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महर्षि कर्दम एवं देवहूति का दिव्य चरित्र


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

धर्मस्य ह्यावर्ग्यस्य नार्थोर्थायोपकल्पते।

नार्थस्य धर्मैकान्तस्य कामो लाभाय ही स्मृतः।।

कामस्य नेन्द्रियप्रीतिर्लाभो जीवेत यावता।

जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा नार्थो यश्चेह कर्मभिः।। (श्रीमद् भागवतः 1.2.9,10)

ʹधर्म का फल है मोक्ष। उसकी सार्थकता अर्थ प्राप्ति में नहीं है। अर्थ केवल धर्म के लिए है। भोग-विलास उसका फल नहीं माना गया है। भोग का फल इन्द्रियों को तृप्त करना नहीं है। उसका प्रयोजन है केवल  जीवन-निर्वाह। जीवन का फल भी तत्त्वजिज्ञासा है। बहुत कर्म करके स्वर्गादि प्राप्त करना उसका फल नहीं है।ʹ

धर्म का फल संसार के बंधनों से मुक्ति तथा भगवान की प्राप्ति करना है। उससे यदि कुछ सांसारिक संपत्ति उपार्जित कर ली तो यह उसकी कोई सफलता नहीं है। उसकी वास्तविक सफलता तो यह है कि वास्तविक तत्त्व को, भगवत्तत्त्व को जानने की शुद्ध इच्छा हो।

धन भोगवासना में डूब मरने के लिए नहीं अपितु धर्म के लिए है। धर्म धनप्राप्ति के लिए नहीं है, वरन् भगवत्प्राप्ति के लिए है। धर्म संयम का मार्ग दिखलाकर अपने स्वरूप में, आत्मस्वरूप में ले आता है। आज का आदमी बोलता है किः “हम तो गृहस्थी हैं…. हम तो संसारी हैं…..ʹ

अरे ! मनु महाराज… सात समुद्रवाली पृथ्वी के एकछत्र सम्राट स्वयम्भू मनु, जिनकी राजधानी बर्हिष्मती पुरी समस्त संपदाओं से युक्त थी, वे भी धर्म का कितना रहस्य जानते थे ! मनु महाराज ने भारद्वाज जी को जो उपदेश दिया है, वही ʹमनुस्मृतिʹ के नाम से विख्यात है। जिन्होंने भारद्वाज ऋषि को धर्म का उपदेश दिया था, वे ही मनु महाराज अपनी कन्या को लेकर वहाँ गये जहाँ कर्दम ऋषि तपस्या कर रहे थे।

कर्दम ऋषि भी कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे। वे ब्रह्माजी के मानसपुत्र थे। कर्दम ऋषि ने ब्रह्मा जी से पूछाः “पिता जी ! क्या आज्ञा है ?” पिता की खुशी का वही दिन है जब पुत्र कहे कि ʹपिता जी ! क्या आज्ञा है ? मैं आपकी कौन-सी इच्छा पूरी करूँ ?ʹ समझो उस दिन पिता का पिता होना सार्थक हो गया। स्वस्थ शरीर, मधुरभाषिणी पत्नी और आज्ञाकारी पुत्र-यह गृहस्थ जीवन का सुख माना गया है। ऐशो आराम में गरकाव होना और डिस्को करना, शराब पीना एवं पत्नी बदलना-इस पिशाची जीवन को गृहस्थाश्रम का सुख नहीं माना गया।

कर्दम ऋषि द्वारा पूछे जाने पर ब्रह्माजी ने कहाः “बेटा ! सृष्टि का विस्तार करो।”

कर्दम ऋषिः “पिता जी ! सृष्टि का विस्तार करने के लिए कुछ योग्यता, कुछ सामर्थ्य हो तभी सृष्टि की परम्परा अच्छे से चल सकेगी। आपकी आज्ञा का पालन करने के लिए मैं जाता हूँ तप करने।”

कर्दम ऋषि तप करने निकल पड़े।

तप भी तीन प्रकार का होता हैः शारीरिक तप, वाचिक तप और मानसिक तप।

जो अन्नमय शरीर में रहते हैं उनके लिए तीर्थयात्रा करना, शरीर को कष्ट देना-यह तप है। जो प्राणमय शरीर में रहते हैं उऩके लिए प्राणायाम आसन आदि करना तप है। जो मनोमय शरीर में रहते हैं उनके लिए भक्तिभाव, आराधना आदि मानसिक तप है। विज्ञानमय एवं आनंदमय शरीर में जिनकी चेतना रहती है, ऐसे लोगों के लिए ध्यान और तत्त्व विचार करना तप है।

लेकिन सब तपों से बढ़कर एकाग्रता को परम तप माना गया है।

तपः सु सर्वेषु एकाग्रता परं तपः।

कर्दम ऋषि उसी एकाग्रता में लग गये। उनकी एकाग्रता ने इतना जोर पकड़ा कि भगवान आदिनारायण उनके आगे प्रगट हो गये। उन्होंने कर्दम ऋषि को दर्शन दिये और वरदान देते हुए कहाः “तुम्हें सृष्टि विस्तार की सेवा करनी है। अतः तुम्हारा विवाह होगा महाराज स्वयम्भू मनु की पुत्री देवहूति के साथ। महाराज मनु स्वयं अपनी कन्या लेकर तुम्हारे पास आयेंगे। उस कन्या देवहूति से तुम्हारी नौ कन्याएँ होंगी। उन कन्याओं से लोकरीति के अनुसार मरीचि आदि ऋषिगणों के द्वारा पुत्र उत्पन्न होंगे।

कृत्वा दयां च जीवेषु दत्त्वा चाभयमात्मवान्।

तुम संयमी बनोगे, जीवों पर दया करोगे, सबको अभयदान करोगे और मुझको सबमें और सबको मुझमें देखोगे। मैं तुम्हारा बेटा बनूँगा और सांख्य दर्शन का उपदेश करूँगा।”

यह वरदान देकर भगवान अंतर्धान हो गये। यहाँ उचित समय पर महाराज मनु अपनी पत्नी के साथ अपनी सुशील सुकन्या देवहूति को ले आये। कर्दम ऋषि ने महाराज मनु का आतिथ्य सत्कार किया एवं सबको आसन दिया। मनु शतरूपा तो आसन पर बैठ गये किन्तु देवहूति सयानी हो चुकी थी। उसने सोचाः ʹये मेरे होनहार पति हैं। अगर उनके बिछाये हुए आसन पर मैं बैठ जाऊँ तो यह पत्नीधर्म के विरूद्ध होगा और अगर अस्वीकार कर दूँ तो उनकी अवज्ञा होगी।ʹ

अतः उस चतुर सुकन्या देवहूति ने न आसन की अवज्ञा की और न ही उस पर बैठी, वरन् अपना दायाँ घुटना और दायाँ हाथ आसन पर रखा, जिससे ऋषिवर का आसन स्वीकार भी हो गया और ऋषि की मर्यादा का पालन भी हो गया।

फिर कुशलक्षेम पूछते हुए कर्दम ऋषि मनु महाराज से बोलेः “आपका यह पौरा संतों की रक्षा एवं दुष्टों के नाश के लिए है क्योंकि आप में भगवान की पालनशक्ति है। सब देवताओं की शक्ति राजा में रहती है। यदि आप विचरण न करें व दुष्टों को दण्ड न दें तो उनको भय न रहेगा और पृथ्वी पर दुष्टता बढ़ जायेगी। राजा को तो ऐसा उग्रदण्डी होना चाहिए कि किसी को उच्छ्रंखल होने की हिम्मत न हो। यदि दण्डनीति शिथिल हो गयी तो वेदधर्म का नाश हो जायेगा।

राजन ! राज्य में प्रजा को पानी तो साफ सुथरा मिलता है न ? प्रजा को अन्न, फल-फूल, दूध आदि तो ठीक से मिलता है न ? प्रजा के गरीब वर्ग का अधिक शोषण तो नहीं होता ? धनाढय लोग गरीबों का ख्याल तो करते हैं न ? गरीब लोग धनाढय को देखकर जलते तो नहीं हैं न ? प्रजा के छोटे-से-छोटे एवं बड़े-से-बड़े वर्ग, सबको आप अपनी संतान की नाईं ही देखते हैं न ? महाराज ! जिस राजा के राज्य में प्रजा सुखी होती है वह राजा प्रजा का प्रेमपात्र होता है। जिस राजा के राज्य में प्रजा दुःखी होती है वह राजा नरक का अधिकारी है – ऐसा शास्त्र कहते हैं। हे राजन् ! आपके राज्य में प्रजा सुखी तो है न ?”

तब मनु महाराज बोलेः “हे ऋषिवर ! आप धन्य हैं। आपने तो आवभगत करते-करते, कुशल समाचार पूछते-पूछते राजा का कर्त्तव्य क्या है और प्रजा सुखी कैसे रहे इन सभी बातों की जानकारी दे डाली। महाराज ! आपको मेरे प्रणाम हैं।”

कर्दम ऋषिः “अच्छा राजन् ! अब यह बताइये कि इस समय यहाँ आपका आगमन किस प्रयोजन से हुआ है ?”

