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Sant Charitra

माँ का यह वाक्य मैं कभी नहीं भूला-संत विनोबा भावे जी


साहित्य देवता के लिए मेरे मन में बड़ी श्रद्धा है । बचपन में करीब 10 साल तक मेरा जीवन एक छोटे से देहात में ही बीता । जब मैं कोंकण के देहात में था, तब पिता जी कुछ अध्ययन और काम के लिए बड़ौदा रहते थे । दीवाली के दिनो में वे अकसर घर पर आया करते थे । एक बार माँ ने कहाः “आज तेरे पिता जी आने वाले हैं, तेरे लिए मेवा-मिठाई लायेंगे ।” पिता जी आये । फौरन मैं उनके पास पहुँचा और उन्होंने अपना मेवा मेरे हाथ में थमा दिया । मेवे को हम कुछ गोल-गोल लड्डू ही समझते थे ।

लेकिन यह मेवे का पैकेट गोल न होकर चिपटा सा था । मुझे लगा कि ‘कोई खास तरह की मिठाई होगी ।’ खोलकर देखा तो दो किताबें थीं । उन्हें लेकर मैं माँ के पास पहुँचा और उनके सामने धर दिया ।

माँ बोलीः “बेटा ! तेरे पिता जी ने तुझे आज जो मिठाई दी है, उससे बढ़कर कोई मिठाई हो ही नहीं सकती ।” वे किताबें रामायण और भागवत के कथा प्रसंगों की थीं, यह मुझे याद है । आज तक वे किताबें मैंने कई बार पढ़ीं । माँ का यह वाक्य मैं कभी नहीं भूला कि ‘इससे बढ़कर कोई मिठाई हो ही नहीं सकती ।’ इस वाक्य ने मुझे इतना पकड़ रखा है कि आज भी कोई मिठाई मुझे इतनी मीठी मालूम नहीं होती, जितनी कोई सुंदर विचार की पुस्तक मीठी मालूम होती है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, पृष्ठ संख्या 17, अंक 313

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भारी कुप्रचार में भी डटे रहे संत टेऊँराम जी के साधक


(संत टेऊँराम जयंतीः 18 जुलाई 2018)

सिंध प्रांत में एक महान संत हो गये – साँईं संत टेऊँराम जी। ये दृष्टिमात्र से लोगों में शांति व आनंद का संचार कर देते थे। इनका सान्निध्य पाकर लोग खुशहाल रहते थे। (ब्रह्मज्ञानी संत की कृपादृष्टि व सान्निध्य से कैसी अनुभूतियाँ होती हैं यह पूज्य बापू जी के असंख्य साधक जानते हैं।)

इनके सत्संग में मात्र बड़े बुजुर्ग ही नहीं बल्कि युवक-युवतियाँ भी आते थे। इनकी बढ़ती प्रसिद्धि व इनके प्रति लोगों के प्रेम को देखकर कुछ मलिन मुरादवालों ने इनका कुप्रचार शुरु किया। कुप्रचार ने आखिर इतना जोर पकड़ा कि पंचायत में एक प्रस्ताव पास किया गया कि ‘टेऊँराम जी के आश्रम में जो जायेंगे उनको जुर्माना भरना पड़ेगा।’

कुछ कमजोर मन को लोगों ने अपने बेटे-बेटियों को टेऊँराम जी के पास जाने से रोका। कोई-कोई अविवेकी तो रुक गया लेकिन जिनको महापुरुष की कृपा का महत्व ठीक से समझ में आ गया था वे विवेकी बहादुर नहीं रुके बल्कि उन्होंने सहमे हुओं को एवं अन्य नये लोगों को संत के आश्रम में ले जाने का नियम ले लिया। उनकी अंतरात्मा मानो कह रही थी कि

हमें रोक सके ये जमाने में दम नहीं।

हमसे जमाना है जमाने से हम नहीं।।

ईश्वरप्राप्ति के पथ के पथिक ऐसे ही वीर होते हैं। उनके जीवन में चाहे हजार विघ्न-बाधाएँ आ जायें किंतु वे अपने लक्ष्य से च्युत नहीं होते। अनेक अफवाहें एवं निंदाजनक बातें सुनकर भी उनका हृदय गुरुभक्ति से विचलित नहीं होता।

अपने सदगुरु तोतापुरी महाराज में रामकृष्ण परमहंस जी की अडिग श्रद्धा थी। एक बार किसी ने कहाः “तोतापुरी जी फलानी महिला के घर बैठ के खा रहे हैं और उन्हें आपने गुरु बनाया ?”

