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Sant Charitra

योगीराज तैलंगस्वामी के वचनामृत


 

‘गुरु’ शब्द का अर्थ है – ‘ग’ शब्द से गतिदाता, ‘र’ शब्द से सिद्धिदाता और ‘उ’ शब्द से कर्त्ता, यानी जो गति-मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं, उन्हें गुरु कहा जाता है, इसीलिए ईश्वर और गुरु में प्रभेद नहीं है।

ऐसे गुरु को कभी मनुष्यवत् नहीं समझना चाहिए। अगर गुरु पास में हों तो किसी भी देवता की अर्चना नहीं करनी चाहिए। अगर कोई करता है तो वह विफल हो जाता है।
गुरु ही कर्त्ता, गुरु ही विधाता है। गुरु के संतुष्ट होने पर सभी देवता संतुष्ट हो जाते हैं। ‘ग’ वर्ण उच्चारण करने पर महापातक नष्ट हो जाते हैं, ‘उ’ वर्ण उच्चारण करने पर इस जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं और ‘रु’ वर्ण के उच्चारण से पुर्वजन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं।

गुरु का महत्त्व इसलिए है कि शिष्य को संसार-समुद्र से पार कराने की पूरी जिम्मेदारी उनकी है। इसके लिए भगवान के निकट वे उत्तरदायी होते हैं।

जो सर्वशास्त्रदर्शी, कार्यदक्ष, शास्त्रों के यथार्थ मर्म के ज्ञाता हों, सुभाषी हों, विकलांग न हों, जिनके दर्शन से लोक-कल्याण हो, जो जितेन्द्रिय हों, सत्यवादी, शीलवान, ब्रह्मवेत्ता, शान्त चित्त, मात-पितृ हित निरत, आश्रमी, देशवासी हों – ऐसे व्यक्ति को गुरु के रूप में वरण करना चाहिए।

सड़े-जले बीज से पौधे जन्म नहीं लेते, इसलिए बीज का चुनाव ठीक से करना चाहिए। सदगुरु सहज ही नहीं मिलते। दीक्षा लेना साधारण बात नहीं है। उपयुक्त गुरु सर्वदा सुलभ न होने के कारण ही मानव की यह दुर्दशा हुई है।

प्राचीन काल में उपयुक्त शिष्य काफी मिलते थे, इसलिए सदगुरुओं का अभाव नहीं होता था। भगवान के लिए अगर तुम्हारा हृदय व्याकुल होगा तब निश्चित है कि भगवान तुम्हारे सहायक बनकर सदगुरु से मुलाकात करा देंगे। सदगुरु राह चलते नहीं मिलते। जब तक मन में सदगुरु के लिए आशा बलवती न हो, तब तक सदगुरु नहीं मिलते और दिल बेचैन रहता है। सत्शिष्य बने बिना सदगुरु की महिमा पूरी तरह नहीं जान सकते।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2002, पृष्ठ संख्या 25 अंक 115
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Rishi Prasad 270 Jun 2015

संत की महिमा


एक संत हजारों असंत को संत बना सकते हैं लेकिन हजारों संसारी मिलकर भी एक संत नहीं बना सकते। संत बनना कोई मजाक की बात नहीं है। एक संत कइयों के डूबते हुए बेड़े तार सकते हैं, कइयों के पापमय मन को पुण्यवान बना सकते हैं, कई अभागों का भाग्य बना सकते हैं, कई नास्तिकों को आस्तिक बना सकते हैं, कई अभक्तों को भक्त बना सकते हैं, दुःखी लोगों को शांत बना सकते हैं और शांत में शांतानंद (आत्मानंद) प्रकट कराके उसे मुक्त महात्मा बना सकते हैं। एक बार राजा सुषेण कहीं जा रहे थे। राजा के साथ उनका इकलौता बेटा, रानी और गुरु महाराज थे। यात्रा करते-करते एकाएक आँधी-तूफान आया। नाव खतरे में थी। सबके प्राण संकट में थे। सुषेण के कंठ में प्राण आ गये। राजा जोर-जोर से चिल्लाने लगेः “अरे बचाओ ! बाबा जी को बचाओ !! और कुछ भी ना करो, केवल इन बाबा जी को बचाओ !…” बस, इस बात की रट लगा दी। एक बार भी नहीं बोला कि ‘मुझे बचाओ, राजकुमार को बचाओ, रानी को बचाओ।’ बड़ी मुश्किल से दैवयोग से नाव किनारे लगी। सबके जी में जी आया।

मल्लाहों का जो आगेवान था, उसने पूछाः “राजा साहब ! आपने एक बार भी नहीं कहा कि मुझे बचाओ, रानी को बचाओ, मेरे बच्चे को बचाओ। बाबा जी को बचाओ, बाबा जी को बचाओ बोलते रहे !”

