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Shastra Prasad

श्रीकृष्ण और सुदामा


 

कंस-वध के बाद श्री कृष्ण तथा बलराम गुरुकुल में निवास करने की इच्छा से काश्यपगोत्री सान्दीपनी मुनि के पास गये, जो अवन्तीपुर (उज्जैन) में रहते थे। दोनों भाई विधिपूर्वक गुरु जी के पास रहने लगे। उस समय वे बड़े ही सुसंयत ढंग से रहते व अपनी चेष्टाओं को सर्वथा नियंत्रित रखे हुए थे। गुरु जी तो उनका आदर करते ही थे, भगवान श्रीकृष्ण और बलराम भी गुरु जी की उत्तम सेवा कैसे करनी चाहिए, इसका आदर्श लोगों के सामने रखते हुए बड़ी भक्तिपूर्वक उनकी सेवा इष्टदेव के समान करने लगे।

गुरुवर सान्दीपनी उनकी शुद्धभाव से युक्त सेवा से बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने दोनों भाइयों को छहों अंग और उपनिषदों सहित सम्पूर्ण वेदों की शिक्षा दी। इनसे सिवा मंत्र और देवताओं के ज्ञान के साथ धनुर्वेद, मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्र, मीमांसा आदि वेदों का तात्पर्य बतलाने वाले शास्त्र, तर्कविद्या (न्यायशास्त्र) आदि की भी शिक्षा दी। साथ ही सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैध और आश्रय – इन छः भेदों से युक्त राजनीति का भी अध्ययन कराया। भगवान श्रीकृष्ण और बलराम सारी विद्याओं के प्रवर्तक हैं। उस समय वे केवल श्रेष्ठ मनुष्य का सा व्यवहार करते हुए अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने गुरु जी के केवल एक बार कहने मात्र से सारी विद्यायें सीख लीं। केवल चौंसठ दिन-रात में ही संयमशिरोमणि दोनों भाइयों ने चौंसठों कलाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया।
श्रीमद्भागवत के दसवें स्कंध के 80वें अध्याय में अपने सहपाठी सुदामा से गुरु महिमा का वर्णन करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं-
“ब्राह्मणशिरोमणे ! क्या आपको उस समय की बात याद है, जब दोनों एक साथ गुरुकुल में निवास करते थे। सचमुच, गुरुकुल में ही द्विजातियों को अपने ज्ञातव्य वस्तु का ज्ञान होता है, जिसके द्वारा वे अज्ञानान्धकार से पार हो जाते हैं।

मित्र ! इस संसार में शरीर का कारण जन्मदाता पिता प्रथम गुरु है। इसके बाद उपनयन संस्कार करके सत्कर्मों की शिक्षा देने वाला दूसरा गुरु है, वह मेरे ही समान पूज्य है। तदनन्तर ज्ञानोपदेश करके परमात्मा को प्राप्त कराने वाला गुरु तो मेरा स्वरूप ही है। वर्णाश्रमियों में जो लोग अपने गुरुदेव के उपदेशानुसार अनायास ही भव-सागर पार कर लेते हैं, वे अपने स्वार्थ और परमार्थ के सच्चे जानकार हैं।
प्रिय मित्र ! मैं सबका आत्मा हूँ, सबके हृदय में अन्तर्यामीरूप से विराजमान हूँ। मैं गृहस्थ के धर्म पंचमहायज्ञ आदि से, ब्रह्मचारी के धर्म उपनयन-वेदाध्ययन आदि से, वानप्रस्थी के धर्म तपस्या से सब ओर से उपरत हो जाना – इस संन्यासी के धर्म से भी उतना संतुष्ट नहीं होता, जितना गुरुदेव की सेवा-शुश्रुषा से संतुष्ट होता है।

ब्रह्मन् ! जिस समय हम लोग गुरुकुल में निवास कर रहे थे, उस समय की वह बात आपको याद है क्या, जब एक दिन हम दोनों को हमारी गुरुपत्नी ने ईंधन (लकड़ियाँ) लाने के लिए जंगल में भेजा था। उस समय हम लोग एक घोर जंगल में गये हुए थे और बिना ऋतु के ही बड़ा भयंकर आँधी-पानी आ गया था। आकाश में बिजली कड़कने लगी थी। जब सूर्यास्त हो गया, तब चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा फैल गया था। धरती पर इस प्रकार पानी-ही-पानी हो गया कि कहाँ गड्ढा है, कहाँ किनारा, इसका पता नहीं नहीं चलता था ! वह वर्षा क्या थी, एक छोटा-मोटा प्रलय ही था। आँधी के झटकों और वर्षा की बौछारों से हम दोनों को बड़ी पीड़ा हुई, दिशा का ज्ञान न रहा। हम दोनों अत्यन्त आतुर हो गये और एक दूसरे का हाथ पकड़कर जंगल में इधर-उधर भटकते रहे।

