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सेवा-धर्म देता है अनमोल हीरा – पूज्य बापू जी


एकांत में जप करना सरल है, उपवास करना सरल है, तप करना सरल है पर हर घड़ी प्रभु की सेवा में तत्पर रहना बहुत बड़ी बात है । राम जी का मंदिर हो तो उसमें हनुमान जी चाहिए, चाहिए, चाहिए पर हनुमान जी का मंदिर हो तो अकेले चलें । हनुमान जी की दुगनी पूजा हो गयी, कारण कि रामचन्द्र जी का ज्ञान हनुमान जी का ज्ञान हो गया और इसके उपरांत सेवा हो गयी । सब तें सेवक धरमु कठोरा । सेवा-धर्म निभाना, सेवा का कर्तव्यपालन करना दूसरे सभी धर्मों से कठिन है । इसलिए इस धर्म को तत्परता से निभाने वाले उतने ही मजबूत, समतावान, उदार, सुखी, शांत और प्रसन्न स्वभाव के धनी हो जाते हैं ।

सेवा सचीअ मां जिन लधो, लधो लाल अणमुलो

ते स्वामी सचीअ सिक सां, सदा सेवा कन

सच्ची सेवा से जिन्होंने आत्मशांति, आत्मानंद रूपी अनमोल हीरा पाया है, वे सदा सच्ची प्रीति से सेवा करते हैं और सेवा करते समय अपमान, निंदा, बदनामी भी सहेंगे फिर भी सेवा से पीछे नहीं हटेंगे । ऐसे जो लोग होते हैं उनकी गाथा तो अमर हो जाती है । सेवा लेने में उतना सुख नहीं मिलता जितना सेवा करने में मिलता है । भोजन करने में उतना मज़ा नहीं आता जितना भोजन कराने में आता है । सेवा करते-करते सेवक इतना बलवान हो जाता है कि सेवा का बदला वह कुछ नहीं चाहता है फिर भी उसे मिले बिना नहीं रहता है – चित्त की शांति, आनंद, विवेक ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2019, पृष्ठ संख्या 17 अंक 316

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असली जीत किनकी होती है ? – पूज्य बापू जी


प्रेम के बिना  वास्तविक जीवन की उपलब्धि नहीं होती और वास्तविक जीवन जीने वाला व्यक्ति न भी चाहे तब भी उसके द्वारा हजारों-लाखों लोगों का शुभ हो जाता है, मंगल हो जाता है, कल्याण हो जाता है । जो निष्काम सेवा करता है वह स्वयं तो रसमय जीवन बिताता ही है, औरों के लिए भी कोई-न-कोई पदचिह्न छोड़ जाता है । जो स्वार्थी है वह स्वयं भी अशांत और परेशान रहता है एवं दूसरों के लिए भी अशांति और परेशानी पैदा कर देता है । जिसके जीवन में निष्काम कर्मयोग नहीं है उसका जीवन भी वास्तविक जीवन नहीं है वरन् खोखला जीवन है ।

किसी सूफी शायर ने कहा हैः

मोहब्बत के लिए कुछ खास दिल मख्सूस1 होते हैं ।

यह वह नगमा2 है जो हर साज पे गाया नहीं जाता ।।

अहं में ये वाजिब3 है कि खुदा को जुदा कर दे ।

मोहब्बत में ये लाजिम4 है कि खुद को फिदा कर दे ।।

1 चुने 2 गीत 3 जरूरी, संगत 4 अपेक्षित, अनिवार्य

चाहे कोई भी मार्ग हो – भक्तिमार्ग हो, चाहे कर्मयोग हो, ज्ञानमार्ग हो चाहे योगमार्ग हो, किसी में भी व्यक्तित्व के सर्जन  बात नहीं आती । कोई यह न सोचे कि ‘मैं आश्रम जाऊँ, सेवा करूँ और अपनी इज्जत बढ़ाऊँ ।’ इज्जत बढ़ाने  के लिए अथवा व्यक्तित्व को सजाने  लिए आश्रम नहीं है वरन् व्यक्तित्व का विसर्जन करने के लिए आश्रम है । व्यक्तित्व का, अहं का विसर्जन करते-करते जब असली इज्जत जागती है तो उसकी चिंता नहीं करनी पड़ती है । व्यवहार में असली इज्जत तो दब जाती है और अहं की इज्जत बढ़ते-बढ़ते वह ठोस होता है जाता है और पद-पद पर मान-अपमान की चोटें लगती रहती हैं ।