रामकृष्ण जी बोलेः “अरे ! बकवास मत कर। मेरे गुरुदेव के प्रति एक भी अपशब्द कहा तो ठीक न होगा !”

“किंतु हम तो आपका भला चाहते हैं। आप तो माँ काली के साथ वार्तालाप करते थे, इतने महान होकर भी आपने तोतापुरी को गुरु माना ! थोड़ा तो विचार करें ! वे तो ऐसे ही हैं।”

रामकृष्ण जी बोल पड़ेः “मेरे गुरु कलालखाने (शराबखाने) जायें तो भी मेरे गुरु मेरे लिए तो साक्षात् नंदराय ही हैं।”

यह है सच्ची समझ ! ऐसे लोग तर जाते हैं, बाकी लोग भवसागर में डूबते उतराते रहते हैं।

… तो  वे साँईं टेऊँरामजी के प्यारे कैसे भी करके पहुँच जाते थे अपने गुरु के द्वार पर। माता-पिता को कहीं बाहर जाना होता तब ‘लड़के कहीं आश्रम में न चले जायें’ यह सोच के वे अपने बेटों को खटिया के पाये से बाँध देते और बाहर से ताला लगा के चले जाते। फिर वे सत्संग प्रेमी लड़के क्या करते ?…. खटिया को हिला डुलाकर जिस पाये से उनका हाथ बँधा होता उस पाये को उखाड़ के उसके साथ ही आश्रम पहुँच जाते।

कुप्रचारकों ने सोचा कि ‘अब क्या करें ?’ जब उन्होंने देखा कि हमारा या दाँव भी विफल जा रहा है तो उन्होंने टेऊँराम जी के भोजन, पानी व आवास को निशाना बनाया। उन्हें पानी देना बंद करवा दिया। टेऊँराम जी को पानी के लिए कुआँ खुदवाना पड़ा। दुष्ट लोग कभी कुएँ से उनकी पानी निकालने की घिरनी, रस्सी आदि तोड़ देते तो कभी उनका बना बनाया भोजन ही गायब करवा देते। उनके आवास को खाली कराने के लिए बार-बार नोटिसें भिजवायी गयीं। उन्हें जेल भिजवाने की धमकियाँ दी गयीं।

ऐसा कुप्रचार किया गया कि ‘ये संत नहीं हैं, नास्तिक हैं, स्वघोषित भगवान हैं।’ एक बार तो 50-60 दुर्जनों ने उनको लकड़ियों से  मारने का प्रयास किया। कैसी नीचता की पराकाष्ठा है ! कितना घोर अत्याचार ! टेऊँराम जी के कुप्रचार से जहाँ कमजोर मनवालों की श्रद्धा डगमगाती, वहीं सज्जनों और श्रद्धालुओं-भक्तों का प्रेम उनके प्रति बढ़ता जाता।

टेऊँराम जी अपने आश्रम में एक चबूतरे पर बैठ के सत्संग करते थे। उनके पास अन्य साधु-संत भी आते थे अतः वह चबूतरा छोटा पड़ता था। उनके भक्तों ने उस चबूतरे को बड़ा बनवा दिया। इससे उनके विरोधी ईर्ष्या से जल उठे और वहाँ के पटवारी द्वारा वह चबूतरा अनधिकृत घोषित करा दिया। उन संत के विरुद्ध मामला दर्ज करवा के आखिर चबूतरा तुड़वा दिया गया।

इस प्रकार कभी अफवाहें फैलाकर तो कभी कानूनी दाँव-पेचों में उलझा के  उन सर्वहितैषी संत को खूब सताया गया और ऐसा साबित किया गया कि मानो उन संत में ही दुनिया के सारे दोष हों। तब थोड़े समय के लिए भले ही दुर्जनों की चालें सफल होती दिखाई दीं पर वे दुष्ट लोग कौन-से नरकों व नीच योनियों में कष्ट पा रहे होंगे यह तो हम नहीं जानते लेकिन लोक-कल्याण पर समाजोत्थान में जीवन लगाने वाले उन महापुरुष के पावन यश का सौरभ आज भी चतुर्दिक् प्रसारित होकर अनेक दिलों को पावन कर रहा है – यह तो सभी को प्रत्यक्ष है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद जून 2018, पृष्ठ संख्या 11,12 अंक 306

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अंत न होय कोई आपणा….