जब हमारे गुरुदेव सान्दीपनि मुनि को इस बात का पता चला, तब वे सूर्योदय होने पर हम दोनों को ढूँढते हुए जंगल में पहुँचे और उन्होंने देखा कि हम अत्यन्त आतुर हो रहे हैं। वे कहने लगेः ‘आश्चर्य है, आश्चर्य है ! पुत्रो ! तुम दोनों ने हमारे लिए अत्यन्त कष्ट उठाया। सभी प्राणियों को अपना शरीर सबसे अधिक प्रिय होता है परन्तु तुम दोनों ने उसकी भी परवाह न करके हमारी सेवा में ही संलग्न रहे। गुरु के ऋण से मुक्त होने के लिए सत्शिष्यों का इतना ही कर्तव्य है कि वे विशुद्ध-भाव से अपना सब कुछ और शरीर भी गुरुदेव की सेवा में समर्पित कर दें। द्विज-शिरोमणियों ! मैं तुम दोनों से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुम्हारे सारे मनोरथ, सारी अभिलाषाएँ पूर्ण हों और तुम दोनों ने मुझसे जो वेदाध्ययन किया है, वह तुम्हें सर्वदा कण्ठस्थ रहे तथा इस लोक और परलोक में कहीं भी निष्फल न हो।’

प्रिय मित्र ! जिस समय हम लोग गुरुकुल में निवास कर रहे थे, हमारे जीवन में ऐसी अनेकों घटनाएँ घटित हुई थीं। इसमें सन्देह नहीं कि गुरुदेव की कृपा से ही मनुष्य शांति का अधिकारी होता है और पूर्णता को प्राप्त करता है।”

भगवान शिवजी ने भी कहा हैः
धन्या माता पिता धन्यो गोत्रं धन्यं कुलोद्भवः।
धन्या च वसुधा देवि यत्र स्याद् गुरुभक्तता।।

‘जिसके अन्दर गुरुभक्ति हो उसकी माता धन्य है, उसका पिता धन्य है, उसका वंश धन्य है, उसके वंश में जन्म लेने वाले धन्य हैं, समग्र धरती माता धन्य है।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2002, पृष्ठ संख्या 5,6 अंक 115
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मोक्ष की इच्छा है अत्यंत दुर्लभ


 

मनुष्य शरीर कितना दुर्लभ है। मनुष्य होकर मुमुक्षु होना, यह दूसरी दुर्लभ वस्तु है। ‘अवधूत गीता’ के प्रारम्भ में एक श्लोक है और यह श्लोक ‘खंडनखंडखाद्य’ में भी है।1 इसमें कहा है कि ईश्वर के अनुग्रह से ही मनुष्य के मन में अद्वैत की वासना का उदय होता है। यह बड़े-बड़े भयों से बचाती है परंतु सृष्टि में किसी-किसी को होती है। यह अद्वैत वासना ही मोक्ष की इच्छा है।

इसी प्रकार गीता में भी कहा है कि हजारों मनुष्यों में कोई ही ईश्वरप्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है और उन हजार-हजार सिद्धों में भी किसी—किसी को ही तत्त्वज्ञान होता है।2

मुमुक्षा अर्थात् मोक्ष की इच्छा माने छूटने की इच्छा। जिन बंधनों में आप फँसे हैं उनसे छूटने की इच्छा का नाम मुमुक्षा हैः मोक्तुम इच्छा मुमुक्षा। यह मोक्ष की इच्छा जिस मनुष्य में रहती है उसका नाम है मुमुक्षु।

आप किन बंधनों में फँसे हैं ? असल में आप किसी भी बंधन में नहीं हैं। किसके साथ आपकी हड्डी जुड़ी है ? किसके साथ आपके हाथ-पाँव बँधे हुए हैं ? सारे बंधन मानसिक हैं। मन की ऐसी आदत पड़ गयी है कि यह कहीं न कहीं अपने को बाँध लेता है। बाह्य विषयों के साथ बंधन नहीं होता। यह मन विषय की कल्पना के बिना रहता ही नहीं है। इसलिए इसी मनःकल्पित विषय से मिलता-जुलता बाह्य विषय का जो स्वरूप है उस विषय से ही बंधन प्रतीत होता है।

