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Sant Charitra

पत्रकारिता के आदर्श पंडित मदन मोहन मालवीय जी


इंगलैंड से अध्ययन समाप्त कर भारत लौटे हुआ राजा रामपाल सिंह ने ‘हिन्दुस्तान’ नामक साप्ताहिक पत्र प्रकाशित करना आरम्भ किया था, जिसे वे किसी प्रकार चला रहे थे लेकिन अब वे चाहते थे कि इस पत्र को दैनिक पत्र बना दिया जाय किंतु उसके लिए उनको कोई योग्य सम्पादक नहीं मिल रहा था। कलकत्ता अधिवेश में मालवीय जी का विद्वतापूर्ण वक्तृत्व सुनकर वे उन पर मुग्ध हो गये और उन्होंने निश्चय किया के मालवीय जी पर यह भार सौंपेंगे।

राजा रामपाल सिंह ने अवसर पाकर मालवीय जी से अपने पत्र के सम्पादन के लिए निवेदन किया। राजा साहब को पता था कि पंडित जी को 60 रूपये मासिक वेतन  मिलते हैं। उन्होंने मालवीय जी के सामने 200 रूपये मासिक का प्रस्ताव रखा। इस अवसर को स्वीकार करने में  मालवीय जो संकोच कर रहे थे क्योंकि मालवीय जी के संस्कार शुद्ध व सनातनी थे। वे धर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे और कठोर वैष्णव जीवन पद्धति में उनका पालन पोषण हुआ था। जबकि राजा रामपाल सिंह इंगलैंड से पढ़कर आये थे और उनकी विलासपूर्ण जमींदारी की जीवन-पद्धति मालवीय जी से भिन्न ही नहीं अपितु सर्वथा विपरीत भी थी। साथ ही मालवीय जी में लोभवृत्ति लेशमात्र भी नहीं थी।

मालवीय जी यह मानते थे कि सरकारी स्कूल के साधारण अध्यापक से पत्रकारिता का जीवन कहीं व्यापक और उच्च स्तर का है, साथ ही पत्रकार बनने की उनकी बड़ी लालसा भी थी। परंतु राजा रामपाल सिंह के साथ तालमेल बैठने  के विषय में उनका मन शंकालु था। अतः वे उनके प्रलोभनों से विचलित नहीं हुए।

कैसे अदभुत सन्मार्गी थे  मालवीय जी ! जहाँ आजकल मीडिया में ऊँचे पदों पर बैठे कुछ लोग पैसों के लालच में अपना ईमान आदि सब बेच देने के लिए आतुर हो जाते हैं, देशद्रोह, संस्कृतिद्रोह, समाजद्रोह तक करने को तैयार हो जाते हैं, वहीं मालवीयजी केवल किसी की जीवन-पद्धति से तालमेल न बैठने पर हाथ मिलाने से सकुचा रहे थे।

मालवीय जी जानते थे कि इस पत्रकारिता के माध्यम से वे देश में जागरूकता ला सकते हैं। उधर राजा साहब का आग्रह भी बढ़ता जा रहा था। अंत में मालवीय जी ने बहुत सोच विचारकर उन्हें संदेश भिजवाया कि ‘वे इस शर्त पर ‘हिन्दुस्तान’ का सम्पादन स्वीकार करेंगे कि राजा साहब जिस समय शराब पिये हुए हों उस समय किसी भी प्रकार के विचार-विमर्श अथवा वार्तालाप के लिए पंडित जी को अपने पास न बुलायें। यदि उस अवस्था में किसी दिन उन्होंने उनको बुलाया तो उसी दिन वे सम्पादन छोड़ देंगे।’

राजा साहब मालवीय जी की निष्ठा व कार्यकुशलता से इतने मुग्ध थे कि वे किसी भी शर्त पर उन्हें सम्पादक बनाने के लिए उत्सुक थे। उन्होंने पंडित जी की शर्त को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार जुलाई 1887 में मालवीय जी ने अपने अध्यापक पद से त्यागपत्र दे दिया और ‘हिन्दुस्तान’ का सम्पादन सम्भाल लिया।