मनु महाराजः “हे ऋषिवर ! हमने सुना है कि आप विवाह के इच्छुक हैं। भगवान आदिनारायण ने भी हमें ऐसी ही प्रेरणा दी है और यह कन्या देवहूति आपके योग्य है। यह जितनी सुन्दर है उतना ही इसका चरित्र भी उज्जवल और पवित्र है।”

कर्दम ऋषिः “राजन् ! आपकी कन्या के विषय में मैंने नारदजी से सुन रखा है कि एक बार यह आपके महल की छत पर गेंद खेल रही थी, तब इसके सौन्दर्य को देखकर विश्वावसु नामक गन्धर्व मूर्च्छित होकर गिर पड़ा था। यह इतनी सुन्दर है और अभी इसके व्यवहार को देखकर भी मैंने जान लिया है कि यह शील, सदाचार और ज्ञान में भी सुन्दर है। अतः मैं आपकी इस साध्वी कन्या से विवाह तो कर सकता हूँ लेकिन एक शर्त के साथ।

वह शर्त है कि मैं सदैव गृहस्थी के दलदल में ही फँसा नहीं रहना चाहता। अतः जब तक इसको सन्तान नहीं हो जायेगी, तभी तक मैं गृहस्थ-धर्मानुसार इसके साथ रहूँगा। बाद में मैं संन्यास धारण कर लूँगा और अपने को उन परब्रह्म परमात्मा में स्थित करूँगा जिनसे इस विचित्र जगत की उत्पत्ति हुई है, जिनके आश्रय से यह स्थित है और जिनमें यह लीन हो जाता है।”

मनु महाराज सहमत हुए। उन्होंने शास्त्रोक्त विधि से देवहूति का कन्यादान पेड़ के नीचे बैठे हुए महर्षि कर्दम को कर दिया। फिर वे अपनी राजधानी की ओर चल पड़े।

कितना आदर है ज्ञान का ! कितना आदर है तप का   ! कितना आदर है संयम और सदाचार का !

तुम भी अपने जीवन में वह ओज लाओ, तेज लाओ, तन्दुरुस्ती लाओ और बल लाओ ताकि तुम्हारा जीवन भी महके…. तुम्हारा जीवन भी आत्मा-परमात्मा के सुख का अनुभव करे।

देवहूति तन-मन से कर्दमजी की सेवा में लग गयी। यद्यपि वह राजपुत्री थी, अत्यन्त प्यार में पली थी एवं कर्दम ऋषि के पास न तो रहने के लिए घर था, न सोने के लिए चारपाई थी, न बिछाने के लिए वस्त्र था और न खाने के लिए बर्तन…. फिर भी देवहूति पर उन अभावों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

पत्थर या धातु की मूर्ति में भगवदबुद्धि करके पूजा और आदर करने से सामर्थ्य आता है, चित्त शुद्ध होता है। पति में तो साक्षात परमेश्वर विराजमान ही हैं। सुख-सुविधा के अभाव में भी पत्नी देवहूति ने पेड़ के नीचे रहने वाले, ज्ञान और ध्यान-भजन में लगे हुए कर्दम जैसे पवित्रात्मा पति में परमात्माबुद्धि करके ऐसी सेवा की कि कर्दम ऋषि की वर्षों की तपस्या निर्विघ्न पूरी हुई।

एक दिन कर्दम ऋषि देवहूति से बोलेः “हे मनुनन्दिनी ! तुमने मेरा बड़ा आदर किया है। मैं तुम्हारी उत्तम सेवा और परम भक्ति से बहुत सन्तुष्ट हूँ। सभी देहधारियों को अपना शरीर बहुत प्रिय एवं आदर की वस्तु होता है, किन्तु तुमने मेरी सेवा के आगे उसके क्षीण होने की भी कोई परवाह नहीं की। बताओ, तुम्हारी क्या इच्छा है ?”

तब देवहूति ने अपने दाहिने पैर के अंगूठे से धरती कुरेदते हुए सलज्ज होकर कहाः “हे नाथ ! मेरे माता-पिता मेरा हाथ आपके हाथ में दे गये थे। हम गृहस्थ जीवन का अनुभव करें, इसलिए हमारा विवाह हुआ था।”

कितनी सुशीलता है भारतीय नारी में ! तन की परवाह किये बिना वर्षों लगी रही पतिसेवा में, फिर भी कोई शिकायत नहीं है जीवन में। पतिसेवा भी कैसी कि पति के कुछ कहे बिना ही पति के हित की भावना से सेवा की और उनको पता तक न चला ! जो पति के हित की भावना से सेवा करती है वह पतिपरायणता पत्नी, गिरी-गुफा में योगी को जो आनंद मिलता है उस आनंद को घर बैठे ही पा सकती है। किन्तु….

सब ते सेवाधर्म कठोरा।

वेदान्त का तत्त्वज्ञान सुनना या सुनाना इतना कठिन नहीं है जितना तप ध्यान करना कठिन है। जप ध्यान करना  भी इतना कठिन नहीं है जितना अपनी इच्छा को पति की इच्छा में मिलाकर सेवा कर लेना। यह बहुत ऊँची बात है। ऐसी ऊँची बात में भारत की नारियों का नाम अभी तक इतिहास में है।

क्रमशः

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 1999, पृष्ठ संख्या 6-9, अंक 80

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(गतांक का शेष)

मैंने सुना है कि परदेश में किसी जगह से एक संत गुजर रहे थे। रास्ते में उन्होंने देखा कि एक अंग्रेज महिला कब्र पर पंखा झल रही है। उन संत ने गाड़ी रुकवायी। गये उस महिला के पास और बोलेः

“तू किसको पंखा झल रही है ?”

उस महिला ने कहाः “ये मेरे पति थे।”

संतः “धन्य हो देवी ! धन्य हो ! हमने तो सुना था कि भारत में ही ऐसी देवियाँ हैं जो पति को शांति मिले इसलिए पंखा झलती हैं, सेवा करती हैं लेकिन तुम तो पति की कब्र पर भी पंखा झल रही हो ?”

तब उस महिला ने कहाः “आप ऐसा क्यों बोल रहे हैं यह मेरी समझ में नहीं आया।”

संतः “तू अपने पति की कब्र पर इसीलिए पंखा झल रही है न, कि पति को शांति मिले ?”

महिलाः “नहीं, नहीं। इसलिए नहीं। वह जब बीमार पड़ा तब मुझसे बोला था कि ʹतू दूसरा पति मत करना।ʹ मैंने उससे कहा कि ʹमैं तो करूँगी।ʹ तब वह बोला कि ʹअच्छा…. तो फिर जल्दी मत करना।ʹ मैंने कहा कि ʹतुम मरे नहीं कि मैंने किया नहीं।ʹ आखिर उसने गिड़गिड़ाते हुए मुझसे वचन लिया कि ʹजब तक मेरी कब्र गीली हो तब तक तू मेरी बने रहना, दूसरा मत करना।ʹ इसलिए मैं पंखा झल रही हूँ ताकि यह कब्र जल्दी सूखे तो दूसरा करूँ।”

इसका नाम है भोगप्रधान संस्कृति। पश्चिम की संस्कृति है भोगप्रधान संस्कृति जबकि भारतीय संस्कृति है योगप्रधान संस्कृति।

अपनी देवहूति की इच्छा को पूर्ण करने के लिए महर्षि कर्दम ने अपने योगबल से एक ऐसा विमान रचा, जो इच्छानुसार सर्वत्र जा सकता था। यह विमान सब प्रकार के इच्छित भोग-सुख प्रदान करने वाला, अत्यन्त सुन्दर, सब प्रकार के रत्नों से युक्त, सब संपत्तियों की उत्तरोत्तर वृद्धि से संपन्न, मणिमय खंभों से सुशोभित, सभी ऋतुओं में सुखदायक था। विमान में रहने के लिए शयनखंड अलग, साधन भजन का खंड अलग, जलाशय, क्रीडास्थली, आँगन, बैठकगृह आदि सुविधानुसार अलग-अलग बने हुए थे। योगबल से ऐसे सुन्दर पक्षी बनाये कि ब्रह्माजी की सृष्टि से पक्षी उनके पास किल्लोल करने आ जाते थे। वह विमान जल में भी चल सकता था, थल में भी चल सकता था, आकाश में भी उड़ सकता था और गुरुत्वाकर्षण ने नियमों से पार लोक-लोकान्तर की भी सैर करा सकता था। वह विमान संकल्प से चल सकता था। उसमें किसी चालक की जरूरत न थी। ऐसा वह दिव्य और भव्य विमान था। आज के वैज्ञानिक ऐसे दिव्य विमान की तो कल्पना तक नहीं कर सकते हैं।

दुनिया के सारे वैज्ञानिक मिलकर अपने आविष्कृत साधनों से एक आदमी को उतना सुखी नहीं कर सकते जितना शुद्ध सात्त्विक सुख किसी महापुरुष की एक निगाह मात्र से हजारों आदमियों को मिल सकता है। वैज्ञानिक आविष्कारों से सुविधा मिल सकती है, सुखाभास मिल सकता है लेकिन सच्चा आत्मसुख नहीं। सुख तो तुम्हारी आत्मा का है। ʹयह मिला, वह मिला तो मैं सुखी हो गया….ʹ यह तुम्हारा माना हुआ सुख है। वास्तविक सुख तो आत्मा परमात्मा के प्रसाद से मिलता है तब पता चलता है कि वास्तविक सुख क्या है ?

