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शिष्य को जोड़े सदगुरु सेः संप्रेषण शक्ति


पूज्य बापू जी

शरीर का श्रृंगार तो रात को बिखर जाता है लेकिन अपने ʹमैंʹ का श्रृंगार तो मौत के बाद भी सुवास देता है। जैसे शबरी का शरीर तो मर गया लेकिन उसके श्रृंगार की सुवास अभी भी है। की बार शिष्यों को सपने में गुरु प्रेरणा देते हैं। कई बार ध्यान में प्रेरणा देते हैं। कई बार भावों से भरा हुआ शिष्य जो कहता है वैसा हो जाता है अथवा जो होने वाला होता है, शिष्य को पूर्व-सूचना मिल जाती है। ऐसी-ऐसी गुरु-शिष्यों के संबंधों की कई ऐतिहासिक गाथाएँ हैं। ये घटनाएँ ʹसंप्रेषण शक्तिʹ के प्रभाव से होती है।

संप्रेषण शक्ति का आभास तब होता है जब शिष्य मनोमय और विज्ञानमय शरीर में पहुँचता है। अन्नमय शरीर (स्थूल शरीर) और प्राणमय शरीर से तो वह आता है लेकिन गुरु के सान्निध्य में एकाकार होकर शिष्य मनोमय और विज्ञानमय शरीर में पहुँचता है।

संप्रेषण शक्ति का माध्यमः गुरुमंत्र

जैसे मोबाइल फोन के टावर से तुम्हारे मोबाइल में ध्वनि की विद्युत चुम्बकीय तरंगे आती हैं तो बीच में सिम कार्ड की व्यवस्था है, ऐसे ही गुरु और ईश्वर की अध्यात्म-शक्ति की तरंगे जिस सिम कार्ड से शिष्य के अंदर संचार करती हैं उसका नाम है गुरुमंत्र। सिम कार्ड तो एक्सपायर हो जाता है और मनुष्य का बनाया हुआ है लेकिन मंत्र मनुष्य का बनाया हुआ नहीं है। ऋषि मंत्र के द्रष्टा हैं, ऋषियों ने भी नहीं बनाया है। गुरु जब मंत्र देते हैं तो मनोमय और विज्ञानमय शरीर के साथ आत्मिक स्तर पर गुरु-शिष्य का संबंध हो जाता है। मंत्र एक माध्यम बन जाता है, जोड़ देता है गुरु की शक्ति के साथ। गुरु मंत्रदीक्षित साधक को संप्रेषित कर देते हैं। बौद्धिक प्रदूषणों से दूर कर देते हैं। उसके द्वारा कोई गलती होती है तो तुरंत उसको एहसास होता है। जो निगुरा है वह गलत करेगा तो भी उसे गलती नहीं लगेगी। सगुरा गलत करेगा तो उसको गलती दिखेगी, उसकी बुद्धि में गुरुमंत्र का प्रकाश है। गुरुमंत्र के प्रकाश से चित्त ऐसा प्रकाशित होता है कि विज्ञान की वहाँ दाल नहीं गलती। विश्लेषण, गणित और आधुनिक विज्ञान से यह अलग प्रकाश है।

जैसे पयहारी बाबा को पृथ्वीराज चौहान न कहा किः “मैं आपको द्वारिका ले जाऊँगा।”

वे बोलेः “तू क्या ले जायेगा ! मैं तुझे ले जाऊँगा।”

बाबा रात को पृथ्वीराज चौहान के कमरे में प्रकट हो गये। पृथ्वीराज चौहान को द्वारिकाधीश का दर्शन करा के सुबह होने के पहले अपने कमरे में पहुँचा दिया। यहाँ विज्ञान तौबा पुकार जायेगा। मेरे गुरुजी मुझे याद करके कुछ दे रहे हैं, तुरंत पता चल जाता। ऐसे ही कोई शिष्य याद करता है तो गुरु के चित्त में उसका स्फुरण हो जाता है।

यह जो गुरुओं की परम्परा है और संप्रेषण शक्ति से रूपांतरण है, वह और किसी साधन से नहीं हो सकता है। संत तुलसीदास जी कहते हैं-

यह फल साधन ते न होई।

गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।

परम मंगल तो गुरु की कृपा से ही होता है, बिल्कुल पक्की बात है। मेरा तो क्या, मेरे जैसे अऩेक संतों का अनुभव है।

