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Sant Charitra

इहलोक व परलोक – दोनों की करते सँभाल


(भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज प्राकट्य दिवसः 3 अप्रैल)

करते असाध्य को भी साध्य

लोगों के दुःख देखकर साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज (पूज्य बापू जी के सद्गुरुदेव) का हृदय द्रवीभूत हो जाता था और वे उनका उपाय बता देते थे। जुलाई 1968 की बात है, एक भक्त की तबीयत कुछ खराब हो गयी। स्वामी जी ने कुछ कुदरती इलाज बताये परंतु उसने ध्यान नहीं दिया। उसने मद्रास (चेन्नई), मुंबई व दिल्ली के बड़े-बड़े डॉक्टरों से इलाज करवाया पर उलटा स्वास्थ्य अधिक खराब होता गया। उसकी जीने की आशा समाप्त होने लगी। उसने स्वामी जी को पत्र लिखा कि ‘अब मैं आपके ही सहारे हूँ, आशीर्वाद दें तो जाकर मालिक (भगवान) से मिलूँ।’ वह उस समय आगरा में थे।

स्वामी जी ऐसे करुणावान थे कि वे स्वयं आगरा गौशाला पधारे। वह भक्त बिस्तर पर था परंतु हिम्मत करके सत्संग में पहुँचा। स्वामी जी ने सत्संगियों के समक्ष उसे खड़ा किया और अपनी ब्रह्मदृष्टि डाली। फिर बोलेः “सब इलाज छोड़ दो !”

उसने कहाः “स्वामी जी ! सभी डॉक्टरों ने जवाब दे दिया है। अब आप जैसा कहेंगे, वैसा करूँगा।”

स्वामी जी ने उसे 4 चीजें करने को कहाः ” 1-पीपल व नीम का पेड़ जहाँ साथ-साथ हो वहाँ उनकी छाया में सुबह शाम 1-1 घंटा बैठना। 2-मोर के पंख से बने हुए पंखे को हर रोज सुबह शाम 27 बार शरीर के चारों ओर घुमाना। 3-सीटी बजाना। 4-रोज यह कहो कि बीमारी जा रही है, शरीर ठीक हो रहा है।

फिर उसे पथ्य भी बताया। उसने वैसा किया परंतु तकलीफ बढ़ती गयी परंतु तकलीफ बढ़ती गयी। 4 दिन बाद उसके पिता जी स्वामी जी के पास आये।

स्वामी जी ने पूछाः “दवाई तो नहीं लेता है ?”

“नहीं स्वामी जी !”

“भाई दवाई बदली जाती है तो ऐसा अवश्य होता है, घबराओ मत, सब ठीक हो जायेगा।” फिर स्वामी जी ने उसे बादाम का प्रयोग बताया और कहाः “यह इलाज जिंदगी भर करना।”

स्वामी जी के कहे अनुसार उसने इलाज शुरु किया और गुरुकृपा से कुछ दिनों में सब बीमारियाँ गायब हो गयीं। सभी डॉक्टर दंग रह गये। स्वामी जी ने ऐसे कितने ही दुःखियों के दुःख दूर किये थे। मरणासन्न लाइलाजों को अदभुत इलाज से जीवनदान दिया इन दाता ने। महाराज श्री केवल शारीरिक ही नहीं, जन्म-मरणरूपी रोग भी दूर करते थे।

करते आत्मज्ञान की वर्षा

भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज एक ऐसे महापुरुष थे जो बिना माँगे ही सत्संग व युक्तियाँ देकर भक्तों को खुशहाल कर देते थे।

एक बार स्वामी जी एक भक्त के साथ गोधरा (गुज.) में नदी तट पर गये थे। उससे बोलेः “ये जो हरे-हरे खेत आदि देख रहे हो, ये सब नाशवंत हैं। इसी प्रकार की दुनियावी खूबसूरती देखकर इन्सान मायाजाल में फँस जाता है। पूरा संसार स्वप्न की भाँति है, झूठा व कल्पित है। उसमें जो आसक्त हो जाता है, वह जन्म-मरण के चक्कर से नहीं बचता है।

भगवन्नाम जपने के बाद फिर उसके अर्थ को जानो। फिर अर्थ से निकलकर शांतचित्त बनो। परंतु अगर मन संकल्प-विकल्प करे तो मुख से ॐकार का उच्चारण करो, जो अपने कानों द्वारा सुन सको। ऐसा करने से निज आत्मस्वरूप की जानकारी होगी तथा यह मनुष्य जन्म सफल होगा। तुम इसे जानने वाले आत्मस्वरूप हो। अतः अपने स्वरूप को मत भूलना, नित्य मुक्त स्वरूप में स्थित रहना।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2016, पृष्ठ संख्या 11,21 अंक 279