जो सुख नित्य प्रकाश विभु, नामरूप जंजाल।

मति न लखे जो मति लखे, सो मैं शुद्ध अपार।।

जो नित्य सुख है वह आत्मा का है। नाम और रूप तो माया का जंजाल है। जिसको मति नहीं देखती लेकिन जो मति को देखता है उस चैतन्य के सुख में कर्दम ऋषि टिक गये और उस सुखस्वरूप चैतन्य में टिककर योग-सामर्थ्य का उपयोग करके उऩ्होंने दिव्य विमान बनाया जो किसी यंत्र से नहीं अपितु मन की इच्छा से चलता था।

दुनिया में उस समय किसी के पास ऐसा विमान नहीं था जो कर्दम ऋषि के विमान की बराबरी कर सके। कर्दम जी का वैभव शंका या आश्चर्य का विषय नहीं है। जिन लोगों ने भगवान के चरणों का आश्रय ले लिया है, उनके लिए संसार का कोई भी पदार्थ दुर्लभ नहीं है।

फिर कर्दम ऋषि ने देखा कि  पृथ्वी के साम्राज्य के एकछत्र सम्राट की सुकन्या यह देवहूति अपने फटे चिथड़े एवं मैले कुचैले वल्कल को देखकर सिकुड़ रही है तो वे बोले “देवी ! संकोच न करो। जाओ, सरोवर में स्नान करो। वस्त्र अलंकार तुम्हें अपने आप प्राप्त हो जायेंगे।”

देवहूति सरोवर में स्नान करने गयी और ज्यों ही बाहर निकली, त्यों ही उसने देखा कि उसका कृशकाय शरीर हृष्ट-पुष्ट हो चुका है एवं वह वस्य़त्र-अलंकारों से सुसज्ज हो गयी है तथा हजारों दासियाँ उसकी सेवा में खड़ी हैं। कर्दम ऋषि भी स्नान आदि से निवृत्त होकर वस्त्र-अलंकारों से सुशोभित हो रहे थे। उस विमान में उन्होंने वर्षों तक सांसारिक जीवन व्यतीत किया और नौ कन्याओं को जन्म दिया।

एक दिन कर्दम ऋषि ने देवहूति से कहाः “देवी ! अब समय हो गया है। सुबह-दोपहर शाम-रात करते-करते कालचक्र हमारी आयु क्षीण कर रहा है। अतः अब मुझे इस गृहस्थी के जंजाल से निवृत्त होकर अपने परब्रह्म परमात्मा में स्थिति करने के लिए एकान्त में जाना है। अब मैं गृहस्थाश्रम का त्याग करके संन्यास लूँगा।”

देवहूतिः “मुझे आप जैसे योगी को प्राप्त करने का सौभाग्य मिला फिर भी मैंने आपसे संसार के इन तुच्छ विषयों की माँग की ! मुझसे गलती तो हुई है किन्तु आप मेरी एक प्रार्थना स्वीकार करें- इन कन्याओं के विवाह हो जाने दें एवं भगवान ने आपको जो वरदान दिया है कि ʹमैं आपके घर अवतरित होऊँगाʹ उसे फल जाने दें। तब तक आप रुकने की कृपा करें ऐसी मेरी नम्र प्रार्थना है।”

कर्दम जी बोलेः “हे सत्य धर्म का पालन करने वाली सती ! तुम अपने विषय में इस प्रकार खेद न करो। तुम्हारी गोद में अविनाशी भगवान विष्णु शीघ्र ही पधारेंगे जो तुम्हें ब्रह्मज्ञान का उपदेश करके तुम्हारे हृदय की अहंकारमयी ग्रंथी का छेदन करेंगे।”

क्रमशः

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 1999, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 81

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गतांक का शेष

कुछ समय बीत जाने पर देवहूति के गर्भ से भगवान कपिल प्रगट हुए। इसी समय कर्दम जी के उस आश्रम में मरीचि आदि मुनियों सहित श्री ब्रह्माजी आये एवं कर्दम जी से बोलेः “वत्स ! प्रिय कर्दम ! तुमने मेरा सम्मान करते हुए मेरी आज्ञा का पालन किया है। उससे तुम्हारे द्वारा निष्कपट भाव से की गई मेरी पूजा संपन्न हुई है। बेटा ! तुम्हारी ये सुन्दर कन्याएँ अपने वंशों द्वारा इस सृष्टि को अनेक प्रकार से बढ़ायेंगी। अब तुम इस मरीचि आदि मुनिवरों को इनके स्वभाव और रूचि के अनुसार अपनी कन्याएँ समर्पित करो और संसार में अपना यश फैलाओ।”

इस प्रकार कहकर ब्रह्माजी ब्रह्मलोक चले गये। ब्रह्माजी के चले जाने पर कर्दम ऋषि ने उनकी आज्ञा के अनुसार मरीचि आदि प्रजापतियों के साथ अपनी कन्याओं का विधिपूर्व विवाह कर दिया। उन्होंने अपनी ʹकलाʹ नाम की कन्या का विवाह मरीचि के साथ किया। ʹअनुसूयाʹ का कन्यादान अत्रि ऋषि को किया, जिनके यहाँ भगवान दत्तात्रेय अवतरित हुए। ʹश्रद्धाʹ नाम की तीसरी कन्या अंगिरा ऋषि को एवं चौथी कन्या ʹहविर्भूʹ पुलस्त्य ऋषि को समर्पित की। पाँचवीं कन्या ʹगतिʹ को पुलह ऋषि के साथ, छठी कन्या ʹक्रियाʹ को क्रतु ऋषि के साथ और सातवीं कन्या ʹख्यातिʹ को भृगु ऋषि के साथ ब्याह दिया। आठवीं कन्या ʹअरुन्धतीʹ महर्षि वशिष्ठजी को समर्पित किया और नौवीं कन्या ʹशांतिʹ का कन्यादान अथर्वा ऋषि को किया।

फिर कर्दम जी ने उन विवाहित ऋषियों का उनकी पत्नियों सहित खूब सत्कार किया। प्रसंग सम्पन्न हो जाने पर वे सब कर्दम जी की आज्ञा लेकर अति आनंदपूर्वक अपने-अपने आश्रमों को चले गये।

कर्दम जी ने देखा कि उनके यहाँ साक्षात् देवाधिदेव श्रीहरि ने ही अवतार लिया है। वे एकान्त में उनके पास गये और उन्हें प्रणाम करके कहने लगेः “हे प्रभो ! आप वास्तव में अपने भक्तों का मान बढ़ाने वाले हैं। समय-समय पर अपना प्रकाश, अपना ज्ञानामृत मानव जाति को देने के लिए अवतरित होने वाले हे नारायण ! आपको मेरा नमस्कार है ! आपने अपने वचनों को सत्य करने और सांख्ययोग का उपदेश करने के लिए ही मेरे यहाँ अवतार लिया है। प्रभो ! आपकी कृपा से मैं तीनों ऋणों से मुक्त हो गया हूँ और मेरे सभी मनोरथ पूर्ण हो चुके हैं। अब मैं संन्यास मार्ग को ग्रहण कर आपके व्यापक ब्रह्मस्वरूप का चिन्तन करते हुए शोकरहित होकर विचरना चाहता हूँ। अब आप मुझे आज्ञा दीजिए ताकि मैं आपके वास्तविक शुद्ध स्वरूप में विश्रान्ति पा सकूँ।”

कितना विवेक है ! कितना वैराग्य है ! ऐसा विमान बनाने का सामर्थ्य कि जिसकी कल्पना तक आज के बिचारे वैज्ञानिक नहीं कर सकते ! इतनी ऊँचाई पर पहुँचे हुए थे, फिर भी ऐसे सुख को उन्होंने छोड़ दिया। घर में कपिल भगवान का अवतार हुआ है…. वह भगवान का साकार विग्रह है और वह विग्रह जिससे दिखता है उस निराकार नारायण में  प्रतिष्ठित होने के लिए कर्दम ऋषि भगवान को प्रणाम करके एकान्त में चले गये।

देवहूति का मन उदास था, फिर भी थोड़ी तसल्ली थी कि कपिल भगवान साथ में हैं। इसी तरह थोड़ा समय बीता और एक दिन देवहूति ने कपिल भगवान से कहाः

“प्रभो ! मैंने अपने जीवन का बहुत सारा समय संसार के चक्र को चलाने का निमित्त बनने में, संसार के प्रपंच में गँवा दिया। अब मुझे आप उपदेश दीजिये ताकि मैं मुक्ति का प्रसाद पा लूँ।”

भगवान कपिल ने माता देवहूति को भक्तिमार्ग का उपदेश देते हुए कहाः “जो प्राणिमात्र में मुझ अंतर्यामी का अनादर कर देता है, मुझको नहीं देखता है और बड़ी-बड़ी पूजा की सामग्रियों से मंदिर में या घर में मेरी पूजा करता है उसकी पूजा मैं स्वीकार नहीं करता। जिन मनुष्य के रूप में मैं बैठा हुआ हूँ उनको तो दुःख देता है और फिर मेरे आगे सामग्रियों का भोग लगाता है ऐसे व्यक्ति से मैं संतुष्ट नहीं होता। किन्तु जो प्राणिमात्र के अंदर छुपे हुए मुझ नारायण को, मुझ ब्रह्म को पूजता है, माँ ! वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।

आसक्ति कभी न खत्म होने वाला पाश है, माँ ! लेकिन वह आसक्ति अगर संत-महापुरुष के प्रति हो जाये तो मुक्तिदायिनी है।”

क्रमशः

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1999, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 82

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गतांक का शेष

प्रसंगमजरं पाशमात्मनः कवयो विदुः।

स एव साधुषु कृतो मोक्षद्वारमपावृतम्।।

ʹविवेकीजन संग या आसक्ति को ही आत्मा का अछेद्य बंधन मानते हैं। किन्तु वही संग या आसक्ति जब संत महापुरुषों के प्रति हो जाती है तो वह मोक्ष का खुला द्वार बन जाती है।ʹ (श्रीमद् भागवतः 3.25.20)

इस प्रकार भगवान कपिल ने माता देवहूति को भक्ति आदि का रहस्य सुनाया। फिर सांख्य मत का उपदेश देते हुए कहाः “पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच प्राण, मन, बुद्धि और पाँच महाभूत इन सबमें परिवर्तन होता है। ये प्रकृति के हैं लेकिन जिसकी सत्ता से परिवर्तन होता है और जो परिवर्तन से रहित है वही अपना आत्मस्वरूप है। मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, देह, देह के संबंध आदि को प्रकृति की चीजें समझकर इनसे संबंध-विच्छेद करके जो अपने आत्मस्वरूप में आ जाता है, वह मुक्त हो जाता है।”

