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गुरुदेव की शरण रहना परम आत्मधर्म है – स्वामी मुक्तानंद जी


परम दैवत (देवता) रूप श्री गुरुदेव की शरण हो जाना, सब धर्मों को छोड़कर, सब देवी-देवता, सब मत-मतांतर, सर्व-सम्प्रदाय, सर्वमिथ्या कर्मकांड को त्याग के ईश्वररूप श्री गुरुदेव का ध्यान करना, उनके चरणों में प्रीति करना परम आत्मधर्म है। यही मनुष्य की अपनी अंतरात्मा-स्थिति है।

गुरु बारम्बार शिष्य के अंदर अपने को उसके भाव के अनुरूप प्रकट करते हैं। बाहर से दूर होने पर भी गुरु अंदर बहुत नजदीक हैं। इसीलिए मैं बार-बार बोलता हूँ कि ‘गुरु, मंत्र, ईश्वर और अपने को अभेदरूप जानकर मंत्र जपो, तब मंत्र फलीभूत होगा।’

एक ही जीवन में मनुष्य का 2 बार जन्म होने के कारण उसके जन्मदाता भी 2 होते हैं-

एक होता है वीर्यशक्ति सम्पन्न पिता, जो अपने वीर्यदान से बच्चे को जन्म देता है। दूसरा मंत्रवीर्य शक्ति सम्पन्न पिता, जो मंत्रशक्ति अथवा निज आत्मशक्ति को शिष्य के अंदर प्रतिष्ठित करके उसे नया जन्म देता है।

स गुरुर्मत्समः प्रोक्तो मन्त्रवीर्यप्रकाशकः।

जैसे वीर्यरूप में पिता ही आप पुत्र बनकर जन्मता है, वैसे ही गुरु मंत्र साधनरूप से शिष्य में बढ़ते हैं। गुरु आपका अंतरात्मा हैं – घट-घटवासी। मुझको ‘एक’ समझो नहीं, एक होकर भी मैं अनेक हूँ। इसीलिए गुरु का सबका समानरूप से समाधान करना कोई चमत्कार नहीं, सहज स्वाभाविक है।

गुरु आज्ञा पालन से सर्व काम हो जाते हैं

जिसने गुरु के कहे हुए वचनो में पूरी तरह अपना मन धो डाला हो, जो सदगुरु के शब्दों को पूरा पालता हो, उनका काटता नहीं, तोड़ता नहीं, उनको भंग नहीं करता, आज्ञापालक शिष्य है। ‘जो आपने कहा, वही करूँगा।’, यह इस वाक्य का अर्थ है और यही सर्व धर्म का शिखर धर्म भी है।

बाबा (मुक्तानंद जी के सदगुरुदेव स्वामी नित्यानंद जी) हमको जो बोलते थे, वही हम करते थे। हमको कहाः “इधर बैठ जाओ।” तो आज तक हम उधर ही हैं। मुझे रूद्रस्तोत्र में बहुत रूचि थी। कही भी नदी किनारे बालू एकत्र करता, लिंग बनाता था, कमंडल से पानी डालकर रूद्रस्तोत्र बोलता ही रहता था। एक दिन ऐसे ही लिंग बनाकर अभिषेक करत हुआ रूद्रस्तोत्र बोल रहा था।

बाबा (निषेधात्मक स्वर में) बोलेः “क्या पूजता है रे, क्या पूजता है ?” मैं आधे में ही अभिषेक छोड़ दिया। पाठ भी पूरा नहीं किया। मुझे पुस्तक पढ़ने का भी बहुत व्यसन था। बाबा के पास जाते समय भी बगल में एकाध पुस्तक दबाकर ले जाता था। एक बार बाबा बोलेः “पुस्तक का ज्ञान क्या ? मिट्टी ! मस्तक का ज्ञान श्रेष्ठ।” तब से सब पुस्तकें पुस्तकालय को दे दीं।

मनुष्य वचनभ्रष्ट होकर सदा कष्टी है। 100 में से 19 लोग वचनभ्रष्ट हो जाते है। वे तपस्या को जल्दी सिद्ध नहीं कर सकते। ‘करिष्ये वचनं तव।’ का अर्थ है ‘पूर्ण गुरुआज्ञा पालन।’ गुरु का कहना नहीं मानना ही पाप है। गुरुवचनों में बहुत शक्ति होती है, इन्हीं के अनुरूप आचरण से सर्व सिद्धियों की प्राप्ति होती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2017, पृष्ठ संख्या 27 अंक 294