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संतों की अनोखी युक्ति


पूज्य बापू जी

(ऋषि दयानन्द जयंतीः 4 मार्च 2016)

झेलम (अखंड भारत के पंजाब प्रांत का शहर) में एक दिन ऋषि दयानंद जी का सत्संग सम्पन्न हुआ। अमीचन्द ने भजन गाया। दयानंद जी ने उसकी प्रशंसा की। वह जब चला गया तो लोगों ने दयानंद जी से बोलाः “यह तो तहसीलदार है परंतु चरित्रहीन है। अपनी पत्नी को मारता है, उसे घर से निकाल दिया है। शराब पीता है, मांस खाता है…..” इस प्रकार बहुत निंदा की।

दूसरे दिन वह आया। ऋषि दयानंद जी ने उसको फिर से भजन गाने को कहा। उसने भजन गाया और उन्होंने फिर प्रशंसा कीः “तू भजन तो ऐसा गाता है कि मेरा हृदय भर गया। मैं तो कल भी, आज भी भावविभोर हो गया लेकिन देख यार ! सफेद चादर पर एक गंदा दाग लगा है। तू द्वेष करता है, अपनी पत्नी पर हाथ उठाता है। अपनी पत्नी के द्वेष बुद्धि छोड़ दे। अपनी बुराइयाँ व अहंकार छोड़ दे तो तू हीरा होकर चमकेगा। अरे, हीरा भी कुछ नहीं होता। हीरों का हीरा तो तेरा आत्मा है।….” और वह तहसीलदार बदल गया। उसने सारी बुरी आदतें छोड़ दीं और आगे चलकर संगीतकार महता अमीचंद के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

किसी की बुराई देखकर संत उसको ठुकराते नहीं हैं लेकिन उसकी अच्छाई को प्रोत्साहित करके उसकी बुराई उखाड़ के फेंक देते हैं। इसलिए संत का सान्निध्य भगवान के सान्निध्य से भी बढ़कर माना गया है। भगवान तो माया बनाते हैं, बंधन भी बनाते हैं। संत माया नहीं बनाते, बंधन नहीं बनाते, बंधन काट के मुक्त कर देते हैं, इसलिए भगवान और संत को खूब स्नेह से सुनें और उनकी बात मानें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2016, पृष्ठ संख्या 23 अंक 278

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अडिग रहा वह शूरमा, पाया अविचल धाम