देश और समाज के लिए सच्ची व हितभरी खबरें छापते हुए ढाई वर्षों तक मालवीय जी ने इस पत्र के माध्यम से देश सेवा की। उनके इस देश सेवा के भाव ने समाज में खूब जागृति ला दी, ‘हिन्दुस्तान’ देश भर में लोकप्रिय पत्र माना जाने लगा था। साथ ही अपनी धर्मपूर्ण, हितपूर्ण, सच्ची लेखनी से दम पर मालवीय जी को भी  लोकप्रियता खूब मिली।

आज  के मीडिया के बंधुओं को मालवीय जी के जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए और उनकी चिरस्थायी लोकप्रियता के कारणों की ओर अवश्य ध्यान देना चाहिए।

एक दिन राजा रामपाल सिंह ने पंडित जी को किसी महत्त्वपूर्ण विषय पर विचार-विमर्श करने के लिए रात को बुलाया। उस समय वे भूल गये थे कि उन्होंने मद्यपान किया हुआ है। मालवीय जी को आते ही वातावरण में दुर्गंध आयी, वे समझ गये कि राजा साहब मदमस्त है। फिर भी मालवीय जी वहाँ बैठे, राजा से जिस विषय पर परामर्श करना था वह किया। बातचीत को निपटाकर  मालवीय जी अपने कक्ष में आये और तुरंत अपना त्यागपत्र लिख दिया। दूसरे दिन त्यागपत्र राजा साहब को देते हुए कहाः “हमारी आपकी एक शर्त थी वह शर्त कल आपने तोड़ दी है। यह लीजिये मेरा त्यागपत्र। मैं अब यहाँ से जा रहा हूँ।

राजा साहब को स्मरण हो आया। उन्हें इस आकस्मिक संकट से बड़ा आघात लगा। उन्होंने मालवीय जी की काफी अनुनय-विनय की किंतु वे टस-से-मस नहीं हुए। उनका परिवार किस प्रकार पलेगा- इसकी चिंता किये बिना उन्होंने राजा साहब से विदाई ली और प्रयाग लौट आये। यह संयोग की ही बात थी कि उन्हीं दिनों पंडित अयोध्यानाथ ने अंग्रेजी में ‘इंडियन ओपीनियन’ पत्र निकालना आरम्भ किया था। उनके निवेदन पर  मालवीय जी ने इस पत्र के सहसम्पादक के रूप में कार्यभार सँभाला, जिससे इस पत्र की भी प्रसिद्धि होने लगी।

मालवीय जी ऐसे दृढ़ निश्चयी थे कि उन्होंने पत्रकारिता की जिम्मेदारी को समझते हुए अपने व्यवसाय को आत्मसंतोष की प्राप्ति का साधन और देशसेवा का अवसर बनाया। उन्होंने भले धन, पद व यश की कभी परवाह नहीं की परंतु क्या देशवासियों के दिलों से ऐसे महामना की यश-कीर्ति को कोई मिटा सकता है ?

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2014, पृष्ठ संख्या 22,26 अंक 253

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संत की करें जो निंदा, उन्हें होना पड़े शर्मिन्दा


(संत तुलसीदास जी जयंतीः 13 अगस्त)

संत तुलसीदास जी काशी में प्रवचन करते थे। दूर-दूर तक उनकी ख्याती फैल चुकी थी। कहते हैं जहाँ गुलाब वहाँ काँटे, जहाँ चन्दन वहाँ विषैले सर्प, ऐसे ही जहाँ सर्वसुहृद लोकसंत वहाँ निंदक-कुप्रचारकों का होना स्वाभाविक है। उसमें भी विधर्मियों की साजिश के तहत हमारे ही संतों के खिलाफ, संस्कृति व परम्पराओं के खिलाफ हमारे ही लोगों को भड़काने का कार्य अनेक सदियों से चलता आया है। काशी में तुलसीदासजी की बढ़ती ख्याति देखकर साजिशों की श्रृंखला को बढ़ाते हुए काशी के कुछ पंडितों को तुलसीदासजी के खिलाफ भड़काया गया। वहाँ कुप्रचारकों का एक टोला बन गया, जो नये-नये वाद-विवाद खड़े करके गोस्वामी जी को नीचा दिखाने में लगा रहता था। परंतु जैसे-जैसे कुप्रचार बढ़ता, अनजान लोग भी सच्चाई जानने के लिए सत्संग में आते और भक्ति के रस से पावन होकर जाते, जिससे संत का यश और बढ़ता जाता था।

