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Prerak Prasang

ऐसी हो हर युवा वीर की माँग-पूज्य बापू जी


राजा भोज को एक युवक ने अपनी असाधारण प्रतिभा से बड़ा प्रसन्न कर दिया। वह युवक प्रतिदिन प्रातःकाल जल्दी उठता था। सूर्योदय के पहले स्नानादि कर लेने से बुद्धि में सात्त्विकता आती है, स्वभाव में प्रसन्नता आती है और स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है।

वह युवक सुबह जल्दी नींद में से उठते ही चिंतन करता था कि ‘जाग्रत-स्वप्न सुषुप्ति आती जाती रहती हैं, उनको जानने वाले सच्चिदानंदस्वरूप आत्मदेव में मैं शांत हो रहा हूँ…. ॐ आनंद….’ जो नित्य-शुद्ध-बुद्ध चैतन्य है – अपना शाश्वतस्वरूप ‘मैं’, उसकी स्मृति में, सुखस्वरूप में, गुरु के बताये मार्ग से ध्यानमग्न होता था। गुरु के बताये अनुसार जप करता था। उसका व्यवहार प्रसन्नता एवं आत्मीयता से इतना भरा होता था कि सारे मंत्री भी उसका गुणगान किये बिना नहीं रह सकते थे।

राजा ने वर्ष के अंत में उस युवक का सम्मान-समारोह आयोजित करवाया एवं उसकी प्रशंसा करते हुए कहाः “युवक ! भले तुम किसी और के  पुत्र हो लेकिन मेरे राजकुमारों से भी तुम हजार गुना अच्छे हो। तुम्हारी असाधारण सेवाओं के प्रति-उपकार के रूप में कुछ न कर पाने से मैं बोझ से दबा सा जा रहा हूँ। तुम स्वयं ही कुछ माँग लो ताकि मेरा भार कुछ हलका हो जाय। तुम जिससे कहो उससे तुम्हारा विवाह करवा दूँ, मनोरंजन के लिए नर्तकियाँ आदि दे दूँ। यदि मैं तुम्हें कुछ न दूँ तो मैं मानव कहलाने लायक ही  न रहूँगा। माँग लो युवक ! तुम्हें जो चाहिए माँग लो।”

यह सुनकर भारत के उस युवक ने गजब का उत्तर दिया ! उसने कहाः “राजन् ! मुझे जो चाहिए वह आपके पास है ही नहीं तो मैं क्या माँगूँ ? सामने वाले के पास जो हो, वही चीज माँगनी चाहिए। उसके सामर्थ्य से बाहर की चीज़ माँगना माँगने वाले की नासमझी है।”

राजा भोज हैरान रह गये युवक की बातें सुनकर ! फिर बोलेः “मेरे पास किस चीज की कमी है ? सुंदर स्त्री, धन, राज्य – सभी कुछ तो है। अगर तुम कहो तो तुम्हें बहुत सारी जमीन-जागीर दे सकता हूँ या पाँच-पच्चीस गाँव भी दे सकता हूँ। माँग लो, संकोच न करो।”

युवकः “राजन् ! सुंद स्त्री, मनोरंजन करने वाली नर्तकियाँ और महल आदि मनोरंजन भोग दे सकते हैं किंतु यह जीवन भोग में बरबाद होने के लिए नहीं है वरन् जीवनदाता का ज्ञान पाने के लिए हैं और इसके लिए मुझे किन्हीं ब्रह्मवेत्ता महापुरुष की कृपा की आवश्यकता है। मैं तो परम शांति, परम तत्त्व को पाना चाहता हूँ। वह आपके पास नहीं है राजन् ! फिर मैं आपसे क्या माँगूँ ?”

राजा भोज धर्मात्मा थे। बोलेः “युवक ! तुम धन्य हो ! तुम्हारे माता-पिता भी धन्य हैं ! तुमने तो जीवन की जो वास्विक माँग है वही कह दी। परम शाँति तो मनुष्यमात्र की माँग है।”

बाहर की धन दौलत, सुख सुविधाएँ कितनी भी मिल जायें, उनसे कभी पूर्ण तृप्ति नहीं होती। बाहर की चाहे कितनी भी प्रतिष्ठा मिल जाय, सत्ता मिल जाय, अरे ! एक व्यक्ति को ही सारी धरती का राज्य मिल जाय, धन मिल जाय, सुंदरियाँ उसकी चाकरी में लग जायें फिर भी उसे परम शांति नहीं मिल सकती। परम शांति तो उसे मिलती है जिस पूर्ण गुरु का ज्ञान मिल जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2018, पृष्ठ संख्या 20, अंक 302

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राजा वसु पहुँचे आकाश से सीधे पाताल में !


धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्म जी से पूछा कि पितामह ! राजा वसु का पतन किस कारण हुआ था ? तब भीष्म जी ने कहाः भरतनंदन ! इस विषय में ज्ञानीजन ऋषियों और देवताओं के संवादरूप इस प्राचीन इतिहास को उद्धृत किया करते हैं-

किससे यज्ञ करें – बकरे या अन्न से ?

“अज के द्वारा यज्ञ करना चाहिए – ऐसा विधान है।” ऐसा कहकर देवताओं ने उनके पास आये हुए सभी श्रेष्ठ ब्रह्मर्षियों से कहाः “यहाँ ‘अज’ का अर्थ ‘बकरा’ समझना चाहिए।”

ऋषियों ने कहाः “देवताओ ! यज्ञों में बीजों द्वारा यजन करना चाहिए ऐसी वैदिकी श्रुति है। बीजों का ही नाम अज है अतः बकरे का वध करना हमारे लिए उचित नहीं है। जहाँ कहीं भी यज्ञ में पशु का वध हो वह सत्पुरुषों का धर्म नहीं है।”

इस प्रकार जब ऋषियों का देवताओं के साथ संवाद चल रहा था उसी समय  उपरिचर राजा वसु भी उस मार्ग से आ निकले और वहाँ पहुँच गये। राजा उपरिचर अपने सेना और वाहनों के साथ आकाशमार्ग से चलते थे। उन अंतरिक्षचारी वसु को सहसा आते देख ब्रह्मर्षियों ने देवताओं से कहाः “ये नरेश हम लोगों का संदेह दूर कर देंगे क्योंकि ये यज्ञ करने वाले, दानपति तथा श्रेष्ठ हैं।”

देवताओं और ऋषियों ने राजा वसु के पास आकर पूछाः “राजन् ! किसके द्वारा यज्ञ करना चाहिए ? बकरे द्वारा अथवा अन्न द्वारा ? हमारे इस संदेह का आप निवारण करें।”

राजा वसु ने दोनों का मत जाना। देवताओं का मत जानकर राजा ने उन्हीं का पक्ष लेकर कह दिया कि “अज का अर्थ है बकरा अतः उसी के द्वारा यज्ञ करना चाहिए।”

ऋषि बोलेः “राजन ! तुमने यह जान के भी कि ‘अज’ का अर्थ ‘अन्न’ है देवताओं का पक्ष लिया है इसलिए स्वर्ग से नीचे गिर जाओ। आज से तुम्हारी आकाश में विचरने की शक्ति नष्ट हो गयी। हमारे श्राप के आघात से तुम पृथ्वी को भेदकर पाताल में प्रवेश करोगे।

नरेश्वर ! तुमने यदि वेद और सूत्रों के विरुद्ध कहा हो तो हमारा यह श्राप अवश्य लागू हो और यदि हम शास्त्रविरुद्ध वचन कहते हों तो हमारा पतन हो जाये।

ऋषियों के ऐसा कहते ही उसी क्षण राजा उपरिचर आकाश से नीचे आ गये और तत्काल पृथ्वी के विवर में प्रवेश कर गये।

बाद में सभी देवता स्वर्ग से भ्रष्ट हुए उस राजा के पास गये और अपने से भी श्रेष्ठ उन ब्रह्मवेत्ता ऋषियों की महिमा का वर्णन करते हुए बोलेः “नृपश्रेष्ठ ! तुम्हें ब्रह्मवेत्ता महात्माओं का सदा ही समादर करना चाहिए। अवश्य ही यह उनकी तपस्या का फल है जिससे तुम आकाश से सहसा भ्रष्ट होकर पाताल में चले आये हो।”

पितामह भीष्म जी कहते हैं- कुंतीनंदन ! इस प्रकार उस महामनस्वी नरेश ने भी ब्रह्मवेत्ताओं के साथ वाचिक अपराध करने के कारण अधोगति प्राप्त की थी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2018, पृष्ठ संख्या 7 अंक 301

