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आज्ञा नहीं सम साहेब सेवा


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

कुछ वर्ष पहले पंजाब का एक युवान साधक अपना सर्वस्व त्यागकर, आत्मदेव के दर्शन करा सकें – ऐसे सदगुरु की खोज में निकला।

जिन्हें हो प्यास दर्शन की, वे खुशनसीब होते हैं।

चल पड़ें दो कदम तो, रब उनके करीब होते हैं।।

अध्यात्म का मार्ग ही ऐसा है कि उस पर ईश्वर या सदगुरु की खोज में सच्चे दिल से चल पड़ो तो वह अत्यंत सुलभ बन जाता है। एक दिन उस युवान को भी ब्रह्मानंद की मस्ती में रमण करने वाले कोई तत्त्ववेत्ता महापुरुष सदगुरुरूप में मिल गये। उस युवान ने पूर्ण शरणागति और श्रद्धा-भक्तिभाव से उनके पावन श्रीचरणों में प्रणाम किया।

उन महापुरुष ने उस युवान से पूछाः “तुम्हें परमात्मा को जानना है या परमात्मा के विषय में जानना है?”

वह साधक खूब समझदार रहा होगा। उसने कहाः “मुझे परमात्मा को जानना है, परमात्मा के विषय में नहीं जानना है।”

सदगुरु ने प्रसन्न होते हुए कहाः “यदि तुम्हें परमात्मा के विषय में जानना होता तो कई शास्त्र और ग्रंथ तुम्हें थमा देता, जिनमें परमात्मविषयक बहुत सारा वर्णन किया गया है, परंतु तुम्हें परमात्मा को जानना है तो मेरे आश्रम में रहना पड़ेगा।”

साधक ने इसे अपना अहोभाग्य माना और आश्रम में रहने लगा। उसने पूछाः “गुरुदेव ! मेरे लिए सेवा या साधना की आज्ञा करें।”

गुरुदेवः “देख, इस आश्रम में 500 शिष्य हैं। उनके भोजन प्रसाद में चावल का ही उपयोग होता है। सामने जो कमरा है, उसमें धान के बोरे पड़े हैं। वहाँ जाकर धान कूटने लग। यही तेरी साधना है।”

शिष्य ने न कोई प्रश्न किया न कोई दलील की क्योंकि वह जानता था किः

आज्ञा सम नहीं साहेब सेवा

उसने न कोई मंत्र लिया, न कोई उपदेश लिया। बस, गुरु-आज्ञा ही उसका मंत्र था – मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं…. और वही उपदेश था। सुबह से शाम तक धान कूटता रहता और रात को उसी कमरे में सो जाता। न किसी के साथ पहचान, न किसी के साथ वार्तालाप। वह तो सतत मौन रहकर सेवा साधना में ही लगा रहा। इस प्रकार 12 वर्ष बीत गये। आजकल का शिष्य होता तो 12 दिन में ही भाग जाता, परंतु ऐसे निष्ठावान शिष्य की स्मृति तो गुरुदेव को भी आ जाती है।

बड़े वे भाग्यशाली हैं, जिन्हें गुरु याद करते हैं।

नहीं कम भाग्यशाली वे, जो गुरु से प्यार करते हैं।।

गुरुदेव को ऐसे शिष्य की निष्ठा से प्रसन्नता होती है कि ‘आज मुझे पक्का शिष्य मिल गया।’

कहते हैं कि परमात्मप्राप्ति इतनी कठिन नहीं है, जितनी सच्चे सदगुरुओं की प्राप्ति और सदगुरुओं की प्राप्ति भी इतनी कठिन नहीं है, जितनी सच्चे शिष्यों की प्राप्ति। आजकल के शिष्यों में शिष्यत्व है ही कहाँ ?

….परंतु आज उन महापुरुष को उनके ज्ञान को पूर्णरूप से पचाने वाला सत्शिष्य मिल गया था। गुरुदेव का निर्वाण नजदीक आ रहा था। सब शिष्यों को गुरुदेव ने अपने पास बुलाया और कहाः

“अब मैं निर्वाण को प्राप्त होने वाला हूँ। वर्षों से तुम लोगों ने दीक्षा और मेरे उपदेश पाये हैं। अब मैं अपने आश्रम की गद्दी का अधिकारी चुनने के लिए एक शर्त रखता हूँ। उस शर्त में जो सफल होगा, वही इस आश्रम का उत्तराधिकारी बनेगा।”

सब शिष्य बोल उठेः “गुरुदेव ! क्या शर्त है? कहिये।”

