्ति में) विलम्ब हो जाना निश्चित ही है। यदि उनके प्रति शिष्य की आस्था और नम्रता हो तो अपने शिष्य में वे अपेक्षाकृत तीव्र गति से मौलिक रूपांतरण ला सकते हैं। गुरु की गहरी अंतर्दृष्टि तथा शिष्य की गम्भीरता – ये दोनों बातें आवश्यक होती हैं।

गुरु सदैव तैयार होते हैं, बस तुम तैयार नहीं होते। सीखने हेतु तुम्हें तैयार रहना होगा अन्यथा तुम अपने गुरु से मिलकर भी, अपने गहन प्रमाद और हठधर्मिता के कारण उस अवसर को नष्ट कर सकते हो। मेरा उदाहरण देखोः मुझमें कोई विशेष योग्यता न थी पर जब मैं अपने गुरु से मिला तो मैंने उन्हें सुना, उन पर श्रद्धा रखी और उनकी आज्ञाओं का पालन किया।

अपने गुरु से जो कुछ भी प्राप्त होता है उसमें प्रसन्न रहो और तब तुम संघर्ष किये बिना ही परिपूर्णता तक विकसित हो जाओगे।

एक जीते-जागते मनुष्य के रूप में गुरु को पा सकना (शिष्य के लिए) एक विरला अवसर और एक महान उत्तरदायित्व होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद जुलाई 2018, पृष्ठ संख्या 22, 23 अंक 307

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