बड़वानी (म.प्र.) रियासत के खजूरी गाँव में संवत् 1576 में एक बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम रखा गया सिंगा जी। पिता भीमा और माँ गौराबाई ने बचपन से ही अपने पुत्र को भगवद्भक्ति के संस्कार दिये। 21-22 साल की उम्र में सिंगा जी भामगढ़ (पूर्वी निमाड़) के राज के यहाँ वेतन पर चिट्ठी पत्री ले जाने का काम करने लगे। पूर्व जन्म के पुण्य कहो या माता-पिता के संस्कार कहो, बाल्यावस्था से ही सिंगाजी का मन संसार की ओर से विरक्त हो गया था।

एक बार सिंगाजी घोड़े पर सवार हो कर कहीं  जा रहे थे। रास्ते में संत मनरंगगीर जी के श्रीमुख से निकले वचन कानों में पड़ेः

समुझी लेओ ले मना भाई,

अंत न होये कोई आपणा।1

यही माया के फंदे में तर2 आन3 भुलाणा।।

1 अंत समय अपना कोई साथ नहीं निभाता 2 उलझ के 3 निज आत्मस्वरूप की महिमा

बचपन में फूटा वैराग्यरूपी अंकुर यौवन में पनप उठा। अंत न होय कोई आपणा…. संत वचन हृदय की गहराई में चोट कर गये।

हृदय में चोट का अनुभव हर व्यक्ति जीवन में करता है। किसी को किसी की गाली चोट कर जाती है, किसी को किसी की मृत्यु चोट कर जाती है तो किसी को दूसके के द्वारा किया गया अपमान चोट कर जाता है। चोटें तो सबके जीवन में आती हैं किंतु जो चोट खाकर द्वेष या वैर वृत्ति के बहाव में बहते जाते हैं वे दुःख, अशांति की खाई में गिर जाते हैं और जो ईश्वर या सदगुरु की शरण चले जाते हैं वे सुख-दुःख, मान-अपमान की बड़ी से बड़ी चोटों में भी अप्रभावित अपने अचल आत्मस्वरूप में जागने के रास्ते चल पड़ते हैं।

सिंगा जी संत चरणों में गिर पड़े…

“महाराज ! आपने कहा, अंत न होय कोई आपणा… दूसरा कोई अपना नहीं है तो आप तो हमारे हैं न ! आप ही मेरे हो जाइये न !”

नवयुवक की वाणी से प्रेम टपक रहा था और संत की दृष्टि से करूणा… मनरंगगीर जी ने सिंगा जी को दीक्षा दी।

सिंगाजी ने नौकरी छोड़ी, राजा के पास जाना भी छोड़ दिया। सोचने लगे, जगतपालक प्रभु की सृष्टि में दो वक्त की रोटी के लिए गुलामी क्यों करना ? विश्वनियंता को कब तक पीठ देना ? अब तो मैं गुरुकृपा से भीतर का रस और ज्ञान पाकर ही रहूँगा, जो होगा देखा जायेगा।’

राजा ने आकर वेतनवृद्धि का प्रलोभन दिया पर सिंगा जी ने आँख खोलकर भी न देखा। अब जगत की सुध-बुध ही न रहती। वे पीपल्या में आकर रहने लगे। परमात्मप्राप्ति की तीव्र उत्कंठा ने गुरुहृदय को छलका दिया। नाम-रूप का भ्रम टूट गया, शाश्वत चैतन्य स्वभाव रह गया।

सिंगाजी की कई रचनाएँ हैं। उनका कहना है कि हृदय में सच्चा प्रेम होना चाहिए, परमात्मा को बाहर खोजने की जरूरत नहीं है।

जल विच कमल, कमल विच कलियाँ,

जहँ बासुदेव अबिनासी।

घट में गंगा, घट में जमुना, वहीं द्वारका कासी।।

घर बस्तू बाहर क्यों ढूँढो, बन-बन फिरा उदासी।

कहै जन सिंगा, सुनो भाई साधो, अमरपुरा के बासी।।

पीपल्या गाँव में संवत् 1616 में सिंगा जी ने समाधि ली। वहाँ उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष विशाल ‘सिंगा जी का मेला’ लगता है। आज भी लोग उनके भजनों को गाकर आनंदित होते हैं। कैसी महिमा है संतों, सदगुरुओं के वचनों व कृपा की ‘

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2018, पृष्ठ संख्या 17 अंक 304

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