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हे गुरुदेव ! आप ही इस विश्व के सर्वस्व हैं…. संत ज्ञानेश्वरजी


हे गुरुदेव ! आपकी जय हो ! समस्त देवों में आप ही श्रेष्ठ हैं। हे बुद्धिरूपी प्रातःकाल के सूर्य ! सुख का उदय आपसे ही होता है। आप ही सबके विश्रामस्थल हैं। आप ही के द्वारा ‘सोऽहम्’ भाव का साक्षात्कार होता है। इस नाना स्वरूपवाली पंचभूतात्मक सृष्टि की तरंगें जिस समुद्र पर उठती हैं वह समुद्र आप ही हैं। आपके ऐसे स्वरूप की जय हो, जय हो ! हे आर्तबंधु ! निरन्तर करूणासिंधु (दया के सागर), शुद्ध आत्मविद्यारूपी वधू के वल्लभ (प्रियतम, स्वामी) ! आप सुनें। आप जिनकी दृष्टि में नहीं आते उन्हीं को यह मायिक विश्व दिखलाते हैं और उन्हीं पर यह नाम-रूपात्मक जगत प्रकट करते हैं। दूसरों की दृष्टि को चुराने को ही दृष्टि-बंध कहते हैं परंतु आपका यह अदभुत कौशल ऐसा है कि आप स्वयं अपना ही स्वरूप छिपाते हैं।

हे गुरुदेव ! आप ही इस विश्व के सर्वस्व हैं। यह सब नाट्य आपका ही रचा हुआ है। आप ही किसी को माया का भास कराते हैं और किसी को आत्मबोध कराते हैं। आपके ऐसे स्वरूप को नमन है ! मेरी समझ में तो सिर्फ यही आता है कि इस जगत में जिसे अप (जल) कहते हैं, उसे आपके ही शब्दों से मधुरता प्राप्त हुई है। आपसे ही पृथ्वी को क्षमावाला गुण भी मिला हुआ है। सूर्य और चन्द्रमा इत्यादि जो तेजस्वी सिपाही संसार में उदित होते हैं, उनके तेज को आपकी प्रभा से ही तेज प्राप्त होता है। वायु की चंचलता भी आपका ही दिव्य सामर्थ्य है और आकाश भी आपका ही आश्रय पाकर यह आँख-मिचौली का खेल खेल खेलता है।

तात्पर्य यह कि सारी माया आपकी ही देन है और आपके ही सामर्थ्य से ज्ञान की दृष्टि प्राप्त होती है। पर अब इस विवेचन की यहीं समाप्ति करनी चाहिए कारण कि वेद भी ऐसा विवेचन करते-करते थक जाते हैं। जिस समय तक आपके आत्मस्वरूप के दर्शन नहीं होते, उस समय तो वेदों की विवेचनात्मक शक्ति ठीक तरह काम करती है पर जब आपके स्वरूप के सन्निकट की कोई मंजिल अथवा पड़ाव आ जाता है, तब फिर वेद भी तथा मैं भी दोनों मौन हो जाते हैं अर्थात् दोनों की दशा एक समान हो जाती है। जिस समय चारों दिशाओं में समुद्र-ही-समुद्र हो और एक बुलबुला भी अलग न दिखाई देता हो, उस समय (उसमें मिल चुकी) महानदियों को ढूँढ निकालने की बात ही नहीं करनी चाहिए। जिस समय सूर्योदय होता है उस समय चन्द्रमा खद्योत (जुगनूँ) की भाँति हो जाता है। इसी प्रकार आपके आत्मस्वरूप में वेद और मैं – दोनों ही एक से हो जाते हैं। फिर जहाँ द्वैत का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है तथा परा वाणी (चार प्रकार की वाणियों में पहली जो नादस्वरूपा और मूलाधार से निकली हुई मानी गयी है।) के साथ वैखरी वाणी (मुँह से उच्चारित होने वाली वाणी) का भी लोप हो जाता हो, वहाँ भला मैं किस मुख से आपका वर्णन कर सकता हूँ ! यही कारण है कि अब मैं आपकी स्तुति करने की चेष्टा छोड़कर चुपचाप आपके चरणों पर माथा टेकना ही अच्छा समझता हूँ।

ऋषि प्रसाद, मई 2017, पृष्ठ संख्या 24 अंक 293

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संत करें आप समान…..