योगमार्ग का उपदेश देते हुए भगवान कपिल माता देवहूति से कहते हैं कि यम-नियमादि करके इस जीव को अपने मन-इन्द्रियों पर संयम करना चाहिए।

इस प्रकार भगवान कपिल ने विस्तारसहित सांख्य, योग एवं भक्तिमार्ग का वर्णन माता देवहूति के समक्ष किया और वह पुण्यशीला देवी उपदेश सुनकर, अपने चित्त को परब्रह्म परमात्मा में स्थित करने में रत हो गयीं। भगवान कपिल ने अपनी माता को आत्मज्ञान का उपदेश देने के बाद उनसे अनुमति लेकर वहाँ से प्रस्थान किया। पिता के आश्रम से ईशान कोण की ओर यात्रा करते-करते, उपदेश देते-देते कलकत्ता पहुँचे। आज भी हम गंगासागर का मेला देखते हैं। वहाँ स्वयं समुद्र ने उऩका पूजन करके उन्हें स्थान दिया। तीनों लोकों को शांति प्रदान करने के लिए योगमार्ग का अवलंबन कर समाधि में स्थित हो गये। सिद्ध, गंधर्व, मुनि और अप्सरागण  उनकी स्तुति करते हैं तथा सांख्याचार्यगर्ण भी उनका सब प्रकार से स्तवन करते रहते हैं।

तुम्हारा समय धन से बड़ा है। तुम्हारा जीवन रत्नों और गहनों से बड़ा ऊँचा है। तुम्हारा जीवन अष्टसिद्धियों से भी ऊँचा है। तुम्हारा जीवन अष्टसिद्धियों-नवनिधियों से भी ऊँचा है। तुम अपने ऐसे कीमती जीवन को संसार की तू-तू…. मैं-मैंʹ मत खपा देना बल्कि अपने जीवन को जीवनदाता के अनुभव में लगाकर अमर हो जाना। यही भागवत का उपदेश है।

कितना तीव्र विवेक है कर्दम ऋषि का ! योगबल से मनोवांछित गति करने वाला ʹकामाख्याʹ नामक दिव्य विमान बनाया है। जैसे, आप सपने में मन से पूरी दुनिया बना लेते हैं ऐसे ही योगबल से योगी लोग इस  प्रकार की दूसरी सृष्टि भी बना सकते हैं। ऐसे योगबल को भी उन्होंने तुच्छ समझा एवं जिससे योगसिद्ध होता है उस योग के तत्त्व में टिकने के लिए अपने गृहस्थ जीवन का त्याग कर दिया।

भगवान कपिल तो गंगासागर की ओर पधारे और माँ देवहूति ने इन्द्रियों को मन में एवं मन को बुद्धि में लीन किया। बुद्धि को परब्रह्म परमात्मा में विश्रांति दिलायी। जब परब्रह्म परमात्मा में बुद्धि ने विश्रांति पायी तो फिर बुद्धि बुद्धि न बची, ऋतंभरा प्रज्ञा हो गयी।

जैसे, लोहे की पुतली को पारस का स्पर्श करवा दो तो वह सोने की हो जाती है। फिर उसे जंग लगने का भय नहीं रहता।

माँ देवहूति जब ऋतंभरा प्रज्ञा के परम सुख में स्थित हुई तो उनकी आँखों से हर्ष के दो आँसू टपक पड़े। जिस सरोवर में वे आँसू गिरे, उस सरोवर का नाम है बिन्दु सरोवर। उन्हें आत्मशांति की यह सिद्धि जहाँ मिली उस जगह का नाम है सिद्धपुर। गुजरात में सिद्धपुर और सिद्धपुर में बिन्दु सरोवर आज भी माता देवहूति के पावन चरित्र की गाथा गा रहे हैं। (संपूर्ण)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवमबर 1999, पृष्ठ संख्या 7,8 अंक 83

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श्रीकृष्ण की गुरुसेवा


पूज्यपाद संत श्री आशारामजी बापू

गुरु की महिमा अमाप है, अपार है। भगवान स्वयं भी लोककल्याणार्थ जब मानवरूप में अवतरित होते हैं तो गुरुद्वार पर जाते हैं।

राम कृष्ण से कौन बड़ा, तिन्ह ने भी गुरु कीन्ह।

तीन लोक के हैं धनी, गुरु आगे आधीन।।

द्वापर युग में जब भगवान श्रीकृष्ण अवतरित हुए एवं कंस का विनाश हो चुका, तब श्रीकृष्ण शास्त्रोक्त विधि से हाथ में समिधा लेकर और इऩ्द्रियों को वश में रखकर गुरुवर सांदीपनी के आश्रम में गये। वहाँ वे भक्तिपूर्वक गुरु की सेवा करते हुए, गुरु सांदीपनी से भगवान श्रीकृष्ण ने वेद-वेदांग, उपनिषद्, मीमांसादि-षडदर्शन, अस्त्र-शस्त्रविद्या, धर्मशास्त्र एवं राजनीति आदि की शिक्षा प्राप्त की। प्रखर बुद्धि के कारण उन्होंने गुरु के एक बार कहने मात्र से ही सब सीख लिया। विष्णुपुराण के मत से चौसठ दिन में ही श्रीकृष्ण ने सभी चौंसठ कलाएँ सीख लीं।

जब अध्ययन पूर्ण हुआ, तब श्रीकृष्ण ने गुरु से दक्षिणा के लिए प्रार्थना कीः “गुरुदेव ! आज्ञा कीजिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?”

गुरुः “कोई आवश्यकता नहीं है।”

श्रीकृष्णः “आपको तो कुछ नहीं चाहिए, किन्तु हमें दिये बिना चैन नहीं पड़ेगाग। कुछ तो आज्ञा करें !”

गुरुः “अच्छा… जाओ, अपनी माता से पूछ लो।”

श्रीकृष्ण गुरुपत्नी के पास गये एवं बोलेः

“माँ ! कोई सेवा हो तो बताइये।”

गुरुपत्नी भी जानती थीं कि श्रीकृष्ण कोई साधारण मानव नहीं बल्कि स्वयं भगवान हैं, अतः वे बोलीं- “मेरा पुत्र प्रभास क्षेत्र में मर गया है। उसे लाकर दे दो ताकि मैं उसे पयःपान करा सकूँ।”

श्रीकृष्णः “जो आज्ञा।”

श्रीकृष्ण रथ पर सवार होकर प्रभास क्षेत्र पहुँचे और वहाँ समुद्र तट पर कुछ देर ठहरे। समुद्र ने उन्हें परमेश्वर जानकर उनकी यथायोग्य पूजा की। श्रीकृष्ण बोलेः “तुमने अपनी बड़ी-बड़ी लहरों से हमारे गुरुपुत्र को हर लिया था। अब उसे शीघ्र लौटा दो।”

समुद्रः “मेंने बालक को नहीं हरा है, मेरे भीतर पांचजन्य नामक एक बड़ा दैत्य शंखरूप से रहता है, निःसंदेह उसी ने आपके गुरुपुत्र का हरण किया है।”

श्रीकृष्ण ने तत्काल जल के भीतर घुसकर उस दैत्य को मार डाला, पर उसके पेट में गुरुपुत्र नहीं मिला। तब उसके शरीर से पांचजन्य शंख लेकर श्रीकृष्ण जल से बाहर आये एवं यमराज की संयमनी पुरी में गये। वहाँ भगवान ने उस शंख को बजाया। कहते हैं कि उस ध्वनि को सुनकर नारकीय जीवों के पाप नष्ट हो जाने से वे सब वैकुण्ठ पहुँच गये। यमराज ने बडी भक्ति के साथ श्रीकृष्ण की पूजा की और प्रार्थना करते हुए कहाः “हे लीलापुरुषोत्तम ! मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?”

श्रीकृष्णः “तुम तो नहीं, पर तुम्हारे दूत कर्मवश हमारे गुरुपुत्र को यहाँ ले आये हैं। उसे मेरी आज्ञा से वापस दे दो।”

ʹतथास्तुʹ कहकर यमराज उस बालक को ले आये।

श्रीकृष्ण ने गुरुपुत्र को, जैसा वह मरा था वैसा ही उसका शरीर बनाकर, समुद्र से लाये हुए रत्नादि के साथ गुरुचरणों में अर्पित करके कहाः “गुरुदेव ! और भी जो कुछ आप चाहें, आज्ञा करें।”

गुरुदेवः “वत्स ! तुमने गुरुदक्षिणा भली प्रकार से संपन्न कर दी। तुम्हारे जैसे शिष्य से गुरु की कौन-सी कामना अवशेष रह सकती है ? वीर ! अब तुम अपने घर जाओ। तुम्हारी कीर्ति श्रोताओं को पवित्र करे और तुम्हारे पढ़े हुए वेद नित्य उपस्थित और सारवान् रहकर इस लोक एवं परलोक में तुम्हारे अभीष्ट फल को देने में समर्थ हों।”

गुरुसेवा का कैसा सुन्दर आदर्श प्रस्तुत किया है श्रीकृष्ण ने ! थे तो भगवान, फिर भी गुरु की सेवा उन्होंने स्वयं की है।

सत्शिष्यों को पता होता है कि गुरु की एक छोटी सी सेवा करने से सकामता निष्कामता में बदलने लगती है, खिन्न हृदय आनंदित हो उठता है, सूखा हृदय भक्तिरस से सराबोर हो उठता है। गुरुसेवा में क्या आनंद आता है, यह तो किसी सत्शिष्य से ही पूछकर देखें।

गुरु की सेवा साधु जाने, गुरुसेवा कहाँ मूढ़ पिछाने।

गुरुसेवा सबहुन पर भारी, समझ करो सोई नरनारी।।

गुरुसेवा सों विघ्न विनाशे, दुर्मति भाजै पातक नाशै।

गुरुसेवा चौरासी छूटै, आवागमन का डोरा टूटै।।

गुरुसेवा यम दंड न लागै, ममता मरै भक्ति में जागे।

गुरुसेवा सूं प्रेम प्रकाशे, उनमत होये मिटै जग आशै।।

गुरुसेवा परमातम दरशै, त्रैगुण तजि चौथा पद परशै।

श्रीशुकदेव बतायो भेदा, चरनदास कर गुरु की सेवा।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1999, पृष्ठ संख्या 29,30 अंक 79

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सदगुरु महिमा


पुज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

भगवान से कुछ माँगो मत। माँगने से देने वाले की अपेक्षा तुम्हारी माँगने की वस्तु का महत्त्व बढ़ जाता है। ईश्वर और गुरु माँगी हुई चीजें दे भी देते हैं किन्तु फिर अपना-आपा नहीं दे पाते।

बलि ने भगवान वामन से कह दियाः “प्रभु ! आप जो चाहे ले सकते हैं।”

तब भगवान ने तीन कदम पृथ्वी माँगी और दो कदम में ही इहलोक तथा परलोक दोनों ले लिए। फिर कहाः “बलि ! अब तीसरा कदम कहाँ रखूँ ?”