अपनी सारी साजिशें विफल  होती देख विधर्मियों ने कुप्रचारक पंडितों के उस टोले को ऐसा भड़काया कि उऩ दुर्बुद्धियों ने गोस्वामी जी को काशी छोड़कर चले जाने के लिए विवश किया। प्रत्येक परिस्थिति में राम-तत्त्व का दर्शन व हरि-इच्छा की समीक्षा करने वाले तुलसीदास जी काशी छोड़कर चल दिये। जाते समय उन्होंने एक पत्र लिख के शिवमंदिर के अंदर रख दिया। उस पत्र में लिखा था कि ʹहे गौरीनाथ ! मैं आपके नगर में रहकर रामनाम जपता था और भिक्षा माँगकर खाता था। मेरा किसी से वैर-विरोध, राग-द्वेष नहीं है परंतु इस चल रहे वाद-विरोध में न पड़कर मैं आपकी नगरी से जा रहा हूँ।ʹ

भगवान भोलेनाथ संत पर अत्याचार कैसे सह सकते थे ! संत के जाते ही शिवमंदिर के द्वार अपने-आप बन्द हो गये। पंडितों ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया पर द्वार न खुले। कुछ निंदकों के कारण पूरे समाज में बेचैनी-अशांति फैल गयी, सबके लिए संत-दर्शन व शिव-दर्शन दोनों दुर्लभ हो गये। आखिर लोगों ने भगवान शंकर से करुण प्रार्थना की। भोलेनाथ ने शिवमंदिर के प्रधान पुजारी को सपने में आदेश दियाः “पुजारी ! स्वरूपनिष्ठ संत मेरे ही प्रकट रूप होते हैं। तुलसीदास जी का अपमान कर निंदकों ने मेरा ही अपमान किया है। इसीलिए मंदिर के द्वार बंद हुए हैं। अगर मेरी प्रसन्नता चाहते हो तो उन्हें प्रसन्न कर काशी में वापस ले आओ वरना मंदिर के द्वार कभी नहीं खुलेंगे।”

भगवान अपना अपमान तो सह लेते हैं परंतु संत का अपमान नहीं सह पाते। निंदक सुधर जायें तो ठीक वरना उऩ्हें प्रकृति के कोप का भाजन अवश्य बनना पड़ता है।

अगले दिन प्रधान पुजारी ने सपने की बात पंडितों को कह सुनायी। समझदार पंडितों ने मिलकर संत की निंदा करने वाले दुर्बुद्धियों को खूब लताड़ा और उन्हें साथ ले जाकर संत तुलसीदासजी से माफी मँगवायी। सभी ने मिलकर गोस्वामी जी को काशी वापस लौटने की करूण प्रार्थना की। संत श्री के मन में तो पहले से ही कोई वैर न था, वे तो समता के ऊँचे सिंहासन पर आसीन थे। करूणहृदय तुलसीदासजी उन्हें क्षमा कर काशी वापस आ गये। शिवमंदिर के द्वार अपने-आप खुल गये। संत दर्शन और भगवद्-दर्शन से सर्वत्र पुनः आनंद-उल्लास छा गया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2013, पृष्ठ संख्या 15, अंक 247

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श्रीरंगजी के प्रेरक उपदेश


(श्रीरंग अवधूत जयंती विशेष)

एक बार श्रीरंग अवधूत जी से एक भक्त ने प्रश्न कियाः “महाराज ! हमें श्रेय़ के दर्शन क्यों नहीं होते और अश्रेय के तो बार-बार होते हैं ?”