विषय या संबंध भी कल्पित है और उसका बंधन भी कल्पित है। सम्पदा ने कभी आपको अपने साथ नहीं बाँधा, मन ने  आपको सम्पदा के साथ बाँधा है। सम्पदा तो अपने मालिक को पहचानती ही नहीं है। व्यक्तियों के साथ भी सारे संबंध मानसिक ही हैं।

विषय विकारों में सत्यत्व बुद्धि और सुख-बुद्धि उन-उन विषयों में राग-द्वेष और संबंध की कल्पना को जन्म देते हैं। उसी से बंधन होता है।

बंधन में जब सुख मानने लगते हैं, तब उससे छूटने की इच्छा ही समाप्त हो जाती है। असल में हम छोड़ना क्या चाहते हैं ? मकान, आदमी, धरती, रुपया-पैसा-जेवर-ये कुछ छोड़ना नहीं चाहते। हम तो इनसे प्राप्त होने वाले दुःख को छोड़ना चाहते हैं और सुख एवं सुखदायी को पकड़ना चाहते हैं।

इसलिए मुमुक्षा का प्रारम्भ वहाँ होता है, जहाँ निसर्ग से प्राप्त होने वाले सुख-दुःख का विवेक प्रारम्भ होता है। जहाँ-जहाँ और जो-जो दुःखरूप या दुःखदायी मालूम पड़ने लगेगा, उसकी अहंता-ममता छोड़ते जायेंगे और जहाँ-जहाँ तथा जो-जो सुखरूप या सुखदायी मालूम पड़ता जायेगा, उसको आप पकड़ने की चेष्टा करते जायेंगे। जो सुखरूप या सुखदायी भी प्रतीत होता है परंतु आने-जाने वाला है वह अनित्य सुख भी दुःखरूप हो जायेगा। अतः दुःख और अनित्यता से जब वैराग्य प्रारम्भ होता है तभी असली मुमुक्षा प्रारम्भ होती है।

पहले वस्तुओं और व्यक्तियों से, उनके संबंध से छूटने की इच्छा होती है, यह अपर वैराग्य की स्थिति में मुमुक्षा का स्वरूप है।

बाद में उस अंतःकरण से ही छूटने की इच्छा होती है जिससे ये सब इच्छाएँ होती है। यह शुद्ध वैराग्य की स्थिति में मुमुक्षा का स्वरूप है।

राग-द्वेष अंतःकरण में होते हैं। जिससे राग द्वेष की इच्छा होती है वह यदि कट जाय तो बंधन की आत्यंतिक निवृत्ति हो जाये ! योगवासिष्ठ में बृहस्पति जी ने अपने पुत्र ‘कच’ को उपदेश किया की परमानंद की प्राप्ति के लिए त्याग करो। कच एक बरस घूम आया फिर भी त्याग नहीं हुआ। तब उसने दंड-कमण्डलु फेंक दिया। ऐसे कई बार त्याग किया। अंत में कच बोलाः “इस शरीर को चिता में जला देंगे।”

बृहस्पति जी ने हाथ पकड़ाः “नहीं बेटा ! इसका नाम त्याग नहीं है। चित्तत्यागं विदुः सर्वत्यागम्।” अर्थात् जब चित्त का त्याग होगा तब सर्वत्याग होगा। चित्त का त्याग किये बिना कोई जीव मुक्त नहीं हो सकता। अतः चित्त-त्याग की इच्छा ही सच्ची मुमुक्षा है

चित्त के त्याग में ही ईश्वर का अनुभव है। अतः ईश्वर के अनुग्रह से ही मुमुक्षा चित्त में उदय होती है। जिसको ईश्वर आत्मसात् करना चाहता है उसी के हृदय में कृपा करके वह मुमुक्षा उदय करता है। इसलिए मुमुक्षा दुर्लभ है। धनभागी हैं वे मुमुक्षु ! उनके माता-पिता भी धन्य हैं ! धन्या माता पिता धन्यो…..

1.ईश्वरानुग्रहादेव पुंसामद्वैतवासना। महद्भयपरित्राणा विप्राणामुपजायते।। (अवधूत गीता 1.1)

2.मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये। यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।। (गीताः 7.3)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2016, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 282

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परहित के लिए विपत्ति मोल लेते हैं संत-महापुरुष