बलिः “प्रभु ! मुझ पर ही रखो।”

भगवान वामन ने तीसरा कदम बलि के सिर पर रखा और उसको भी ले लिया। बलि बाँध दिये गये वरुणपाश में।

उस समय ब्रह्माजी वहाँ आये और भगवान से बोलेः

यत्पादयोरशठधीः सलिलं प्रदाय

दूर्वाकुरैरपि विधाय सतीं सपर्याम्।

अप्युत्तमां गतिमसो भजते त्रिलोकीं

दाश्वानविक्लवमनाः कथमार्तिमृच्छेत्।।

“प्रभो ! जो मनुष्य सच्चे हृदय से, कृपणता छोड़कर आपके चरणों में जल का अर्घ्य देता और केवल दूर्वादल से भी आपकी सच्ची पूजा करता है, उसे भी उत्तम गति की प्राप्त होती है, फिर बलि ने तो बड़ी प्रसन्नता से, धैर्य और स्थिरतापूर्वक आपको त्रिलोकी का दान कर दिया है। तब यह दुःख का भागी कैसे हो सकता है ?” श्रीमद् भागवतः 8.22.23

तब भगवान ने जो बात कही वह बड़ी ऊँची बात है क्योंकि श्रोता बहुत ऊँचा है। ग्वाल-गोपियों के आगे श्रीकृष्ण वही बात करेंगे जो उन्हें समझ में आये। अर्जुन जैसे बुद्धिमान के आगे श्रीकृष्ण गीता का बात करते हैं। जितना श्रोता ऊँचा, उतनी ही वक्ता की ऊँचाई प्रकट होती है। भगवान को तो ब्रह्माजी जैसे श्रोता मिल गये थे, अतः वे बोलेः “हे ब्रह्मन् ! कर्त्ता कर्म का विषय नहीं बन सकता। जीव कर्म का कर्त्ता तो हो सकता है लेकिन कर्म का विषय़ नहीं बन सकता है। आप कर्म के कर्त्ता तो बन सकते हैं लेकिन कर्त्ता स्वयं कर्म का विषय नहीं बन सकता है।

कर्त्ता सब कुछ दे सकता है लेकिन अपने आपको कर्त्ता कैसे देगा ? जब लेने वाला मैं उसे स्वीकार करूँगा तब ही कर्त्ता मुझे पूर्ण रूप से अर्पित होगा। मैं कर्त्ता को ही स्वीकार कर रहा हूँ क्योंकि मैं कर्त्ता को अपना-आपा अर्पण करना चाहता हूँ। बलि कुछ माँग नहीं रहा है, वह दे ही रहा है। जब वह सब दे रहा है तो मैं कैसे चुप रहूँ ? मैं अपना-आपा बलि को देना चाहता हूँ इसीलिए मैंने बलि को ले लिया।”

कर्त्ता कर्म का विषय नहीं हो सकता और कर्त्ता कितना भी लेगा-देगा वह माया में होगा। उसको प्रतीति होगी कि ʹमुझे कुछ मिला… मैंने यह दिया….ʹ लेकिन देते-देते ऐसा दे दें कि देने वाला ही न बचे। देने वाला जब नहीं बचेगा तो लेने वाला कैसे बचेगा ? हम न तुम दफ्तर गुम। यह इतनी ऊँची बात है कि इसी बात को भगवान श्रीराम अपने अति प्रिय, अत्यन्त कृपापात्र हनुमानजी से कहते हैं।

सेतुबंध रामेश्वर की स्थापना के लिए हनुमानजी को काशी से शिवलिंग लाने के लिए भेजा गया।

हनुमानजी को शिवलिंग लाने में थोड़ी देर हो गयी। इधर रामेश्वर में देर हो रही थी अतः पण्डितों ने, ज्योतिषियों ने कहाः “स्थापना का मुहूर्त बीता जा रहा है।”

तब श्रीरामजी ने कहाः “मुहूर्त बीतने के बाद हनुमान जी आयेंगे तो क्या किया जाय ? आप स्थापना करवा दीजिये।”

फिर दूसरे शिवलिंग की स्थापना कर दी गयी। थोड़ी ही देर में हनुमानजी शिवलिंग लेकर पहुँच गये किन्तु देरी होने की वजह से उनके द्वारा लाये गये शिवलिंग की स्थापना नहीं हो सकी, अतः उन्हें दुःख हुआ। दुःख क्यों हुआ ? क्योंकि कर्त्ता अभी मौजूद है… सेवा करने वाला मौजूद है।

जब प्रभु श्रीराम को इस बात का पता चला तब वे बोलेः “हे हनुमान ! सेवक का कर्त्तव्य है कि तत्परता और कुशलता से सेवा कर लें। फिर स्वामी ने सेवा को स्वीकार किया या नहीं किया – इस बात का सेवक को दुःख नहीं होना चाहिए। ʹमेरी लाई हुई चीज सेवा में स्वीकारी नहीं गई…ʹ यह सोचकर दुःखी क्यों हो रहे हो ? हे केसरीनंदन ! अष्टसिद्धियाँ और नवविधियाँ तुम्हारे पास हैं। तुम संयम की साक्षात् मूर्ति हो। तमाम प्रशंसनीय गुण तुममें हैं लेकिन हनुमान ! तुम्हें संतों की शरण में जाना चाहिए और अपना-आपा पहचानना चाहिए। जब तक तुम अपना-आपा शुद्ध-बुद्ध स्वरूप नहीं जानोगे, तब तक सुख-दुःख की थप्पड़ें इस मायावी व्यवहार में लगती ही रहेगी। हे अंजनिसुत ! तुम्हें सावधान होकर ब्रह्मवेत्ता संतों का सत्संग सुनना चाहिए।”

अब श्रीराम कैसे कहें कि ʹतुम्हें सावधान होकर, मेरी शरण में आकर सत्संग सुनना चाहिए।ʹ इसलिए एक ज्ञानी दूसरे ज्ञानी के ऊपर यश ढोलते जाते हैं। श्रीराम, श्रीकृष्ण कहेंगे कि “संतों की शरण में जाओʹʹ और संत कहेंगे कि ʹश्रीराम की, श्रीकृष्ण की शरण जाओ।” सीधा कैसे कहें ? कभी मौज में आ जाते हैं भगवान तो कह देते हैं कि ʹसब कुछ छोड़कर मेरी शरण में आ जाओ।ʹ जैसे अर्जुन से कहाः

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।

श्रीरामजी कहते हैं हनुमान जी सेः ʹहे पवनपुत्र ! तुम्हें संतों की शरण जाना चाहिए एवं ʹकर्म का कर्ता कौन है ? कर्म किसमें हो रहे हैं ? सुख-दुःख किसको होता है ? सफलता-विफलता किसमें होती है ?ʹ इस रहस्य को तुम्हें समझना चाहिए। ʹसफलता-विफलता का, सुख-दुःख का जिस पर असर होता है, उसका और तुम्हारा आपस में क्या सम्बन्ध है ?ʹ यह भी जान लो। हे हनुमान ! जब तक जीव इस बात को, इस रहस्य को नहीं जानता है, तब तक उसे कितना भी मिल जाये फिर भी माया के थपेड़ों से वह चलित होता रहता है।

हे केसरीनंदन ! जीव का वास्तविक स्वरूप अचल है, अनामय है, निरंजन है, निर्विकार है, सुखस्वरूप है लेकिन जब तक वह अपने अहं को, अपने क्षुद्र जीवत्व को नहीं छोड़ता और पूर्णरूप से ब्रह्मवेत्ताओं की बिनशरती शरणागति स्वीकार नहीं करता तब तक यह जीव कई ऊँचाइयों को छूकर पुनः उतार-चढ़ाव के झोंकों में ही बहता रहता है। जहाँ कोई ऊँचाई और ऊँचा न ले जा सके एवं कोई नीचाई नीचे न गिरा सके – उस अव्ययपद को, उस परमपद को पाने के लिए तुम्हें अवश्य यत्न करना चाहिए।”

हद हो गयी ! इस ब्रह्मविद्या के लिए तो शास्त्र कहते हैं-

स्नातं तेन सर्व तीर्थम्।

दातं तेन सर्वं दानम्।

कृतो तेन सर्वं यज्ञो।

येन क्षणं मनः ब्रह्मविचारे स्थिरं कृतम्।।

ʹउसने सारे तीर्थों में स्नान कर लिया, उसने सारा दान दे दिया, उसने सारे यज्ञ कर लिये जिसने एक क्षण के लिये भी मन को ब्रह्मविचार में स्थिर कर दिया।ʹ