वे हारते-हारते जीत जाते हैं

दो प्रकार के व्यक्ति होते हैं- एक तो वे होते हैं जो जीवनभर जीतते जाते हैं । जैसे हिटलर, सिकंदर, रावण, कंस आदि चतुराई से जीतते गये, जीतते गये, जीतते गये लेकिन अंत में उन्हें क्या हाथ लगा ? कई लोग अहं के पोषण की वासना में युक्ति से गरीबों का शोषण करते गये लेकिन अंत में उन्हें ऐसा झटका लगा कि वे बुरी तरह हारे एवं चौरासी लाख जन्मों तक हारने की खाई में जा गिरे ।

दूसरे वे होते हैं जो मंदिर में जाते हैं, सद्गुरु के पास जाते हैं । हारना शुरु किया कि ‘मैं कुछ नहीं…. भगवान का सेवक हूँ…. सदगुरु की कृपा है है….’ ऐसा करके हारते जाते हैं । हारते-हारते अपना अहं मिटाकर आत्मस्वरूप को पा लेते हैं, ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का अनुभव कर लेते हैं, ब्रह्मस्वरूप हो जाते हैं, ईश्वर से एकाकार हो जाते हैं । असली जीत तो प्रभु प्रेमियों की होती है, निष्काम सेवकों की होती है, भक्तों, योगियों की होती है । दिखावटी जीत स्वार्थियों की होती है ।

स्वार्थी व्यक्ति के पास धन-दौलत, आडम्बर हो तो आप गलती से उसको सुखी मान लेते हो । वह अपने को सुखी मानता है तो उसकी गलती है लेकिन आप उसे सुखी मानते हो तो आपकी दुगुनी गलती है । बाहरी सुख-सुविधा से सुख-दुःख का कोई विशेष सम्बंध नहीं होता । सुख और दुःख का संबंध तो अंदर की वृत्ति के साथ होता है ।

मनुष्य जितना-जितना स्वार्थी-अहंकारी होता है उतना-उतना वह भीतर से दुःखी होता है और जितना-जितना उसका जीवन निष्काम होता है, निर्दोष होता है उतना-उतना वह सुखी होता है । शबरी भीलन को कोई दुःखी नहीं कह सकता । शुकदेव जी महाराज केवल कौपीन पहनते हैं, वनों में विचरण करते हैं फिर भी हम उनको दुःखी नहीं कह सकते हैं । इसका मतलब यह नहीं कि मकान-दुकान छोड़कर झोंपड़पट्टी में रहना शुरु कर दो । नहीं…. झोंपड़पट्टी में भी सुख नहीं है और मकान में भी सुख नहीं है । सुख तो है प्रभु-प्रेम में, निःस्वार्थता में और निष्कामता में ।

सेवा से होती महान पद की प्राप्ति

प्रभु-प्रेम और सेवा में माँग नहीं होती, स्वार्थ नहीं होता । सेवा स्नेही से जुड़ी होती है । सेवा करने वाले को अपने अधिकार की चिंता नहीं होती है, अपनी सुविधाओं की चिंता नहीं होती है । अगर प्रेम है, सेवा है तो अधिकार और सुविधाएँ दासी होकर रहती हैं । जैसे कोई सेवक अपने सेठ की सेवा प्रेम से करता है तो सेठ की सेवा के लिए उसको सेठ के बँगले में रहने को मिलता है, सेठ की गाड़ी में घूमने को मिलता है ।

सेवा करने वाले में स्वार्थ नहीं होता तो ऐसे सेवक से प्रीतिपूर्वक सेवा होती है और जिसके प्रति प्रीति होती है उसका कार्य करने में आनंद आता है । प्रीति का, प्रेम का साकार रूप है सेवा ।

जो तत्परता, ईमानदारी एवं सच्चाई पूर्वक सेवा करता है उससे सेवा करते समय यदि कोई भूल हो भी जाती है तो वह भूल उसे दिखती है, समझ में आती है । दुबारा वही भूल न हो इसके प्रति वह सावधान हो जाता है । शरीर में रहते हुए भी वह मन, इन्द्रियों एवं शरीर से पार हो जाता है । फिर चाहे आरूणि हो, उपमन्यु हो या संदीपक हो या शबरी भीलन क्यों न हो, ये सब सेवा से ही महान पद को प्राप्त हुए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2019, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 316

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अपने में हनुमान जी के गुण धारण करो


श्री हनुमान जयंतीः 

कर्म को, भक्ति को योग बनाने की कला तथा ज्ञान में भगवद्योग मिलाने की कला हनुमान जी से सीख लो, हनुमान जी आचार्य हैं । लेकिन जिसके पास भक्ति, कर्म या योग करने का सामर्थ्य नहीं है, बिल्कुल हताश-निराश है तो…. ? ‘मैं भगवान का हूँ, भगवान की शरण हूँ….’ ऐसी शरणागति योग की कला भी हनुमान जी के पास है । हनुमान जी राम जी की तो सेवा करते हैं लेकिन रामभक्तों की भी समस्याओं का हल करने के लिए उनके सपने में जा-जाकर उनका मार्गदर्शन करते हैं । कई ऐसे भक्त हैं जो बताते हैं कि ‘हनुमान जी सपने में आये, बोलेः बापू से दीक्षा ले लो ।’

