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लोग निंदा करें तो भले करें, तुम सेवा करते रहो


– भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज

तुम्हें ये वचन सुनाता हूँ तो यह भी सेवा है। तुम कहोगे कि ‘स्वामी जी ! सेवा का अभिमान होगा।’ अरे नहीं, मैं समाज का ऋणी हूँ। सेवा करके समाज का ऋण उतार रहा हूँ। परोपकार तभी करूँ जब ऋण न हो। गृहस्थ में रहकर भी सेवा करो। मेरी बातें पसंद आती हैं या नहीं ? हम सभी सेवा करें, भलाई के कामों में आगे बढ़ें। लोग निंदा करें तो भले करें, तुम सेवा करते रहो।

साहस करो, कमर कस के हिम्मत करो। हिम्मत से क्या नहीं होता ? हमारी निष्काम सेवा से अंतःकरण उज्जवल होता है और भगवान का आशीर्वाद मिलता है। जिनकी सेवा करते हैं वे बदले में आशीर्वाद देते हैं।

कुछ लोग कहते हैं कि ‘सेवा करते समय कई लोग निन्दा करते हैं’ परंतु सेवा की जायेगी तो दुःख भी सहने होंगे। किसी स्वार्थ से जो सेवा की जाती है, वह उत्तम सेवा नहीं है। प्रकृति को आँखें हैं, वह अपना फल स्वयं देगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2018, पृष्ठ संख्या 24 अंक 305

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आँधी तूफान सह के भी पुण्यात्मा सेवा करते हैं – पूज्य बापू जी


तुम्हारे साथ यह संसार कुछ अन्याय करता है, तुमको बदनाम करता है, निंदा करता है तो यह संसार की पुरानी रीत है। हीनवृत्ति, कुप्रचार, निंदाखोरी यह आजकल की ही बात नहीं है लेकिन कुप्रचार के युग में सुप्रचार करने का साहस लल्लू-पंजू का नहीं होता है। महात्मा बुद्ध के सेवकों का नाम सुनकर लोग उन्हें पत्थर मारते थे फिर भी बुद्ध के सेवकों ने बुद्ध के विचारों का प्रचार किया।

महात्मा बुद्ध से एक भिक्षुक ने प्रार्थना कीः “भंते ! मुझे आज्ञा दें, मैं सभाएँ करूँगा। आपके विचारों का प्रचार करूँगा।”

“मेरे विचारों का प्रचार ?”

“हाँ भगवन् !”

“लोग तेरी निंदा करेंगे, गालियाँ देंगे।”

“कोई हर्ज नहीं। मैं भगवान को धन्यवाद दूँगा कि ये लोग कितने अच्छे हैं ! ये केवल शब्द-प्रहार करते है, मुझे पीटते तो नहीं !”

“लोग तुझे पीटेंगे भी, तो क्या करेगा ?”

“प्रभो ! मैं शुक्र गुजारूँगा कि ये लोग हाथों से पीटते हैं, पत्थर तो नहीं मारते !”

“लोग पत्थर भी मारेंगे और सिर भी फोड़ देंगे तो क्या करेगा ?”

“फिर भी आश्वस्त रहूँगा और आपका दिव्य कार्य करता रहूँगा क्योंकि वे लोग मेरा सिर फोड़ेंगे लेकिन प्राण तो नहीं लेंगे !”

“लोग जुनून में आकर तुम्हें मार देंगे तो क्या करेगा ?”

“भंते ! आपके दिव्य विचारों का प्रचार करते-करते मर भी गया तो समझूँगा कि मेरा जीवन सफल हो गया।”

उस कृतनिश्चयी भिक्षुक की दृढ़ निष्ठा देखकर महात्मा बुद्ध प्रसन्न हो उठे। उस पर उनकी करूणा बरस पड़ी। ऐसे शिष्य जब बुद्ध का प्रचार करने निकल पड़े तब कुप्रचार करने वाले धीरे-धीरे शांत हो गये।

ऐसे ही मेरे लाड़ले-लाड़लियाँ, शिष्य-शिष्याएँ हैं कि घर-घर जाकर ‘ऋषि प्रसाद’, ‘ऋषि-दर्शन’ के सदस्य बनाते हैं। आपको भी सदस्य बनाने का कोई अवसर मिले तो चूकना नहीं। लोगों को भगवान और संत वाणी से जोड़ना यह अपने-आपमें बड़ी भारी सेवा है।

संत और संत के सेवकों को सताने वालों के प्रकृति अपने ढंग से यातना देती है और संत की सेवा, समाज की सेवा करने वालों को गुरु और भगवान अपने ढंग से प्रसादी देते हैं।