इस ब्रह्मविद्या की महिमा का जितना भी बयान किया जाये, कम है। यह समझ में आये तो निहाल, थोड़ा समझ में आये तो भी कल्याण और केवल कान को छूकर भी चली जाये तब भी कुछ तो काम करेगी ही।

हनुमान जी कितने निष्काम कर्मयोगी हैं ! शायद इस समय मुझे धरती पर ऐसा देखने को नहीं मिला। मेरी नजर में तो अभी तक हनुमानजी जैसा त्यागी, संयमी, बुद्धिमान और निष्काम कर्मयोगी नहीं आया। होंगे….कहीं और होंगे… उनका अनादर करने का पाप हम अपने सिर नहीं लेना चाहेंगे। फिर भी हमारी नजर में तो नहीं दिखा।

इतनी ऊँचाई को छूने वाले हनुमानजी चाहते तो कह सकते थे अपने स्वामी श्री राम से कि, ʹप्रभु ! पत्नी तो आपकी खो गयी है अतः आप जानो। मैं ब्रह्मचारी… भला आपकी पत्नी को खोजने से मेरी सेवा कैसे हो सकती है ? दूसरा कोई काम बताइये। यह सेवा तो मुझसे नहीं होगी। मैं ब्रह्मचारी होकर आपकी पत्नी को खोजने जाऊँ तो लोग क्या कहेंगे ? आप तो मुझे कोई मंत्र दे दीजिये ताकि मैं गुफा में बैठकर भजन करूँ…ʹ लेकिन हनुमान जी ने ऐसा नहीं कहा, वरन् सेवा में ऐसे लगे कि मैनाक पर्वत की भी इच्छा हो गयी कि ʹपरिश्रम करके हनुमानजी थक गये होंगे तो तनिक मुझ पर विश्राम कर लें।ʹ और मैनाक पर्वत सागर से निकला और बोलाः “हे पवनपुत्र ! थोड़ा विश्राम कर लीजिये।”

तब हनुमान जी कहते हैं-

राम काज कीन्हें बिनु।

मोहि कहाँ विश्राम।।

सेवा में कितने तत्पर रहे होंगे हनुमानजी ! ऐसे हनुमानजी से श्रीरामजी कहते हैं- “हे अंजनि-सुत ! तुम्हें संतों का संग करके, अपने चित्त के साथ का जो संबंध है, उसका विच्छेद करना चाहिए। जिसको सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान आदि का असर होता है उस अपने चित्संवित् से तदाकारता हटाकर जब तुम अपने स्वरूप को जानोगे तब प्रलयकाल का मेघ भी तुम्हें विचलित नहीं कर सकेगा। सूर्य बर्फ का गोला होकर धरती पर आ जाये और धरती तपती हुई आकाश में उड़ने लग जाये फिर भी ब्रह्मवेत्ता के चित्त में कोई विशेष आश्चर्य नहीं होता। अतः हे केसरीनंदन ! तुम्हें ब्रह्मज्ञान पाना चाहिए।”

यह कौन कह रहा है ? श्रीरामचन्द्रजी कह रहे हैं श्री हनुमानजी से। हनुमानजी कितनी ऊँचाई पर हैं उनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। फिर भी हनुमानजी से भी ब्रह्मज्ञान कितना ऊँचा है – यह श्रीरामजी की वाणी से परिलक्षित होता है, जिसका मात्र अनुमान हम कर सकते हैं। यदि हनुमानजी को हर्ष या शोक हो रहा है तो अभी हनुमानजी सात्त्विक सेवक हैं, महान हैं लेकिन श्रीरामजी की निगाह में हनुमानजी अभी भी कृपा के पात्र हैं। हनुमानजी पर कृपा करके श्रीरामजी बोल रहे हैं।

अगर भगवान और संत कृपा करके आपको कोई फल-मिठाई दे दें – यह कोई बहुत कृपा नहीं है। उनकी परम कृपा न जाने किस रूप में आती है यह तो वे ही जानें ! जो सदगुरु हैं, ब्रह्मवेत्ता महापुरुष हैं उनसे हानि तो कभी भी नहीं होती है। बहुत मुश्किल है उन्हें समझना।

दुनिया को हिला देने वाले विवेकानंद जैसे शिष्य श्रीरामकृष्ण परमहंस के श्रीचरणों में बैठकर सत्संग सुनते थे और ऐसे रामकृष्ण परमहंस बार-बार रसोई घर में पहुँच जाते और माँ शारदा से पूछतेः

“क्या बनाया है ?”

माँ शारदाः “दाल, चावल, चटनी आदि।”

रामकृष्ण परमहंसः “बढ़िया है… जल्दी बनाओ।”

यह क्रम एक दो दिन से, एक दो माह से नहीं, वरन् बरसों से चला आ रहा था। आखिर एक दिन माँ शारदा बोल पड़ीं-

“आप इतने बड़े संत हैं और बार-बार सत्संग छोड़कर रसोईघर में भोजन की बातें करने आ जाते हैं !”

तब रामकृष्ण ने बड़े गहरे अनुभव की बात, मार्मिक बात कहीः “मेरी शरीररूपी नाव ब्रह्मज्ञान के उदधि में इतनी लहराती है कि अगर उसे खूँटी से छोड़ दूँ तो वह किनारा छोड़कर महासागर में लीन हो जायेगी, इसलिए स्वाद की आसक्तिरूप खूँटी से मैंने उसे बाँध रखा है। जिस दिन मेरी रूचि चली जायेगी, उस दिन समझ लेना कि यह नाव खूँटी से निकलकर व्यापक सागर में व्याप्त हो जायेगी… फिर तीन दिन से ज्यादा यह नाव नहीं रह पायेगी।”

ब्रह्मवेत्ता के जीवन में संसारियों की नाईं कोई-न-कोई उन्नीस-बीस बात रहती है तभी उनका शरीर टिकता है। जैसे, नाव तो दरिया में जा सकती है लेकिन फिर भी किनारे के थपेड़े खाती है क्योंकि खूँटी से बँधी है, ऐसे ही ब्रह्मवेत्ता तो सब कुछ छोड़कर ब्रह्म में लीन हो सकते हैं। फिर भी उठना-बैठना, लेना-देना आदि थपेड़े सहते हैं क्योंकि उन्होंने खूँटी लगा रखी है। कहीं न कहीं आसक्ति की खूँटी उन्होंने बाँध रखी है। पत्थर तो ऐसे ही सदैव किनारे पर पड़ा रहता है जबकि नाव खूँटी के कारण वहीं पड़ी रहती है। पत्थर के पड़े रहने में और नाव के पड़े रहने में बहुत अंतर है। पत्थर तो उठाकर चलो और जितनी देर उठाकर चलो उतनी देर पत्थर गति करता है और छोड़ दिया तो जम जायेगा जबकि नाव को अगर किनारे से, खूँटी से छोड़ दिया तो अपने-आप कहीं की कहीं पहुँच जायेगी।

श्री रामकृष्ण के वचन समय पाकर प्रत्यक्ष हुए। एक दिन माँ शारदा थाली सजाकर श्रीरामकृष्ण के पास पहुँची। उस समय श्री रामकृष्ण ने मुँह घुमा लिया। माँ शारदा को बात याद आ गयी और धड़ाम से थाली हाथों से गिर पड़ी। ʹअब खूँटी किनारे से उखड़ गयी है।ʹ फिर कुछ ही दिनों में श्री रामकृष्ण परमहंस का शरीर नहीं रहा। वे ब्रह्मलीन हो गये।

….तो ब्रह्मवेत्ता महापुरुष न जाने कौन-सी छोटी-छोटी बात की खूँटी लेकर अपने शरीररूपी नाव को किनारे पर लगाये रखते हैं ताकि बैठने वाले कोई रह न जाये।

भगवान बुद्ध जा रहे थे महानिर्वाण के लिए… इतने में एक आदमी दौड़ता-भागता आया और बोलाः

“मुझे भंते से कुछ पूछना है।”

आनंदः “भंते की नाव किनारा छोड़कर चल पड़ी है। अब आये हो ? इतने दिन तक कहाँ थे ?”

व्यक्तिः “मैंने चालीस साल से भगवान बुद्ध का नाम सुना था लेकिन एक मन बोलता था-जाऊँ, भंते के चरण पकड़ूँ।ʹ दूसरा मन कुप्रचार का शिकार होकर सोचता कि-ʹक्या जायें ऐसे आदमी के पास ?ʹ इस प्रकार कभी निंदकों का कुप्रचार मुझे रोक रखता था तो कभी मेरे सत्कर्मों की पुण्याई मुझे खींचती थी भगवान बुद्ध की ओर… इस प्रकार ʹजाऊँ-न-जाऊँ… जाऊँ-न-जाऊँ…ʹ इसी में मेरे चालीस साल बीत गये। मैंने बड़ी गलती की।” वह भावविभोर होकर चिल्ला पड़ा। महानिर्वाण की ओर जाते भगवान बुद्ध यह सुनकर बोल पड़ेः

“अरे ! कौन है आनंद ? आऩे दे। जाते-जाते कोई ऐसा न कहे कि अरे ! नाव छूट गयी।”

दो मिनट बात कर ली बुद्ध ने। उसके जीवन पर निगाह डाल दी बुद्ध ने और बाद में महानिर्वाण के लिए गये… कैसी होगी करूणा बुद्धत्व को पाये हुए संतों में ! कैसा होगा उनका हृदय !! जब आप उनके अनुभव में स्थिर होंगे तब आपको पता चलेगा कि ब्रह्मज्ञानी के हृदय में कितनी करूणा होती है ! कितनी कृपा होती है उनके हृदय में ! कितनी महानता होती है !