सब शिष्य सोचने लगे कि ‘इतने बड़े आश्रम की गद्दी मिलने वाली है !’ सबका मन गद्दीपति होने के लिए लालायित था, परंतु अंदर से डर भी था कि कहीं उपदेश का सारांश लिखने में त्रुटि रह गयी तो ? उन लोगों ने सारी रात सोचने में बितायी और अंत में एक तख्ती पर लिख दियाः “मन एक दर्पण है। इस मन रूपी दर्पण पर काम, क्रोध, लोभ आदि की धूल जम गयी है। उस धूल को साफ करना यही निर्वाण है।”

इतना लिखकर तख्ती रख दी। वे बहुत चालाक थे, अतः लेख के नीचे किसी ने अपने हस्ताक्षर नहीं किये क्योंकि सोचा कि ‘गुरुदेव को ठीक लगेगा तो आगे कूद पड़ेंगे और गलत लगेगा तो कहेंगे कि हम तो अभी विचार कर रहे हैं। पता नहीं यह किसने लिखा होगा ?’ सब पढ़े-लिखे जो थे !

सुबह जब गुरुदेव ने पढ़ा तो बोल उठेः

“मेरी शिक्षा-सत्संग का अनर्थ करके किस अज्ञानी ने यह सार निकाला है ? इस तख्ती को यहाँ से दूर करो।”

सब शिष्य चिंतित होकर इकट्ठे हुए। वे सोचने लगे कि ‘अब क्या करें? क्या लिखें जो गुरुदेव को ठीक लगे?’ परंतु उन्हें कोई रास्ता नहीं मिला। अंत में वे शिष्य धान कूटने वाले उस पंजाबी युवक शिष्य के कमरे में गये। तब उस सत्शिष्य ने 12 वर्ष का मौन तोड़कर पूछाः

“आज सुबह के प्रहर में इतना कोलाहल क्यों था, भाई?”

सारांश लिखने वाले शिष्यों ने सारी हकीकत कह सुनायी। तब धान कूटने वाले उस सत्शिष्य ने कहाः “आप लोगों ने शिक्षा व सत्संग का जो सारांश लिखा वह गुरुदेव को नहीं भाया तो अब मैं जो कहूँ, वह लिख दो।”

“क्या लिखें ? बताओ।”

उसने कहाः “मन ही नहीं है तो धूल किस पर? किसकी सफाई और किसका निर्वाण?”

दूसरे दिन गुरुदेव यह पढ़कर गदगद हो गये और पहली बार उस सत्शिष्य को बुलाकर आलिंगन किया।

गुरुदेव बोलेः “बेटा ! मेरी आज्ञा मानकर तू सेवा में इतना तल्लीन हो गया कि तेरा मन ही नहीं बचा है। तेरा मन अमनीभाव में स्थित हो गया है। बेटा ! तू गुरुतत्त्व झेलने के लिए पूर्ण अधिकारी है।”

सदगुरु ने आज तक जो भी अनुभव प्राप्त किये थे, वे सब उन्होंने अपनी शक्तिपात-वर्षा के माध्यम से सत्शिष्य पर बरसा दिये। साधक में से वह सिद्ध हो गया। शिष्य में से वह पूर्ण गुरुत्व में प्रतिष्ठित हो गया।

पूर्ण गुरु कृपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान।

साधक में से बन गया, अब वह सिद्ध महान।।

देह सभी मिथ्या हुई, जगत हुआ निःसार।

हुआ आत्मा से तभी, उसका साक्षात्कार।।

वे घड़ियाँ धन्य हैं, जब आत्ममस्ती में जागे हुए कोई सदगुरु अपने प्रिय शिष्य पर शक्तिपात की वर्षा करते हैं और उसे अपने अनुभव में मिला देते हैं। गुरुदेव ने उसे आत्मसाक्षात्कार का प्रसाद देते हुए कहाः

“अब तुझे इस आश्रम में नहीं रहना है। तू आज से मुक्त हो गया है। यह ले मेरा डण्डा और यहाँ से अभी निकल पड़, क्योंकि मेरे निर्वाण के पश्चात् तेरी उन्नति को अन्य 500 शिष्य सहन नहीं कर पायेंगे। इसलिए तू अभी चला जा।”

वह सत्शिष्य सजल नेत्रों से सदगुरु के पावन श्री चरणों में प्रणाम करके चला गया और कुछ समय बाद गुरुदेव भी निर्वाण को प्राप्त हो गये।

धन्य है ऐसे गुरुभक्तों का जीवन जो श्रद्धा, भक्ति और तत्परता से गुरु-आज्ञा का पालन करते हुए उनकी पूर्ण कृपा पाने के अधिकारी बन जाते हैं !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 15-17 अंक 120