उस समय कोसल देश में सूर्यवंश के राजा ध्रवुसंधि का राज था। उनकी दो रानियाँ थीं – मनोरमा और लीलावती। मनोरमा का पुत्र सुदर्शन बड़ा भाई और लीलावती का पुत्र शत्रुजित छोटा भाई था। कुछ समय बाद राजा की असमय मृत्यु हो गयी। सुदर्शन के नाना कलिंग नरेश वीरसेन और शत्रुजित के नाना उज्जैन नरेश युधाजित अपने-अपने नाती को राजगद्दी पर बिठाना चाहते थे। दोनों में युद्ध हुआ। वीरसेन युद्ध में मारे गये। शत्रुजित का नाना युधाजित अपने नाती के राज्य को निष्कंटक बनाने के लिए सुदर्शन की हत्या करने वाला था। इसलिए महारानी मनोरमा अपने पुत्र को लेकर चुपके से भाग निकली। गंगातट पर आयी तो वहाँ के निषाद डकैतों ने उनका सारा धन माल, गहने छीन लिये। विपत्तियों-पर-विपत्तियाँ टूट रही थीं – पति मर गये, पिता युद्ध में मारे गये, राजपाट छिन गया….। अतः पुत्र को लेकर रानी किसी प्रकार गंगा पार करके भारद्वाज ऋषि के आश्रम में आयी। ऋषि ने उसे आश्रय दिया और कहाः “हे कल्याणि ! तुम यहाँ भयरहित होकर निवास करो।”

जब शत्रुजित के नाना को इस बात का पता चला तो वह सेना लेकर वहाँ आ धमका और ऋषि से बोलाः “हे सौम्य मुने ! आप हठ छोड़ दीजिए और मनोरमा को विदा कीजिए, इसे छोड़कर मैं नहीं जाऊँगा। (यदि आप नहीं मानेंगे तो) मैं इसे अभी बलपूर्वक ले जाऊँगा।”

राजा के ऐसे गर्वपूर्ण वचन सुनकर ऋषि बोलेः “जैसे प्राचीन काल में विश्वामित्र वसिष्ठ मुनि की गौ ले जाने के लिए उद्यत हुए थे, उसी प्रकार यदि आपमें शक्ति हो तो आज मेरे आश्रम से इसे बलपूर्वक ले जाइये!”

ऋषि के ऐसे निर्भीक उत्तर से राजा भयभीत हो गया। उसने अपने वृद्ध मंत्री से सलाह की। मंत्री ने कहाः “हे राजन ! ऐसा दुस्साहस नहीं करना चाहिए। तपस्वियों, ब्रह्मज्ञानी संतों का साथ किया जाने वाला संघर्ष निश्चित ही कुल का नाश करने वाला होता है। सुदर्शन को यहीं छोड़ दीजिये।” राजा लौट गया।

ऋषि के आश्रम में सुदर्शन ने प्रेम, अनुशासन, शिक्षा तथा सुसंस्कार पाये। 5 वर्ष की उम्र में बालक मंत्र को सबका सार समझकर कभी नहीं भूलता था। वह खेलते, सोते मन-ही-मन मंत्र जपता था। मुनि ने राजकुमार को वेद, धनुर्वेद, नीतिशास्त्र की शिक्षा दी। मंत्रजप तथा उपासना के प्रभाव से उसे दिव्य अस्त्र-शस्त्र प्राप्त हुए। इसके बाद सुदर्शन ने अयोध्या का राज्य पुनः प्राप्त कर लिया। युद्ध में शत्रुजित तथा युधाजित दोनों मारे गये। इस प्रकार जनता को एक सुयोग्य राजा मिला।

संत-महापुरुषों की कैसी करूणा होती है ! वे समाज की भलाई के लिए किसी की परवाह नहीं करते, दूसरों के मंगल के लिए बड़ी-से-बड़ी मुसीबतें भी अपने सिर लेने से नहीं झिझकते। शरणार्थी की योग्यता-अयोग्यता को न देखते हुए उसे अपना लेते हैं और अपना अनुभव, ज्ञान, तप और साधना का खजाना दे देते हैं।

जो संतों के प्रति सदभाव रखते हैं, उनके ज्ञान को अपने जीवन में उतारते हैं वे अपना कल्याण कर लेते हैं पर जो उनके प्रति दुर्भाव से निंदा करते-करवाते रहते हैं, उन्हें नानक जी ने चेताया हैः

संत का निंदकु महा हतिआरा1।।

संत का निंदकु परमेसुरि2 मारा।।

संत के दोखी3 की पुजै न आसा4।।

संत का दोखी उठि चलै निरासा।।

1 महाहत्यारा। 2 परमेश्वर 3 संत का निंदक 4. आशा।

संत कबीर जी ने भी सावधान किया हैः

कबिरा निंदक ना मिलो, पापी मिलो हजार।

एक निंदक के माथे पर, लाख पापिन को भार।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2016, पृष्ठ संख्या 11 अंक 281

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