वाहवाही व चाटुकारी के लिए तो कोई भी सेवा कर लेता है लेकिन मान-अपमान, गर्मी-ठंडी, आँधी तूफान सह के तो सदगुरु के पुण्यात्मा शिष्य ही सेवा कर पाते हैं।

ऋषि प्रसाद, ऋषि दर्शन के सदस्य बनाने वाले और दूसरी सेवाएँ करने वाले मेरे साधक-साधिकाएँ दृढ़ संकल्पवान, दृढ़ निष्ठावान हैं। जैसे बापू अपने गुरुकार्य में दृढ़ रहे ऐसे ही बापू के बच्चे, नहीं रहते कच्चे !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2018, पृष्ठ संख्या 15 अंक 305

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सेवा की सीख एवं बिनशर्ती शरणागति-पूज्य बापू जी


सेतुबंध रामेश्वर की स्थापना करने के लिए हनुमान जी को काशी से शिवलिंग लाने हेतु भेजा गया। हनुमान जी को लौटने में थोड़ी देर हो गयी।

इधर मुहूर्त बीता  जा रहा था अतः राम जी ने बालू का शिवलिंग बना के स्थापित कर दिया। थोड़ी ही देर में हनुमान जी शिवलिंग लेकर पहुँच गये किंयु देरी हो जाने की वजह से उनके द्वारा लाये गये शिवलिंग की स्थापना नहीं हो सकी, अतः उन्हें दुःख हुआ। दुःख क्यों हुआ ? क्योंकि कर्ता अभी मौजूद है… सेवा करने वाला मौजूद है।

दयालु राम जी को पता चला तो वे बोलेः “हनुमान ! सेवक का कर्तव्य है कि तत्परता और कुशलता से सेवा कर ले। फिर स्वामी ने सेवा को स्वीकार किया या नहीं किया, इस बात का सेवक को दुःख नहीं होना चाहिए।

हे अंजनिसुत ! तुम्हें संतों की शरण में जाना चाहिए और अपना आपा पहचानना चाहिए। जब तक तुम अपना शुद्ध-बुद्ध स्वरूप नहीं जानोगे, तब तक सुख-दुःख के थप्पड़ इस मायावी व्यवहार में लगते ही रहेंगे। तुम्हें सावधान होकर ब्रह्वेत्ता संतों का सत्संग सुनना चाहिए। कर्म का कर्ता कौन है ? कर्म किसमें हो रहे हैं ? सफलता-विफलता किसमें होती है ? सुख-दुःख का जिस पर प्रभाव होता है, उसका और तुम्हारा क्या संबंध है ? इस रहस्य को तुम्हें समझना चाहिए।

हे केसरीनंदन ! जीव का वास्तविक स्वरूप अचल, निरंजन, निर्विकार, सुखस्वरूप है लेकिन जब तक वह अपने अहं को, अपने क्षुद्र जीवत्व को नहीं छोड़ता और पूर्णरूप से ब्रह्मवेत्ताओं की बिनशर्ती शरणागति स्वीकार नहीं करता, तब तक वह कई ऊँचाइयों को छूकर पुनः उतार चढ़ाव के झोंकों में ही बहता रहता है। जहाँ से कोई ऊँचाई और अधिक ऊँचा न ले जा सके एवं कोई नीचाई नीचे न गिरा सके उस परम पद को पाने के लिए तुम्हें अवश्य यत्न करना चाहिए। तुम्हें संतों का संग करके अपना चित्त के साथ का जो संबंध है उसका विच्छेद करना चाहिए। जिस पर सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान आदि का असर होता है उस अपने चित्-संवित् से तदाकारता हटाकर जब तुम अपने स्वरूप को जानोगे तब प्रलयकाल का मेघ भी तुम्हें विचलित नहीं कर सकेगा।

राग और द्वेष मति में होते हैं, सुख-दुःख की वृत्ति मन में होती है, गर्मी-सर्दी तन को लगती है – इन सबको जो सत्ता देता है, जो रोम-रोम में रम रहा है उस राम का आश्रय लो और उसी चैतन्य राम में प्रीति करो तब तुम जीवन्मुक्त हो जाओगे।”

राम जी की ज्ञानसंयुक्त वाणी सुन के हनुमान जी राम जी के चरणों में नतमस्तक हो गये और क्षमा-प्रार्थना करने लगेः “हे कृपानिधान ! मेरा अपराध क्षमा करें।”

हनुमान जी ने राम जी के संकेतानुसार अंतर्यामी, सर्वव्यापी, चैतन्यस्वरूप राम-तत्त्व का ज्ञान हृदय में धारण किया और उसके अभ्यास की तरफ बढ़ने लगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2018, पृष्ठ संख्या 23, अंक 302

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