श्रीरंगजी बोलेः “वेदशास्त्र और सदगुरु-संतों का सेवन किये बिना ही श्रेय़ के दर्शन ?”

“हम तो बहुत वर्षों से वेदशास्त्रों की बातें, कथाएँ आदि सुनते आ रहे हैं परंतु हमें कोई लाभ नहीं हो रहा है। अब तो हम थक गये हैं।”

श्रीरंगजीः “भाई ! भगवदभाव अनुभवगम्य वस्तु है। उसका अनुसरण करते हुए पुरुषार्थ करो तो ही उसका भाव मिलता है। सारी पृथ्वी को खोद डालो, उसमें से गुलाब, मोगरे की सुगंध मिलेगी ही नहीं। फिर आप कहोगे कि पृथ्वी में अमाप पुरुषार्थ कर के देख लिया परंतु उसमें तो गुलाब, मोगरे की सुगंध है ही नहीं। मूल बात को समझने वाला यदि कोई व्यक्ति दो गमले लाये और उसमें मिट्टी भरकर मोगरा व गुलाब के पौधे लगाये। उसमें से सुगंधित पुष्प सामने देखोगे तो तुम्हें विश्वास होगा कि सभी प्रकार के तत्त्व पृथ्वी में ही हैं। उन्हें प्रकट करने के लिए पहले उनका रूपक बनाना पड़ता है। जैसे इन मोगरा गुलाब की सुवास को पृथ्वी से प्रकट करने के लिए उनके पौधे अथवा बीज हों तो तत्त्व द्वारा प्रकट होते हैं, ऐसे ही वेदशास्त्रों और संतों का सेवन अर्थात् वेदशास्त्रों का स्वाध्याय करो और संतों का सान्निध्य लाभ लो, सेवा करो व उनके उपदेश के अनुसार आचार-व्यवहार करो। इसके द्वारा अपने भीतर के अशुभ संस्कारों को निर्मूल करो। गुरुगम्य जीवन बनाओ। फिर श्रेय के दर्शन की बात करना।”

एक बार श्रीरंग जी ने अपने शिष्य को आज्ञा कीः “सिद्धपुर में नदी के किनारे ऐसी जगह घास की कुटिया बनाओ जहाँ किसी भी दिशा से लोग गाड़ियाँ लेकर नहीं आ सकें। मुझे पता है कि जीवन का सारा समय तो लोक-संग्रह में दे मालिक होना चाहिए। अंतिम लक्ष्य तो निर्गुण ही होना चाहिए।”

श्रीरंग जी के मुख से ऐसी बात सुनते ही सारे भक्तों की आँखों से आँसुओं की धाराएँ बहनें लगीं। तब महाराज जी ने उन्हें शांत करते हुए बोलेः “मैं कहीं आता जाता नही हूँ। पामरता त्यागो, वीरता का अनुभव करो। मानव-जीवन के क्षण बहुत महँगे हैं, फिर भी उनका मूल्य समझ में नहीं आता। कितनी सारी वनस्पतियों का तत्त्वसार शहद है। इससे वह हर प्रकार की मिठासों में प्रधान है और उत्पत्ति की दृष्टि से भी बहुत कीमती है। तो महामूल्यवान शरीर की कीमत कितनी ? यदि मानव देह इतनी ज्यादा कीमती है तो उसे ऐसे वैसे नष्ट क्यों कर दें ?”

भक्त ने पूछाः “स्वामी जी ऐसे मूल्यवान मानव-जीवन का श्रृंगार क्या है ?”

“ब्रह्मचर्य, मौन-व्रत, सत्य और मीठी वाणी, मित-भाषण, मिताहार, सत्य दर्शन, सत्य श्रवण, सत्य विचार और निष्काम कर्म – ये सारे मानव जीवन के व्रत हैं किंत भगवत्प्रेम ही मानव जीवन का श्रृंगार है।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 28, अंक 239

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