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सम्राट अशोक की सेवापरायणता


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग प्रवचन से

सम्राट अशोक के राज्य में अकाल पड़ा। सम्राट ने राज्य में कई सदाव्रत खुलवा दिये ताकि प्रजा में जिनकी आर्थिक स्थिति ठीक न हो वे अपने लिए निःशुल्क सीधा-सामान ले जायें।

एक दिन सदाव्रत में लंबी कतार पूरी होने पर शरीर से दुर्बल एवं वृद्ध व्यक्ति आया। सदाव्रतवालों ने कहाः “अब हम सदाव्रत बंद कर रहे हैं। कल आना।”

इतने में एक युवक ने आकर कहाः “लंबी कतार में खड़े रहने की शक्ति न होने से यह वृद्ध छाया में दूर बैठा था। तुम इसको सीधा-सामान दे दो तो अच्छा होगा।”

युवक की प्रभावशाली वाणी सुनकर सदाव्रतवालों ने उस वृद्ध को सीधा-सामान दे दिया। पाँच-दस सेर जितना आटा, दाल, चावल आदि सामान की गठरी बाँधकर वह वृद्ध कैसे ले जाता ? उस युवक ने गठरी बाँधी और अपने सिर पर रख ली एवं वृद्ध के साथ चलने लगा।

दोनों कुछ आगे बढ़े होंगे कि इतने में सामने से सेना की एक टुकड़ी आयी। टुकड़ी के नायक ने घोड़े से उतरकर वृद्ध के साथ चल रहे युवक का अभिवादन किया। यह देखकर वृद्ध चौंक उठा और सोचने लगा कि ‘यह युवक कौन है ?’ युवक ने टुकड़ी के नायक को संकेत से अपना परिचय देने के लिए मना कर दिया।

वह वृद्ध भी अनुभवसम्पन्न था, जमाने का खाया हुआ था। वह समझ गया कि मेरे साथ जो युवक है वह कोई साधारण आदमी नहीं है। अतः उसने स्वयं ही युवक से परिचय पूछाः

“युवक तुम कौन हो ?”

युवकः “आप  वृद्ध हैं और मैं युवक हूँ। आपका शरीर दुर्बल है और मेरे शरीर में बल है। मुझे सेवा का अवसर मिला है। उसका लाभ उठा रहा हूँ। बस, इतना ही परिचय काफी है।”

लेकिन वह वृद्ध भला कैसे चुप रहता ? उस युवक को एकटक देखते-देखते उसने युवक का हाथ पकड़ लिया और अधिकारपूर्वक वाणी में कहाः “तुम और कोई नहीं वरन् इस देश के सम्राट अशोक हो न !” सम्राट अशोक ने हाँ भर दी।

जो निष्काम कर्म करते हैं और यश नहीं चाहते, यश-कीर्ति तो उनके इर्द-गिर्द ही मँडराती रहती है। इसलिए सेवा, विनम्रता, दया और करुणा जैसे सदगुणों को अपनाकर अपना जीवन तो उन्नत करना ही चाहिए एवं औरों के लिए भी आपका जीवन पथ-प्रदर्शक बन सके – ऐसा प्रयास करना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2002, पृष्ठ संख्या 17, अंक 110

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एतत्सर्वं गुरुर्भक्त्या…..


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

हम लोगों के जीवन में दो तरह के रोग होते हैं- बहिरंग और अन्तरंग। बहिरंग रोगों की चिकित्सा तो डॉक्टर लोग करते ही हैं और वे इतने दुःखदायी भी नहीं होते हैं जितने कि अन्तरंग रोग होते हैं।

हमारे अन्तरंग रोग हैं काम, क्रोध, लोभ और मोह। भागवत में इन एक-एक रोग की निवृत्ति के लिए एक एक औषधी बतायी है।

औषति दोषान् धत्ते गुणान् इति औषधिः।

जो दोष को जला दे और गुणों का आधान कर दे, उसका नाम है औषधि।

व्यास भगवान ने सभी दोषों की अलग-अलग औषध बतायी, जैसे काम के लिए असंकल्प, क्रोध के लिन निष्कामता, लोभ के लिए अर्थानर्थ का दर्शन, भय के लिए तत्त्वावदर्शन, अहंकार के लिए बड़ों की शरण में रहना आदि। फिर सभी दोषों की एक औषधि बताते हुए कहा कि सभी दोष गुरुभक्ति से दूर हो जाते हैं – एतद् सर्वं गुरुर्भक्त्या।

यदि अपने गुरु के प्रति भक्ति हो तो वे बतायेंगे कि, ‘बेटा ! तुम गलत रास्ते से जा रहे हो। इस रास्ते से मत जाओ। उसको ज्यादा मत देखो, उससे ज्यादा बात मत करो, उसके पास ज्यादा मत बैठो,  उससे मत चिपको, अपनी सोच-संगति ऊँची रखो,’ आदि।