एक बार संत चरनदासजी के शिष्य गोसाईं जुगतानंद जी चुरु (राज.) पधारे। उनका सत्संग व दर्शन पाकर वहाँ के शासक काँधलोत राठौड़ वंश के हरिसिंह जी उनके शरणागत हो गये। उन्हीं के वंश के एक नवयुवक ने भी जुगतानंद जी से दीक्षा ले ली। गुरुकृपा से उसका वैराग्य जागा और वह संसार से उदासीन रहकर हर समय जप व ध्यान में तल्लीन रहने लगा। उसका वैराग्य जब कुछ शिथिल पड़ता तो वह संत चरनदास जी के पद-पदावलियों को पढ़ता। उनके पद विवेक-वैराग्य जगाते, जिससे उस नवयुवक का मन नयी शक्ति व उत्साह के साथ पुनः भजन में लग जाता। नवयुवक के माता-पिता को बेटे की स्थिति देख चिंता हुई, उन्होंने उसका विवाह कर देना चाहा। वे उसे अनेकों महापुरुषों के उदाहरण व शास्त्र-वचनों के प्रमाण दे-दे के विवाह के लिए राज़ी करने की कोशिश करके किंतु युवक का वैराग्य बड़ा तीव्र था।
माता-पिता ने युक्ति से उसका विवाह कर दिया। विवाह के दूसरे दिन ही अर्धरात्रि में वह घर से निकल गया और अपने गुरुदेव के पास दिल्ली जा पहुँचा।
दूसरे दिन प्रातः उसे घर में न देख हाहाकार मच गया। चुरु में चारों ओर भाग दौड़ करने पर जब वह कहीं न मिला तो माता-पिता गुरु जी के आश्रम पहुँच गये। अपने बेटे को वहाँ देख वे रो-रोकर गुरु जी से प्रार्थना करने लगे कि “इसे वापस भेज दो।” गुरु जी ने कहाः “बेटा ! तुम घर जाओ। घर जाकर भजन करो।”
वह गुरु जी की आज्ञा की अवहेलना नहीं कर सका। वह माता-पिता के साथ चला गया। उसने गुरुआज्ञा का पूरी तरह पालन किया। घर में रहकर भजन करने लगा पर खाना-पीना बंद कर दिया। उसके माता-पिता उसे समझाने लगे किंतु वह उलटा अपने माता-पिता को कहताः “घर में आग लगी हो और कोई आपसे कहे खाने को तो आप बैठे-बैठे खाना खायेंगे या घर से बाहर निकल के किसी सुरक्षित स्थान पर जाने की चेष्टा करेंगे ? संसार में आग लगी है। महाकाल की प्रचंड अग्नि फैल-फैलकर प्राणियों को भस्मीभूत करती जा रही है। न जाने कौन, कब उसके लपेटे में आ जाय ? गुरुदेव के शीतल चरणों को छोड़ ऐसा कोई स्थान नहीं, जहाँ जीव सुरक्षित रह सके। पर आप लोग मोहवश संसार से चिपके हुए हैं, मुझे भी चिपकाये रखना चाहते हैं।”
कई दिन हो गये उसे निराहार रहते। उसका शरीर कृश होता गया। माता-पिता को भय हुआ कि कहीं उसके प्राण ही न निकल जायें। तब उन्होंने कहाः “अच्छा बेटा ! यदि तुम्हारा यही निश्चय है कि तुम गुरुदेव की शरण में रहकर भजन करोगे तो भले ही उनके पास चले जाओ। जहाँ भी रहो, सुख से रहो। भगवान तुम्हारा मंगल करें।”
लड़के ने कहाः “मुझे तो गुरुदेव की आज्ञा है घर पर रहकर ही भजन करने की। मैं उनकी आज्ञा के बगैर और कहीं नहीं जाऊँगा।”
हारकर पिता ने गुरुदेव के पास एक आदमी द्वारा समाचार भेजा। गुरुदेव की आज्ञा मिलते ही वह माता-पिता को प्रणाम कर प्रसन्न मन से गुरुदेव के पास चल दिया।
वह अब गुरुदेव के आश्रम पहुँचा तो रात्रि अधिक हो गयी थी और बरसात हो रही थी। आश्रम का दरवाजा बंद हो गया था। गुरुदेव को नींद से जगाता कैसे ? पूरी रात वह भीगते हुए बाहर ही खड़ा रहा।
प्रातः होते ही वह गुरुदेव के चरणों में जा गिरा। गुरुदेव ने उसे हृदय से लगा लिया और उसे विरक्त वेश दिया और नाम रखा अडिगदास। क्योंकि वह अपने संकल्प पर दृढ़ व अडिग रहा था और गुरुदेव उसकी दृढ़ता से बहुत प्रसन्न थे।
अडिगदास जी की गुरुनिष्ठा अद्वितीय थी। गुरुनिष्ठा के बल पर ही उन्हें भगवत्प्राप्ति हुई। उन्होंने अपने कई दोहों में गुरुकृपा का वर्णन इस प्रकार किया हैः
धन धन सत गुरुदेव जी, अनन्त किया उपकार।
‘अडिगदास’ भवसिन्धु सूँ, सहज लगाया पार।।
दया शील संतोष दै, प्रेम भक्ति हरि ध्यान।
‘अडिगदास’ सतगुरु कृपा, पापा पद निर्वान।।
छिन छिन1 सतगुरु कृपा करि, सार सुनायो नाम।
‘अडिगदास’ तिह प्रताप तें, पायो अविचल धाम।।
1-क्षण-क्षण।
अडिगदास के भजनों में साधकों के लिए अडिग रहने का बहुमूल्य उपदेश है। उनका कहना है कि भजन में शूर और सती की भाँति अडिग रहना चाहिए। जैसे शूर रणभूमि में पीछे मुड़कर अपने बंधु-बांधवों की ओर नहीं देखता, जैसे सती पीछे मुड़ के संसार की ओर नहीं देखती, वैसे ही साधक को भी संसार की ओर दृष्टि न रख के अपने सदगुरु की ओर केन्द्रित रखनी चाहिए। भजन में अडिग रहने से भगवान मिलते हैं, डगमग-डगमग करने से नहीं मिलतेः
‘अडिगदास’ अडिग रहो, डिगमिग डिगमिग छाँड।
टेक2 गहो हरि भक्ति की, सूर सती ज्यों मांड।।
‘अडिगदास’ अडिग रहो, ज्यों सूरा रणखेत।
पीठ फेर देखै नहीं, तजे न हरि का हेत।।
2-आधार।
स्रोतः ऋषि प्रसाद नवम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 27,28 अंक 275
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