सपने में गुरुदर्शन देता अदभुत संकेत

सपने में सिर पर गुरु जी हाथ रख रहे हैं तो यह समझ लेना कि गुरु जी का आशीर्वाद आया है। सपने में गुरु जी से बात कर रहे हैं तो समझो गुरु जी सूझबूझ का धन देना चाहते हैं। सपने में गुरुजी को हम स्नेह कर रहे हैं तो प्रेमाभक्ति का प्रकाश होने वाला है। अगर आप सपने में चाहते हैं कि हमारे सिर पर गुरु जी हाथ रखें तो आपके अंदर आशीर्वाद पचाने की क्षमता आ रही है। यह इसका गणित है। अगर आपकी आँखें गुरुजी सपने में बंद कर देते हैं तो आपको स्थूल दृष्टि से पार सूक्ष्म दृष्टि गुरु जी देना चाहते हैं। सपने में गुरुजी तुमसे या किसी से बात करते हुए दिखते हैं तो मानो तुम पर बरसना चाहते हैं।

भक्ति आरम्भ में मंदिर, गिरजाघर, पूजा-स्थल पर होती है लेकिन सच्ची भक्ति सदगुरु की दीक्षा के बाद शुरु होती है। उसके पहले तो के.जी. में सफाई करना होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2013, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 247

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लाबयान है ब्रह्मवेत्ताओं की महिमा – पूज्य बापू जी


सदगुरु मेरा सूरमा, करे शब्द की चोट। मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट।।

सदगुरु की करूणा तो करूणा है ही, उनकी डाँट भी उनकी करूणा ही है। गुरु कब, कहाँ और कैसे तुम्हारे अहं का विच्छेद कर दें, यह कहना मुश्किल है।

श्रद्धा ही गुरु एवं शिष्य के पावन संबंध को बचाकर रखती है, वरना गुरु का अनुभव और शिष्य का अनुभव एवं उसकी माँग, इसमें बिल्कुल पूर्व-पश्चिम का अंतर रहता है। शिष्य के विचार एवं गुरु के विचार नहीं मिल सकते क्योंकि गुरु जगे हुए होते हैं सत्य में, जबकि शिष्य को मिथ्या जगत ही सत्य लगता है। किंतु शिष्य श्रद्धा के सहारे गुरु में ढल पाता है और गुरु करुणा से उसमें ढल जाते हैं। शिष्य की श्रद्धा एवं गुरु की करुणा-इसी से गाड़ी चल रही है।

श्रद्धा हृदय की पवित्रता का लक्षण है, तर्क और संशय पवित्रता का लक्षण नहीं है। जैसे वस्त्र के बिना शरीर नंगा होता है, वैसे ही श्रद्धा के बिना हृदय नंगा होता है। श्रद्धा हृदय-मंदिर की देवी है। श्रद्धा होने पर ही मनुष्य किसी को अपने से श्रेष्ठ स्वीकार करता है। जीवन में गुरु, शास्त्र, संत और धर्म के प्रति श्रद्धा अवश्य होनी चाहिए।

ʹगीताʹ में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- श्रद्धावान् लभते ज्ञानं…..

श्रद्धा एक ऐसा सदगुण है जो तमाम कमजोरियों को ढक देता है। करूणा एक ऐसी परम औषधि है, जो सब सह लेती है। दोनों में सहने की शक्ति है। जैसे माँ बेटे की हर अँगड़ाई करूणावश सह लेती है, बेटे की लातें भी सह लेती है, वैसे ही गुरुदेव शिष्य की हर बालिश चेष्टा को करुणावश सहन कर लेते हैं। बाकी तो दोनों का कोई मेलजोल सम्भव ही नहीं है।

बहुत लोग किसी को मानते हैं एवं उनका आदर करते हैं इसलिए वे महात्मा हैं, ऐसी बात नहीं है। लोगों की वाहवाही से सत्य की कसौटी नहीं होती। धन-वैभव से भी सत्य को नहीं मापा जा सकता और न ही सत्ता द्वारा सत्य को मापना सम्भव है। सत्य तो सत्य है। उसे किसी भी मिथ्या वस्तु से मापा नहीं जा सकता।

माँ आनंदमयी के पास इंदिरा गाँधी जाती थीं इसलिए माँ आनंदमयी बड़ी हैं, ऐसी बात नहीं है। वे तो हैं ही बड़ी, बल्कि यह इंदिरा गांधी का सौभाग्य था कि ऐसी महान विभूति के पास वे जाती थीं। रमण महर्षि के पास मोरारजीभाई देसाई जाते थे इससे रमण महर्षि बड़े थे, ऐसी बात नहीं है वरन् मोरारजीभाई का सौभाग्य था कि महर्षि के श्रीचरणों में बैठकर आत्मज्ञान-आत्मशांति पाने के योग्य बनते थे।