राजा बोलाः “मेरे जैसे दूसरे राजा मिल जायेंगे। मैं मर जाऊँगा तो गद्दी पर दूसरा आ जायेगा। रानी और उत्तराधिकारी भी दूसरे हो जायेंगे लेकिन हजारों के दिल की गद्दी पर दिलबर को बैठाने वाले ये ब्रह्मज्ञानी संत बड़ी मुश्किल से होते हैं। इसलिए ये बच गये तो सब बच गया।”

राजा संतों की महिमा को जानता था कि संतों की वाणी से लोगों को शांति मिलती है। संतों के दर्शन से समाज का पुण्य बढ़ता है। वे दिखते तो इन्सान हैं लेकिन वे रब से मिलाने वाले महापुरुष हैं। ब्रह्मवेत्ता संत का आदर मानवता का आदर है, ज्ञान का आदर है, वास्तविक विकास का आदर है। ऐसे ब्रह्मज्ञानी संत धरती पर कभी-कभार होते हैं। जितनी देर ब्रह्मवेत्ता संतों के चरणों में बैठते हैं और वचन सुनते हैं, वह समय अमूल्य होता है। संत के दर्शन-सत्संग से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-चारों फल फलित होने लगते हैं। उन्हीं संत से अगर हमको दीक्षा मिली तो वे हमारे सदगुरु बन गये। तब तो उनके द्वारा हमको वह फल मिलता है, जिसका अंत नहीं होता।

पुण्य-पाप, सुख-दुःख दे नष्ट हो जाते हैं परंतु संत के, सदगुरु के दर्शन-सत्संग का फल अनंत से मिलाकर मुक्तात्मा बना देता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2015, पृष्ठ संख्या 19, अंक 270
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संतों की महानता और निंदकों की नीचता


(श्री माँ आनंदमयी जयंतीः 30 अप्रैल 2016)

आनंदमयी माँ के पति का नाम था श्री रमणी मोहन चक्रवर्ती। बाद में उनका नाम भोलानाथ रखा गया। जब वे उत्तरकाशी गये थे तो मसूरी में ज्योतिष नाम के एक व्यक्ति के पास माँ को छोड़कर गये थे। ज्योतिष आनंदमयी माँ को माता तथा भोलानाथ को पिता मानता था।

भारतीय संस्कृति को नीचा दिखाने वाले तथा संतों को बदनाम करने के ठेकेदार निंदकों ने माँ और ज्योतिष के साथ रहने की इस घटना को विकृत करके कुप्रचार करना चालू किया था। इसका खंडन स्वयं आनंदमयी माँ ने किया था।

एक बार माँ ने अपने भक्तों के साथ चर्चा करते समय बताया था कि “तुम लोगों ने सुना होगा, ज्योतिष का और मेरा चित्र लेकर ढाका (वर्तमान बंग्लादेश की राजधानी) में किस तरह के अपवाद का प्रचार हुआ था। इस शरीर का एक झूठा जीवन-चरित्र छपवाने का प्रयास किया गया था। उसमें कहा गया था कि ‘इस शरीर का एक बार विवाह हुआ था एवं यह विधवा हो गया था। दूसरी बार भोलानाथ के साथ विवाह हुआ।’ इस शरीर का जन्म एवं विवाह विद्याकूट में ही हुआ है। ये बातें उन्होंने विद्याकूट के ही किसी व्यक्ति से सुनी थीं। इस तरह की और भी कई बातें….. आखिर वे सब टिक नहीं पायीं। जो मिथ्या है, मिथ्या में ही उसकी समाप्ति हो जाती है। इस शरीर के इस प्रकार के अपवाद को सुनकर ज्योतिष बहुत ही अनुतप्त (दुःखी) हो के एक दिन बोलाः “माँ ! आखिर मेरे लिए (कारण) आपका अपवाद हुआ, मैं अब किसी को अपना मुँह में नहीं दिखाऊँगा। मैं एक ओर चला जाऊँगा।”

तब मैंने ज्योतिष को समझाया कि “इसमें दुःख करने की कौन सी बात है ? इतने दिन शरीर के चरित्र में कलंक ही बाकी था, अब वह भी हो गया। जो पूर्ण है उसमें सब कुछ रहना चाहिए। निंदा भी मैं हूँ, जो निंदा करता है वह भी मैं हूँ।”

भोलानाथ के चरित्र के बारे में तुम लोगों ने तरह-तरह की बातें सुनी होंगी। पारिवारिक जीवन में मेरे प्रति उनका कैसा व्यवहार था – इसको लेकर भी लोग कई तरह का अनुमान लगाते हैं। बाहर के व्यवहार को देखते हुए भीतर के भाव की धारणा करना कठिन है।

भोलानाथ ने एक बार कुशारी महाशय से कहा था कि “यह मेरी पत्नी है परंतु मैं देवी के रूप में इनको देखता आया हूँ और वैसा ही व्यवहार कर रहा हूँ। सम्पूर्ण जीवन ऐसे ही चल रहा है।” पर साधारण मति का व्यक्ति इन सब बातों को कैसे समझ सकता है ?”

धन्य है सबको आत्मस्वरूप जानने वाले ऐसे संत और धन्य हैं वे श्रद्धालुजन, जो ऐसे महापुरुषों की हयाती में ही उनमें अडिग श्रद्धा रखकर लाभान्वित होते हैं ! भगवत्प्राप्त महापुरुषों पर आरोप लगना, उनके बारे में कुप्रचार किया जाना कोई नयी बात नहीं है, ऐसा तो आदिकाल से होता आ रहा है। संत तो पूजनीय थे, हैं और रहेंगे।

संत तो उदार होते हैं, सब सह लेते हैं पर उनके शिष्य अपनी-अपनी योग्यता व क्षमता के  अनुसार निंदा व षड्यंत्र को मिटाने व सुप्रचार करने का पूरा प्रयत्न करके अपना शिष्यत्व धर्म निभाते हैं। समझदार लोग कुप्रचार की खाई में न गिरकर पाप के भागी नहीं बनते, अपने भीतर और बाहर सुप्रचार की सेवा का पावन पुण्यदायी सुख पाते व फैलाते हैं। शिवजी ने ऐसे लोगों के लिए कहा हैः

धन्या माता पिता धन्यो गोत्रं धन्यं कुलोद्भवः।

धन्या च वसुधा देवि यत्र स्याद् गुरुभक्तता ।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2016, पृष्ठ संख्या 19, अंक 280

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