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सनातन धर्म ही राष्ट्रीयता है


योगी अरविन्द जी को षड्यंत्र के तहत वर्षभर जेल में रखा गया। जेल के एकांतवास में उन्हें  भगवान के दर्शन हुए और भगवत्प्रेरणा से सनातन धर्म से सम्बंधित कई रहस्यों की अनुभूति हुई। जेल से रिहा होने के बाद 30 मई 1909 को उत्तरपाड़ा (प. बंगाल) में हुई एक सभा में उस अनुभूति को उन्होंने देशवासियों के सामने रखाः

जेल के एकांतवास में दिन प्रतिदिन भगवान ने अपने चमत्कार दिखाये और मुझे हिन्दू धर्म के वास्तविक सत्य का साक्षात्कार कराया। पहले मेरे अंदर अनेक प्रकार के संदेह थे। मेरा लालन-पालन इंग्लैंड में विदेशी भावों और सर्वथा विदेशी वातावरण में हुआ था। एक समय मैं हिन्दू धर्म की बहुत सी बातों को मात्र कल्पना समझता था, यह समझता था कि इसमें बहुत कुछ केवल स्वप्न, भ्रम या माया है परंतु अब दिन-प्रतिदिन मैंने हिन्दू धर्म के सत्य को अपने मन में, अपने प्राणों में और अपने शरीर में अनुभव किया। मेरे सामने ऐसी सब बातें प्रकट होने लगीं जिनके बारे में भौतिक विज्ञान कोई व्याख्या नहीं दे सकता। जब मैं पहले पहल भगवान के पास (शरण) गया तो पूरी तरह भक्तिभाव के साथ नहीं गया था।

मैं भगवान की ओर बढ़ा तो मुझे उन पर जीवंत श्रद्धा न थी। उस समय मैं नास्तिक था, संदेहवादी था और मुझे पूरी तरह विश्वास न था कि भगवान हैं भी। मैं उनकी उपस्थिति का अनुभव नहीं करता था, फिर भी कोई चीज थी जिसने मुझे वेद के सत्य की ओर, हिन्दू धर्म के सत्य की ओर आकर्षित किया। मुझे लगा कि वेदांत पर आधारित इस धर्म में कोई परम बलशाली सत्य अवश्य है। मैंने यह जानने का संकल्प किया कि ‘मेरी बात सच्ची है या नहीं ?’ तो मैंने भगवान से प्रार्थना कीः ‘हे भगवान ! यदि तुम हो तो तुम मेरे हृदय की हर बात जानते हो। मैं नहीं जानता कि कौन-सा काम करूँ और कैसे करूँ ! मुझे एक संदेश दो।’

मुझे संदेश आया (भगवद वाणी सुनाई दी)। वह इस प्रकार थाः ‘इस एक वर्ष के एकांतवास में तुम्हें वह चीज दिखायी गयी है जिसके बारे में तुम्हें संदेह था, वह है हिन्दू धर्म का सत्य। यही वह धर्म है जिसे मैंने ऋषि-मुनियों और अवतारों द्वारा विकसित किया और पूर्ण बनाया है। तुम्हारे अंदर जो नास्तिकता थी, जो संदेह था, उसका उत्तर दे दिया गया है क्योंकि मैंने अंदर और बाहर स्थूल और सूक्ष्म – सभी प्रमाण दे दिये हैं और उनसे तुम्हें संतोष हो गया है।

जब तुम बाहर निकलो तो सदा अपनी (सनातन हिन्दू धर्म की) जाति को यही वाणी सुनाना कि वे सनातन धर्म के लिए उठ रहे हैं, वे अपने लिए नहींह बल्कि संसार के लिए उठ रहे हैं। अतएव जब यह कहा जाता है कि भारतवर्ष ऊपर उठेगा तो उसका अर्थ होता है सनातन धर्म ऊपर उठेगा। जब कहा जाता है कि भारतवर्ष महान होगा तो उसका अर्थ होता है सनातन धर्म बढ़ेगा और संसार पर छा जायेगा। धर्म के लिए और धर्म के द्वारा ही भारत का अस्तित्व  है। धर्म की महिमा बढ़ाने का अर्थ है देश की महिमा बढ़ाना।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 9 अंक 300

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