लोग यदि ऐसे ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों को जानते मानते हैं तो यह लोगों का सौभाग्य है। कई ऐसे लोग हैं जिन्हें लाखों लोग जानते हैं, फिर भी वे ऊँची स्थिति में नहीं होते। कई ऐसे महापुरुष होते हैं जिन्हें उनके जीवनकाल में लोग उतना नहीं जानते जितना उनके देहावसान के बाद जानते हैं। भारत में तो ऐसे कई महापुरुष हैं जिन्हें कोई नहीं जानता जबकि वे बड़ा ऊँचा जीवन जीकर चले गये।

जैसे प्रधानमंत्री आदिवासियों के बीच आकर उन्हीं के जैसी वेशभूषा में रहें तो उऩकी योग्यता को आदिवासी क्या जान पायेंगे ! वे तो उनके शरीर को ही देख पायेंगे। उनके एक हस्ताक्षर से कितने ही नियम बदल जाते हैं, कितने ही लोगों की नींद हराम हो जाती है। इस बात का ज्ञान आदिवासियों को नहीं हो पायेगा। ऐसे ही ज्ञानी महापुरुष भी स्थूल रूप से तो और लोगों जैसे ही लगते हैं, खाते-पीते, लेते देते दिखते हैं, किन्तु सूक्ष्म सत्ता का बयान कर पाना सम्भव ही नहीं है। किसी ने ठीक ही कहा हैः

पारस अरु संत में बड़ा अंतरहू जान।

एक करे लोहे को कंचन ज्ञानी आप समान।।

पारस लोहे को स्वर्ण तो बना सकता है किंतु उसे पारस नहीं बना सकता जबकि पूर्ण ज्ञानी व्यक्ति को अपने ही समान ब्रह्मज्ञानी बना सकता है।

अनुभूति कराने के लिए ईश्वर तैयार है, गुरु समर्थ हैं तो फिर हम देर क्यों करें ? यदि ईश्वर-अनुभूति के रास्ते चलते-चलते मर भी गये तो मरना सफल हो जायेगा एवं जीते-जी ईश्वर-अनुभूति करने में सफल हो गये तो जीना सफल हो जायेगा।

ऐसे ही ब्रह्मज्ञानी संतों का दर्शन व सत्संग करते-करते मर भी गये तो अमर पद के द्वार खुल जायेंगे और इसी जन्म में लक्ष्य साध्य करने की दृढ़ता बढ़ाकर जीवन को उनके सिद्धान्त-अनुरूप बनाने में तत्पर हो गये तो जीवन्मुक्त हो जायेंगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2013, पृष्ठ संख्या 2,10 अंक 246

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छिपा परमेश्वर


गुरु सत्य है। गुरु पूर्ण हैं। गुरु की महिमा रहस्यमय और अति दिव्य है। वे मानव को नया जन्म देते हैं। उनके बारे  में कहा गया हैः

मनुष्यदेहमास्थाय छन्नास्ते परमेश्वरः।

ʹखुद परमेश्वर ही गुरुरूप मनुष्य देह धारण करके छिपकर रहता है।ʹ

गुरु की यह व्याख्या है – ʹजो शक्तिपात द्वारा अंतर्शक्ति को जगाते हैं, मनुष्य शरीर में परमेश्वरीय शक्ति को संचारित कर देते हैं, जो योग की शिक्षा, ज्ञान की मस्ती, भक्ति का प्रेम, कर्म में निष्कामता और जीते-जी मोक्ष देते हैं, वे परम गुरु शिव से अभिन्नरूप हैं। वे ही राम, शक्ति, गणपति और वे गुरु ही माता-पिता हैं।ʹ

ऐसे गुरु का कितना उपकार, कितना अनुग्रह, कितनी दया है ! ऐसे गुरु समान कौन मित्र, कौन प्रेमी, कौन माँ और कौन देवता है ? जिन गुरु ने आपके कुल, जाति, कर्म-अकर्म, गुण-दोष आदि देखे बगैर आपको अपना लिया, उन गुरु की महिमा कौन गा सकता है ! श्रीगुरु में जिसकी प्रह्लाद जैसी दृढ़ आस्तिक बुद्धि होती है, उसके अंदर परमेश्वर का प्रकट होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

तुम डरो मत ! निर्भय होकर गुरु का आश्रय हो। गुरु पर भरोसा रखो। एक आशा, एक विश्वास, एक बल श्रीगुरु का लेकर रहो। गुरु में पूर्ण आत्मसमर्पण करके गुरुभाव को अपनाओ।

स्वामी श्री मुक्तानंदजी (ʹचित्तशक्ति विलासʹ से साभार)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2013, पृष्ठ संख्या 29, अंक 246

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