आपका एक राज्य तो क्या पूरी धरती का राज्य भी ब्रह्मसुख के आगे कोई कीमत नहीं रखता। इन्द्र का राज्य और वैभव भी ब्रह्मसुख के आगे कुछ कीमत नहीं रखते। इन्द्र भी जिनके आगे अपने को दरिद्र मानता है ऐसे महापुरुष रोटी का टुकड़ा माँगकर, भिक्षा माँगकर समाज में घूमते हैं किन्तु उन्हें न पहचानने के कारण मनुष्य कितनी मूर्खता कर बैठता है !

एक बार समर्थ रामदास किसी गन्ने के खेत से गुजरे और थककर वहीं बैठ गये। तब उस खेत का किसान अचानक वहाँ आया और उसने समझा कि यही चोर है जो मेरे गन्ने चुराकर ले जाता है। अतः उसने उठाये गन्ने के सोटे और दे मारे समर्थ की पीठ पर।

समर्थ वहाँ से चलकर पहुँचे शिवाजी के यहाँ। शिवाजी महाराज अपने गुरुदेव को स्वयं नहलाते थे। जब शिवाजी नहला रहे थे अपने गुरुदेव को तब उनकी पीठ पर ध्यान जाते ही बोल पड़ेः “सोटियों के निशान ! किसने मारा गुरुदेव !”

समर्थः “कुछ नहीं हुआ, शिवा ! तुम अपना काम करो।”

किन्तु शिवाजी तो राजा थे। अतः दूसरे शिष्यों से सारी हकीकत जान ली और उस किसान को राज-दरबार में बुलवाया।

किसान राजदरबार में गया। जाकर देखता है तो शिवाजी महाराज से भी ऊँचे गुरुस्थान पर वे ही पुरुष बैठे हैं जिन्हें उसने चोर समझकर सोटियों से मारा था !

शिवाजी बोलेः “गुरुदेव ! इसी आदमी ने आपकी पिटाई की थी न ? आपने तो नहीं बताया लेकिन मैंने सब जानकारी लेकर आपके समक्ष इसको हाजिर किया है…”

तब समर्थ बोल उठेः “शिवा ! तू मेरा शिष्य है न ?”

शिवाजीः “जी गुरुदेव !”

समर्थः “तब तू इसको सजा मत दे। पेड़ को कोई पत्थर मारता है तो पेड़ भी कुछ देता है। इसने मुझे अनजाने में मारा है अतः तू इसको दस एकड़ जमीन दे दे।”

कैसा गजब का न्याय किया है समर्थ ने ! किन्तु यह भी संतों की करूणा का पूरा बयान नहीं है। वरन् वे तो अपने को घिसते हुए, अपने को खपाते हुए, अपने को जलाते हुए भी हमें चमकाना चाहते हैं। क्या मेरे लीलाशाह बापू को रोटी की कमी थी ? क्या कपड़ों की कमी थी ? क्या वाहवाही की कमी थी ? नहीं, कभी नहीं। फिर भी उन्होंने अपना पूरा जीवन बिता दिया लोक कल्याण में। स्वयं श्रीराम ने अपने श्रीमुख से संत-महिमा का बयान किया है और नवधा भक्ति का वर्णन करते समय शबरी से कहा हैः

प्रथम भक्ति संतन कर संगा।

ʹपहली भक्ति है संतों का संग।ʹ

सातवें सम मोहि मय जग देखा।

मोतें संत अधिक करि लेखा।।

सातवीं भक्ति है जगत भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत देखना और संतों को मुझसे अधिक करके मानना।ʹ

मैं तो लोगों को कर्म का फल देने के लिए मनुष्य जन्म में भेजता हूँ किन्तु मेरे संत तो उनके कर्मों को नहीं देखते वरन् अपनी उदारता को देखकर उन पर बरस जाते हैं। माया तो कर्म का फल भुगताने के लिए शरीर देती है जबकि संत उनके कर्मबंधन काटकर मेरे स्वरूप का ही दान कर देते हैं… अपने आपका ही दान कर देते हैं।

ऐसे संतत्व को पाने के लिए आप भगवान से कोई संसारी उल्लू सीधा मत करवाइये। संत से कोई संसारी स्वार्थ मत सिद्ध करवाइये वरन् उनको निर्दोष निःस्वार्थ प्रेम कीजिये। वे तो अपना आपा दे डालने के लिए घूम रहे हैं लेकिन आप उनसे संसारी खिलौने कब तक लेते रहेंगे ? नानक जी ने कहा हैः

जो तिद भावे सो भलिकार।

तू सदा सलामत निरहंकार।।

ʹतुझे जो अच्छा लगे उसी में मेरा भला है।ʹ यह भाव रखें। ʹतू मुझे यह दे दे… वह कर दे… हम यह देने आये हैं…. यह लेने आये हैं…ʹ – यह सौदेबाजी नहीं वरन् ʹहम आपके चरणों में अपना-आपा ही देने आये हैं….ʹ ऐसा समर्पण हो तो फिर वे स्वयं अपना-आपा तक देने में संकोच नहीं करते।

फिर भी, जो जिस भाव से भगवान और संत को नवाजता है उसी भाव की पूर्ति होती है देर-सबेर।

श्रीरामचरित मानस में आता हैः

राम भगत जग चारि प्रकारा।

सुकृति चारिउ अनघ उदारा।।

चहू चतुर कहूँ नाम अधारा।

ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा।।

ʹजगत में चार प्रकार के (अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी) राम भक्त हैं और चारों ही पुण्यात्मा, पापरहित और उदार हैं। चारों ही चतुर भक्तों को नाम का ही आधार है। इनमें से ज्ञानी भक्त प्रभु को विशेष रूप से प्रिय हैं।ʹ (श्रीरामचरित-बालकांडः 21-3-4)

दुःख, पीड़ा और मुसीबत आये तब आर्त भाव से जो भगवान और गुरु को पुकारते हैं, उन्हें तुरंत लाभ होता है। शरणागति भाव से तुरंत लाभ होता है। ऐसे भक्त आर्त कहे जाते हैं। कोई अर्थार्थी होते हैं अर्थात् धन अथवा किसी संसारी स्वार्थ की सिद्धि के लिए भजते हैं। फिर भी भगवान ने उन्हें उदार कहा है क्योंकि देर-सबेर वे भगवान को पा ही लेते हैं।

समझो, धन के लिए साधक ने भगवान का भजन किया और धन मिल गया तो भगवान में श्रद्धा तो बढ़ ही जायेगी। भगवान में श्रद्धा बढ़ेगी तो देर सबेर भगवान के वचन भी उसे लगेंगे। आगे जाकर वह अपना-आपा भी अर्पण कर देगा इसलिए वह उदार है।

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।

आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्।।

ʹये सभी उदार हैं अर्थात् श्रद्धासहित मेरे भजन के लिए समय लगाने वाले होने से उत्तम हैं। परंतु ज्ञानी तो साक्षात् मेरा स्वरूप ही हैं – ऐसा मेरा मत है।ʹ गीताः 7-18

यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि आर्त और अर्थार्थी उदार कैसे ? उदाराः सर्व एवैते… भगवान ऐसी गलती कैसे कर रहे हैं ? भगवान गलती नहीं कर रहे हैं ! भगवान सही कह रहे हैं। कोई कहे कि, ʹप्रभु ! वह तो अपना दुःख मिटाने के लिए आपको याद कर रहा हैʹ तब भगवान कहेंगे कि, ʹदुःख मिटाने के लिए ही सही, मेरी शरण तो आ रहा है न ! दवाई या छल-कपट की शरण में तो नहीं जा रहा है ! अतः वह उदार है।ʹ

ध्रुव अर्थार्थी था। उसे जगत की चीज चाहिए थी। किन्तु इस बहाने भी उसने भगवान की शरण ली तो देर-सबेर ध्रुव ने अपना आपा भी भगवान को अर्पित कर दिया, वह उदार हो गया।

दुःख मिटाने या संसार की कोई चीज पाने के लिए भगवान को भजना-यह छोटी बात तो है लेकिन इस छोटी बात का भी देर-सबेर बड़ा फल मिलने वाला है-ऐसा जानते हैं इसलिए छोटी नहीं मानते हैं और कहते हैं कि ʹये सब उदार हैं।ʹ

उदाराः सर्व एवैते…

कुछ भक्त ऐसे होते हैं जो भगवान को जानने के लिए भजन करते हैं। उन्हें जिज्ञासु कहते हैं। इन तीनों भक्तों से निराले होते हैं चौथे प्रकार के भक्त। वे हैं प्रेमी भक्त। उन्हें कुछ सांसारिक वस्तु पाना नहीं है, कोई दुःख मिटाना नहीं है और भगवान को पाने के लिए भी भगवान का भजन नहीं करना क्योंकि भगवान का तो उन्हें अनुभव हो ही गया है फिर भी भगवान की चर्चा करते-सुनते हैं। ऐसे ज्ञानी भगवद्-स्वरूप होते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं अर्जुन से कि, ʹऐसे ज्ञानी तो मेरा ही स्वरूप हैं। अगर ऐसे ज्ञानी में और मुझमें तू भेद करना चाहता है कि क्या फर्क है तो ज्ञानी मेरा आत्मा है और मैं उसका शरीर। अर्जुन ! हम दोनों में क्या भेद हो सकता है ? जैसे कमरे में दो दीये जला दो तो किस दिये की कौन सी रोशनी है यह तुम कैसे अलग कर सकते हो ? दो तालाब लबालब भर गये हों और बीच की दीवार टूट गयी हो तो किस तालाब का कौन सा पानी है यह कैसे अलग कर सकते हो ? ऐसी ही बात इधर है-

ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेदे विभागिनो।

व्योमवत् व्याप्तदेहाय तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

ऐसे गुरु को हम नमन करते हैं। जैसे, घड़े का आकाश और महाकाश। घड़ा फूट गया है तो घड़े का आकाश कौन-सा और महाकाश कौन सा यह कैसे बताओगे ? मान लो घड़ा फूटा नहीं है, घड़ा मौजूद है लेकिन घड़े को पता चल गया है कि ʹमैं घड़ा नहीं हूँ बल्कि आकाश हूँʹ तो वह आकाश है ही। ऐसे ही ज्ञानी जब महानिर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं तब तो वे व्याप्त ब्रह्म होते ही हैं परंतु सशरीर होते हैं तब भी वे व्याप्त ब्रह्म से अभिन्न होते हैं। कबीर जी ने कहा हैः

जल में कुंभ कुंभ में जल, बाहर भीतर पानी।

फूटा कुंभ जल जल ही समाना, यह अचरज है ज्ञानी।।

दूसरी जगह अपना अनुभव कहते हुए संत कबीर जी कहते हैं- “दरिया का थाह लेने गई नमक की पुतली… अब नमक की पुतली का जो हाल सागर में होता है वही हाल ज्ञानी के ʹमैंʹ का होता है।”

श्रीराम कहते हैं पवनसुत सेः “तुम ज्ञानवानों के सान्निध्य में जाओ और अपने ʹमैंʹ को जरा ज्ञानवानों के दरिया में समाने दो। फिर तुम्हें सफलता का हर्ष नहीं होगा और विफलता का शोक नहीं होगा।”

भगवान श्रीराम के गुरु वशिष्ठजी महाराज भी कहते हैं- जगत पर ज्ञानवर्ती का बड़ा उपकार है अतः आदरपूर्वक उनकी सेवा करनी चाहिए। वे संसार-सागर से तारने वाले मल्लाह हैं।

क्या-क्या कहें ? ब्रह्मवेत्ताओं की महिमा तो लाबयान है !

ऐसे महाराज वशिष्ठजी से राजा दशरथ कहते हैं- “हे गुरुदेव ! हे करूणानिधे ! मैं और मेरा परिवार और यह राजपाट सब मैं आपके श्रीचरणों में अर्पण करता हूँ। आप कृपा करके स्वीकार करना, गुरुवर ! आपने जो दिया है वह शाश्वत है लेकिन मेरे पास देने के लिए शाश्वत तो है नहीं। किन्तु मैं निगुरा कृतघ्न न रहूँ इसलिए आप मेरी ये तुच्छ चीजों का स्वीकार करें। शरीर हाड़-माँस का है, मन चंचल है और धन-वैभव मिथ्या व नाशवान है – ये मिथ्या व नाशवान आपको अर्पण कर रहा हूँ। आप मुझे शाश्वत दे रहे हैं और मैं मिथ्या दे रहा हूँ। गुरुदेव ! आप नाराज मत होना। मैं यह ठगने की सौदेबाजी कर रहा हूँ लेकिन आप मेरा यह सौदा स्वीकार करने की कृपा करना। आप अमिट दे रहे हैं और मैं यह मिटने वाला अर्पण कर रहा हूँ।”

राजा दशरथ गुरु वशिष्ठजी के चरणों में प्रणाम करते हुए कहते हैं- “गुरुवर ! ये चारों पुत्र- राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न को मैं आपके चरणों में अर्पित करता हूँ। मैं अपने आपको परिवार सहित अर्पित करता हूँ और मेरा अयोध्या का राज्य भी मैंने आपको दिया। आप स्वीकार करने की कृपा करें। आपने जो मुझे दिया है, उसकी जगह यह सब देकर भी मैंने आपका पूरा बदला नहीं चुकाया है….”

वशिष्ठजी बोलेः “ब्राह्मण क्या जाने राज्य करना ? राज्य तो क्षत्रिय ही करें और इन राम-लक्ष्मणादि को एवं तुमको तो हमने पहले से ही अपना मान रखा है। अतः मेरा ही समझकर राज्य करो लेकिन कर्त्तापने के बोझ से तुम निवृत्त हो जाया करो।”

कैसे हैं महाराज वशिष्ठ और कैसे हैं राजा दशरथ !

राज्य के द्वारा वशिष्ठजी के आश्रम की सेवा होती थी। अयोध्या में श्रीराम पधारें। समय पाकर अश्वमेध यज्ञ संपन्न होने जा रहा था। यज्ञ की पूर्णाहूति और श्रीराम का जन्मदिवस – दोनों एक साथ थे। उस दिन श्रीराम ने अपनी दोनों भुजाएँ उठाकर कहाः “आज के दिन कोई भी महर्षि इस सेवक राम को सेवा का अवसर दे और मुँहमांगा दान ले ले। अयोध्या का पूरा राज्य और कौस्तुभ मणि आदि अष्ट चीजें माँग ले, यहाँ तक कि सीता जी को माँग ले तो भी मैं देने को तैयार हूँ।”

यह सुनकर वशिष्ठजी महाराज उठ खड़े हुए और बोलेः “हे राम ! हम सीता जी को लेने के लिए तैयार हैं। आप सीता जी मुझे अर्पण कर दें।”

वशिष्ठजी महाराज के इन वचनों को सुनकर सभा में सन्नाटा छा गया। श्रीराम ने सेवकों को संकेत किया कि जाकर सीता जी से कहें कि सजधजकर तैयार होकर आ जायें।

कथा कहती है कि श्रीराम ने सीता जी को दान में देने का संकल्प कर दिया। सीता जी के आगमन पर वशिष्ठजी बोलेः “हे सीता ! बैठ जाओ मेरे पास।”

अयोध्या में हाहाकार मच गयाः ʹसेवक राम कितने महान् और उनके लोभी गुरु कैसे ? लगता है उनकी बुद्धि सठिया गयी है…ʹ

लेकिन श्रीराम के चित्त में कोई क्षोभ नहीं है और वशिष्ठजी को कोई परवाह नहीं है।

श्रीराम पुनः  बोलेः “गुरुदेव ! और कोई आज्ञा ?”

वशिष्ठजीः “राम ! तुमने दान तो दे दिया लेकिन अभी दक्षिणा देना बाकी है।”

श्रीरामः “गुरुदेव ! दक्षिणा में आप जो आज्ञा करें।”

वशिष्ठजीः “दक्षिणा के रूप में मुझे एक वचन दे दो, राम ! कि आज के बाद अयोध्या, सीता और कौस्तुभ मणि आदि अष्ट चीजें किसी को दान में देने की घोषणा नहीं करोगे।”

श्रीरामः “जैसी आपकी आज्ञा, गुरुवर !”

वशिष्ठजीः “राम ! तुमने सीता को तो मुझे अर्पित कर दिया है और दान में दी गयी चीज तुम वापस नहीं लोगे क्यों क्षत्रिय हो। अतः सीता जी को तौलकर, उसका आठ गुना सोना मुझे दे दो और मैं सीता तुम्हें वापस देता हूँ।”

श्रीरामजी ने आठ गुना सोना तौल कर दे दिया। वशिष्ठजी ने अपनी कन्यारूप सीता श्रीराम को पुनः अर्पित कर दी और उस संपत्ति से यज्ञ-यागादि किया।

वशिष्ठजी के लिए जिन्होंने हाहाकार मचाया, निन्दाएँ कीं वे न जाने किस नरक में पचते होंगे मुझे पता नहीं है लेकिन श्रीराम का शीश तो वशिष्ठजी के चरणों में अंत तक झुकता ही रहा। कैसी है श्रीराम की श्रद्धा और कैसी है वशिष्ठजी की वह उदार वृत्ति कि दक्षिणा के रूप में वचन लेकर शिष्य को बाँधकर रख दिया !

गुरु यदि कभी शिष्य को बाँधते भी हैं तो शिष्य को सारे बँधनों से छुड़ाने के लिए बाँधते हैं कि ʹले, यह गुरुमंत्र है और दस माला के वचन में तुझे बाँधता हूँ।ʹ यह बंधन तो है लेकिन गुरुदेव का बंधन है। सारे बंधनों से छुड़ाने के लिए बंधन है।

जब सारे बंधन छूट जाते हैं तब गुरु यह बंधन भी छुड़वा देते हैं। अऩ्य दर्शनों से छुड़ाने के लिए गुरुदेव कहते हैं कि ʹभाई ! भगवान और गुरु के नित्य दर्शन कर।ʹ लेकिन जब और दर्शनों का आकर्षण मिट गया तो गुरु कहते हैं कि ʹतू और मैं एक हैं। अब कहाँ दर्शन ? जहाँ बैठा है वहीं तू मैं एक हैं…ʹ

शिष्य ने अर्पित किया अपना-आपा तो गुरु भी कहाँ देर करते हैं ? वरन् वे तो नश्वर की जगह शाश्वत देकर, मिटने वाले की जगह अमिट देकर और अपूर्ण की जगर पर पूर्णता का बोध कराकर शिष्य को भी पूर्ण बना देते हैं। ऐसे ब्रह्मवेत्ता सदगुरुओं की तुलना किनसे की जाये ?

तस्य तुलना केन जायते ?

तभी तो कबीर जी ने कहा हैः

बलिहारी गुर आपणैं द्यौंहाड़ी के बार।

जिनि मानिष तैं देवता करत न लागी बार।।

ʹहर दिन कितनी बार न्यौछावर करूँ अपने-आपको सदगुरु पर जिन्होंने एक पल में ही मुझे मनुष्य से परम देवता बना दिया और तदाकार हो गया मैं।ʹ

हे मेरे गुरुवर ! हे करूणानिधान ! आपके श्रीचरणों में कोटि-कोटि प्रणाम…

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1997, पृष्ठ संख्या 3 से 11, 15 अंक 55

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