पूज्य बापू जी

आत्मकल्याण की चाहना से एक व्यक्ति ने जाकर किन्हीं संत से प्रार्थना कीः “मुझ पर अपनी कृपादृष्टि कीजिये नाथ !”

उसकी श्रद्धा देखकर गुरु ने उसे मंत्र दे दिया और कहाः “बेटा ! एक वर्ष तक भलीभाँति इस मंत्र का जप करना। बाद में स्नान करके पवित्र होकर मेरे पास आना।”

एक वर्ष पूरा हुआ। वह शिष्य स्नानादि करके पवित्र होकर गुरु के पास जा रहा था, तब गुरु की ही आज्ञा से एक महिला ने इस तरह झाड़ू लगायी कि धूल उस शिष्य पर पड़ी। अपने ऊपर धूल पड़ते देख वह शिष्य अत्यंत आगबबूला हो उठा एवं उस महिला को मारने दौड़ा। वह तो भाग गयी।

वह पुनः गया नहाने के लिए और नहा-धोकर पवित्र हो के गुरु के पास आया। गुरु ने सारी बात तो पहले से जान ही ली थी। गुरु ने कहाः “अभी तो तू साँप की तरह काटने दौड़ता है। अभी तेरे अंदर मंत्रजप का रस प्रकट नहीं हुआ। जा, फिर से एक वर्ष तक मंत्रजप कर फिर मेरे पास आना।”

एक वर्ष बाद पुनः जब वह नहा धोकर पवित्र हो के आ रहा था, तब उस महिला ने धूल तो क्या उड़ायी, उसके पैर से ही झाडू छुआ दी। झाड़ू छू जाने पर वह भड़क उठा किन्तु वह मारने न दौड़ा। फिर से नहा धो के गुरु चरणों में उपस्थित हुआ।

गुरु ने कहाः “बेटा ! अब तू साँप की तरह काटने तो नहीं दौड़ता लेकिन फुफकारता तो है। अभी भी तेरी वैर-वृत्ति गयी नहीं है। जा, पुनः एक वर्ष तक जप करके पवित्र हो के आना।”

तीसरा वर्ष पूरा हुआ। शिष्य नहा धोकर गुरु के पास आ रहा था। इस बार गुरु के संकेत के अनुसार उस महिला ने कचरे का टोकरा ही शिष्य पर उँडेल दिया। इस बार पूरा कचरा उँडेल देने पर भी वह न मारने दौड़ा, न क्रोधित हुआ क्योंकि इस बार जप करते-करते वह जप के अर्थ में तल्लीन हुआ था। उसके चित्त में शांति एवं तत्त्वज्ञान की कुछ झलकें आ चुकीं थी, वह निदिध्यासन की अवस्था में पहुँच गया था। वह बोलाः “हे माता ! तुझे परिश्रम हुआ होगा। मुझ देहाभिमानी के देह के अभिमान को तोड़ने के लिए तू हर बार साहस करती आयी है। मेरे भीतर के कचरे को निकालने के लिए माता ! तूने बहुत परिश्रम किया। पहले यह बात मुझे समझ में न आती थी किंतु इस बार गुरुकृपा से समझ में आ रही है कि आदमी जब भीतर से गंदा होता है, तब ही बाहर की गंदगी उसे भड़का देती है। नहीं तो देखा जाये, तो इस कचरे में भी तत्त्वरूप से तो वह परमात्मा ही है।”

यह कहकर वह पुनः स्नान करके गुरु के पास गया। ज्यों ही वह गुरु को प्रणाम करने गया, त्यों ही गुरु ने उसे उठाकर अपनी छाती से लगा लिया और कहाः “बेटा ! क्या चाहिए ?”

शिष्य सोचने लगा कि ‘जब सर्वत्र वही है, सबमें वही है तो चाह किसकी करूँ और चाह भी कौन करे ?’

गुरु की करूणा कृपा बरस ही रही थी। गुरुकृपा तथा इस प्रकार के चिंतन से धीरे-धीरे वह शिष्य खोता गया…. खोता गया….. खोते-खोते वह ऐसा खो गया कि वह जिसको खोजता था वही हो गया। ठीक ही कहा हैः

पारस और संत में बड़ा अंतरहू जान।

एक करे लोहे को कंचन, ज्ञानी आप समान।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2017, पृष्ठ संख्या 6 अंक 289

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