जब गुरु के चरणों में तुम्हारा प्रेम हो जायेगा, तब दूसरों से प्रेम नहीं होगा। भक्ति में ईमानदारी चाहिए, बेईमानी नहीं। बेईमानी सम्पूर्ण दोषों व दुःखों की जड़  है। सुगमता से दोषों और दुःखों पर विजय प्राप्त करने का उपाय है ईमानदारी के साथ, सच्चाई के साथ, श्रद्धा के साथ और हित के साथ गुरु के सेवा करना।

श्रद्धा पूर्ण नहीं होगी और यदि तुम कहीं भोग करने लगोगे या कहीं यश में, पूजा में, प्रतिष्ठा में फँसने लगोगे और गुरु जी तुम्हें मना करेंगे तो बोलोगे कि, “गुरुजी हमसे ईर्ष्या करते हैं, हमारी उन्नति उनसे देखी नहीं जाती, इनसे नहीं देखा जाता है कि लोग हमसे प्रेम करें। गुरु जी के मन में अब ईर्ष्या आ गयी और ये अब हमको आगे नहीं बढ़ने देना चाहते हैं।’

साक्षात् भगवान तुम्हारे कल्याण के लिए गुरु के रूप में पधारे हुए हैं और ज्ञान की मशाल जलाकर तुमको दिखा रहे हैं, दिखा ही नहीं रहे हैं, तुम्हारे हाथ में दे रहे हैं। तुम देखते हुए चले जाओ आगे….. आगे…. आगे….। परंतु उनको कोई साधारण मनुष्य समझ लेता है, किसी के मन में ऐसी असद् बुद्धि, ऐसी दुर्बुद्धि आ जाती है तो उसकी सारी पवित्रता गजस्नान के समान हो जाती है। जैसे हाथी सरोवर में स्नान करके बाहर निकले और फिर सूँड से धूल उठा उठाकर अपने ऊपर डालने लगे तो उसकी स्थिति वापस पहले जैसी ही हो जाती है। वैसे ही गुरु को साधारण मनुष्य समझने वाले की स्थिति भी पहले जैसी ही हो जाती है।

ईश्वर सृष्टि बनाता है अच्छी बुरी, दोनों सुख-दुःख दोनों, चर-अचर दोनों, मृत्यु-अमरता दोनों। परन्तु संत महात्मा, सदगुरु मृत्यु नहीं बनाते हैं, केवल अमरता बनाते हैं। वे जड़ता नहीं बनाते, केवल चेतनता बनाते हैं। वे दुःख नहीं बनाते, केवल सुख बनाते हैं। तो संत महात्मा, लोगों के  जीवन में साधन डालने वाले, उनको सिद्ध बनाने वाले, उनको परमात्मा से एक कराने वाले।

लोग कहते हैं कि एक परमात्मा भक्तों पर कृपा करते हैं, तो करते होंगे, पर महात्मा न हो तो कोई भक्त ही नहीं होगा और भक्त जब नहीं होगा तो परमात्मा किसी पर कृपा भी कैसे करेंगे ? इसलिए परमात्मा सिद्ध पदार्थ है और महात्मा प्रत्यक्ष हैं। परमात्मा या तो परोक्ष हैं – सृष्टिकर्ता-कारण के रूप में और या तो अपरोक्ष हैं – आत्मा के रूप में।  परोक्ष हैं तो उन पर विश्वास करो और अपरोक्ष हैं तो ‘निर्गुणं, निष्क्रियं, शान्तं’ हैं। परमात्मा का यदि कोई प्रत्यक्ष स्वरूप है तो वह साक्षात् महात्मा ही है। महात्मा ही आपको ज्ञान देते हैं। आचार्यात् विदधति, आचार्यवान पुरुषो वेदा।

जो लोग आसमान में ढेला फेंककर  निशाना लगाना चाहते हैं, उनकी बात दूसरी है। पर, असल बात यह है कि बिना महात्मा के न परमात्मा के स्वरूप का पता चल सकता है, न उसके मार्ग का पता चल सकता है। हम परमात्मा की ओर चल सकते हैं कि नहीं, इसका पता भी महात्मा के बिना नहीं चल सकता है। इसलिए, भागवत के प्रथम स्कंध में ही भगवान के गुणों से भी अधिक गुण महात्मा में बताये गये हैं, तो वह कोई बड़ी बात नहीं है। ग्यारहवें स्कंध में तो भगवान ने यहाँ कह दिया है किः

मद् भक्तपूजाभ्यधिका।

‘मेरी पूजा से भी बड़ी है महात्मा की पूजा।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2001, पृष्ठ संख्या 5,6 अंक 103

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