वायुपुत्र हनुमान जी, वायु देवता, अंतरात्मा देवता हमारा मंगल चाहते हैं । हम भी सभी का मंगल चाहें तो भगवान के स्वभाव से हमारे स्वभाव का मूल एकत्व हमें समझ में आने लगेगा । ऐसी कोई तरंग नहीं जो पानी न हो । ऐसा कोई घड़े का आकाश नहीं जो महाकाश से अलग हो । ऐसा कोई जीवात्मा नहीं जो परमात्मा से अलग हो । लेकिन काम, क्रोध, वासना, कर्तृत्व-अभिमान ने जीवन को भुलावे में डाल दिया ।

सेवक हो तो ऐसा

वाणी के मौन से शक्ति का संचार होता है, मन के मौन से सिद्धियों का प्रादुर्भाव होता है और बुद्धि के मौन से आत्मा-परमात्मा के ज्ञान का साक्षात्कार होता है । हनुमान जी कम बोलते थे, सारगर्भित बोलते थे । आप अमानी रहते थे, दूसरों को मान देते । यश मिले तो प्रभु जी के हवाले करते, कहीं गलती हो जाय तो गम्भीर भी इतने की सिर झुकाकर राम जी के आगे बैठते थे । प्रेमी भी इतने कि जो भरत कर सके, लक्ष्मण न कह सकें वह खारी, खट्टी-मीठी बात हनुमान जी कह देते थे ।

यदि भरत राम जी से बोलें कि “आप मेरे कंधे पर बैठिये ।” तो राम जी नहीं बैठेंगे । लक्ष्मण जी कहें कि “आपके कोमल चरण धरती पर…. एड़ियाँ फट गयीं, पैरों में काँटे चुभ रहे हैं…. आप मेरे कंधे पर बैठिये ।” तो राम जी नहीं बैठेंगे । लेकिन हनुमान जी कहते हैं कि “प्रभु जी ! आपके कोमल चरण कठोर, पथरीली धरती पर…. मैं तो पशु हूँ । आइये, आप और लक्ष्मण जी – दोनों मेरे कंधे पर बैठिये ।”

दोनों भाई बैठ गये और हनुमान जी ‘जय श्री राम !’ कह के उड़ान भरते हैं ।

हनुमान जयंती पर हनुमान जी की उपासना व स्मृति बुद्धि, बल, कीर्ति और धीरता देने वाली है । निर्भीकता, आरोग्य, सुदृढ़ता और वाक्पटुता चाहने वाले लोग भी हनुमान जयंती के दिन हनुमान जी की गुणगाथा सुनकर अपने में वे गुण धारण करने का मन बना लेंगे तो उनका संकल्प भी देर-सवेर फल दे सकता है ।

आम आदमी मन चाहे देवी देवता, भगवान की भक्ति में लगते हैं और वही भक्ति का फल उन्हें आत्मसाक्षात्कारी महापुरुषों तक पहुँचा देता है । सुयोग्य साधक के लिए तो

ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम् ।

मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा ।।

राजकुमार प्रचेताओं ने ऐसी तो साधना की कि शिवजी प्रकट हो गये व शिवजी से विष्णु जी के दर्शन का विष्णु-स्तवन का साधन, मंत्र लिया ।

विष्णु जी प्रसन्न हुए, प्रकट होकर बोलेः “तुम्हें देवर्षि नारदजी का सत्संग मिलेगा ।” देवर्षि नारदजी ने उन्हें फिर आत्मसाक्षात्कार करा दिया । रामकृष्णदेव को माँ काली ने तोतापुरी गुरु के पास पहुँचाया और गुरु ने उन्हें साकार के मूल निराकार तत्त्व में, जीव-ब्रह्म के एकत्व में पूर्णता दिलायी । हमने भी बाल्यकाल से देवी-देवता, श्रीकृष्ण, हनुमान जी आदि की साधना-उपासना की । ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज  मिले तो ‘ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः’ गुरुकृपा का लाभ लिया ।

गुर बिनु भव निधि तरइ न कोई ।

जौं बिरंचि1 संकर2 सम होई ।। (रामायण)

सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ।। (गीताः 4.33)

सारी साधनाओं व पूजा का फल यह है कि ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु मिले । रामकृष्णदेव आत्मसिद्धि को प्राप्त हुए तोतापुरी गुरु की कृपा से । प्रचेता नारदजी की, छत्रपति शिवाजी समर्थ रामदास जी की, नामदेव जी विसोबा खेचर की कृपा से और हम ‘ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः’ अपने गुरुदेव से….।

1 ब्रह्मा जी 2 शंकर जी

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2019, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 315

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